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पत्थर दिल आदमी

उजास
वह अंततः आज ऑपरेशन-टेबल पर आ पहुँचा था, दिल संबंधी बीमारियों के वार्ड में वह हजारों-हजार, शंका-कुशंकाओं से भरा चुपचाप लेटा था। सर्जन की प्रतीक्षा हो रही थी। अलबत्ता उसके घर के लोग, जिसमें पत्नी व दोनों लड़के विपुल और संपुल शामिल थे, घबराये से खड़े थे।
वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि इस हालत में पहुँचाने में किन परिस्थितियों का सीधा-सादा हाथ था। उसे याद है, घर (यानी गाँव) से शहर आने तक तो वह बिलकुल ठीक था, उसके कान और दिल खूब तंदुरूस्त थे-उसके शरीर की तरह। पहले-पहल उसे अचानक चार माह पहले एक दिन ऐसे लक्षण दिखे थे, कि जैसे उसे कानों से सुनाई देना और दिल से किसी भी तरह की प्रतिक्रिया मिलना बंद हो गया है। किसी भी होनी-अनहोनी को देख उसे कोई सुगबुगाहट नहीं होती। जैसे किउस दिन उस वक्त वह सब्जी लेकर अपने घर लौट रहा था, जबकि सरेआम एक आदमी के सीने में छुरा भौंक कर एक गुण्डा भागने लगा। वह यानी ’भूपत’ उस समय वहीं था, और दीदे फाड़कर सब कुछ देख लेने के बाद भी उसे न तो छुरे से घायल हो तड़पते आदमी को देखकर दया आ रही थी, न ही उसे तड़पते आदमी की चीखें सुनाई दे रही थीं।
उसका बड़ा बेटा ’विपुल’ नायब तहसीलदार था और इसी शहर के तहसील कार्यालय में पदस्थ था। कई बार के उलाहनों और आग्रहो के बाद अपनी खेती को बटिया (साझे) पर देकर भूपत उदास होकर विपुल के पास शहर आया था। दरअसल पत्नि के ही आग्रह पर भूपत ने बूझे मन से अपना गाँव छोड़ा था। शहर आकर उसने पाया कि विपुल की पत्नि सोने मे सुहागा है। सारी कॉलोनी में वह गर्व से अपनी सास को लिए लिए फिरी। दो दिन में ही कॉलोनी की तमाम स्त्रियों की मुँहबोली सास बन जाने पर इठलाती पत्नि बोली थी-“भाई हम न जैहें, अब गाँव, कित्ती सारी बहुरियां यही मिल गई हमको बैठे-बिठाये।”
वह भी खुश था। पचास बरस खेती में भिड़ा हुआ था। दोनो लड़को के अच्छी नौकरी पा जाने के बाद भी चैन नही लिया था। बैठे ठाले कुछ न कुछ करता ही रहता था, वहाँ गाँव में। दो दिन वह विपुल के घर शहर में चुपचाप बैठा, लेटा रहा। तीसरे दिन उसके हाथ-गोड़े पिराने लगे तो अगले दिन से ही उसने सब्जी मण्डी जाकर साग-सब्जी लाना, मंदिर जाना शुरू कर दिया था। शाम को सभी के साथ बैठकर वह टी.वी. देखता था। जैसे-तैसे तीन माह बीते। इन तीन महिनो में जानकारी का सैलाब उमड़ आया था, उसके पास चकित कर देनेवाली जानकारियाँ, डरा देनेवाली जानकारियाँ। वह विपुल से पुछता, “काहे लल्ला, ये सब सच्ची बातें है का ?”
