पारूल दी - दिनेश पाठक राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पारूल दी - दिनेश पाठक

पुस्तक समीक्षा

पारूल दी - उम्दा कथाओं का गुलदस्ता- राजनारायण बोहरे

पुस्तक - पारूल दी
कथा संग्रह
लेखक - दिनेश पाठक
प्रकाशक - भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली


हिन्दी कहानी की यह विडम्बना है कि यहाँ हर बड़ा आलोचक, संपादक और लेखक अपनी जेब में कुछ श्रेष्ठ समकालीन कथा लेखकों की सूची लिए घूमता है,, ... और त्रासदी यह कि सर्वमान्य और उम्दा कहानियों की कोई एक सूची और कथा की श्रेष्ठता के मानक अभी तक वर्तमानयुग के कथा साहित्य के बारे में उपलब्ध नहीं है । ऐसे भाई-भतीजावाद (बल्कि उपयुक्त शब्द यह है कि मठ-महंत परंपरा) की वजह से न तो लेखकों का सही मूल्यांकन हो पा रहा है न ही अच्छी कहानियों को फोकस में लाया जा रहा है । भाषा पर अपनी सशक्त पकड़ बनाकर आंचलिक हुए बिना कथा लिख रहे हिन्दी के कुछ सशक्त (लेकिन दिल्ली वालों की सूची में उपयुक्त स्थान नहीं पाने वाले ) लेखकों में महेश कटारे, कैलाश वनवासी और दिनेश पाठक के नाम शामिल किए जा सकते हैं ।
दिनेश पाठक यूं तो हलद्वानी के पहाड़ों से आते हैं लेकिन उनकी कहानी में पहाड़ उतने भर हैं जितने महेश कटारे की कहानियों में बीहड़ और चम्बल तथा कैलाश वनवासी की कथाओं मंे छत्तीसगढ़ ।
अपनी सहज-सरल ष्शैली में किस्सा बयान करने में निपुण दिनेश पाठक की कथाओं में गजब की पठनीयता है । उनके संग्रह ‘पारूल दी’ में कुल जमा आठ कहानियां ष्शामिल हैं । जिनमें ‘जुगाली’ और ‘पारूल दी’ अपेक्षाकृत लम्बी कहानी हैं। लेकिन बाकी छहों कथाएं सामान्य आकार की लेकिन गहरे संदर्भों की कथाएं हैं । पारूल दी शीर्षक कथा भी है और कथा की नायिका का नाम भी । अतीव सुंदरी व प्रतिभाशाली है पारूल दी, लेकिन गृहकार्य सिखाने की जिद में पारूल की मां उसे पढ़ाती लिखाती नहीं । कम उम्र में ही ब्याह होता है और अजीब प्रवृत्ति के ससुराली मिलते हैं उसे, न भर पेट भोजन न बहू जैसा मान । पति चिंतामणि का व्यक्तित्व ही एक दब्बू और मां के आंचल में दबे-दबे व्यक्ति है जो न तो घर में अपनी पत्नी को अधपेट खाना देने का प्रतिकार कर पाता है न ही उसकी कुछ मदद । अंततः वह एक दिन चाय की दुकान से बिस्कुट का पैकिट खरीदता है और घास काटने जा रही पारूल को दे देता है । जिसे वह खा नही पाती घास की डलिया में रखकर लौटा लाती है और सास की नजर में आते ही पारूल वैश्या और चरित्रहीन ठहरा दी जाती है, ... और यह सब सुनता उसका पति चुप बना रहता है । ससुराल से निकाली पारूल घर लौटकर चुप्पी साध लेती है तब आशी नामक उसका चचेरा भाई उसकी चुप्पी तोड़ने मंे कामयाब होता है तो असलियत पता लगती है । पारूल घर के कामों में तन तोड़कर जुट जाती है उधर उसके पति का दूसरा ब्याह हो जाता है, लेकिन तीसरी संतान जनती उसकी पत्नी खत्म हो जाती है और चिंतामणि के मां-बाप अचानक पारूल को वापस लिवाले जाने को आ पहुंचते हैं । मां-बाप यही चाहते हैं कि बेटी पतिगृह जाये लेकिन अंतिम क्षणों में पारूल तय करती है कि वह डोरी से बंधकर दूसरों की इच्छा पर नहीं चलेगी, पतिगृह नहीं जावेगी ।
