कहानी--
गुंजाईश नहीं
आर.एन. सुनगरया,
पदस्थापना के बाद जब अपनी स्थापना के बारे में चारों और नज़र दौड़ाई तो कहीं, किसी से कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं दे रही थी। नितांत नई जगह, नये लोग अपेक्षाकृत बिलकुल नया परिवेश, तथा अपेक्षाकृत बिलकुल नया परिवेश, नया रहन-सहन, नया खन-पान, हर तरफ अन्जान माहौल। ना कोई कुटुम्ब कबीले का, ना जाति-पांति का, ना कोई मोहल्ले-बस्ती का और ना ही कोई अपने शहर का। ऊपर से आर्थिक विपन्नता। क्या करें- क्या ना करें, दूर-दूर तक कहीं कोई आशाजनक स्थिति नहीं। फिर भी कार्यालय के सहकर्मियों का साथ तो था।
नव-नियुक्त साथियों के साथ आश्रम में लेटा ही था कि कल्पना की डोर ने आकाश मार्ग से क्षण भर में जाने-पहचाने दृश्य का दर्शन करा दिया........
.......बच्चे, पत्नी, पिता और भाई इत्यादि दृश्य के सारे पात्र खामोश, निराश, कनखियों से एक-दूसरे को घूर लेते, ऑंखों में परस्पर आक्रोश प्रतीत हो रहा था। ऐसा लगता है। कोई मसला है, समस्या जरूर है, जिसका हल, समाधान कोई नहीं निकाल पा रहा है।
‘’कोई खजाना थोड़े ही छोड़कर गया है।‘’ असम्मान जनक स्वर भाई का था, ‘’जो उसके पिल्लों को दूध-दही लाकर दे दें।‘’
पिताजी ने अंग्गार नज़र से उसे देखा। तब तक वह नजरें चुराकर मगरूरता में मटकता, मदमस्त, मक्कार की तरह पैर पटकता चल दिया।
चित्रवत् दृश्य एकाएक प्रफुल्लित ध्वनी से जीवित हो उठा। बड़ा बच्चा बदहवास दौड़ पड़ा, ‘’राज अंकल....आये, राज अंकल....आये...’’ वह लगभग हॉंफता हुआ। राज के कदमों से लिपट गया एवं मुण्डी उठाकर उसे आशा भरी असीम आत्मीय ऑंखों से देखने लगा।
राज ने उसे, स्नेह पूर्वक गोद में उठाकर गले लगा लिया। उससे प्यार भरी निश्च्छल बातें करते हुये आगे बड़ा, सामान्य शिष्टाचार पूर्वक अभिवादन करने, पिताजी को बच्चे का दूघ एवं अन्य आवश्यक रोजमर्रा की सामग्री सोंपने लगा। उन्हें ढॉंढ़स बंधाते हुये बच्चे से बातें करने लगा।
....दूसरे ही पल मैं उठ बैठा, हो गया। किसी सहकर्मी के यहॉं ‘’खाने के लिये चलना है।‘’ कहकर जगा दिया। साथी ने।
प्रत्येक अंचल की अपनी मूलभूत पारम्परिक जीवन शैली रहती है, जिसमें खान-पान भी शामिल है। जलवायु के अनुसार एवं फसल पैदावार के आधार पर, सर्वस्वीकृत खाद्य-पदार्थ ही सर्वसाधारण को उपलब्ध रहते हैं। अन्य प्राप्तों या अंचलों के रोजी-रोजगार के लिये लोगों को यहॉं के वातावरण में समाहित होने में शुरूआती कठिनाईयों को तो झेलना होगा। ऐसे ही दौर से गुजरते हम अपने आपको ढालते हुये घर-गृहस्थी जमाने हेतु संघर्ष करते-करते अपनी स्वभाविक समस्याओं को हल करने में जुट गये।
