इलाज़
राजनारायण बोहरे-
आज आपके झोलाझाप डॉक्टर फकीरचन्द ने एक और आदमी मार डाला ’ मिश्रा जी कोई विलक्षण जुमला बोलकर इंट्री करते हैं। मैंने पूछा-‘किसे मार दिया यार !’
‘‘वो धर्मपुरा के किसान की बेटी थी। ...बिना मर्ज पहचाने इंजेक्शन और बोतल चढ़ा दी। बैंच पर लेटे-लेटे चल बसी ।’’ मिश्रा जी के चेहरे पर बिषाद की रेखाएं थी।
मैं बोला ‘ कहीं किसान अपनी मृत बच्ची लेकर आये हो? क्या बच्ची को देखि लेना अपराध है उसका ?’
मिश्रा जी लानत भरे स्वर में मुझे ये बोलकर चले गये कि, ‘उस झोलाझाप डॉक्टर से ज्यादा सहानुभूति है ?’
डॉक्टर फकीरचंद मुझे सदा से दयनीय लगते रहे हैं। ये बात अलग है कि वे खुद को कभी दयनीय महसूस नहीं करते। एक बार मैंने उनसे पूछा ‘ आप ये जो बिना मेडीकल-डिग्री के मरीजों का इलाज़ करते हैं , इसके लिए मन में कहीं संकोच नहीं होता कि कोई गैर-कानूनी काम कर रहे हो?’
हैरानी भरे स्वर में वे मुझसे पूछ रहे थे ‘ गैर-कानूनी काम काहे का भाई साहब? मेरे पास आर0एम0पी0 का सर्टिफिकेट है। मैंने क्या गबन कर लिया किसी सरकारी धन का ? किसी से रिश्वत मांगी क्या ? किसी की बहन बेटी को छेड़ा क्या ? मैं तो समाज का सेवक हूँ भाई साहब। मजदूरी करता हूँ ’....और मैं हतप्रभ हो उन्हें भकुआकर ताकता रह गए । गजब का आत्म विश्वास था उनमें
‘ आप को ये डॉक्टरी का हुनर कैसे मिला?’ मैंने पूछा तो वे मुझे बताते चले गए थे...।
, इस काम को बहुत मेहनत से सीखा है मैने और वो भी एक हुनरमंद डॉक्टर की सोहबत में रहकर।’
फकीरचंद मुझे बताते चले गए थे ….देश के विभाजन के वक्त वे दस साल के थे। अपना घर-बार छोड़कर पाकिस्तान से भागे फकीरचंद के पिता और बाकी सब बिलकुल फांकाकसी की हालत में थे। वे सब के सब धंधे की तलाश में थे-किसी सरकारी या प्राइवेट नोकरी की इच्छा तो किसी को न थी। कस्बा अजीब-सी कशमकश में था, लोग एक-दूसरे से पूछते थे कि इतने लोगों के आने से कस्बे का जीवन तो प्रभावित नहीं हो जाएगा? व्यापारियों को चिन्ता थी कि उनका धंधा तो चौपट नहीं कर देंगे ये लोग ..। दर्जियों को लग रहा था कि इनकी औरतें कपड़े सिलने की मजदूरी तो नहीं छीन लेगी उनसे..
