मानस के राम (रामकथा) - 19 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मानस के राम (रामकथा) - 19







मानस के राम
भाग 19



रावण का मारीचि से मिलना


रावण को मारीचि की याद आई। मारीचि उसका मामा था। वह ताड़का का पुत्र था। जब मारीचि ने अपने भाई सुबाहू के साथ विश्वमित्र के यज्ञ में बाधा डालने का प्रयास किया था तो राम के एक बाण ने उसे कई योजन दूर लंका पहुँचा दिया था। तब से मारीचि एक कुटिया बना कर एकांत में रहता था। वह भगवान शिव की आराधना करता था।
मारीचि के पास कई मायावी शक्तियां थीं। वह किसी भी जीव का रूप ले सकता था। अतः रावण ने सीता के हरण में उसकी सहायता लेने का मन बनाया था।
अपनी मंशा लेकर रावण मारीचि से मिला। उसने मारीचि को सूर्पणखा के अपमान, खर और दूषन के वध के बारे में बताया। रावण ने उससे कहा,
"उस साधारण मानव राम को उसके किए का दंड देना चाहता हूँ। अतः मैंने उसकी पत्नी सीता का हरण करने का निश्चय किया है। इस काम में तुम मेरी सहायता करो। तुम रूप बदलने की अपनी शक्ति का प्रयोग कर एक स्वर्ण मृग का रूप लेकर पंचवटी में सीता को लुभाओ। जब सीता के कहने पर राम तथा लक्ष्मण स्वर्ण मृग के पीछे जाएंगे तो मैं उसे हर लूँगा।"
रावण की योजना सुनने के बाद मारीचि ने उसको समझाने का प्रयास किया,
"महाराज मैं प्राणों का भय किए बिना आपसे सत्य कहूँगा। सत्य सुनने में अप्रिय लगता है किंतु लाभकारी होता है। आप राम से बैर मोल ना लें। क्योंकी जिसे आप साधारण मानव समझ रहे हैं वह राम बहुत ही प्रतापी हैं। उनके बल का स्वयं मैंने अनुभव किया है। राम कोई साधारण व्सक्ति नहीं हैं। वह शौर्य का रूप हैं। यदि आप उनकी पत्नी को हानि पहुँचाने का प्रयास करेंगे तो कोई भी उनके क्रोध से आपको नहीं बचा सकता है।"
रावण ने क्रोध में कहा,
"मेरे समक्ष उस तुच्छ मानव की प्रशंसा कर रहे हो। यदि वह बलशाली है तो मैं भी लंकापति रावण हूँ। तीनो लोक में मेरे पराक्रम की गूंज है। मेरे सामने कायरों जैसी बातें कर रहे हो।"
मारीचि ने कहा,
"महाराज मैं आपका हितैषी होने के नाते यह कह रहा हूँ। मैंने राम की शक्ति का अनुभव किया है। इसलिए चाहता हूँ कि आप ऐसा कुछ ना करें जिससे आपकी कीर्ति को धब्बा लगे। किसी भी स्त्री का उसकी इच्छा के विरुद्ध अपहरण करना पाप है। ऐसा करने से आप विनाश को आमंत्रित करेंगे।"
"तुम भूल रहे हो कि मैं तुम्हारा राजा हूँ। राजाज्ञा का विरोध करना दंडनीय अपराध है। राजा होने के नाते मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम सीता का हरण करने में मेरी सहायता करो।"
"मैं राजाज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा। पर आपका मामा होने के नाते आपके हित के बारे में सोचना भी मेरा काम है। ‌ मैं नहीं जानता कि किसने आपको यह विनाशकारी सुझाव दिया। परंतु एक बार फिर कहूँगा कि आपकी योजना आपको विनाश की तरफ ले जाएगी।"
मारीचि ने अपनी तरफ से पूरा प्रयास किया किंतु अभिमानी रावण ने उसकी एक नहीं सुनी। उसने मारीचि को उसकी योजना के अनुसार चलने का आदेश दिया। मारीचि समझ गया कि रावण के अंत और उसकी अपनी सद्गति का समय आ गया है।