“हाँ बाबू, ये सब सच्ची तस्वीरे हैं।” विपुल का उत्तर पाकर वह स्तब्ध रह जाता। सोचता कि गाँव में रहकर गाँव के बाहर की दुनिया के बारे में वह कुछ सोच ही नही पाया। शहर आकर दुनिया इतनी फैली हुई और कल्पनातीन लगी थी, कि उसका छोटा सा दिल उछलकर बाहर आना ही चाहता था। हर बात में कौतूहल लगता उसे। हर बात अनहोनी लगती उसे। वह रात भर सोचता रहता जागता हुआ। शहर में रहते हुए तीन माह में ही उसने जाना था कि यहाँ के लोगों को नरसंहार और सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ रोजमर्रा की बाते लगती है। खबरे पढ़कर या देखकर, उन्हे एसा ही महसूस होता है जैसे पत्नी का सुबह पुछना कि आज कौन सी सब्जी बनेगी। एसा ही पहली दफा उसे सड़क पर लगा था। न हत्या होते देख उसका मन कपा था, न ही उसे गुण्डे पर गुस्सा आया था। उसी दिन आधी रात को उसे अचानक ऐसा लगा था। उसी दिन आधी रात को उसे अचानक ऐसा लगा कि उसके सीने में रखा दिल संवेदना-शून्य हो गया है। घबराकर वह उठा, “क्या हो गया मुझे ?” मस्तिष्क में अंधेरा सा छा गया उसके।
फिर उसने अहसास किया कि उसके कानों न सुनना बंद कर दिया है।
एकाएक लगा दिल की जगह जैसे सीले में कुछ वनज सा रखा है।
हठात् उसे ऐसा आभास हुआ था जैसे उसका दिन पत्थर में बदल गया है। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुँह से निकली।
“हे राम ! अब क्या होगा,” वह बुदबुदा उठा। इच्छा हुई कि विपुल और उसकी माँ को अपने मन का अनुभव बताए। नहीं। ये नही हो सकता। यह उचित नही रहेगा। सब के सब घबरा उठेंगे। तो ? एक बड़ा सा हँसिये के आकार का प्रश्नचिन्ह धरती से आसमान तक उसके सामने खड़ा हो गया। यक्ष की तरह ताल ठोके अपना उत्तर मांगता सा तो ? तो ?
कल वह चुपचाप अस्पताल जाकर डॉक्टर से मिलेगा, अपना अनुभव बताएगा। अस्पताल में कौन से डॉक्टर से मिलेगा ? यह भी अभी सोच लिया जाए। विपुल की माँ को लेकर, यूँ वह पहले भी अस्पताल हो आया है। उसके सीने मे दर्द रहता था। फिर भी एकाएक किसी अनजान डाक्टर के पास तो जा नही सकता न ! पहले पता लगाना ठीक होगा, कि किसी डॉक्टर के बारे में अब तक कोई लापरवाही या भूलचूक की बात नही सुनी है। दिल्ली के एक अस्पताल में मरीज के पेट को सिलने के बाद पता लगा कि डॉक्टर ने गलती से अपनी कैंची भीतर ही छोड़ दी है। कही उसके साथ ऐसा कुछ न हो जाए। एक बार टी.वी पर देखा था कि एक जगह आँख के डॉक्टर ने मरीज की बाई की जगह दाई आँख का ऑपरेशन कर दिया था। कहीं उसका भी बाएँ की बजाय दूसरी दिशा में सीना चीर दिया तो कान की जगह नाक ही कतर डाली तो ?
सुबह होते-होते वह बेहद परेशान हो उठा था। कुछ कहने का प्रयास करे, इसके पहले ही बहू आई और रोजाना की तरह चरण स्पर्श किए, फिर कुछ कहने लगी। वह सुन कहाँ पा रहा था, बहू की बात उसने इशारे से ही जानी, “ पिताजी, आप जल्दी से तैयार हो जाइए। हम लोग पिकनिक पर चलने वाले हैं।”
मुँह पर आते-आते रह गया, कि मुझे अस्पताल जाना है। लेकिन अस्पताल का नाम सुनकर सब घबरा न उठे, इस डर से वह चुप ही रहा।
