त्रिखंडिता
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छह
धारा के विपरीत तैरती लड़की
पड़ोस की दुकान पर चाय की पत्ती लेने पहुँची रमा तब चौंक पड़ी, जब एक लड़की को दुकानदार से अपना नाम-पता पूछते सुना। उसने ध्यान से लड़की को देखा। उम्र यही कोई उन्नीस-बीस के करीब होगी। गोल, गोरा, छोटा-सा चेहरा, नाक नक्श अच्छे, थोड़े घुँघराले बाल, जो उसके गालों को छू रहे थे। कद 5’’3’ के करीब लाल सलवार काली कमीज पहने हुए थी। इसके पहले की दुकानदार उसका परिचय देता, रमा लड़की से बोली-चलो मैं उनका घर दिखाती हूँ..........। लड़की उसके साथ चल पड़ी। पूरे रास्ते वह चटर-पटर बोलती रही और रमा मुस्कुराती रही। लड़की ने बताया कि अलका जी ने उसे रमा जी से मिलने को कहा है। उसे किराए के मकान की दरकार है। लड़की होने के कारण उसे मकान नहीं मिल रहा। कई मुहल्लों के चक्कर लगा चुकी है। वह अपने कस्बे से दूर इस शहर में अंग्रेजी में एम0 ए0 करने आई है, पर अजीब है कि कोई अकेली लड़की को मकान नहीं देना चाहता। एक महीने पहले रमा को अलका ने इस लड़की के बारे में बताया था कि ’मुस्लिम परिवार की एक लड़की पढ़ने के लिए आई है, पर आवास न मिलने से परेशान है। वर्किंग हॉस्टल में भी जगह नहीं है। एक तो लड़की, उस पर मुस्लिम ! हिन्दू बहुल इलाकों में तो उसे मकान मिलना असम्भव ही लग रहा है। ’आपके घर में भी तो एक कमरा अतिरिक्त है। अकेली रहती है, रख लेंगी तो आपको भी कम्पनी मिल जाएगी। लड़की अच्छी है।’ अलका की बात से रमा सहमत हुई। इधर वह भी अकेलेपन से घबरा रही थी। जाति-धर्म का उसके लिए कोई बंधन नहीं था, प्रगतिशीलता उसके रक्त में थी। सबसे बड़ी बात तो यह भी कि पढाई के लिए उसने भी कड़ा संघर्ष किया था। जब वह इस शहर में शोध कार्य करने आई थी, तो उसके पास भी कोई आवास नहीं था। कई रिश्तेदार थे, पर किसी ने साथ नहीं दिया। उसका कस्बा शहर से तीन घण्टे के फासले पर था, इसलिए वह प्रतिदिन आना-जाना करती थी। पर किसी दिन कार्यवश देर हो जाती थी, तो रूकने के लिए वह रिश्तेदारों के घर का दरवाजा खटखटाती, पर उनकी मुखमुद्रा से सहम जाती थी। ऐसा लगता कि वह शहर में किसी गलत कार्य से रूकी है या शहर आकर पढ़ना दुनिया का सबसे गंदा काम है। हांँलाकि वह कम ही शहर में रूकती, वह भी तब, जब रात घिर आती। उसे अकेले सफर करने में डर लगता। लड़कियों के साथ छेड़छाड़ तब भी खूब होती थी। शाम ढ़ले बस स्टेशन पर खड़ी लड़की को कोई अच्छा नहीं समझता था। रमा को लोगों की घूरती निगाहों से डर लगता। कभी हिम्मत करके देर रात घर पहुँचती, तो बाबूजी और भाई कौं-कौं करने लगते।