युद्ध कहानी मार्मिक व्यथा है प्रोफेसर पन्त की और उन जैसे उन हजारों पिताओं की जिन्होंने अपनी आंखों के चिराग खो दिये हैं - युद्ध में । कथा में नाम के लिए जरूर कारगिल युद्ध है लेकिन यहां किसी भी युद्ध का नाम दिया जा सकता है, दुनिया के हर देश में राजनैतिज्ञ ऐसे ही युद्ध थोप रहे हैं। अपने जवानों पर जवानों के आश्रित मां-बापों पर, मात्र अपनी कमजोरी छिपाने के लिए, खुद को दृढ़ साबित करने के लिए और अपने को बहादुर प्रदर्शित करने के लिए, भले ही वातानुकूलित कक्षों में बैठकर वे उस मौत की कल्पना न कर पाते हों जो सैनिक झेलता है । सैनिक ईराक, ईरान, सूडान, अफगानिस्तान या भारत कहीं का भी हो सकता है । गीता से प्रेरणा लेकर जीवन-मृत्यु के मोह से युक्त होने की कोशिश करते पंत सर को इकलौते बेटे के षहीद हो जाने के परिणामस्वरूप् षहीद की मां की विक्षिप्तता, बहू का कारूणिक रूदन और अमरीका में रो-रो कर घर की चिंता करने वाली बेटी के फोन विचलित करते हैं लेकिन वे सबके सांत्वना देकर खुद को भी बिखरने से बचाये रखते हैं । बेटे ने युद्ध लड़ा ही, पिता भी यहां कई मोर्चों पर जूझता रहता है ।
देश विराना कहानी का मूल भाव यह है कि हर प्राणी की अपनी जगह निश्चित है, वहीं रह के वह सही ढंग से पुष्पित-पल्लवित और प्रसन्न रहता है, इधर-उधर कर देने पर उसकी स्थिति असहज हो जाती है । मिसेज गोस्वामी का आवास सूने स्थान पर है । उन्हें जो महरी मिलती है उसका एक बच्चा मिसेज गोस्वामी की बेटी की उम्र का है । उसके आते ही दिन भर मां से चिपकने वाली बेबी केा खेल के लिए हमउम्र साथी मिल जाता है तो अनिच्छा से बेबी की मां यथास्थिति स्वीकार करके महरी के बेटे को दिन भर अपने घर पर रोक लेती है। महरी के लिए यह बिन मांगी दौलत है, कि उसका बेटा इतने बड़े आदमी की बेटी के साथ खेले। वह अपनी गंदी लेबर कॉलोनी (झुग्गी-झौंपड़ी) के बच्चों से अपने बिटवा को कुछ खास मानकर उनके के साथ खेलने नहीं देती, कि सूने पड़े ऑफिसर आवासों में एक परिवार और रहने आ जाता है । हालांकि महरी को काम की एक और जगह मिल जाती है ेेकिन नये परिवार की हम उम्र बच्ची गोस्वामी परिवार की बच्ची को ऐसी दोस्त के रूपमें मिलती है जो बिटवा को सबसे दूर कर देती है और गुमसुम बिटवा को देख महरी उदासी मेें डूब जाती है । फिर एक दिन बिटवा को महरी की अनुपस्थिति में निकाल बाहर कर दिया जाता है । लौटकर महरी व्याकुल हो बच्चे को ढूंढने निकल पडती है और जब देखती है कि उसका बेटा अपनी कॉलोनी के अपने वर्ग के हम उम्र बच्चों के बीच खूब प्रसन्न और हंसता-खिलखिलाता खेन में मगन है तो उसे यह खुशी एकदम बाद अपने बेटे को मिली महसूस होती है । वह समझ लेती है कि उसके वर्ग के आदमी के लिए मुकम्मल जगह अपना वर्ग, अपने लोग हैं उससे हटकर उससे ऊँचे लोग तो विराने देश के वासी है ।
