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इमली की चटनी में गुड़ की मिठास - 9 - अंतिम भाग

भाग-9

बारिश के ही दिन थे। मैना अपने पति और सास ससुर के साथ आई हुई थी।अदरक की चाय और गरमा गरम पकोड़े चल रहे थे। शालिनी के सास-ससुर ने शालिनी को अपने पास बिठाया! बात सुलोचना जी ने शुरु की "तुम्हारे आने से पहले इस घर में अदरक की चाय कोई भी पीता था। तुमने घर में सबको अदरक की चाय की आदत लगा दी।"

शालिनी हंसी "अच्छा !अदरक की चाय बुरी है क्या? अच्छी चीज की आदत लगना तो अच्छी बात है!" और सब हंस पड़े।

"पर जब तुम चली जाओगी तब हमें चाय तुम्हारी बहुत याद दिलाएगी!" फिर उन्होंने कुछ उदासी से आगे कहा।

"चली जाऊंगी ?मैं कहां जा रही हूं? मैं कहीं नहीं जा रही!" शालिनी ने आश्चर्य से कहा।

"हम सोच रहे थे पहाड़ जैसा जीवन अकेले कैसे बिताओगी? तुम्हें वापस शादी कर लेनी चाहिए!" अब की बार ससुर जी बोले।

"शादी! दोबारा?" शालिनी एकदम से अचकचा गई।

"तुम नहीं करना चाहती हो?" मैना ने पास आकर उसकी आँखों में देखकर, कंधे पकड़कर पूछा!

"पर…." शालिनी ने नीचे देखते हुए कहा "मैं आप सब को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी! रवि के बाद ये घर मेरी ही जिम्मेदारी है!"

"तो चलो हम घर जमाई ढूंढ लेते हैं!आप कहीं मत जाओ!" मैना के पति ने ठहाका लगाया।

"मतलब?" शालिनी हतप्रभ सी, बुद्धू सी बनी हुई कुछ समझ नहीं पा रही थी ।सभी लोग उसकी हालत पर हँस रहे थे और वो उलझन में पड़ी हुई थी। "ये सब क्या पहेली है माँ?"

"कोई पहेली नहीं बेटा तुम्हारी शादी करेंगे लेकिन तुम कहीं नहीं जाओगी! हम ही इस घर का नया दामाद लेकर यहाँ रहने आ जाएंगे।" भीतर आते हुए अजनबी बुजुर्ग महिला ने शालिनी से कहा।

"अरे! आप!" वही सादगी और वही निश्छल मुस्कान! तस्वीर से निकल कर सामने आ गई थी।

शालिनी ने उनके चरण स्पर्श किए। तो उन्होंने ढेरों आशीर्वाद दिए। शालिनी के लिए अभी तक की बातें बड़ी पहेली बनी हुई थीं कि बुजुर्ग महिला के पीछे बुजुर्ग पुरुष और चंद्रेश को आता देख उसे सब समझ में आ गया। आश्चर्यमिश्रित खुशी और लज्जा से वो वहाँ ठहर न पाई और तेज़ी से अपने कमरे में चली गई।

 

सुलोचना जी को जब शालिनी और चन्द्रेश की भावनाओं का आभास हुआ था तो उन्होंने घर में इसका ज़िक्र किया। मैना और कँवर साहब की सहमति ली और फिर शालिनी की अनुपस्थिति में चन्द्रेश को बुलाकर उससे बात की। चन्द्रेश ने अपनी पहली शादी टूटने की पूरी बात उन्हें विस्तार से बताई और कहा कि माँ-बाबा को नहीं छोड़ेगा। सुलोचना जी शालिनी और किरण को नहीं छोड़ना चाहती थीं। तब कँवर साहब ने ही ये सुझाव रखा कि इतने बड़े घर में सब मिलकर क्यों नहीं रह लेते!

