हू कम्स देयर या हुकुम सदर राज बोहरे द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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हू कम्स देयर या हुकुम सदर

हू कम्स देयर से हुकुम सदर

भाषा विज्ञान

राजनारायण बोहरे

अल्पसाक्षर प्रहरी सामने से आने वाले अंजान आदमी से पूछते है हुकुम सदर ?

उच्चारण के संकट के कारण ही कई शब्दों का स्वरूप बदला गया होगा, यह बात मुझे आज सच प्रतीत होती है । रात के समय पहरा देते अंग्रेज प्रहरी सामने से आने वाले अंजान आदमी से पूछते थे हू कम्स देयर ? यह प्रश्नवाचक वाक्य हिंदी के अल्पसाक्षर प्रहरियों के पास आया होगा तो हुकुम सदर बन गया होगा। हू कम्स देयर का भाषाविज्ञान से हुकुम सदर पढ़ाना भाषा विज्ञान में पढ़ाया जाता है, वहां तो यह भी पढ़ाया गया कि चतुष्क का चौका, षष्क का छक्का और अक्षवाटिका का अखाड़ा बना था, कृत्यि ग्रहिका का कचहरी भी बना था यह प्रसंग भी मुझे भाषा विज्ञान के प्रोफ़ेसर ने बताया था।

मेरी बोलने और उच्चारण करने की स्पष्ट आवाज की तारीफ करते हुए मेरे दोस्त मुझे आकाशवाणी में समाचार वाचक बनने की सलाह देते ,े क्योंकि टीवी लायक तो अपनी पर्सनल की नहीं थी कि उन दिनों के उदघोषक वेद प्रकाश जैसी गंभीरता और रमण जैसी स्मार्टनेस दिख। लेकिन खुदा का हाजिर नाजिर मान कर कहता हूं कि मै इसलिए किसी मीडिया में नही गया कि बचपन से लेकर अब तक मेरे सामने कुछ शब्दों के उच्चारण का संकट मौजूद रहा आया है ।

उच्चारण को लेकर संकटों का शुमार मेरे स्कूल और घर से ही हुआ,उन दिनांक मैं कक्षा छह का विद्यार्थी था, तब मैं स्कूल में अपने संस्कृत अध्यापक जी से जनेऊ को यज्ञोपवीत और हवन को यज्ञ कहना सीख रहा था, तो एक बार गलती से मैंने अपने घर पर इन शब्दों का मास्टर जी द्वारा बचाया गया उच्चारण जनेउ को यज्ञोपवीत और हवर को यज्ञ कर दिया तो मेरे दादाजी यानी बापू खफा हो गए और बताया कि यह सही उच्चारण नहीं है-जनेउ को यग्नोपवीत और हवन को यग्न कहना सही उच्चारण हैं। मैं बापू की बात को क्लियर करने के लिए अपने मित्र के पिताजी के पास गया तो उन्होंने जनेउ को यज्ञोपवीत की जगह यज्नोपवीत और हवन को यज्न के रूप में उच्चारण करने का सुझाव दिया। मैं बहुंत भ्रम में पड़ गया था, और सहसा मुझे ज्ञान हुआ कि तीसरा उच्चारण करें। फिर क्या था मैंने नया रास्ता अख्तियार कर लिया मै य की जगह ज बोलता, यज्ञोवतीत को जज्नोपवीत और यज्ञ की जगह जग्य बोलने लगा।कोई डांटता तो कभी गुरु जी कभी दादाजी, कभी मित्र के पिता श्री का उद्धरण बड़े कर बच जाता। हालांकि यह तीनों नहीं बताया था।

मेरे हिंदी के अध्यापक का भी मेरे इस संकट को बढ़ाने में प्रबल योगदान रहा। द्य शब्द का वे द और य का संयुक्त अक्षर न कह के ध् और य बोलके विद्यालय को विध्यालय कहते थे और हमको भी यही सिखाते थे। मैं अनेक वर्ष तक द्य शब्द का सही उच्चारण नहीं कर सका और बी ए करते समय सीख सकी। यही हाल है क्ष वर्ण का था मेरे संस्कृत अध्यापक उसे श के रूप में उच्चारित करते थे यानि कक्षा को कक्शा, तो उर्दू वाले छ के रूप में बोलते थे कक्षा को कक्छा।