रमा का शहर जाकर पढ़ना घर में किसी को पसंद नहीं था। बस थोड़ा बहुत साथ उसकी माँ दे रही थी। उसकी माँ उसके पहुंचने पर खाने के लिए सत्तू देती। भाभियों के डर की वजह से वह रसोईघर में नहीं जा पाती। वैसे भी उसके घर में आठ बजते ही लोग खाना खाकर सोने के लिए चले जाते थे। वह रात को नौ बजे पहुँचती और फिर सुबह पाँच बजे ही शहर की तरफ चल देती। इस रोज के आने-जाने में पैसा भी बर्बाद हो रहा था और पढ़ाई भी बाधित हो रही थी। घर से उसे पैसा नहीं मिल रहा था। उसने ट्यूशनें करके जो कुछ जमा किया था, वह तेजी से खर्च हो रहा था। उसने सोचा कि वह शहर में ही किसी स्कूल को ज्वाइन कर ले और रहने के लिए किराए का मकान ले ले, ताकि आने-जाने और पैसे की किल्लत से मुक्ति मिले। उसने प्रयास करना शुरू किया, पर प्राइवेट स्कूलों में टीचर की कीमत हजार-पाँच सौ से ज्यादा न थी। उस पर बी0 एड0 या बी0 टी0 सी0 की शर्तें। वह दोनों में से किसी शर्त पर खरी नहीं उतरती थी। सबसे बड़ी बाधा तो अंग्रेजी पर अधिकार ना होना था। वह हिन्दी माध्यम से पढ़ी थी और एम0 ए0 में भी उसका विषय हिन्दी था। शहर में यूँ तो गली-गली में कुकुरमुत्ते की तरह स्कूल उग आए थे, पर सब अंग्रेजी माध्यम के थे। वेतन हजार से भी कम और फैशन हजारों वाले। रमा को बहुत गुस्सा आता। कोफ्त भी होती इस शिक्षा व्यवस्था पर। शिक्षा न हुई, बाजार हो गया जिसमें हर पैसे वाला दुकान खोलकर बैठा है और सारी आमदनी उसकी तिजोरी में जा रही है। कम से कम वेतन पर टीचर उपलब्ध है। बेरोजगारों की लम्बी फौज ने शिक्षा के व्यापारियों को मालामाल कर दिया है। अपने कस्बे में एम0 ए0 करने के बाद वह शोध करने के लिए पैसा जुटाने के चक्कर में एक ऐसे ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में मात्र 200 रूपये के वेतन पर पढ़ाती रही थी। प्रिंसिपल ने ट्यूशनें दिलाने का आश्वासन देकर उसे राजी किया था। वह प्रतिदिन आठ घण्टे स्कूल को देती और बाकी समय ट्यूशनें पढ़ाती। रात-दिन श्रम करके उसने दस हजार रूपये बचाए थे। जो शहर आने-जानें के कारण बेदर्दी से खर्च हो रहे थे। अब वह कस्बे में पढ़ा भी नहीं रही थी और कहीं से कोई दूसरा सहारा भी नहीं था। माँ बड़ी मिन्नतों के बाद उसके शहर जाकर पढ़ने पर राजी हुई थी, वह भी इस शर्त पर कि वह उनसे एक भी पैसा नहीं माँगेंगी।
उसके शोध निदेशक भी उसकी परेशानी समझने को तैयार न थे। वह विश्वविद्यालय पहुॅचती तो घर मिलने को कहते। घर जाती तो विश्वविद्यालय बुलाते। विश्वविद्यालय से उनका घर काफी फासले पर था और रिक्शे पर काफी पैसा खर्च हो जाता। एक दिन उन्होंने कह दिया कि शहर में ही रहो, तो काम करने में आसानी होगी। वह प्रयास में लग गई। किसी माध्यम से उसे एक नया स्कूल खुलने का पता चला। वह वहाँ जा पहुँची और बिना किसी सोर्स-सिफारिश के उसे अध्यापिका का पद मिल गया। वेतन 1500 रूपया था और आने-जाने के लिए बस सुविधा मुफ्त थी। उसका भाग्य अब साथ दे रहा था। स्कूल की ही एक अध्यापिका ने उसे एक अच्छे घर में बतौर किराएदार कमरा दिलवा दिया। किराया 500 रूपये था। जगह सुरक्षित