लेकिन वे लोग जल्दी ही कस्बे की जिन्दगी में शामिल हो गये थे। बेशक कुछ धंधों पर असर पड़ा। किराना, कपड़ा, मनिहारी सामान और जूतों के व्यापार में पूरी तैयारी से कूद पड़े थे वे और आसपास के कस्बों के बाजार पर छा गये थे।
ऐसे में फकीरचंद के पिता ने कस्बे से बीस किलोमीटर दूर के एक विकसित गांव को अपना लक्ष्य बनाया और वे अण्डाबच्चा से उस गांव जा पहुंचे वहीं अपनी किराना-कपड़ा की छोटी सी दुकान खोल ली थी उन्होंने।
बालक फकीरचंद का स्कूल से लौटकर दुकान पर बैठ नमक, मिर्च ओैर दाल मसाले बेचने में अपने आपको असहज पाते थे, सो वे स्कूल से सीधे दुकान पर नहीं जाते थे, बल्कि स्कूल के पास बने सरकारी अस्पताल में जाकर बैठ जाते थे। कभी वे पशु चिकित्सालय चले जाते, जहाँ के डॉक्टरों का उन फेंककर ढोर के पुट्ठों में इंजेक्शन लगाना उन्हं बहुत मजेदार लगता था।
धीरे-धीरे वे अस्पताल का ही एक हिस्सा बनते चले गए। दस साल के फकीरचंद ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था तब अस्पताल में जाना शुरू किया और जब वे दसवीं में पहुंचे तब तक मरीज को इंजेक्शन लगाना, ड्रिप चढ़ाना तक सीख चुके थे । कभीकभार वे भी ढोरों पर फेंककर इंजेक्शन लगाने की कला में अपना हाथ आजमाने लगे।
दसवें क्लास में वे बुरी तरह फेल हुए। बाप उन पर जबर्दस्त खफा थे-दुकान पर आता नहीं और मन लगाकर पढ़ता नहीं है, आगे तो पढ़ाऊँगा नहीं अब क्या करेगा तू? डॉक्टरी करेगा!
........और वे सहसा डॉक्टरी करने का मन मना बैठे थे। तीन दिन तक लगातर कॉपी लेकर बैठे फकीरचंद ने सरकारी डॉक्टर सिंह साहब से लगभग सौ तरह की बीमारियों के नुस्खे लिख लिये थे। एंटीवायटिक, एंटीएलर्जिक और एंटीवायरस के गुण विस्तार से लिखे थे उन्होने।
‘‘फकीर क्लीनिक’’ के नाम से एक छोटी सी दुकान खुली तो गाँव वाले आल्हादित थे, ...बल्कि उत्सुक भी कि दस साल से सरकारी अस्पताल में काम सीख रहा यह बिना पढ़ा डॉक्टर कैसे इलाज कर पाता है भला।
शुरू में दवाई के रूप में केवल गोली-कॅप्सूल देते रहे वे मरीजों को। धीरे-धीरे उन्होंने इंजेक्शन लगाना शुरू किया। वे मरीज की बांह का निशाना ले फेंक कर, इंजेक्शन लगाते थे, .....हाँ पशु चिकित्सालय में सीखा हुनर वे इंसानों पर अजमाने लगे तो मरीज उन पर सौ जान से फिदा हो उठे। धीरे-धीरे हजारों मरीज ठीक किए उन्होंने और अनुभव के मामले में वे अच्छे खासे एम.डी.से बढ़कर थे।
....कि एक दिन फकीरचंद के क्लीनिक पर अपनी मृतप्राय बच्ची लेकर आये एक किसान को डॉक्टर वापिस लौटाने लगे तो वह बोला था कि हम तो उसे मरी ही मान रहे हैं तुम्हारे हाथ के जस से यह जी जाये तो इसका भाग्य। बुझे मन से फकीरचन्द ने इलाज शरू किया और इंजेक्शन लगाकर ड्रिप लगाई ही थी कि बच्ची ने आँखे नटेर दी। सहसा बच्ची के बाप की नजरें बदल गई। वे हाथ जोड़ते रहे माफी मांगते रहे, लेकिन लोगों को जाने कब कब की लगी बुझाना थी सो उस दिन बुरी तरह पिटे वे।
कस्बे में चले आये जहाँ वे ‘डॉक्टर फकीरचंद’ का बोर्ड लटका कर बैठ गए थे ।