दस बजे उनकी जीपें वहा से चली और बारह बजे पिकनिक वाली जगह पहुँची। साथ मे कुछ परिवार और थे, जिनके ढ़ेर सारे बच्चे भी थे। उन सब ने घेर लिया, “दादाजी कहानी सुनाइए।”
एक के बाद एक वह अनेक कहानी सुनाता रहा। समय का पता ही न लगा कि पूरा दिन कब गुजर गया। बीच में खाने का सामान आया, और बच्चो के साथ वह गपागप खाता भी रहा।
तब साँझ ढ़ल रही थी, जबकि बहू उसे बुलाने आई कि “चलिए पिताजी, खाने पर सब आपका इंतजार कर रहे हैं।”
वह उठा। मन में आया कि चलो बहू को बतावें। कुछ मन तो हल्का हो, पर होठ नही हिले और मुँह पर ताला सा लग गया।
अगले दिन बिलकुल सुबह वह शहर के हृदयरोग विशेषज्ञ ’डॉक्टर धवन’ के बँगले पर पहुँच गया था औश्र अपनी शंका बताई थी। डॉक्टर को कौतूहल हुआ। उसने जांच शुरू की। डॉक्टर यूँ विपुल से परिचित था, पर भूपत ने उसका कोई परिचय नही दिया। मर्ज सुनकर डॉक्टर ने एक न्यूरोलॉजिस्ट और मनः चिकित्सक को बुला लिया।
सभी डॉक्टर चकित थे, ऐसा रोग तो देखा, न सुना। दिल यूँ तो बाकायदा खून पंप कर रहा था, पर संवेदना के तौर पर वह पत्थर का-सा हो गया था, एकदम सख्त और खुरदुरा। भीतर की सारी भावनाएँ, सारी कोमलता, सारी संवेदना गायब हो गई थी। डॉक्टर ने बिना उसे बताए ही विपुल का पता पा लिया। शायद जांच करते समय जेब में विपुल के पते कस छपा कार्ड उसे मिल गया था, और विपुल को फोन पर अंग्रेजी में सारा किस्सा सह सुनाया था। वह रोकता ही रह गया, पर डॉक्टर ने उसे स्नेह से लिटा लिया था,” आप आराम कीजिए चाचाजी। विपुल भाई आते ही होेंगे।”
विपुल अकेला नही आया, अपनी माँ और पत्नी को लेकर आया था। भूपत नीचा सिर किए बैठा था-जैसे कोई अक्षम्य अपराध कर डाला हो। उधर डॉक्टर धवन ने नगर के और सभी डॉक्टरो को बुला लिया था। ऐसा अद्भूत रोग तो विश्व में शायद पहला था-जीते जागते सक्रिय दिल का संवेदना के तौर पर पत्थर हो जाना और श्रवण शक्ति का कतई चले जाना। डॉक्टरी जाँच और ईलाज की भागदौड़ शुरू हुई। मरीज वह था, पर पूरा परिवार परेशान हो उठा था।
सारी भागदौड़ में वह एक ही बात सोचता रहा कि शहर में बरसों से निवास कर रहे लोगों के दिल काहे के बने हैं कि अभी तक पत्थर के नही हो सके। उसी अकेले का दिल कैसे पत्थर बन गया ? उसी के कान क्यों खराब हो गए।
अखबार, रेडियो-टी.वी. के तमाम लोग उसके पास आने लगे। उसके मुँह से निकली बात कलमों से होती हुई सारे देश के संचार साधनों के कंधो पर बैठ आम आदमी के कानों तक जाने लगी। चार माह चुटकी बजाते बीत गए।
संपुल (छोटा बेटा) गाँव में मास्टर था, खबर पाकर वह भी शहर आ गया।
डॉक्टर धवन ने आसपास के तमाम डॉक्टरों से विचार-विमर्श किया था, कुछ विशेषज्ञ मनोचिकित्सकों, न्यूरोलॉजिस्टों को बाहर से बुलवाया था। सबका एक ही मत था, हृदय का बायोलॉजिकल काम तो जारी है, इसलिए उसमें सर्जरी या अन्य किसी इलाज की जरूरत नही है। हाँ, हृदय की संवेदनाओं का एकदम खत्म हो जाना, जरूर एक परामनोवैज्ञानिक समस्या है। जिसका इलाज पराभौतिक तरीके से ही संभव है।