चन्द्रेश के माँ-बाबा से पूछा गया। अकेले रहने वाले बुज़ुर्ग दम्पत्ति को कोई आपत्ति न थी। बेटे का घर फिर से बस जाए इससे बड़ी खुशी उनके लिए कुछ न थी। फिर भी वो लोग(शालिनी के सास-ससुर) उन्हें अपने साथ शहर में रहने का वादा करवा कर ही माने।

बड़ा सा घर अब मेहमानों से नहीं अपनों से भरने वाला था....

शालिनी तो जैसे हतप्रभ सी किस्मत की इस नयी बाज़ी को समझने की कोशिश ही कर रही थी। सूरज से झुलसे को चाँद की शीतलता मिलना क्या संभव था!!

अपने कमरे में बैठी सोच ही रही थी कि ये सब सच है या सपना? तभी दरवाज़े पर आहट हुई "अंदर आ सकता हूं ना?" चन्द्रेश के लहज़े में शरारत सा कुछ महसूस हुआ। हड़बड़ाहट में खड़ी हो कर बालों को खींच कर जूड़ा बांधने का प्रयास करते हुए कुर्सी की ओर इशारा किया। मगर चन्द्रेश आकर उसके सामने खड़ा हो गया कल्चर हाथ से लेकर कुर्सी पर रख दिया और बालों को खुल जाने दिया। कुछ हतप्रभ और कुछ मंत्रमुग्ध सी वो अपलक चन्द्रेश को निहारती, हाथ ऊपर किए ही खड़ी रह गई। पहली बार चन्द्रेश ने उसे छुआ...कमर से पकड़ कर घुमा दिया। अब चन्द्रेश उसकी पीठ की तरफ था। कमर पर हाथ लपेटे उसे अपने करीब खींचकर सीने से लगा लिया और उसके बालों में मुंह छुपा कर फुसफुसाया "शादी करोगी ना मुझसे?"

चन्द्रेश का स्पर्श और सांसों की गर्माहट उसे पिघलाने लगी… खुद को निढाल छोड़कर उसने चन्द्रेश के हाथ पर अपने हाथ रखे ही थे कि गरदन पर दो नरम और गरम होठों के स्पर्श महसूस हुए…

शालिनी ने अपना सिर पीछे चन्द्रेश के कंधे पर टिका दिया।

"कुछ बोलो भी! ये रिश्ता मंज़ूर है ना!" गरदन पर मोहरें लगाई जा रही थीं

"अगर ना कहूं तो?" सांसों पर काबू पाने की असफल कोशिश जारी थी

"कह कर देखो" और चन्द्रेश ने कमर पर पकड़ ढीली कर दी।

बाहों के घेरे में ही घूम कर उसने चन्द्रेश की ओर मुंह कर लिया।

दो जोड़ी आँखों में शरारत भरी खुशी मुस्करा रही थी।

चन्द्रेश झुका और माथे से माथा टिका दिया फिर नाक से नाक की नोक झोंक हुई और फिर लरजते होंठों को चूम लिया गया…

"जब तक जवाब नहीं दोगी छोड़ूंगा नहीं…"

"फिर तो उम्र भर जवाब नहीं मिलेगा…"

"अच्छा!"

….

"बाहर सब तुम्हारे जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं शालू"

"शालू... फिर से कहो... फिर से कहो ना एक बार…शालू..."

"शालू...मेरी शालू…" मेरी शब्द पर इस तरह से ज़ोर दिया गया कि उस ने तड़पकर चन्द्रेश को कसकर गले लगा लिया

"सबको कह दो मेरी हाँ है...हाँ है...हाँ है…"

धूप से झुलसे तन-मन पर शीतल चाँदनी की फुहारें पड़ रही थीं…लड़कपन में देखे सपने पूरे होने की उम्मीद जाग रही थी... सपनों का हीरो बदल रहा था!

शालिनी इन चिर प्रतीक्षित पलों को जीने लगी..... पहली बार!

उसने महसूस किया कि जीवन जैसे इमली की चटनी सा हुआ जा रहा था...एक दम खट्टा और तीखा!उसमें चन्द्रेश का आना जैसे ढेर सारा गुड़… अब सब मीठा ही मीठा!

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शिवानी जयपुर

07/10/2820

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