गाँव में सीखा इलाज का हुनर खूब काम आया। कम पैसा। कम दवाई। इंजेक्शन लगाने का दर्दहीन तरीका। वे फिर से मरीजों से घिरने लगे ।
बेटे ने बारहवां दर्जा पास किया और जब मेडीकल कॉलेज के प्रवेश की परीक्षा में सफलता नहीं पा सका तो उन्होंने खूब भाग-दौड़ करके उसे सोवियत संघ के किसी देश के मेडीकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया था।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि उन्हें दूसरी बार अपयश मिला। बस स्टैण्ड पर खड़ी बस में किसी यात्री को हार्ट-अटैक हुआ जिसे उठाकर लोग उनके यहां ले आये थे। वे कुछ करने के नाम पर ब्लड प्रेशर ले रहे थे कि मरीज ने दम तोड़ दिया। वे फिर हैरान थे- हे भगवान बैठे ठाले क्या मुसीबत आ गई।
मरीज बाहर का था पुलिस ने उसकी जेब से डायरी निकालकर उसके घर खबर की और डॉक्टर को इतनी भर सजा दी कि वे लाश को मरीज के घर पहुँचाने का बन्दोवस्त करें।
मिश्राजी अगले दिन पूरी बहस के मूड में थे‘कल आप को वो गैर लायसंसी डॉक्टर बड़ा धनवंतरी लग रहा था, पूछ रहे थे कि क्या अपराध है उसका? इससे बड़ा और क्या अपराध होगा उसका कि ना उसने शरीर विज्ञान पढ़ा, न भेशज विज्ञान! न उसे शरीर के चयापचय का ज्ञान है, न ही नाक-कान-गला और न्यूरो सिस्टम का।... अरे भाई पूरी दुनिया में कानून है कि मनुश्य का इलाज वही करेगा जो मनुश्य के शरीर, बीमारियो और भेशज विज्ञान का बाकायदा पूरा कोर्स कर चुका हो। ।’
‘...और ये जो तमाम वैध लोग, यूनानी चिकित्सक, होम्योपैथी के दवा सलाहकार और यहां तक कि मोधिया लोग खुले आम हर बीमारी का इलाज कर रहे हैं उनके बारे में कोई कानून है या नहीं!’ मैं खुले आम कुतर्क पर उतर आया था।
‘कानून तो सबके लिए है , बस लागू करने वालो की कमी है।’ मिश्राजी चले गये भुनभुनाते हुए।
जमानत पर रिहा होकर डॉक्टर फकीरचंद फिर से अपने क्लीनिक पर थे।
इस बार वे मुकम्मल बन्दोबस्त करने के मूड में नजर आ रहे थे। उन्होने आयुर्वेद में बैचलर डिग्री लिए एक डॉक्टर को अपना पार्टनर बना लिया था शायद, क्योंकि क्लीनिक पर उस दूसरे डॉक्टर के नाम की तख्ती लटक गई थी। ... कुछ दिन बी0ए0एम0एस0 वाले इन डॉक्टर साहब की तख्ती गायब नजर आई हम सबको। फिर कुछ दिन बाद उनकी बदली और एक पैथालॉजिस्ट की तख्ती लटकी। .... और सप्ताह भर के भीतर वह भी हट गई।
और इन दिनों उनके क्लीनिक में दीवाल पर किसी एम0बी0बी0एस0 डॉक्टर के नाम की डिग्री लटकी हुई है । मुख्या काउण्टर पर उन डॉक्टर साहब के नाम की एक बडी और भव्य कुर्सी रखी हुई है। जबकि मायूस फकीरचंद महज कम्पाउंडर के रूप में काम करते दिखते हैं । हम सबको इंतजार है किसी नई घटना का... देखिये क्या होता है !
जब तक उनका बेटा सोवियत रूस से अलग हुए उस नामालूम से देश से डिग्री लेकर नहीं लौटता डॉक्टर फकीरचंद को यही सब भुगतना है- और शायद हम सबको भी। अब जनाब मनुश्य शरीर है तो बीमारियां है, और बीमारी है तो इलाज भी जरूरी है न।
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राजनारायण बोहरे
जानकीनगर, नवलखा,
इंदौर