चौथी कहानी ‘बस, यही सच’ सीधे तरीके से एक बहुत बड़ा सच बयान करती है कि जज्बात में बहकर युवा लोग भले ही कुछ वायदे कर ले (खासतौर पर स्त्रियां) लेकिन जब सच्चाई से सामना होता है तो सारे ख्याली पुलाव भुला दिये जाते हैं। सुनीता ने भी कथा नायक से साथ-साथ जीने-मरने के वायदे किये थे, लेकिन उसका ब्याह अन्यत्र हो जाता है तो खिलदंडे पति और वृद्ध सास-ससुर के यहां पहुंचकर सुनीता सब कुछ भूल जाती है । उसका नया रूप देखने और अपने पुरानी प्यार के कोई निशानात खोजने जब सुनीता के ससुराल पहुंचता है तो सास-ससुर, बच्चा और पति में खोई सुनीता के चेहरे पर उसे कोई दूसरी भावना देखने को नहीं मिलती । कथा में तो नहीं आता लेकिन सारतः यही निश्कर्श निकलता है कि इश्क मोहब्बत या प्यार-व्यार कच्ची उम्र के शगल है । गृहस्थी ही सच है ।
‘जुगाली’ कहानी यों तो एक अरसे बाद अपने गांव लौटे बुजुर्ग की यादों की लुभाती है लेकिन यह जुगाली गहरे अर्थ लेकर आई है । अठत्तर वर्षीय कीर्तिवल्लभ अपनी बूढ़ी पत्नी और बेटे-बहू को लेकर गांव में देवी पूजा करने आते हैं तो गांव देखके उनके मन के स्मृति कोश में जम कर बैठ गया अतीत पिघल कर वह निकलता है और कीतिवल्लभ अपने बेटे, बहू व पत्नी को गांव के एक-एक स्थान का परिचय देते हुए अपने बचपन की घटनाएं सुनाते चले जाते हैं, उस वक्त उनके चेहरे पर बालसुलभ उत्तेजना है । उनकी बाल क्रीड़ाओं में ढोर चराना, जंगली फल खाना, ककड़ी चुराकर खाना, रामलीला में भाग लेना और भी जाने क्या-कया अनुभव शामिल है । पत्नी नाराज है, बहू मजे ले रही है लेकिन यतीश (उनका बेटा) सहसा गंभीर हो जाता है और सोचता है कि पिता का बचपन कितना समृद्ध था, कैसा वैभवशाली कि ईर्ष्या हो उठे। यतीश के पास इतनी क्रीड़ा में डूबी, ऐसी मस्ती से लबरेज व ऐसे खिलंदडेपऩ से भरे बचपन की स्मृतियां नहीं है । पिता के शहर दर शहर ट्रांस्फर के साथ वह भटकता रहा हे और उसे आधा-अधूरा बचपन हाथ लगा, जिसमें से मस्ती गायब थी, उमंग गायब थी और निडरता भी । ... उसे अपने बेटे सार्थक की याद आती है-और सार्थक का बचपन ? उसे लगता है कि इस युग के बच्चों के पास तो बचपन फटका ही नहीं। तीन साल की इस उम्र में स्कूल में दाखिला दिला के मां-बाप उसके बचपन को मोटे बोझ तले दबा देते हैं। बेचारे बच्चे पर होमवर्क,स्कूल,टयूशन,कम्प्युटर का दबाव रहता है और इसी के बीच जन्म लेने से कहीं पहले उसका बचपन दम तोड़ देता है। यतीश खिन्न है कि आज के बच्चों के पास बचपन की मीठी मनोरंजक यादों के नाम पर कुछ नहीं होगा, कुछ भी नहीं ।
