मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 8 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 8

मैं भारत बोल रहा हूं 8

(काव्य संकलन)

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

28.करार

इक करार ने, कई करारें ढहा दईं।

गहरी दरारें, मानवी में आ गई।।

क्या कहैं इस देश के परिवेश को,

भाव, भाषा, भावना अरू वेष को।

हर कदम पर मजहवी पगडंडियाँ,

हर दिशा में, ले खड़े सब झण्डियाँ।।

धर्म के थोथे, घिनौने खेल की,

चहु दिशा में घन-वदलियाँ छा गईं।।1।।

अर्थ की खातिर मनुजता खो दयी,

देख कर हर आँख कितनी रो दयी।

करवट बदलते ही रहे सब हौंसले

हौंसले समुझे, जो निकले घोंसले।।

दुर्दशा जो दीन-हीनों की यहाँ,

भूलकर भी याद उसकी क्या लई।।2।।

मिलता नहीं है साथ सच्चे सोच को,

पूजते हैं सब कोई यहाँ पोच को।

देखलो ना, संस्कृति की दुर्दशा,

विश्व भी देकर ठहाका यहाँ हंसा।।

जो अचल थे, वे यहाँ चलते दिखे,

प्रखर-ऊॅंची चोटिंयाँ भर्रा गई।।3।।

वेंत में भी फूल यहाँ खिलते दिखे,

पूर्व से पश्चिम यहाँ मिलते दिखे।

रच दिया कुरूक्षेत्र वंध्या-सुतों नें,

वे-सुरे से ढोल पीटे वुतों ने।।

विक गये हरिश्चंद्र देखे टके में,

रोशनी को रात काली खा-गई।।4।।

सच कहो! कोई यहाँ आजाद है,

इस तरह के खेल से बर्बाद है।

बज रहीं है बीन, डिग् डिगियाँ यहाँ,

सब सपेरे और मदारी हैं यहाँ।।

पींठ से ये पेट चिपके आस में,

आस को भी घन निराशा खा गई।।5।।

29.कवि धनी

जो कवि संवेदनाऐं बॉंटता क्षण-क्षण रहा है,

उर भरे भण्डार अद्भुत, कवि रत्नाकर कहा है।।

है सदॉं से कवि निराला, विश्व भर का दर्द पीकर।

ऑंसुओं की वेदनाऐं, सिसकियों में नित्य जीकर।

श्वॉंस के प्रति-श्वॉंस में, बहते रहे उच्छवास के पल।

हृदय के छाले बताते, कौन ने, कितने किये छल।।

वेदनाओं की हवा में, कौन?कब? कितना वहा है।।1।।

क्या नहीं है पास कवि के, नयन पानी से भरे हैं।

पुतलियों की पीर, पलकों से सदॉं निर्झर झरें हैं।

प्राण, पी-पी कर पपीहौं, की तरह जीते रहे हैं।

वेदनाओं की अनूठी चादरें सींते रहे हैं।।

करूण-करूणधार बनकर, दर्द सागर जहॉं वहा है।।2।।

तितलियों के पर, रंगीले फूल की वे वेदनाऐं।

कंटको में जी रही हो, विश्व की संवेदनाऐं।

रात के स्याही मुखौटे, झिल्लियाँ गाती रहीं है।

धडकनो में दादुरों सी-ध्वनी सदॉं आती रही है।।

कीर, केकी के स्वरो में, विरहणी का उर दहा है।।3।।

पीर, उस वे-पीर की भी, तड़ित कंपन सी लगी है।

मेघ गर्जन में हृदय की धैर्यता ऑंसू पगी हैं।

ले रही सिसकी पवन भी, नभ सितारों की जलन में।

दिव्य सम्पति से सदॉं ही, कवी की झोली भरी है।

मोंतियों से बेसकीमत, वेदनायें धन रहा हैं।।4।।

30.व्योम गामी प्रश्न?

कौंधती-सी जिन्दगी-दहलीज पर,

अनछुये कुछ, व्योम गामी प्रश्न है।

इस विचारी जिन्दगी की क्या खता?

जो वेदन की चादरें, ओढे़ निरंतर।

देखकर भी, अन दिखी होती रही,

किस खता की ये सजा, कैसा ये अंतर।।

त्याग की परिणित यही क्या, ठूठ के ये प्रश्न है।।1।।

शास्वती संवेदनाऐं मिट रहीं क्यों?

