सीताराम साबिर : सूफियाना शायर राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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सीताराम साबिर : सूफियाना शायर

सीताराम साबिर : सूफियाना प्रकृति के शायर

राजनारायण बोहरे

साहित्य सर्जन को अपना ईमान धर्म समझने वाले शायरों में दतिया के सीता राम कटारिया साबिर का उल्लेख बड़े फख्र के साथ होता है |उनके पास निरर्थक दुखों से जुड़ी रचनाएं नहीं, ना ही निर्देश से लिखी काव्य पंक्तियां हैं | वे दिखने में जितने साधारण , लिखने में उतनी ही असाधारण थे| दतिया के ताजियों में जिस श्रद्धा के साथ मैंने उन्हें रेवड़ी चढ़ाते देखा, उसी गंभीरता के साथ नवरात्रि में मंदिर के आगे सिर झुकाते | उनके अनुसार खुदा बटा हुआ नहीं है एक ही है| शायद ऐसे ही किनी क्षणों में उन्होंने समाज को अलग-अलग मजहब के नजरिए से देखने वालों को कहा होगा –

पहले धूप हवा को बांटो

इसके बाद खुदा को बांटो

दतिया के सरे बाजार हाथ में कोई नन्हीं सी डायरी या छतर वे आपको खरामा खरामा टहलते कहीं भी मिल सकते हैं | सकता है खड़े हुए भी मिल जाए ,अपने आप में समाए और शायद भीतर ही भीतर किसी गजल के महीन तार बुनते हुए| एक अजब सी मस्ती में अपना दिन दतिया की गलियों बाजारों और महत्वपूर्ण जगहों पर गुजरते देखा है मैंने |

पर जिन दिनों कस्बे में कभी गोष्ठी या मुशायरे खुशियों की बहार होती सीताराम साबिर हरगिज़ हरगिज़ नहीं दिखते, न जाने कहां छुप जाते| लाख ढूंढने पर भी लाख कोशिशें करने पर भी मंच पर जाना उन्हें मंजूर न था |आधी से अधिक उम्र तक मंचों की शान रहने के बाद यह आलम बड़े ताज्जुब की बात थी| कोई बहुत अजीज या वे जिसे अजीज समझें जब पीछे पड़ जाए तो कभी गोष्ठी या मुशायरे में जाते और बमुश्किल एक या दो रचनाएं सुनाकर अंतर्ध्यान हो जाते| कभी-कभी तो कार्यक्रम में पहुंचने के बाद भी आयोजक की नजर में आने के बाद नमस्ते करके भी गायब हो जाते|

शायरी सुनाने का उनका मिजाज उनका अंदाज कुछ और था| शायर और कवि को वे बहुत ऊंचा समझते थे और उसके सम्मान की बात ही करते थे –

शायर का एहतराम करो तो ग़ज़ल कहूं

जज्बात को सलाम करो तो ग़ज़ल कहूं

उर्दू में नए प्रयोग करने वाले नई उपमा, नई शैली अपनाने वाले शायरों में साबिर जी को सम्मान के साथ शामिल किया जाता है| बे हवा जैसी निराकार सत्ता को साकार रूप दे देते हैं और हवा को साजिश में शामिल भी बता देते हैं वातावरण के साथ साजिश हवा का एक रूप अंकन देखिए –

परिंदे अब कहां खुद को बचाएं

चली हैं कैचिया लेकर हवाएं

देश के बिगड़ते हालात पृथकतावादी ताकतों और अखंडता के दुश्मनों की हरकतों से नाराज साबिर जी की जावे जी कह डालते हैं

देश में छाए हैं सत्ता के लुटेरे देश के

जाने कितने और टुकड़े होंगे मेरे देश के

इस शरारत ,उस साजिश की गहराई उन्हें पता है |तभी वे पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं –

चमन में फिर कहां कीजिए मुतअवर पैदा ! जब अपने चार दितन के ही करें वक ए सर पैदा !!

इन चार दितनको को बे छोटी मछली मानते हैं और समस्या के निदान के लिए वे छोटी मछली नहीं मगरमच्छ को घेरने के हम ही हैं | वे लिखते हैं –

गरीब मछलियां होती रही शिकार सदा

किसी ने जालना फेंका कभी मगर के लिए

साबिर जी भले ही सब्र का समंदर हो लेकिन जुबान खामोश नहीं रहती उनकी |बे कहते रहे हैं नितांत सच और खरी-खरी |अमृत अर्थात आबे हयात कोबेक सिर्फ कल्पना मानते हैं और जहर को सच्चाई, बे फरमाते हैं -

लाखों के गले काटते देखा है जहर को

आबे हयात तेरा फकत नाम सुना है

सरकारी योजनाओं के शुरू होने के पहले उसे हथिया लेने वालों के नाम भी कहते हैं कि

तीर कितने बज गए खूनी कमानो में

परिंदे उड़कर पहुंचे भी नहीं थे आसमानों में

यह शेर केवल योजनाओं पर नहीं ,बल्कि समाज में नए उगते नए विकसित होते परिंदों को शिकार करने को तैयार बैठे समाज के दुश्मन लंपट और दुष्ट लोगों पर भी एक गहरा कमेंट है| तो दिल और जुबान की सच्चाई को एकरस एक साथ करती शायरी के शायर हैं साबिर जी |जिनकी संगत में खौफ नहीं इत्मीनान का एहसास होता है| शायर ए आजम सीताराम साबिर की शायरी में जो सधुकड़ी अकड़पन हैं ,वही शांत और सौम्य व्यक्तित्व की परतों के नीचे उनके स्वभाव में भी रहा| ऐसे इंसानियत के रहे पैरों का और साफगोई के हामी सच्चे राष्ट्रवादी कद्दावर साहिल को सौ सौ सलाम |