‘‘यह आदमी’’ ऐसे दो बचपन के मित्रों की कहानी है , जिनमें एक मित्र जिसका नाम बी.एस. है वह 20 वर्ष पूव्र अपना कस्बा छोड़कर विदेश दुभई चला जाता है और वहां से बहुत सारा पैसा कमाकर अपने कस्बे में लौटता है एक दिन बी.एस. एक पान की दुकान पर खड़ा होकर पान खा रहा होता है और उसे उसके बचपन का दोस्त एस.पी. मिल जाता है वह उसे देखकर ‘‘अरे ओ.ए.पी.’’ नाम से आवाज लगाता है । एस.पी. उसके पास आता है और दिमाग पर जोर देने के बाद अपने पुराने साथी की एस. यानी भरत सिंह को पहचान पाता है । दोनों मित्र गर्म जोशी से मिलते है और अपने बचपन की यादें ताजा करते हैं । भरत सिंह चूंकि दुभई से बहुत सारा पैसा कमाकर लौटा हे अतः वह अपनी रहीसी के सभी हालात एस.पी. को बताता हे एस.पी. उसकी बातें सुनकर चकित होता है कि बचपन का एक सीधा एवं शर्मीला यह आदमी कितना बदल गया है । बी.एस.एस.पी. को अपनी आलीशान कोठी में ले जाता है और अपनी अमीरी के तमाम गुणगान करता है ।
एस.पी. भरत सिंह से कहता है याद तेरी मां पिछले साल गुजर गई लेकिन तू शहीद नहीं हुआ भरत सिंह साधरतणतः टाल जाता है और कहता है कि विदेशी व्यवस्था में ऐन वक्त पर साली छुट्टी नहीं मिली । बी.एस. जो कभी घर के प्रति बहुत लगाव रखता था वहीं बी.एस. कहता है जो मर गया सो मर गया यह सब सुनकर एस.पी. स्तब्ध रह जाता है । इसके पश्चात् भी बी.एस. व्यस्तता को एवं अमीरी मन के तमाम वसान करता है । कोठी देखकर एस.पी. चकित रह जाता है । इंजीनियर को अनावश्यक निर्देश देने के बाद बी.एस., एस.पी. को अपनी एक आलीशान किराये की कोठी में ले जाता है वहां भी विलासिता की पराकाश्ठा को देखकर एस.पी. दंग रहता है । दोनों मित्र पत्नी एवं बच्चों के बारे में बात करते हैं । बीच-बीच में बी.एस. अपनी अमीरी एवं एस.पी. को वह पुरानी हालत के ताने से मार कर कहता है कि तुम रहे टीचर के टीचर ही । बातों बातों में बी.एस. तमाम तरह की विदेशी शराब एस0पी0 को दिखा कर पूछता है क्या पियोगे दोस्त ? एस.पी. सिर्फ एक कप कॉफी के लिए कहता है बी.एस. उसका मजाक उड़ाता है । अंत में बी.एस. अश्लीलता भरी कई बातें करता है । इस बीच कॉफी आ जाती है । बी.एस. एस.पी. से कहताहै कि भाभी से कब मिलायेगा यह क्यों नहीं कहता कि घर चल भाभी के हाथ के परांठे खिलवाउंगा । एस.पी. कॉफी का घूंट भरकर उपरोक्त बातों को सुनकर कुछ परेशान हो जाता है । इसी बीच बी.एस. को शराब का नशा होने लगता है और एस.पी. तुरंत जाने की अनुमति लेकर चल देता है । उपरोक्त कहानी को पढ़कर स्पश्ट होता है कि विदेशी सभ्यता एक धन की बाहुल्यता में आदमी कैसा बदल जाता है।
