कविता कोश
'मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है'
मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,
फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं
अपनी मोहब्बत से इंकार है।
न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर ।
जिंदगी दी थी जिन्होंने,
उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।
मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।
जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत
नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।
दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,
चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।
तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,
खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।
अब बहुत निभा ली कसमें वादे,
बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।
माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,
पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।
जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,
तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।
इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,
हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।
और इक दिवानगी ये कैसी कि
कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।
आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,
मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।
बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,
कुछ आदत सदा रही है पुरानी।
अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि
'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'
( मेरी पुरुस्कृत व सम्मानित रचना)
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'किसको जिम्मेदार कहोगे'
कल भी औरों को दोष देते थे,
आज भी दोष मढ़ोगे।
यथार्थ को जो बूझोगे,
किसको जिम्मेदार कहोगे?
क्या वक्त को जिम्मेदार कहोगे?
प्रतिदिन प्रयास करना है,
नित आगे ही बढ़ना है।
भूमि से हैं जुड़े, मेहनत करना है।
माना वक्त कठिन है सबके लिए
इससे नहीं डरना है।
अंतर्मन के द्वंद्व से स्वयं ही,
हमें उभरना है।
जो कभी आत्मचिंतन करोगे,
फिर किसे, कैसे और
किसको जिम्मेदार कहोगे?
मानवता के परीक्षा की है घड़ी
बेरोजगारी,गरीबी और
प्राकृतिक आपदा संग,
मानव की जंग है छिड़ी।
विजय- पराजय से हो भयभीत
किस पक्ष में खड़े रहोगे?
किसको जिम्मेदार कहोगे?
आज समय आया है देखो
खुद के हुनर को संवारने का
गुजरते इस दौर को,
इक अवसर में बदलने का।
मिल कर हाथ बढ़ा तू साथी
दोष-प्रदोष का खेल समाप्त कर,
एक जुट हो अग्रसर होना है,
गंभीरता से इस पर विचार कर।
'कोरोना' ने रचा चक्रव्यूह है ऐसा
शायद यह मानव कुछ समझेगा।
स्वयं से विचार जो करोगे,
फिर किसको जिम्मेदार कहोगे?
क्या वक्त को जिम्मेदार कहोगे?
(मेरी पुरस्कृत व सम्मानित रचना)
... अर्चना सिंह जया
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कविता मैं अदृश्य
मैं अदृश्य
मुझे देखा नहीं,
मुझे छुआ नहीं,
नायक बन बैठा मैं।
नायक नहीं खलनायक,
ऐसा कहने लगे हैं हमें।
नामकरण भी कर दिया,
'कोरोना' पुकारने लगे सभी।
खुद का गिरेबान झांका नहीं,
क्यों द्वेष,छल कपट, नफरत
हिय में छुपा रखा है तूने ?
इसे मिटाने और तुम्हें सिखाने,
का लिया संकल्प है मैंने।
बहरूपिया बन आता रहूंगा,
संहार करने को यहां।
बुद्धि हीन देख भावना,
हृदय काठ का है हुआ।
इंसानों व रिश्तों से परहेज़
करते देखा फिर जब,
अदृश्य बन अवतरित हुआ,
सिखाने को नया सबब।
मानव ईश की सुंदर रचना
पर कद्र न तुझ से हुआ।
नारी का तिरस्कार किया,
बहन बेटी का बालात्कार ।
कहां गई इंसानियत तेरी,
धरा बिलखने कराहने लगी ।
भाई-भाई में प्रेम नहीं,
मां का अनादर भी किया।
मैं अदृश्य नायक था तेरा
खलनायक बनने को देखो,
वर्षों बाद विवश मैं हुआ।
बुद्धि विवेक भ्रष्ट हुई तेरी,
विष कब से मैं हूं पी रहा।
अपराधबोध तुझे कराने,
विकराल रूप धारण है किया।
जीवन अनमोल है पर
कभी विचार तक नहीं किया।
आत्मावलोकन करने का
विचार मन में क्यों आया नहीं?
दूरियां बढ़ती ही जा रहीं,
घाव दिलों के यहां भरते नहीं।
जो मैंने एहसास ज़रा कराया,
अदृश्य शक्ति मैं हूं कहीं।
विवश हो बिलख रही दुनिया,
फिर भी अहम छोड़ा नहीं।
टूटने को हुआ तत्पर,
झुकने को अब भी तैयार नहीं।
नायक से खलनायक का,
सफ़र है मंजिल नहीं।
...... अर्चना सिंह जया
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कविता खुद की खुशी
मायानगरी है ये दुनिया ही
नकाब पहना है सबने यहां।
उम्दा कलाकार हैं हमसभी
सच से चुराकर आंखें देखो,
कृत्रिम जीवनशैली को
समझ बैठे हैं वास्तविक जहां।
यथार्थ से होकर दूर हम,
भटक गई हैं राहें जहां।
औरों की झूठी तसल्ली के लिए
खुद को गिरवी रखते हैं सभी।
मकान बहुत ही सुन्दर है,
ऐसा सभी कहते हैं यहां।
दीवारों पर लगी पेंटिंग,
रंग बिरंगी टंगी तस्वीरें
खूबसूरती को हैं बढ़ाते।
पर मन एक कोना फिर भी
रह गया खाली कहीं यहां।
इसे सजाएं कैसे, कहो अब
खुशियां, ठहाके,रिश्ते,प्यार
सहज मिलते नहीं बाजारों में।
हां, दर्द को छुपाया मुस्कानों से
तनहाई को सजाया गीतों से,
ऊंचाई को छूने की चाहत ने
साथ छुड़ाया अपनों से।
सौहरत,दौलत, मकान, गाड़ियां
पाकर भी मैं रहा अकेला जहां।
विचित्र है ये दुनिया यारों,
सब पाकर भी कभी कभी
खुश नहीं हो पाता मानव यहां।
तलाश खत्म होती नहीं उसकी
खुद को खो देता है वो यहां।
जिंदगी इक पहेली सी
जाने क्यों हरपल लगती यहां?
खुद की खुशी है जरूरी
न करना खुदकुशी कभी यहां।