सूफियाना तबीयत के इस अलमस्त शायर का जन्म तारपुरा दतिया के एक कृषक शेन कटारिया परिवार में हुआ| वे 1 अक्टूबर 1929 को जन्मे लेकिन स्कूल में एडमिशन के समय गलती से उनके प्रमाण पत्रों में जन्मतिथि का वर्ष 1935 लिखा हो गया |साबिर जी के पिता भगवानदास माता श्रीमती तखत वाई थी |शायर मिजाज सीताराम साबिर का विवाह श्रीमती मिथिला देवी से हुआ | उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में अध्यापक प्रधान अध्यापक रहीं |संभवत दोनों के स्वभाव और पसंद की अलग अलग थी |पत्नी बाहर रहती थी तो घर उन्हें अच्छा नहीं लगता था |पत्नी हीन घर के लिए उन्होंने लिखा –

किसी शेर के मुंह से खुला हुआ यह डर लगता है

अब तो अपने आवास में जाते हुए भी डर लगता है

स्वनाम धन्य साबिर जी के दो पुत्र हरिमोहन और मनोज हैं तथा उनकी तीन पुत्रियां भी हैं |तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुसार इंटरमीडिएट तक औपचारिक शिक्षा और उर्दू में आलिम तक तालीम प्राप्त कर उन्होंने बेसिक ट्रेनिंग का डिप्लोमा लिया और 1951 में शिक्षक हो गए |उन्होंने अपना शायरी का सफर इसके पहले 1949 से आरंभ कर दिया था| जनाब साबिर उर्दू के साथ-साथ अरबी फारसी और अंग्रेजी में भी रचनाएं लिखते थे |वे युवावस्था में ही संभाग के आला दर्जे के शहरों में गिने जाने लगे थे |क्रमश: बजमें अदब तथा बजमें सुख न के सचिव रहे| उन्होंने सभी विधाओं में रचना का संसार लिखा |दुष्यंत के हिंदी गजल आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने हिंदी गजल को दतिया और ग्वालियर में खड़ा करने में भरपूर योगदान दिया|

यूं तो शायरी में उनका कोई उस्ताद नहीं रहा , फिर भी कह सकते हैं कि हकीम रुस्तम अली खान उनके भाषाई उस्ताद थे |जनाब रुस्तम अली खान दतिया स्टेट पुलिस में दीवान रहे थे और दतिया राज्य के शुप्रसिद्ध हकीम खानदान से ताल्लुक रखते थे |वे ईरान से आकर दतिया में बस गए थे| ततसमय जनाब रुस्तम अली हकीम साहब की हवेली आग़ा अली साहब की हवेली में निवास करते थे और उस हवेली के ठीक सामने जनाब साबिर साहब का आवास था, जिसका उन्हें भरपूर फायदा मिला | रुस्तम अली उर्दू फारसी अरबी के अच्छे ज्ञाता थे, उन्हीं से साबिर साहब ने इन भाषाओं की तालीम लेकर महारत हासिल की थी|

सीताराम साबिर की अंग्रेजी रचनाओं का विदेशी पत्रिकाओं में भी प्रकाशन हुआ| समय-समय पर प्रकाशित विभिन्न स्थानीय संभागीय राष्ट्रीय पत्र पत्रिका और संकलन में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही ,परंतु आर्थिक पारिवारिक कारणों से अपना कोई निजी संकलन प्रकाशित नहीं करा सके| वैसे तो बहुत शिकायत साबिर साहब के उन खुदगर्ज और मक्कार षागरदो से भी है जो साबिर की रचनाओं को अपने नाम से सुनाते हैं, मगर अपने उस्ताद का नाम भी नहीं लेते|

29 सितंबर 2013 के दिन सर्वधर्म समभाव और सच्चे राष्ट्रवाद के पैरोकार इंसानियत के खुदाई शाहकार राम साबिर ने अपना दुनियावी सफ़र समाप्त किया |वे दतिया तथा अपने सभी चाहने वालों के दिलों में हमेशा जीवित रहेंगे एक छोटे से कस्बे में आला दर्जे का सोच, राष्ट्रीय स्तर की कविताएं और अंग्रेजी तक में साहित्य रचने वाली सीताराम साबिर ऐसे सूर्य रहे जिन्हें सही गगन नहीं मिला ,अन्यथा साहित्य का यह सूर्य अगर अपने सही स्थान पर पहुंचा तो उसकी रोशनी गगन तक फैलती और उसे वह सम्मान प्राप्त होता जिसके लायक सीताराम साबिर कटारिया थे |कटारिया जी को सौ सौ सलाम|