कहानी किसके लिए ‘‘एक भारतीय प्रशासनिक सेना के ऐसे अधिकारी के जीवन की कथा है जिसकी पत्नी भी प्रा.प्र. सेवा की अधिकारी है । पति महोदय का नाम अनुराग है एवं पत्नी का नाम षालिनी मुखोपाध्याय । अनुराग जब ऑफिस से देर रात कड़कती सर्दियों में घर लौटते हैं तो नौकर मोहन सिंह दरवाजा खोलता है । साहब पूछते है बच्चे सो गये क्या ? मोहन सिंह जवाब देता है जी सेप वो तो कबके सो गये कोई प्रतिक्रिया नहीं जैसे पहले से ही जवाब मालूम था । शयन कक्ष में पहुंचते है पत्नी सएक खूबसूरत टेबिल कुर्सी पर फाइलों में डूबी हुई है । पूरा शरीर गर्म कपड़ों से ढका हुआ है । पत्नी गर्दन घुमाकर पलाश को उनकी ओर देखती है और पुनः फाइलों में खो जाती है । बाथरूम से मिलकर वह बच्चों की तरफ देखते हैं जो बेसुध सो रहे हैं उनको प्यार करने की इच्छा होती है सोचते हैं कि माँ बाप दोनों के होते हुए बच्चे कितने अकेले हो गये हैं । मोहन सिंह को जैसे उनका माता-पिता सब कुछ है । अनुराग भी ड्रिंक के बाद खाना खाकर अपने ऑफिस की फाइलों में डूब जाते हैं । पत्नी फाइलों से निबटकर धीरे से उठकर पलंग पर जाकर सो जाती है । मि. अनुराग त्रिपाठी अपनी जिन्दगी से खुश नहीं है । अवसाद उन्हें घेरने लगा डॉक्टर कहता है दुनिया के सभी सुविधाएं होने के बाद आपको किस का डिप्रेशन ने चुप रहे डॉक्टर को कैसे समझते कि यह सब जिसे वह सुख कह रहे हैं । वह सब बाहरी दिखावा है । अनुराग के पिता इण्टर मीडिएट में प्रधानाचार्य थे । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशंसित एवं बेहद जिंदादिल आदमी । उन्होंने की प्रशासनिक सेना में के सपने अनुराग को जगाये थे । पहले पोस्टिंग के बाद ही जिंदगी के मायने बदल गये । वही सोनाली मुखोपाध्याय से उनकी मुलाकात हुई जो भा.प्र.सेना में नई-नई आई थी । मुलाकात घनिश्ठता में बदल गई । पिता जी इस विवाह के पक्ष में नही थे । बाप-बेटे में वैचारिक भिन्नता थी लेकिन इस बात में चली अनुराग की और पिताजी ने हथियार डाल दिये थे । कहा था ‘‘जैसे तुम्हारी मर्जी’’ । वही सोनाली अब उनकी पत्नी थी । समय गुजरता गया पति पत्नी के विचारों में भिन्नता स्पश्ट झलकने लगी । संवाद जैसे दोनों के लिए अर्थहीन हो गये । कभी-कभी लगता है कि दो भिन्न संस्कृतियों से आए हुए लोगों का कई बार एक साथ जीना कितना मुश्किल होता है । सोनाली को अनुराग से तमाम शिकायतें हैं वह उसे पहाड़ी मानती है और इस कारण उसका मानना है कि अनुराग कहीं से आई.ए.एस. अधिकारी नहीं लगते बल्कि पक्के लगते हैं लेकिन अनुराग को सहज भाव में जीना ही अच्छा लगता है । इसी वजह से एक दिन सोनाली ने चिढ़कर कह दिया था ‘‘तुम अपनी तरह से जीओ अनुराग जैसा तुम्हें पसन्द है, मुझसे अपनी परेशानी हो तो दम अलग-अलग भी रह सकते हैं सभी बातें सोच-सोचकर वह सो जाते हैं । सुबह मोहन सिंह में साढ़े सात बजे जगाया पत्नी ऑफिस के लिए तैयार हो चुकी थीं । मोहन सिंह पत्नी का सारा सामान गाड़ी में रख आया बाहर निकल कर पत्नी ने सूचना दी अनुराग निकल रही है । उनके बीच अब सूचनाओं का आदान-प्रदान रह गया था । दोनों की जिंदगी में नीरसता है । कहानीकार ने कहानी के माध्यम से भारतीय प्रशासनिक सेना के पति-पत्नी की पारिवारिक जिंदगी कैसी हो जाती है इस पर प्रकाश डाला है।
