गमछे की आत्मकथा (व्यंग्य)
हाँ तो साहब मैं गमछा हुँ । वही गमछा जो कभी आपके कटिप्रदेश की तो कभी उत्तर प्रदेश की शोभा बढाता हुँ । गमछा याने पटुका और आधुनिक लोगों का स्टाल भी मै ही हुँ । रुमाल मेरा छोटा भाई है वो केवल उस समय ही आप की लाज बचा पाता है जब आपकी नाक से कुछ बाहर आने का प्रयास कर रहा होता है । हम चूंकि बड़े भाई है इसलिए रुमाल के द्वारा किये जाने वाले कार्यों के अलावा भी आपकी दैनिक जिंदगी में आपके साथ होते है । वैसे हमारा परिवार बहुत बड़ा है । दस्तार और पगड़ी के साथ ही साथ कफन भी हमारे परिवार के सदस्य है । धोती और साड़ी हमारे परिवार में सबसे बड़ी बहनें है । उपयोग की दृष्टि से देखा जाए तो आप अपने घर में अधोवस्त्र में हों और कोई आ जाए तो आप तुरन्त ही हमारी शरण में आ जाते है । चिलचिलाती धूप में खोपड़ी बचानी हो तो आप का हमसे अच्छा साथी और कौन हो सकता है । साहब आज कल लोग अच्छे कामों से अधिक गलत काम करते है इसलिए उन्हें मॅुह भी छुपाना होता है बस ऐसे लोग दिन हो या रात मुझे अपने मुॅह लपेटे हुए आप को यहाॅ-वहाॅ दिख जाऐंगे ।
अब आप सोचने लगे होगे कि आत्मकथा तो महान लोगों की होती है अब इस फटीचर गमछे की आत्मकथा में क्या रखा है । आपको बता दें आज - कल हमारी बहार है । बड़े -बड़ों का रुतबा हमसे ही जुडा होता है । अनेंक महान लोगों की मूर्ति या तस्वीर बिना हमारे अधूरी लगती है । हम अनेंक रंगों और डिजाईनों में पाए जाते है । आप मुझे अपनी प्रकृति के अनुसार ही चुनते है । मुझे बांधनें या कंधे पर लटकाने का तरीका भी सबका अपना और विशेष होता है । कुछ लोग हमें हमेंशा ही अपनी खोपड़ी के आस - पास लपेटे रहते है तो कुछ पूरा सर ढ़ांकते है । कुछ कंधे पर सलीकेदार तहों के साथ लटका कर रखते है तो कुछ मुझे गले में टाई के पर्याय के रुप में बांधे फिरते है । इन सब से मैं उनके व्यक्तित्व की एक झलक आपको अवश्य ही देता हुँ ।
पहले मैं पुरुषों में सफेद और महिलाओं में रंग-बिरंगे रुप में प्रचलित था । पिछले कुछ समय से आप हमारे रंग के आधार पर ही मुझे धारण करने वाले के राजनैतिक और सामाजिक झुकाव के विषय में जान सकते है । पिछले कुछ समय से मेरे सफेद रुप का स्थान केसरिया ने ले लिया है । अब केसरिया धारण किये युवक पान ठेलों पर ,राह- चैराहों पर और शराब के ठेकों पर दिखाई दे जाऐंगे । मेरे केसरिया रुप के प्रचलन से अब हरे और नीले रुपों में भी मेरा प्रचलन बढ़ने लगा है । अब मुझे विषेष अवसरों के लिए बनवाया जाने लगा है । अब हम पर नेताओं की फोटो , चिन्ह और नारों को छाप कर भी बाॅटा जाने लगा है । अब स्थिति ऐसी है कि यदि एक ही स्थान पर दो रंग के गमछे वालों की भीड़ जमा होने लगे और आप शरीफ आदमी हो तो समझ लेना चाहिए कि कोई लफड़ा होने वाला है , आप अपनी जान की सलामती चाहते है तो तुरन्त ही वहाॅं से खिसक लें ।
मैं इन रंगों के झमेले में कब फसा यह तो मुझे भी ज्ञात नहीं लेकिन मेरा राजनीतिकरण अवश्य हो गया है । मैं तो सीधा-सादा एक-ड़ेढ मीटर का कपड़ा मात्र हुॅं लेकिन रंगों के चक्कर में गर्व और घमंड़ का प्रतीक बन गया हुॅं । कुछ लोग कुछ खास रंग में मुझे धारण करके अपने आप को पुलिस और प्रशासन से ऊपर समझनें लगे है । यही कारण है कि यदि आज-कल कुछ लोग खास रंग के गमछों में शहर में निकलते है तो आम आदमी सोचने लगता है कि आज किसी की सामत आई है । इन परिस्थितियों में मेरा धारण करना उग्रता का पर्याय होता जा रहा है और राजनैतिक रसूख का भी । इन स्थितियों का लाभ वे लोग ले रहे है जो जेबकतरे, चोर और लुटेरे है , जिनका किसी भी रंग विशेष की ओर कोई झुकाव नहीं है ,वे अपनी वारदातों के समय विशेष रंग के गमछों का प्रयोग करने लगे है । पुलिस थानों में भी मेरे रंग के आधार पर ही यह निर्णय होता है कि कार्यवाही होगी या नहीं ।
मैं सोचता था कि मैं एक सदभावना की मिसाल हुँ । हर धर्म या जाति के व्यक्ति के सर या कंधों पर इठलाता हुँ । समय के साथ-साथ मेरा यह गुमान भी जाता रहा । मुझे सबसे अधिक गर्व उस समय होता है जब मैं किसी किसान के सर पर मुकुट की तरह सजा होता हुॅ । वो मुझे सर पर बांधता है ,पसीना पोछता है और जरुरत के अनुसार लपेटता और बिछाता भी है । मैं गंदा और गंदा होता जाता हुॅ लेकिन खुश रहता हुॅ । अब तो मैं वो झंड़ा हो गया हुॅ जो हर व्यक्ति अपने शरीर पर लहरा कर यह बताता है कि वो किस खास सांप्रदाय या विचारधारा का है । अब मुझे पहन कर उन्हें भले ही गर्व होता हो मगर मुझे तो स्वयं पर बहुत ही शर्म आती है ।
आलोक मिश्रा