थी। कई और परिवार भी उस बड़े मकान में रहते थे। उसने दो-तीन ट्यूशनें कर लीं और उसकी गाड़ी आराम से चल निकली। कुछ बचत भी होने लगी। अपनी किफायती आदत के कारण कुछ सालों में ही उसने अच्छा पैसा जोड़ लिया और विकास प्राधिकरण योजना में निम्न आय वर्ग वालों के लिए आंवटित होने वाले घर के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया। किस्त बँधा 650 रूपए का, जिसे दस वर्षां तक देने के बाद मकान अपना हो जाता था। इसी बीच उसने एक दूसरा नामी स्कूल ज्वाइन कर लिया, जो उसके घर के पास ही था। अब वह आराम से थी। उसको डाक्टर की डिग्री भी मिल चुकी थी। ठीक-ठाक बैंक बैलेंस भी था और सबसे बड़ी उपलब्धि छोटा ही सही, पर अपना घर था। अब वह भूलकर भी रिश्तेदारों के घर नहीं जाती थी, यहॉं तक कि अपने कस्बे वाले घर भी कम ही जाती। अभी उसको अपनी शिक्षा के अनुकूल नौकरी तो नहीं मिली थी, पर वह आत्मनिर्भर थी। कम से कम इस हालत में तो जरूर थी कि किसी दूसरी लड़की की मदद कर सके।
इसलिए जब उसे अलका ने उस मुस्लिम लड़की के बारे में बताया तो वह उसे अपने साथ रखने को राजी हो गयी। उसे अपने पुराने दिन याद आए और उसने फैसला कर लिया कि वह सलमा से कोई किराया नहीं लेगी, पढ़ाई-लिखाई में पूरा सहयोग करेगी। उसकी कल्पना में सलमा की छवि एक सीधी-सादी पढ़ाकू लड़की के रूप में उभरी थी, पर जो सलमा उसके साथ चल रही थी, वह तो बेहद चंचला थी। वह इतने तेज स्वरों में बातें कर रही थी कि आते-जाते लोग घूमकर उसे एक नजर जरूर देखते थे। उसकी चाल-ढ़ाल, बनाव-श्रृंगार में सामान्य लड़की से कुछ अलग था, जिसको वह कोई नाम नहीं दे पा रही थी। जब वह अपने घर के दरवाजे तक पहुॅंची और ताला खोलने लगी, तब सलमा समझ पाई कि वही रमा है, जिसके बारे में वह रास्ते-भर बातें करती रही है। वह इतराई -’बड़ी वो हैं आप. बताया नहीं कि आप ही रमा है।’ रमा हँस पड़ी। सलमा के लटके-झटके, उसे पसंद तो नहीं आ रहे थे, पर उसकी उम्र को देखते हुए वह चुप थी। उसने लड़की से उसके परिवार के बारे में जानकारी ली। पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा। जाने क्यों वह उसे पढ़नें-लिखने वाली लड़की नहीं लग रही थी। उसने सोचा कि वह उसे अपने पास रखने के बारे में एक बार फिर सोचेगी। उसने लड़की को चाय पिलाई और पूछने लगी कि- ’क्या खाओगी?’ तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। रात के नौ बज रहे थे, इस समय कौन हो सकता है? उसने खिड़की के शीशे से बाहर झांका। एक अधेड़ उम्र का शराबी बाहर खड़ा था। उसने डपटकर पूछा-क्या है? कौन हैं आप!
आदमी- उस लड़की को बाहर भेजिए। उसे घर जाना है।
रमा- इस समय........ वह सुबह जाएगी................।
आदमी- नही, उसने कहा था कि इसी समय जाएगी। मैं उसे स्टेशन गाड़ी पर बैठाने ले जाऊँगा।
रमा- आप कौन है ? क्या वह आपको जानती है ?