हालात कहानी हमारे देश के हर उस कस्बे की कथा है जहां विकास तरक्की और षहरीकरण ने आपसी रिश्ते और मानसिकता बदल दी है । उनियाल 23 साल बाद कस्बे में लौटता है तो कस्बे का भौगोलिक बदलाव उसे मन-ही-मन अच्छा नहीं लगता । सारी पुरानी चीजें गयाब हैं । उसके दोस्त कामरेड चतुर्वेदी बौद्धिक केन्द्र के रूप में चल रही पत्र-पत्रिकाओं की दुकान बंद कर वहां चमाचक इलैक्ट्रॉनिक्स की दुकान खोल ली है और अब वे षुद्ध व्यापारी हो गये हैं । यह देखकर उनियाल दुखी होकर भाग निकलता है । वह पुरानी सूनी (लेकिन इस बाद आबाद) भुतहा गली से निकर रहा होता है । जावेद नामक उस हज्जाम से होती है जो कभी स्मार्ट और समृद्ध था, उसकी दुर्बल काया, टुटही दुकान और कमजोर हालत देखकर उनियाल चाह कह भी पूछ नहीं पात कि यह क्या हो गया कि चौक की दुकान कहां गई ? का प्रश्न उनियाल की तरह से आते ही हिन्दु-मुसलमान दंगे में दुकान की बरबादी, हर दिल अजीज का पागलपन और बाद में निर्मम हत्या का किस्सा सुनकर जावेद कस्बे को बदल गया बताता है...वह यहां आदमी नहीं मजहबी रहना मानता है और अजीब बात यह है कि दंगे में बराबर हुए दोनों मजहब के रिफ्यूजी ने मिलकर (भुतहा गली) में दुकाने खोली हैं । हजामत कराके चाय का नाश्ता व आत्मीयता से मिलता है तो उनियाल चाय पीकर वहां से भाग निकलता हे और जल्दी से जल्दी कस्बे को छोड़ देने का निर्णय करता है ।
यूं तो संग्रह की सभी कहानियों में प्रारंभ और अंत में उठान ला देने की कारीगरी नहीं है । लेकिन कथा की गंभीरता कुछ कथाओं में अंत में आकर कुछ कमजोर हो जाती है, हे कि अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाती । जिनमें ‘हालात’, और यह आदमी कहानियां आती हैं ।
भाशा और द्वंद्व मिलकर इन कथाओं को प्रभावशाली बनाते हैं और इसी कारण दिनेश पाठक पठनीय हो जाते हैं भले ही उनकी कथाओं में ग्लोबबना उत्तर आधुनिकतावाद या विखण्डवाद दूर से भी न दिखाई देता है ।
एक पाठक को अलग-अलग भावभूमि की इन कथाओं में मजा आयेगा लेकिन कहानी से पठनीयता के अलावा दीगर तमाम अपेक्षायें पालने वाले समीक्षकों के हाथ इस संग्रह में कुछ नहीं लगने वाला ।

पुस्तक - पारूल दी राजनारायण बोहरे
कथा संग्रह एल.19 हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
लेखक - दिनेश पाठक दतिया
प्रकाशक - भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली