दह--शत - 56 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 56

एपीसोड –56

प्रेसीडेन्ट  शतपथी पूरे भारत के इस विभाग के प्रमुख हैं। उनमें भी हिम्मत नहीं है कि दो अधिकारियों को दिल्ली से छानबीन करने भेज सकते ? एक स्त्री अगर मुसीबत में फँस जाये तो? अमित कुमार के इशारे पर नाचने वाले सुरक्षा विभाग का इंस्पेक्टर समिधा को क्या न्याय दिला पायेगा?

दस बजे तक वह सारे ज़रूरी काम करके तैयार होकर मुस्तैद होकर बैठ जाती है। अभय एक इंस्पेक्टर व उसके सहायक के साथ घर पर आते हैं, “यदि आप चाहें तो अभय जी के सामने बयान न दें।”

“नहीं मैं इन्हीं के सामने बयान दूँगी, नहीं तो गुंडे इन्हें भड़का देंगे कि मैंने इनके खिलाफ़ बयान दिया है लेकिन मैं चाहती हूँ एम डी मैडम या किसी अन्य आफ़िसर के सामने बयान दूँ।”

“जी, यह हमारे विभाग  में आई ‘इनक्वॉयरी’है। हम ही पूछताछ करेंगे।”

समिधा बहुत सम्भलकर बयान दे रही है, साथ आया कांस्टेबिल उसे नोट करता जा रहा है। समिधा की बताई बहुत सी बातें इंस्पेक्टर नोट नहीं करने दे रहे, “आप अधिक विवाद मत बढ़ाइए, आप वर्मा का ट्रांसफ़र  ही तो चाह रही हैं।”

“जी हाँ, आप ये भी लिखिए जब तक मेरे बेटे के बयान न लिये जायें इस ‘इनक्वायरी’ को पूरा न समझा जाये।”

इंस्पेक्टर हाथ में ली हुई उसकी ‘कम्प्लेन’ की कापी लहराते हुए कहते हैं,“इनमें तो आपके बेटे के साइन नहीं है।”

“तो उससे क्या है? हमारे व वर्मा के पड़ौसी तक नहीं जानते कि इतनी बड़ी ‘क्रिमिनल कॉन्सपिरेसी’ चल रही है। सिर्फ़ मेरे बच्चे ही गवाह हैं।”

“ये बड़ो का मामला है, आप बच्चों को बीच में क्यों ला रही हैं।”

“यदि आप ये बात नहीं लिखेंगे तो मैं हस्ताक्षर नहीं करूँगी।” वह भी अड़ जाती है। इंस्पेक्टर को झुककर ये लिखवाना ही पड़ता है।

“मेरा बेटा आपको कब मिलने आये?”

“इतवार को भी मिलने आ सकता है।”

विभागीय सुरक्षा कर्मियों के सामने बयान देना कितना गलीज़ लगता है लेकिन वक्त की मार ऐसी होती है। दूसरे दिन वह इंस्पेक्टर को फ़ोन करती है। वह अपनी आदत से मजबूर है.

वह इंस्पेक्टर के माध्यम से अमित कुमार को धमका रही है या समझा रही है, “इंस्पेक्टर साहब ! चार वर्षों से धीरज रखकर लड़ रही हूँ। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं नेशनल वीमन कमीशन द्वारा कोर्ट में जाऊँगी। यदि ऐसा हुआ तो पता नहीं कितने परिवारों के बच्चों को कलंक ढोना पड़ जायेगा। मेरे बच्चे तो  सेटल हो गये हैं। वे लोग अपने बच्चों की चिंता करें।”

“डोन्ट वरी मैडम ! मैं पूरी कोशिश करूँगा।”

``एक बात और कह रहीं हूँ जिन्होंने अभय को रटाया है कि  वी आर एस ले लो वे सब कभी पूरी नौकरी नहीं कर पायेंगे ।मेरे  इस बात के आप गवाह हैं। ``