आदमी- जानती तो नहीं, पर पूरे दिन मेरे साथ थी। मकान ढूँढवा रहा था। शाम को यहाँ आने लिए बोली तो यहाँ ले आया। आप उसे भेजिए.....।
अब रमा को याद आया कि जिस दुकान पर वह लड़की मिली थी, वहाँ यह आदमी भी खड़ा था, जिसे उसने कोई दूसरा ग्राहक समझा था। वह आदमी उनके पीछे-पीछे उसके घर के सामने वाली सड़क तक आया था और दूसरी तरफ मुड़ गया था। रमा कमरे में जाकर लड़की से उस आदमी के बारे में पूछने लगी, तो वह बोली कि आज ही उससे परिचय हुआ है और वह उसके साथ इसी समय स्टेशन जाएगी।
’’ पर मैं इतनी रात को उसके साथ नहीं जाने दूँगी। वह ठीक आदमी नहीं दिख रहा है। पी भी रखी है.......। अगर कुछ हो गया तो.......।’’ रमा परेशान थी।
सलमा हॅसी-कुछ नहीं होगा......... मुझे जाने दीजिए।
’नहीं मैं इजाजत नहीं दूॅंगी। मेरे घर आई हो तो मेरी जिम्मेदारी है........। कल चली जाना और अगर मेरे घर रहना चाहती हो, तो अपने अम्मी-अब्बू के साथ आना.........। बिना उनसे बात किए तुम्हें अपने घर में नहीं रख सकती......।’ रमा ने सख्ती से कहा। लड़की मान गई, पर अनमनी-सी दिखी। पर उस दिन रात में कई बार दरवाजा नॉक किया गया और रमा दहशत में रही कि किस मुसीबत को घर में रखा है। जी तो चाहता था कि इसी समय लड़की को भगा दे, पर जाने कितनी रेप की कहानियाँ दिमाग में घूमती रहीं। वह एक और दुर्घटना की जिम्मेदार नहीं बनना चाहती थी। सलमा के दुस्साहस पर उसे आश्चर्य हो रहा था, गुस्सा भी आ रहा था। लड़की के लिए असुरक्षित इस समाज में यह लड़की खुलेआम आधी रात को एक शराबी के साथ जाने को तैयार है। क्या इसे डर नहीं लगता ? चालीस की उम्र में भी वह अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित रहती है। समय-कुसमय का ध्यान रखकर ही बाहर निकलती है। किसी प्रकार का ’खतरा’ मोल नहीं लेती। उसे नहीं लगता कि ’आ बैल मुझे मार’ स़्त्री का साहसिक कदम है। अभी इस देश में कानून व्यवस्था, पुलिस व्यवस्था व समूचा वातावरण तथा समाज की मानसिकता ऐसी नहीं बनीं कि स्त्री रात-बिरात कहीं भी आ-जा सके। वह भी स्त्री की आजादी की पक्षधर है, पर दुस्साहस की नहीं। शायद कभी वह दिन आए जब स़्त्री दुस्साहसी होने के बाद भी सुरक्षित रहे, पर अभी तो कतई नहीं.........।
दूसरे दिन सुबह उसने लड़की को विदा किया और मन नही मन निर्णय कर लिया कि इस लंड़की को घर में नहीं रखना है। पर दूसरे ही दिन वह अपने अब्बू-अम्मी के साथ आ धमकी। वे लोग बेहद सीधे-सादे धार्मिक प्रवृत्ति के थे। लड़की की पढ़ने की जिद के कारण अपने रिश्तेदारों को नाराज करके भी उसे शहर भेजा था। अपनी लड़की पर उन्हें पूरा विश्वास था। उन्होंने उससे प्रार्थना की ’इसे छोटी बहन या भतीजी समझकर रख लीजिए। और कहीं इसका रहना सुरक्षित नहीं ।’ ना चाहते हुए भी वह उन्हें मना नहीं कर पाई। जाने क्यों ऐसे अवसरों पर वह कमजोर पड़ जाती है। कड़ाई से अपनी बात रखने में उसे संकोच होता है।उसकी इस कमजोरी का कई लोग फायदा उठा लेते हैं। उसे पता नहीं था कि वह पिद्दी-सी लड़की भी उसके इस संकोच का लाभ उठाएगी।