कम्पनी ने छात्रावासनुमा आवास तो उपलब्ध करवा दिया था; लेकिन पारिवारिक आवास सुविधा तो अपने ही जिम्मे की, जिसे ढूँढ़ने में ऐड़ी-चोंटी का जोर लग गया। मुख्य कारण आर्थिक ही था। एक-एक या दो-दो साल का भाड़ा अग्रिम जमा करने का रिवाज था। जो फिलहाल टेड़ी खीर लग रहा था, घर-परिवार से आये दिन दवाब आ रहा है, पैसा भेजो।
अन्य दावेदारों को, मानो भूल भी जाऊँ मगर दो छोटे-छोटे बच्चे व बीबी को, तो मेरा ही सहारा है। अपनी अनेक आर्थिक आवश्यक मजबूरियों के बावजूद आधे से अधिक वेतन को भेजना ही नियति बन गया। शेष राशि में जो जमना है जमाओ, किसी को कोई वास्ता नहीं। ास्ता ं बी को, तो मेरे ही ही ghaहींहीहीं ह
ना चाहते हुये भी बीबी-बच्चों की आड़ में खून के रिश्तों को पालता रहा। आस्तीन में छुपे सॉंपों को दूध पिलाना मेरी मजबूरी बन गई।
मेरी असहाय स्थिति को भांप कर उन्होंने अपने-आपको और मगरूर, क्रूर, कठोर और स्वजीवी बनकर परिस्थितिजन्य प्राप्त सुविधाओं को अपने अमित्यव्ययी व्यवहार की भेंट चढ़ाने लगे। जरा सी भी देरदार हो, तो ऑंखें दिखकर, अपशब्दों का उपयोग करके, कड़ा विरोध करने में देर नहीं करते। मैं चारों तरफ से जकड़ा हुआ, सम्मोहित की तरह उनके फिजूलखर्चों को पूरा करता रहा। ऊफ! किये वगैर।
* * *
षड़यंत्रकारी अपने दाव-पेंच से, डरा-धमकाकर, दुष्परिणामों की ऑंच दिखा कर अपने शिकार के इर्द-गिर्द जाल बुनता है तथा अपनी स्वार्थ-सिद्धी सुनिश्चित कर लेता है। इसी के आधार पर अपनी मनोवांछित सुविधाओं का उपभोग करता रहता है। परन्तु जैसे ही उसे अपना वर्चस्व डगमगाता प्रतीत होता है, तो वह पुन: पैंतरेबाजी में सक्रिय होने लगता है, तथा अपनी विसात बिछाना प्रारम्भ कर देता है।
अभी ठीक से मैं बाल-बच्चों से बोल-बतरा भी नहीं पाया हूँ कि भार्इ ने तोप दाग दी, ‘’मॉं-बाप का कुछ-पक्का इन्तजाम करके जाना।‘’ मेरी और आक्रमक होकर, ‘’मेरा कोई ठिकाना नहीं।‘’
मैं अभी क्रोध में तिलमिला ही रहा हूँ। कुछ बोल पाता कि पिताजी ने उसके पक्ष में दलील दी, ‘’तुम ही बडे़ हो, नौकरी कर रहे हो।‘’ मेरी और से नजरें चुराकर पिताजी बोलते ही चले गये, ‘’छोटे की तो अभी नौकरी-साकरी, काम-धंधा कुछ है नहीं। मुझसे अब दुकान पर कुछ काम होता नहीं।‘’ काफी निराशाजनक आवाज में पिताजी बोलते ही रहे, ‘’दुकान का भी मुकदमा लम्बित है। ना जाने कब छोड़ना पड़े।‘’
बोलना तो बहुत कुछ चाहता था, मगर मैंने मेहसूस किया कि इन्होंने मेरी गर्दन रेतना शुरू कर दिया है। चारों दिशा में हाथ पैर बंधे हैं हिलने-डुलने की कोई गुंजाइश नहीं बची है।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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