इस धरा की धारिता क्यों ध्वंस स्वर।

उठ रहा आक्रोस कैसा ये विप्लवी,

रौदतें ही आ रहे हैं, कौन से खर।।

धैर्यता क्यों इस कदर सें धूसरित है-

उठ रहे ये दिग् रिगन्ती प्रश्न है।।2।।

जिन्दगी वेसुध बनी क्यों जी रही?

व्योम के आगोस क्यों घिरतें उजालें।

कब तलक छुपते रहोगे, और छिपकर-

श्वेत से क्यों कर लिये ये केश काले।।

होंस में आओं जरा कुछ जोश तज कर,

ये व्यवस्था के तुम्हीं से प्रश्न हैं।।3।।

31.कुर्वानी

न रोको, देश की खातिर, हमें कुर्वान होने दो।

हजारों हो विवेकानंन्द, ऐसे बीज बोने दो।।

बहुत कुछ झेलते आये, कहाँ तक और अब झेले।

चुनौती का समय आया, चुनौती होलियो खेले।।

जल रहे दूर तक मरूथल, ऑंधियाँ बहुत कुछ ठेली।

रोशनी छिन रहीं घर की, अनकही बात सब झेली।।

समय नहीं और सोने का, सजग हो! खडे़ होने दो।।1।।

अनेकों वार ऐसी ही, घनी काली निशा आयी,

पड़ौसी हो गये दुश्मन, खोदी विषमता खायी।

जगा दो! नींद जो सोये, सजग होओ समय आया,

हताशा-पाशा को तोडो, जागरण गीत ये गाया।।

खौलते खून की धारा न रोको! खूब बहने दो।।2।।

अनुनय-विनय की कहानी, नहीं अब और कहना है।

झुकाकर शीश को चलना, नहीं अब और रहना है।

हमी ने सप्त सागर ये, अनेकों बार मथ डाले,

गिरवर धार छिंगुरी पर, संकट बहुत कुछ टाले।

सुनेगें अब नहीं बिल्कुल, खुलकर खूब कहने दो।।3।।

लिये संकल्प हम बैठे! ताडंवी नृत्य दिन आये,

नहीं अपमान सह सकते, कितना और समुझाये।

विषधार, विष नहीं उगलो, शंकर हम, समझ लेना,

नहीं सीमा से अब आगे, कदम बिल्कुल न रख देना।

कहना आखरी समझो, कदम पीछे ही रहने दो।।4।।

32.हार कर यूं बैठना अच्छा नहीं है

चल रही इस स्वॉंस को सार्थक बना लो,

हार कर यूं बैठना अच्छा नहीं है।

इस विषम तूफान की लहरें बदल दो,

तुम अडिग-हिमवान से भी कम नहीं हैं।।

क्या कभी सोचा! तुम्हें भगवान ने,यह-

वास्ते किस, श्रेष्ठतम, नर तन दिया है?

और तुम, कैसे-किधर को जा रहे हो?

मानवी उपकार में-क्या-क्या किया है?

यदि नहीं, तो व्यर्थ ही जीवन गवॅाया,

जा रही इस स्वॉंस का, लेखा कहीं है।।1।।

पेट की सिकुड़न लिये, उस छोर पर,

कुनकुनाती ऑंत ने क्या गीत गाया?

तप रहा जो ज्येष्ठ की गहरी तपन में-

इस पिशाची ऑंख ने क्या देख पाया?

झर रहे श्रम विन्दु से उज्जवल कभी भी-

नीर गंगा का धवल होता नहीं है।।2।।

क्रान्ति के उद्बोधनों के तुम पुरोधा,

तुम बली भी भीष्म, अर्जुन से अधिक हो।

बस खड़ा होना तुम्हारा शेष है अब-

युग पिशाची रूप के, तुम ही बधिक हो।

युग धरा को तुम्हें फिर मनमस्त करना,

इस समय क्या जागना तुमको नहीं है।।3।।

नष्ट करने इन सघन ऑंधियार को अब-

जगमगाता भोर का तारा बनों तुम।

जो चला, हर हाल में मंजिल मिली है,

इक नये निर्माण का, नव-पथ बनो तुम।

बस! तुम्हीं से आस है मानव मही को-

तुम मनुज हो! अन्य से कहना नहीं है।।4।।