अंग्रेजी भाषा के अध्ययन के दौरान में फिर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया बल्कि कि उच्चारण विमूड हो गया। शब्द व्हेरीकेशन और वेरीफिकेशन और प्रिनाउसियेशन व प्रिनांउसेशन के बीच में सही उच्चारण क्या है । वह नहीं ढूंढ पाया । मैंने इन्हीं दिनों की जगह भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह पंक्तियां पढ़ लीं-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ! तो मैंने आनन-फानन में यह विदेशी शब्दों के उच्चारण को शुद्ध करने का झंझट छोड़ दिया, फिर बिना विचारे हिंदी पढ़ने लगा, विदेशी भाषा से किनारा कर लिया।

महाविद्यालयों में भाषा विज्ञान के अध्ययन के दौरान विदेशी भाषाओं से आए शब्दों के सही उच्चारण का संकट सामने उपस्थित हुआ था। कॅालेज शब्द का सही उच्चारण कालेज है या कोलेज, या अलॉट शब्द का सही उच्चारण अलोट है या अलाट है इस समस्या और विवाद ने मेरा काफी समय नष्ट किया था। सबसे ज्यादा संकट शॉल के शुद्ध उच्चारण को लेकर था, जब मैंने इसका उच्चारण शाल कहकर किया, तो प्रोफेसर सुरेश चंद शर्मा नाराज हो गए थ,े वह बोले थे यह शालभंजिका वाला शाल नही है ,शॉल है! अब ना तो मैं संगीत का छात्र था ना कोई बड़ा साहित्यकार कि कोई मुझे शाल लीन या शालीन करे और इसका सही अर्थ पता तो इसलिए मेरा शॉल नाम की चीज से दूर, का वास्ता ही नहीं था । शॉल का सही उच्चारण ढंग से करने के बारे में कभी समय नष्ट नहीं किया, क्यौंकि मैंने सोच लिया था कि भारतवर्ष में इस उत्तरीय कहा जाता है तो हम चादर कह देंगे। दरअसल ये अंग्रेजी का ऑ स्वर है ना बड़ा भ्रामक है यह हिंदी के ओ और अ के के बीच का है, इसका उच्चारण होंठ गोल करके सीटी बजाने की तरह कियाजाने से यह बहुत कठिन होता है । हिन्दी और नागरी लिपि में इसे लिखने के क्रम में वर्ण के ऊपर दूज के चंद्रमा की तरह अर्ध चंद बनाते हैं जिसके बीच में बिंदी नहीं होती ।

उच्चारण का संकट हम उत्तरभारतीय लोगों को व्यक्तियों और स्थानों के नाम लेने पर आता है, हमे पता ही नही कि लालडेंगा सही है या ललडेंगा, रीगन सही है या रेगन? नागालैंड और नगालैंड, गोवा और गोआ के बीच सही शब्द के उच्चारण से कमोबेश हम सभी गुजरते हैं । अंग्रेजी में लिखा मिट्टेरेंड उच्चारण में मितेरा कहा जाता है और अरिस्टोटल का उच्चारण अरस्तू कैसे हो जाता है, हम आज तक नही समझ पाए ।

यह संकट नौकरी करने के दौरान फिर आ गया। कार्यालय के मेरे एक साथी बक्शी जी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण हैं उनके द्वारा कुछ शब्दों के सही उच्चारण के लिए टोकने की वजह से उच्चारण का संकट एक बार फिर मेरे सामने आया। वक्षीजी मृत्यु को मुत्यू तथा संस्कुत कहते हैं, जबकि मेरे यहां यार सरदार जी सिद्धू जी अपने उच्चारण में मृत्यु को मिरत्यू और संस्कृत को संसकीरत उच्चारण करते हैं , अब मैं उन दोनों बंधुओं को सही उच्चारण समझा पाता कि फैज अहमद तो तीसरी तरह का उच्चारण करने लगा वह संस्कृत को संसकरत और मृत्यू को मरत्यू बोलता था। जितने लोग उतने उच्चारण। मैंने दफ्तर के लोगों को कुछ भी सही उच्चारण करने का परामर्श देना बंद कर दिया

आज तक नहीं समझ पाया हिंदी में नई ढूंढना मुश्किल है कभी-कभी मुझे लगता है कि यह सब उच्चारण का संकट नहीं है भाषा संप्रेषण की कमी है लेकिन शोध का विषय यह है कि आखिरकार आकाशवाणी के समाचार जैसे योग्य सर वाले भुज प्रतिभाशाली व्यक्ति को यह संकट बार-बार क्यों दिखाई देते हैं दूसरों को क्यों नहीं