सीता द्वारा स्वर्णमृग की मांग

सीता कुटिया के बाहर बैठी थीं। तभी उनकी दृष्टि सुनहरे रंग वाले एक मृग पर पड़ी। वह मृग बहुत ही सुंदर था। उसकी त्वचा स्वर्ण सी चमक रही थी। उसकी सींगें सोने की बनी थीं। सीता को लुभाने के लिए वह कुटिया के आसपास उछल रहा था। कभी वह रुक कर अपने निरीह नेत्रों के साथ सीता को निहारता। जब सीता वह उसके समीप जाने का प्रयास करतीं तो भाग कर दूर चला जाता। सीता का मन उस स्वर्ण मृग को पाने के लिए लालायित हो उठा। उन्होंने तुरंत राम को पुकारा,
"आर्यपुत्र तनिक बाहर आकर देखिए कितना सुंदर व अद्भुत स्वर्ण मृग है। जल्दी कीजिए। कहीं वन में गायब ना हो जाए।"
सीता की पुकार पर राम फौरन बाहर आए। उन्हें मृग दिखाते हुए सीता ने कहा,
"आर्यपुत्र मुझे यह अद्भुत स्वर्ण मृग चाहिए। कृपया आप इसे पकड़ कर मेरे पास ले आएं।"
राम के साथ लक्ष्मण भी बाहर आ गए। उस स्वर्ण मृग को देख कर उन्हें संदेह हुआ कि यह कोई साधारण जीव नहीं हैं। उन्होंने राक्षसों की मायावी शक्ति के बारे में सुन रखा था। वह समझ गए कि यह अवश्य कोई राक्षस है जो उन्हें भ्रमित करना चाहता है। पर सीता उस मृग को पाने के लिए इस तरह मचल रही थीं जैसे कोई बालक खिलौने को पाने के लिए हठ करता है। वह राम को मना रही थीं,
"हम इसे अपने साथ रखेंगे। अब तो हमारे अयोध्या वापसी के कुछ ही दिन शेष रह गए हैं। हम इसे अयोध्या ले चलेंगे। सब इसे देख कर कितने प्रसन्न होंगे।"
सीता की आतुरता देखकर लक्ष्मण ने आगे बढ़ कर कहा,
"भ्राताश्री मुझे तो यह कोई साधारण जीव नहीं लगता है। अवश्य यह कोई मायावी राक्षस है। "
लक्ष्मण की बात सुन कर सीता ने कहा,
"यह कैसी बात कर रहे हो लक्ष्मण। देखो ना यह कितना निरीह है। यह कोई मायावी राक्षस नहीं है।"
वह राम की तरफ देख कर बोलीं,
"आर्यपुत्र मुझे तो यह मृग चाहिए। यदि जीवित ना पकड़ सकें तो इसका वध कर इसकी सुंदर चर्म मेरे लिए ले आइए। क्या आप अपनी पत्नी की इतनी सी बात भी नहीं मानेंगे।"
लक्ष्मण ने पुनः समझाना चाहा किंतु राम ने इशारे से उन्हें रोक दिया। राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया।
"अनुज लक्ष्मण मैं इस मृग के पीछे जा रहा हूँ। तुम यहाँ जानकी के पास रहो। ध्यान रहे कुछ भी हो जानकी को अकेला मत छोड़ना। "
राम ने अपना धनुष व तरकश लिया और मृग के पीछे गए। उन्हें देखते ही मृग कुलांचे भरता हुआ घने वन में प्रवेश कर गया। राम भी उसके पीछे वन में घुस गए।
लक्ष्मण जानते थे कि राम किसी मृग के पीछे नहीं बल्कि मायावी राक्षस के पीछे गए हैं। किंतु वह यह भी जानते थे कि चाहें वह राक्षस कितना ही मायावी क्यों ना हो राम का कुछ भी अहित नहीं कर सकता है। अतः वह निश्चिंत थे। सीता उत्सुकता से राम के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थीं। तभी उन्हें एक करुण पुकार सुनाई पड़ी।
"हे सीता.....हे लक्ष्मण....मेरी सहायता करो..."
राम की आवाज़ सुनकर सीता व्याकुल हो गईं। उन्हें लगा कि अवश्य ही राम संकट में हैं। अतः वह लक्ष्मण के पास जाकर बोलीं,
"हे लक्ष्मण। अभी तुमने अपने भ्राता की करुण पुकार सुनी। वह संकट में हैं। शीघ्र जाकर उनकी सहायता करो।"
लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहा,
"भाभीश्री आप भ्राता राम की चिंता ना करें। विश्व में कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है जो उनका बाल भी बांका कर सके। यह सब उस राक्षस की माया है। वह हमें भ्रमित करना चाहता है। आप धैर्य रखें। भ्राताश्री अभी आ जाएंगे।"
लक्ष्मण को इस तरह निश्चिंत देख कर सीता ने कहा,
"कैसे धैर्य रखूँ। मेरे पति के प्राण संकट में हैं। तुम जाओ और उनके प्राणों की रक्षा करो।"
लक्ष्मण ने एक बार उन्हें फिर से समझाया,
"भाभीश्री भ्राता राम को मार सकने की शक्ति देव दानव गंधर्व किसी में भी नहीं है। आप निश्चिंत रहें। वह मायावी राक्षस हमें भ्रमित कर रहा है।"
सीता ने लक्ष्मण को धिक्कारा,
"कैसे अनुज हो तुम। वहाँ आर्यपुत्र संकट में हैं और तुम आराम से बैठे हो। उन्हें बचाने जाने की जगह मुझे धैर्य रखने को कह रहे हो। यह धनुष तुमने क्या दिखावे के लिए उठा रखा है।"
सीता के वचन चुभने वाले थे। पर लक्ष्मण ने बिना धैर्य खोए शालीनता के साथ अपनी बात कही,
"भाभीश्री मैं भ्राता राम के आदेश का पालन कर रहा हूँ। उन्होंने मुझे आदेश दिया था कि किसी भी परिस्थिति में आपको अकेला ना छोड़ूँ। "
लक्ष्मण की बात सुन कर सीता को क्रोध आ गया। यह सोंच कर कि राम के प्राण संकट में हैं उनकी सोंचने की शक्ति समाप्त हो गई। उन्होंने लक्ष्मण पर कटु शब्दों की बौछार शुरू कर दी,
"तुम इस आदेश के पीछे अपनी कायरता छिपाने का प्रयास कर रहे हो। क्या तुम भी कैकेई की तरह मेरे पति का अहित चाहते हो। इतने दिनों तक क्या तुम अच्छे भाई होने का अभिनय कर रहे थे। मैं तुम्हें आदेश देती हूँ। तुरंत अपने भ्राता राम की सहायता के लिए जाओ।"
सीता द्वारा बोले गए कटु शब्दों को सुन कर लक्ष्मण को बहुत दुख हुआ। वह उनकी आज्ञा मानने को विवश हो गए। जाने से पहले उन्होंने अपने बाण से कुटिया के द्वार पर एक रेखा खींच कर कहा,
"आपकी आज्ञा मान कर मैं जा रहा हूँ। किंतु आप किसी भी परिस्थिति में यह रेखा पार ना कीजिएगा।"
यह कह कर लक्ष्मण आवाज़ की दिशा की ओर चल दिए।