वैसे लड़की बुरी नहीं थी। उसका ख्याल रखती। पर उसे चाय उबालने भी नहीं आता था। रमा पर यह उत्तरदायित्व भी आन पड़ा। दो ही रास्ते थे कि या तो वह खुद सारा काम करे या फिर लड़की को भी सिखाए। लड़की काम सीखने में नखरे दिखने लगी कि मैंनें यह काम कभी नहीं किया। तब उसने उसे डॉंटा ’तो क्या सोचती हो मैं सारा काम-धाम छोड़कर तुम्हें पकाती-खिलाती रहूँगी। तुम पेइंग गेस्ट नहीं हो। तुमसे किराया नहीं लेती। खाना-खर्चा भी खुद करती हूँ तो छोटी भतीजी की तरह काम मेें हाथ तो बँटाओ।’ लड़की धीरे-धीरे चाय बनाना सीख गयी। खाना पकाने से वह अभी तक दूर भागती थी। हाँ, उसके होने और चटर-पटर बतियाने से रमा को काम करने में आसानी होती। उसका डिप्रेशन भी दूर भाग गया था। अच्छी नींद आती। कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिलता। किसी के साथ से जीवन कितना अलग और सुन्दर हो जाता है। लड़की, जिसका नाम सलमा था, धीरे-धीरे उससे इतना घुल-मिल गयी कि अपनी हर बात बताती। जब वह कोचिंग करके लौटती तो वहाँ की पढ़ाई के स्तर के बारे में बताती। एक दिन उसने बताया कि अंग्रेजी पढ़ाने वाला बूढ़ा मास्टर, जो उसके दादा जी की उम्र का है, उससे हँसी मजाक करता है। वह चौक पड़ी ’एक बूढ़ा मास्टर एक बच्ची को कैसे छेड़ सकता है?’ पर इधर ऐसे बूढ़ों की खबरें अखबारों में रोज छप रही हैं जो बच्चियों के साथ बलात्कार तक कर गुजर रहे है। कई बूढ़े तो अपनी ही पोती...नातिन.....। छीः वितृष्णा से उसका मन विरक्त हो गया। ये बूढ़े जो अपना पूरा जीवन भोग-विलास में गुजार चुके हैं। पूरी उम्र पत्नी का सुख भेगने के बाद भी किस अतृप्ति, किस वासना से ग्रस्त हैं, जो मासूम बच्चियों को नष्ट कर रहे हैं। कई बच्चियॉ ंतो उसी दानवीय प्रक्रिया के दौरान दम तोड़ देती हैं और कई को ये बूढे सबूत ना छोड़ने की मानसिकता से मार देते हैं। क्या ये आजकल हो रहा है या सदियों से ऐसा होता रहा है। उसकी माँ कहती है-ऐसा हमेशा होता रहा है पर आजकल मीडिया की सक्रियता के कारण बातें उजागर हो जा रही हैं। वरना इन सब पर खुद परिवार और समाज पर्दा डाल देता था।
’लड़की लालची चीज होती है’। माँ कहती-विरले ही मर्द होंगे, जो लड़की को देख कर ललचाते नहीं हैं। हाँ, सभी बलात्कारी नहीं होते, पर मौका मिलते ही लड़की को निगलने को तैयार रहते हैं। इसीलिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है लड़की को पिता या भाई के साथ भी एकांत में या एक विस्तर पर नहीं बैठना चाहिए।’ वह माँ की इस बात से सहमत नहीं होती, तो माँ ऐसी कई घटनाएॅं बताती, जिसमें अपने सगे मामा, ताऊ, पिता, भाई, चाचा जैसे नजदीकी रिश्तेदारों ने अबोध बच्चियों का शोषण किया और कर रहे हैं। जैसे लड़की न हुई कोई स्वादिष्ट मिठाई हो गई, जिसे खाने को सारे मर्द पागल हों। इन्हीं सब उदाहरणों को सुनाकर माँ अपनी बेटियों के मन में पुरूष जाति के प्रति घृणा भरती थी। वह भी अपनी जगह सही थी। छह सुंदर बेटियों की वह कब तक सुरक्षा करती। सोचा होगा, इन कहानियों को सुनकर बेटियाँ खुद मर्दों से दूरी बनाकर रहेंगी। माँ का सोचना गलत नहीं था। बहनों की तो नहीं जानती पर वह खुद हमेशा सावधान रहती और माँ को हर बात बताती। स्कूल-कालेज आते-जाते कोई लड़का छेड़ता तो वह भी बता देती। माँ के पास हर समस्या का समाधान होता। कहती-चुपचाप आया-जाया करो। कोई कुछ भी कहता रहे। ना रूको ना जबाब दो ’हाथी चले बाजार कुत्ते भॅूंके हजार’। एक दिन देखना वे छेड़ना छोड़ देंगे।’ और ऐसा ही होता। इसलिए वह ऑंख मूँदकर मॉं की बातां का अनुकरण करती। माँ कहती-लड़की की चंचलता अभिशाप है........। उसने गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया। शायद इसीलिए वह शोषण का शिकार होने से बचती आई थी।