राजनारायण बोहरे

उच्चारण के संकट के कारण ही कई शब्दों का स्वरूप बदला गया होगा, यह बात मुझे आज सच प्रतीत होती है । रात के समय पहरा देते अंग्रेज प्रहरी सामने से आने वाले अंजान आदमी से पूछते थे हू कम्स देयर ? यह प्रश्नवाचक वाक्य हिंदी के अल्पसाक्षर प्रहरियों के पास आया होगा तो हुकुम सदर बन गया होगा। हू कम्स देयर का भाषाविज्ञान से हुकुम सदर पढ़ाना भाषा विज्ञान में पढ़ाया जाता है, वहां तो चयह भी पढ़ाया गया कि चतुष्क का चौका, षष्क का छक्का और अक्षवाटिका का अखाड़ा बना था, कृत्यि ग्रहिका का कचहरी भी बना था यह प्रसंग भी मुझे भाषा विज्ञान के प्रोफ़ेसर ने बताया था।

मेरी बोलने और उच्चारण करने की स्पष्ट आवाज की तारीफ करते हुए मेरे दोस्त मुझे आकाशवाणी में समाचार वाचक बनने की सलाह देते थ,े क्योंकि टीवी लायक तो अपनी पर्सनल की नहीं थी कि उन दिनों के उदघोषक वेद प्रकाश जैसी गंभीरता और रमण जैसी स्मार्टनेस दिख। लेकिन खुदा का हाजिर नाजिर मान कर कहता हूं कि मै इसलिए किसी मीडिया में नही गया कि बचपन से लेकर अब तक मेरे सामने कुछ शब्दों के उच्चारण का संकट मौजूद रहा आया है ।

उच्चारण को लेकर संकटों का शुमार मेरे स्कूल और घर से ही हुआ,उन दिनांक मैं कक्षा छह का विद्यार्थी था, तब मैं स्कूल में अपने संस्कृत अध्यापक जी से जनेऊ को यज्ञोपवीत और हवन को यज्ञ कहना सीख रहा था, तो एक बार गलती से मैंने अपने घर पर इन शब्दों का मास्टर जी द्वारा बचाया गया उच्चारण जनेउ को यज्ञोपवीत और हवर को यज्ञ कर दिया तो मेरे दादाजी यानी बापू खफा हो गए और बताया कि यह सही उच्चारण नहीं है-जनेउ को यग्नोपवीत और हवन को यग्न कहना सही उच्चारण हैं। मैं बापू की बात को क्लियर करने के लिए अपने मित्र के पिताजी के पास गया तो उन्होंने जनेउ को यज्ञोपवीत की जगह यज्नोपवीत और हवन को यज्न के रूप में उच्चारण करने का सुझाव दिया। मैं बहुंत भ्रम में पड़ गया था, और सहसा मुझे ज्ञान हुआ कि तीसरा उच्चारण करें। फिर क्या था मैंने नया रास्ता अख्तियार कर लिया मै य की जगह ज बोलता, यज्ञोवतीत को जज्नोपवीत और यज्ञ की जगह जग्य बोलने लगा।कोई डांटता तो कभी गुरु जी कभी दादाजी, कभी मित्र के पिता श्री का उद्धरण बड़े कर बच जाता। ा हालांकि यह तीनों नहीं बताया था।

मेरे हिंदी के अध्यापक का भी मेरे इस संकट को बढ़ाने में प्रबल योगदान रहा। द्य शब्द का वे द और य का संयुक्त अक्षर न कह के ध् और य बोलके विद्यालय को विध्यालय कहते थे और हमको भी यही सिखाते थे। मैं अनेक वर्ष तक द्य शब्द का सही उच्चारण नहीं कर सका और बी ए करते समय सीख सकी। यही हाल है क्ष वर्ण का था मेरे संस्कृत अध्यापक उसे श के रूप में उच्चारित करते थे यानि कक्षा को कक्शा, तो उर्दू वाले छ के रूप में बोलते थे कक्षा को कक्छा।