दिल्ली के एक डॉक्टर की सलाह पर डॉक्टर धवन ने तय किया था कि अमेरिका में बना एक विशष इंजेक्शन फिलहाल भूपत के दिल में लगाया जाएगा जिससे दिल के भीतर कुछ हलचल शुरू हो सकती है। वह इंजेक्शन न्यूयॉर्क से मँगवाया गया था और आज ही आनेवाला था और सब लोग उसी की प्रतीक्षा में थे। प्रतीक्षा भी थी और तनाव भी। नए इंजेक्शन का प्रयोग पहले-पहल हो रहा हो, तो हजारों-हजार कुशंकाएँ पैदा हो जाना स्वभाविक था।
दोपहर के तीन बजे थे, बताए गए समय से चार घंटे उपर हो गए। सब व्यग्र बेकरार थे। एकाएक तेजी से चलते डॉक्टर धवन आए और उन्होने बताया कि न्यूयॉर्क से फोन आया है, इंजेक्शन अब तीन दिन बाद आ पाएगा। लोगों ने राहत की साँस ली। भूपत को उसके प्राइवेट वार्ड में वापस भेज दिया गया। बच्चे और पत्नी उसके पास घिर आए। वे लोग अभी बैठ भी न पाए थे कि बाहर बड़ा तेज शोर हो उठा। दरअसल उनका कमरा इमरजेंसी रूम के सामने था, और अस्पताल में एसी समस्याएँ रात-दिन आती ही रहती हैं, जिनका तुरन्त निपटारा जरूरी होता था। भूपत के आग्रह पर कमरे का दरवाजा खोल दिया गया।
इमरजंेसी रूम के सामने चमचमाते धोती कुर्ता और सफारी-सूटधारी लोगों की बड़ी भीड़ लगी थी। भूपत को उत्सुक्ता बढ़ी कि कौन बड़ा आदमी अस्पताल में दाखिल हुआ है, तो विपुल उठा और बाहर चला गया।
कुछ देर बाद विपुल लौटा और बड़े प्रशंसनीय भाव से बताने लगा, पापा, ये जो लोग बाहर इकट्ठे हैं न, ये कपड़ा मार्केट के बड़े व्यापारी हैं। शहर के कपड़ा मार्केट में एक बूढ़ी भिखारिन पड़ी रहती थी, आज सुबह उसी का एक्सीडेंट हो गया है, ये सब लोग उसी के इलाज के लिए यहाँ मौजूद हैं।”
भूपत को विस्मय हुआ, “एक भिखारिन के लिए इतने सारे व्यापारी।”
“हाँ पापा, एक सेठ ने मुझे बताया कि अभी किसी नेता को कार से भिखारिन बुढ़िया टकरा गई थी, कि एक ऑटो रिक्शा वाला दया करके उसे अस्पताल लाद लाया। पर यहाँ उसकी ठीक ढ़ंग से देख रेख नही हो रही थी, सो उसने मार्केट में फोन कर दिया है और इसी वजह से इत्ते सारे लोग आ गए हैं, उसके हिमायती बनके।”
भूपत चकित भाव से सुन रहा था, और हरपल उसे लग रहा था कि जैसे उसके दिल में थोड़ी-बहुत सरसराहट बढ़ रही है।
तब तक वार्ड-ब्वॉय भी कमरे में लाया और खुद बताने लगा कि वह भिखारिन पगली थी और यू ही सड़क पर पड़ी रहती थी। टक्कर लग जाने की वजह से उसके माथे से बहुत खून बह गया है, इस कारण उसे खून चढ़ाया जाना है। बाहर लोगो में इस बात की होड़ लगी है कि उसी का ग्रुप बुढ़िया से मैच कर जाए। हर आदमी उसे खून देना चाहता है।
भूपत को लगा कि जो कुछ अखबारों में पढ़ा या टी.वी. पर उसने देखा था, वह दूसरों को दिखाया हुआ सच था, जो सामने है वह भी तो एक सच है यानी कि संवेदना अभी शेष है। मानवता अभी जिंदा है। बात उतनी नही बिगड़ी जितनी वह मानने लगा था।
सोचते-सोचते भूपत को लगा कि वह आहिस्ता-आहिस्ता ठीक होने लगा है मन में कुछ धैर्य-सा बैठ रहा है। वह बेचैनी, वह अधीरता, वो बहरापन कुछ क्षीण हो रहा है। चेहरे पर छाया तनाव कुछ कम हुआ है।
उसे विश्वास हो गया कि वह कम समय में ही सामान्य हो जाएगा। उसे आश्वस्त देख घर के दूसरे लोग भी आश्वस्त होने लगे। अब चिंता नही कि नया इंजेक्शन कल आए या परसों या कभी न आए। बीमार दिल निश्चित ही ठीक हो जाएगा।

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