``जी। ``ये खिल्ली उड़ाती आवाज़ है।

“और हाँ, डिप्टी एम.डी. के पी.ए. विश्वमोहन जी से मैं इन चार वर्षों से प्रश्न पत्र टाइप करवाती रही हूँ। वे आपको बतायेंगे कि मेरी मानसिक हालत बिल्कुल ठीक है।”

शनिवार की रात को अक्षत आ गया है उसका मुँह भी उतरा हुआ है। इतवार की सुबह घर पर, साँसों पर एक बोझिल दबाव है। अभय व अक्षत सुरक्षा विभाग जा रहे हैं। अभय थोड़ी देर में लौट आते हैं। हँसते खेलते घर पर पड़ी काली छाया ने इसे अपने काले डैनों में समेट लिया है।

जैसे-जैसे घड़ी की सुई आगे बढ़ रही है समिधा को भय लग रहा है अक्षत को जाल में उलझा कर कहीं उल्टा सीधा न लिखवा लें..... नहीं.... नहीं...... ऐसा नहीं हो सकता..... अक्षत एक ज़िम्मेदार पद पर है।

दो घंटे बाद वह लौटता है, “देर इसलिए हो गई कि उनका बीच-बीच में अपना काम भी चल रहा था। इंस्पेक्टर काफी तमीज़ से पेश आ रहे थे। कह रहे थे वर्मा परिवार आपके परिवार की बहुत इज्ज़त करता है।”

“तभी तो इसे बर्बाद करने की कोशिश कर रहा है।”

“वे बता रहे थे कि उन्होंने अपना देसाई रोड का मकान बेच दिया है।”

“क्योंकि कविता का वह अड्डा मेरी नज़र में आ गया था।”

“बीच में एक इंस्पेक्टर भी आया था जिसने बताया कि वह भी उस समय एक दुकान पर खड़ा था जब आप वर्मा के घर गई थीं, वहाँ झगड़ा हुआ था।”

“तुम्हें नहीं पता कि मैं किन परिस्थितियों में वर्मा के घर गई थी?”

“मुझे तो पता है लेकिन ये बात आपके विरुद्ध जाती है। वे कह रहे थे आपने जो गुमनाम पत्र लिखे थे उसकी उन्होंने फ़ाइल बना रखी है।”

“उन्हीं पत्रों के कारण उनकी योजनाएँ फ्लॉप करती रही हूँ। मेरे पास भी कविता के पत्र रखे हैं जिसमें उसने लिखा है कि मैं दो-दो मोबाइल रखती हूँ, अपने पति के साथ बैठकर पत्र लिखती हूँ। उन्होंने तुम्हारे बयान पर हस्ताक्षर लिये हैं या नहीं।”

“ ऐसा को उन्होंने कुछ नहीं किया।”

“तो गोया तुम्हें बुलाकर मुझे डराया गया है।”

“वह यही दबाव डाल रहे थे कि आप एम.डी. मैडम से मिलें तभी वर्मा का ट्रांसफ़र हो सकता है।”

“मैं उनसे क्यों मिलूँ ? उन्होंने तो जान बूझकर अधूरी जाँच करवाई थी।”

दूसरे दिन अक्षत का मुम्बई पहुँच कर ऑफिस से चिंतित सा फ़ोन आता है, “आप एम.डी. मैडम से मिलेंगी या नहीं।”

“बिल्कुल भी नहीं। कहीं तो कुछ गड़बड़ है।”

“आप कहती थीं कि शी इज ए डिग्निफ़ाइड लेडी।”

“ये क्यों भूल रहे हो कि सारे कांड की शुरुआत भी एक औरत ने की है।”

“बट शी.......।”

“अक्षत ! हम कलियुग में जी रहे हैं, शराफ़त का नकाब लगाये ये राक्षसों की दुनिया है। अब मुझे याद आ रहा है मेरे गिड़गिड़ाने के बावजूद उन्होंने नारकोटिक सेल को ख़बर नहीं की थी, शतपथी साहब से शिकायत करने के लिए भी मना कर रही थी। अमित कुमार से उनकी भी कोई ‘टाय’ हो सकती है जो वह मुझे पागल साबित करना चाहती है। मेरी बात का सबूत है डिप्टी एम.डी. ने तेरे पापा के स्टेटमेंट लिये थे, मुझे नहीं बुलाया गया।”

“कैसी ‘टाय ?”