अंग्रेजी भाषा के अध्ययन के दौरान में फिर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया बल्कि कि उच्चारण विमूड हो गया। शब्द व्हेरीकेशन और वेरीफिकेशन और प्रिनाउसियेशन व प्रिनांउसेशन के बीच में सही उच्चारण क्या है । वह नहीं ढूंढ पाया । मैंने इन्हीं दिनों की जगह भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह पंक्तियां पढ़ लीं-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ! तो मैंने आनन-फानन में यह विदेशी शब्दों के उच्चारण को शुद्ध करने का झंझट छोड़ दिया, फिर बिना विचारे हिंदी पढ़ने लगा, विदेशी भाषा से किनारा कर लिया।

महाविद्यालयों में भाषा विज्ञान के अध्ययन के दौरान विदेशी भाषाओं से आए शब्दों के सही उच्चारण का संकट सामने उपस्थित हुआ था। कॅालेज शब्द का सही उच्चारण कालेज है या कोलेज, या अलॉट शब्द का सही उच्चारण अलोट है या अलाट है इस समस्या और विवाद ने मेरा काफी समय नष्ट किया था। सबसे ज्यादा संकट शॉल के शुद्ध उच्चारण को लेकर था, जब मैंने इसका उच्चारण शाल कहकर किया, तो प्रोफेसर सुरेश चंद शर्मा नाराज हो गए थ,े वह बोले थे यह शालभंजिका वाला शाल नही है ,शॉल है! अब ना तो मैं संगीत का छात्र था ना कोई बड़ा साहित्यकार कि कोई मुझे शाल लीन या शालीन करे और इसका सही अर्थ पता तो इसलिए मेरा शॉल नाम की चीज से दूर, का वास्ता ही नहीं था । शॉल का सही उच्चारण ढंग से करने के बारे में कभी समय नष्ट नहीं किया, क्यौंकि मैंने सोच लिया था कि भारतवर्ष में इस उत्तरीय कहा जाता है तो हम चादर कह देंगे। दरअसल ये अंग्रेजी का ऑ स्वर है ना बड़ा भ्रामक है यह हिंदी के ओ और अ के के बीच का है, इसका उच्चारण होंठ गोल करके सीटी बजाने की तरह कियाजाने से यह बहुत कठिन होता है । हिन्दी और नागरी लिपि में इसे लिखने के क्रम में वर्ण के ऊपर दूज के चंद्रमा की तरह अर्ध चंद बनाते हैं जिसके बीच में बिंदी नहीं होती ।

उच्चारण का संकट हम उत्तरभारतीय लोगों को व्यक्तियों और स्थानों के नाम लेने पर आता है, हमे पता ही नही कि लालडेंगा सही है या ललडेंगा, रीगन सही है या रेगन? नागालैंड और नगालैंड, गोवा और गोआ के बीच सही शब्द के उच्चारण से कमोबेश हम सभी गुजरते हैं । अंग्रेजी में लिखा मिट्टेरेंड उच्चारण में मितेरा कहा जाता है और अरिस्टोटल का उच्चारण अरस्तू कैसे हो जाता है, हम आज तक नही समझ पाए ।

यह संकट नौकरी करने के दौरान फिर आ गया। कार्यालय के मेरे एक साथी बक्शी जी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण हैं उनके द्वारा कुछ शब्दों के सही उच्चारण के लिए टोकने की वजह से उच्चारण का संकट एक बार फिर मेरे सामने आया। वक्षीजी मृत्यु को मुत्यू तथा संस्कुत कहते हैं, जबकि मेरे यहां यार सरदार जी सिद्धू जी अपने उच्चारण में मृत्यु को मिरत्यू और संस्कृत को संसकीरत उच्चारण करते हैं , अब मैं उन दोनों बंधुओं को सही उच्चारण समझा पाता कि फैज अहमद तो तीसरी तरह का उच्चारण करने लगा वह संस्कृत को संसकरत और मृत्यू को मरत्यू बोलता था। जितने लोग उतने उच्चारण। मैंने दफ्तर के लोगों को कुछ भी सही उच्चारण करने का परामर्श देना बंद कर दिया

आज तक नहीं समझ पाया हिंदी में नई ढूंढना मुश्किल है कभी-कभी मुझे लगता है कि यह सब उच्चारण का संकट नहीं है भाषा संप्रेषण की कमी है लेकिन शोध का विषय यह है कि आखिरकार आकाशवाणी के समाचार जैसे योग्य प्रतिभाशाली व्यक्ति को यह संकट बार-बार क्यों दिखाई देते हैं दूसरों को क्यों नहीं