पर सलमा बहुत चंचल थी । उसकी बोटी-बोटी हिलती रहती थी। वह जहाँ खड़ी होती, वहाँ की धरती नाचती रहती। इतना ही नहीं वह जान बूझकर खतरे मोल लेती। जैसे उसी दिन वह उस शराबी के साथ रात में ही स्टेशन जाने को तैयार हो गयी थी। एक दिन वह उसके साथ एक काव्य-गोष्ठी में गयी तो सभी कवियों को फोन नम्बर बाँट आई। हाँलाकि वह उसका ही लैंड लाइन था, पर वे कवि जानते थे कि रमा दिन-भर घर नहीं रहती। कॉलेज पढ़ाने चली जाती है और सलमा दिन भर घर रहती है। शाम को कोचिंग के लिए निकलती है।
एक दिन सलमा ने बहादुरी में बताया कि उसके सारे परिचित उससे फोन पर ’आई लव यू’ कहने लगे हैं। दिनभर उनके फोन आते रहते हैं। रमा को विश्वास नहीं हुआ, जब मिस्टर दत्ता का उसने नाम लिया। दत्ता की उम्र पचास से कम ना थी और उनकी बेटियाँ सलमा से भी बड़ी उम्र की थीं। उसने गौर से सलमा को देखा इसमें क्या खास बात है ? कद-काठी के नाम पर कुछ नहीं। हाँ, रंग गोरा और बाल लम्बे और घुँघराले है। चेहरा भी ठीक है। फिर भी ऐसा कुछ नहीं कि सारे मर्द उस पर आसक्त हो जाएॅं। पर एक बात थी, वह महज उन्नीस की थी। ये उम्र का आकर्षण युवा-अधेड़-बूढ़े सभी कवियो के सिर पर चढ़ गया था। कवि ही क्यों उसकी कॉलोनी के मर्द भी रमा की अनुपस्थिति में कभी चीनी कभी दूध मॉंगने के बहाने घर में घुसना चाहतें। पर एक बात थी सलमा दुष्चरित्र नहीं थी, इसीलिए हर बात उसे बता देती। उसे बस मजा आता था कि मर्द उसे देखकर ललचाते हैं। एक दिन तो उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा-आपके परिचित पुरूषों में किसी को भी मैं अपनी अंगुलियों पर नचा सकती हूँ।’ वह सोचने लगी’ अपने स्त्रीत्व पर इतना विश्वास वह तो कभी नहीं कर सकी। करना चाहा भी नहीं। पुरूषां को अपनी ओर आकर्षित करने की इच्छा उसमें कभी नहीं जगी। अब तक कोई पुरूष उसके मन को भाया ही नही था। फिर बहुतों को अपने पीछे भगाने का क्या मतलब ? शायद सलमा को पुरूष ज्यादा भाते हों, पर इस सवाल पर उसका जवाब सुनकर वह चौक पड़ी-मुझे मर्दों से नफरत है। उनके साथ खाना-पीना, घूमना तो पसंद है पर देह स्तर पर जुड़ना नहीं।
-क्यों भला ?
’क्योंकि मर्द दगाबाज होते हैं। किसी एक के नहीं हो सकते।’
-’पर किसी न किसी से तो तुम प्रेम या विवाह करोगी ही....................
’नहीं ...............कभी नहीं....................।’
.....क्यों ?
इसलिए कि मुझे आप पसंद हैं..........मैं आपके साथ ताउम्र रहना चाहती हूँ..............।
रमा हँसने लगी। सलमा उसे हमेशा बच्ची ही लगती है। वह कभी-कभी रात को उसके सूजे हुए पैरों को सहलाती। कभी उसका चुम्बन लेती और रूठती रहती कि वह उसको प्यार नहीं करती। उसका मन रखने को वह भी कभी-कभी उसके गालों या माथे पर अपने होंठ रख देती। एक दिन वह होंठ चूमने की जिद करने लगी। उसने मना कर दिया। ना जाने क्यों होंठों का चुम्बन उसके लिए सबसे नाजुक मसला है। जब इंसान किसी के प्रति गहरे प्यार से भरता है तभी उसके होंठ चूमता है। उसके होंठों का कौंमार्य अभी टूटा नहीं था, जब वह जिद करने लगी तो उसने उसे परे ढ़केल दिया। ’क्या पागलपन है ? यह मेरे सबसे प्रिय पुरूष के लिए है वह हँसी थी। कोई पुरूष आपके जीवन में आएगा, तो मैं उसे जान से मार दूँगी...... आप जानती नहीं मर्द कितने कमीने होते हैं। वह नाराजगी से बोली।’क्यों...क्यों आप अपने होंठों को ंछूने नहीं देतीं.....।