साधू वेष में रावण का आना और सीता हरण

रावण छिप कर इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। वह साधू के वेष में था। लक्ष्मण के जाते ही उसने कुटिया के द्वार पर उपस्थित होकर गुहार लगाई,
"साधू को भिक्षा दो...."
सीता राम की चिंता में बैठी थीं। रावण ने एक बार फिर पुकारा,
"क्या इस साधू को भिक्षा मिलेगी ? मैं बड़ी दूर से आया हूँ। भूखा हूँ और थका हुआ हूँ।"
साधू की आवाज़ सुन कर सीता उसके पास आईं। वह बोलीं,
"महाराज मैं भी आपके लिए भोजन लेकर आती हूँ।"
यह कहकर सीता अपनी कुटिया के भीतर चली गईं। उनका पालन करने की नियत से रावण भी कुटिया की तरह बढ़ा। उसने जैसे ही अपना पैर लक्ष्मण की खींची रेखा के पार ले जाने का प्रयास किया उसे भान हो गया कि यह रेखा शक्ति से पूर्ण है। इसके पार जाना संकट को बुलावा देना है। वह वापस जाकर खड़ा हो गया।
एक पात्र में कुछ कंद मूल व भोजन सामग्री लेकर सीता द्वार पर आईं। उन्होंने विनम्रता से कहा,
"आइए महाराज। आकर भोजन ग्रहण कर लीजिए।"
रावण ने सीता से कहा,
"देवी मैं किसी भी कुटिया में प्रवेश नहीं करता हूँ। आप द्वार के बाहर आकर भिक्षा दें।"
साधू का अनुनय सुन कर सीता सोंच में पड़ गईं। उन्हें लक्ष्मण की चेतावनी याद आई। उन्होंने कहा,
"महाराज मेरे पति और मेरे देवर इस समय कुटिया में नहीं हैं। मेरे देवर ने मेरी रक्षा के लिए कुटिया के बाहर एक रेखा खींची है। मैं उसे पार करके आपके पास नहीं आ सकती। अतः आप स्वयं आकर भोजन का यह पात्र ग्रहण कर लें।"
रावण ने क्रोध दिखाते हुए कहा,
"तुम एक साधू का अपमान कर रही हो। क्या तुम्हारे कुल में अतिथि सत्कार की यही रीति है। यदि ऐसा है तो मैं भोजन ग्रहण नहीं करूँगा‌। तुम मुझे एक साधारण साधू समझ कर मेरा अपमान कर रही हो। परंतु तुम नहीं जानती। मैं त्रिकालदर्शी हूँ। मैं देख सकता हूँ कि इस समय तुम्हारे पति के प्राण संकट में हैं‌। वह एक बहुत सुंदर सुनहरे मृग का पीछा कर रहा था। उस मृग ने उसे घायल कर दिया है। वह सहायता के लिए तड़प रहा है।"
साधू वेष धारण किए हुए रावण की बात सुनकर सीता चिंतित हो गईं। यह सोचकर कि यह साधू सचमुच बहुत ज्ञानी है। इससे भला किस तरह का भय वह भोजन का पात्र लेकर बाहर आ गईं। उन्होंने जैसे ही भिक्षा देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया रावण ने उन्हें पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया। साधू वेष त्याग कर वह अपने वास्तविक रूप में आ गया। जोर जोर से अट्टहास करता हुआ वह सीता को खींच कर पुष्पक विमान की तरफ से ले जाने लगा।
सीता सहायता के लिए राम तथा लक्ष्मण को पुकार रही थीं। रावण को उसकी धृष्टता के लिए सावधान करने लगीं,
"दुष्ट पापी छोड़ दे मुझे । तूने शूरवीर राम की पत्नी को छूने का दुस्साहस किया है। तुझे इसका भयंकर परिणाम भुगतना पड़ेगा।"
अपने अहंकार के मद में चूर रावण ने उनकी बात नहीं सुनी। वह उन्हें खींच कर पुष्पक विमान पर ले गया।