मैं भारत बोल रहा हूं 7
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
24.कवि की महता
बृहद सागर से भी गहरे, सोच लेना कवि हमारे।
और ऊॅंचे आसमां से, देखना इनके नजारे।।
परख लेते हवा का रूख, चाल बे-मानी सभी।
बचकर निकल पाता नहीं, ऐक झोंखा भी कभी।
तूफान, ऑंधी और झॉंझा-नर्तनों को जानते।
हवा का रूकना, न चलना, उमस को पहिचानते।
दोस्ती के हाथ इनसे, प्रकृति ने भी, है पसारे।।1।।
सूर्य का उगना और छिपना, इन्हीं की जादूगरी है।
रवि जहॉं पहुंचा नहीं वहॉं, कवि की नजरे परीं है।
आग का गोला, उजालों का भी वह तो देवता है।
और काली पुतलियो से, दर्द के गिरते पनारे।।
परदेश पति की प्रिया के, नवदूत और जीवन सहारे।।2।।
पीर पपीहा की हरत, अरू पीर है, पर पीर के।
हैं विवेकी हंस से भी, नीर के अरू क्षीर के।
खोजकर सागर तली से, मोतियो को ला सकें।
दृष्टि इनकी से मणी, माणिक्य, मुक्ता पा सकें।
साधना और साहसों से, बन गये साधक नियारे।।3।।
कीमती है रत्न से भी, दर्द जो पलते हृदय में।
जा सकेगी क्या कुवेरी सम्पदा, इनके हृदय में।
विश्व की सब सम्पदा से भी बड़ा है कवि हमारा।
भूल कर भी कह न देना, जा रहा है कवि विचारा।।4।।
25.गीत
गीत संजीले कैसे गाऊं, दिल में दर्द भरे।
खूब लगायी मरहम फिर भी, होते घाव हरे।।
सब के देखत अन्धकार, उजियाले निगल रहा।
झंझाओ में, पथिक भटक, निज पथ से भटक रहा।।
मनमौजी विपरित हवाऐं, तांडव नृत्य करें।।1।।
उमस भरी जन-जन जीवन में, जी घबराता है।
छाया भी छुपकर बैठी, आराम न आता हैं।।
घनी दोपहरी, पतझड़ विरवा, जिय नहि धीर धरे।।2।।
दुनियाँ के व्यवहारों में, अब कैसा नाता हैं।
हाथ-हाथ का दुश्मन बनकर, घात लगाता हैं।।
अपने भी तो, अपनों से ही, थोथी बात करें।।3।।
आते ही झंझा बातों ने, सब कुछ नष्ट किया।
लोभ, लपेटे, दुर्व्यसनों नें, सब कुछ भ्रष्ट किया।
उमड़-घुमड़ते बादल देखे, ऐक न बूँद झरे।।4।।
करलो कुछ उपचार, बदल दो मौसम के सपने।
ऐसे सब कर्तव्य दिखाओ, होवे सब अपने।।
कर डालो कुछ काम अनूठा, दुनियाँ नमन करें।।5।।
26.धूप का कुछ....
धूप का कुछ बदलता-सा रंग हैं।
पार्श्व-गामी हवाओं का संग हैं।।
चॉंदनी क्यों मुंह मरोडे़ चॉंद से,
बात कुछ ऐसी, समझ आई नहीं।
उम्र भी कटती गई, यूं ही मगर,
जिन्दगी को मौत क्यों भाई नहीं।
क्या कहैं कुछ अट-पटा-सा जंग है।।1।।
दे रहा आवाज कोई तो उधर,
हो गया वे-सुध जमाना, किस कदर।
आग लगती जा रही है नीड़ में,
नहीं सुने कोई, भयावह भीड़ में।
बाल किरणों पर चढा नवरंग है।।2।।
उम्र की मंजिल तो पूरी हो गई,
दूरियाँ घटते नजर आई नहीं।
लग रहा रूठे किनारे है सभी,
इंसान को इंसानियत भाई नहीं।
जिन्दगी का ये अजूवा ढंग है।।3।।
बंट गयी दुनियाँ वर्ग के सर्ग में,
खिंचगई रेखयें अंतर भेद की।
ऐक तुम हो-लो संभालो, किस कदर,
बात तो इतनी बढी है खेद की।
क्या कहें?कितनी व्यवस्था भंग है।।4।।
27.गीत
गीत मत गाओ अभी तुम प्यार के,
इस विपल्वी दौर को भी देख लो।
मीत किसका? कौन? क्या मालूम है,
विकल गंगा नीर को भी देखलो।।
कॉंपता वातावरण भी मौन हो,
पूंछती संवेदनाऐं कौन हो?
नित विषमता के स्वरों को तुम सुनों,
और सुनकर, गुन सको तो तुम गुनों।
उल्का भरे इस आसंमा को देखलो।।1।।
थे सहारे, वे किनारे ढह गये,
गहरी जड़ों के पेड़ भी यहाँ वह गये।
मौन धरती का अभी टूटा नहीं,
विश्वास के बहके चरण, लौटे नहीं।
राम, रावण बन रहें हैं देख लो।।2।।
किस हृदय में पीर है, लख पीर को,
कौन पौंछेगा नयन के नीर को।
समय को दो गति, मनुज का अर्थ है,
नहीं तो जीवन तुन्हारा व्यर्थ है।
अब भी समय है, बदलने का, देखलो।।3।।
ओ मनीषी! देखते हो कौन को?
तोड दो! अव तो ये अपने मौन को।
रोको नहीं, बहती कलम की धार को,
कौन सह सकता तुम्हारे बार को।।
बस! खडे होते तुम्हारे, देखलो!।।4।।