स्पष्ट उत्तर तो समिधा के पास ही नहीं है।

ये इन्क्वॉयरी सिर्फ दिखावा है, उसे पता है। लेकिन पथ्थर पर रस्सी से बार-बार निशाना डालो तो निशान ज़रूर बनता है। कविता के घर का पीछे का बरामदा अँधेरे में डूबा रहता था, अब सड़क के तरफ़ की खिड़की बंद रहती है। समिधा दृढ़ प्रतिज्ञ है इस रोशनी को भी बंद करके रहेगी, कैसे? रास्ते पता नहीं है। वर्मा दिखाई नहीं देता। कहीं से खबर मिलती है वह बीमार है, अजमेर गया है। इंस्पेक्टर ने बयान तो समिधा के भी लिये हैं लेकिन सच्चाई ने वर्मा का शरीर तोड़ जाला है।

उस दिन रात में रास्ते में अभय व समिधा ने घूमते हुए अस्पताल का पहला गेट पार किया है। अस्पताल के दूसरे गेट से एक स्कूटर तेज़ी से निकलता है। उस बैठा है कविता का बेटा, पीछे की सीट पर बैठी है कविता बेशर्म मुस्कान से मुस्कराती निकल जाती है।

कविता को दरिन्दे राक्षसों की कौन-सी श्रेणी में रखे आज पति नहीं उसका बेटा उसे वापिस ला रहा है। पति की बार-बार की बीमारी उसे रोक नहीं पा रही।

अभी हफ्ता भर गुज़रा है। सुबह-ही-सुबह एक अनजाना चेहरा एक पॉलीबैग उसे पकड़ाता है,“विश्वमोहन जी ने आपको पेपर्स भेजे हैं।”

घर का सारा काम समाप्त कर वह इत्मीनान से पेपर्स देखने बैठती है। नीले रंग के पॉलीबैग में से प्रश्न पत्र निकालकर पहला पृष्ठ देखती है, उसे कुछ अटपटा लगता है। उस पृष्ठ के बीच में हल्के रंग का विभागीय मोनोग्राम है, वह जल्दी-जल्दी सारे पृष्ठ देख डालती है। सभी पर वह मोनोग्राम बना है। आज तक विश्वमोहन जी ने कभी विभागीय ज़ेरोक्स पेपर्स उपयोग नहीं किये। वह सकते की हालत में हैं..... तो ..... तो? ये सब चाल है? वह इन्हें ज़ेरोक्स करवाने जाये और उसे सुरक्षाकर्मी गिरफ़तार कर लें विभागीय कागजों को निजी उपयोग में लाने के आरोप में ? यही कारण हो सकता है....ओ माई गॉड.....ये जीवन है या स्क्रीन का ख़तरनाक क्राइम थ्रिलर....वह कँपकँपाते हाथों से विश्वमोहन जी को फ़ोन करती है, “आपने जो प्रश्न पत्र टाइप किये हैं वे तो विभाग के स्टेम्प पेपर्स पर है।”

उनकी आवाज़ परेशान व रुँधी हुई है, “मेरे पास तो यही पेपर्स हैं।”

“लेकिन ये तो ‘यूज़लेस’हैं।”

वह घबराई आवाज़ से कहते हैं, “आप दूसरे पेपर्स दे जाइये।”

उनकी आवाज़ बिकी हुई या लापरवाह नहीं है, बेहद परेशान है। वह नम्रता से कहती है, “मुझे अभी जल्दी नहीं है। आप बाज़ार से पेपर्स ख़रीदकर टाइप करके भिजवायें।”

विश्वमोहन किसके इशारे पर दबाव डाल रहे हैं कि वह मुख्यालय आये। क्या ये समझा नहीं जा सकता ? वहाँ कौन सा षड्यंत्र उसका इंतज़ार देख रहा है ? वह सारे पेपर्स फाड़कर वॉशरूम में जाकर बहा देती है, उन गुंडों की चालों  की यही जगह है। भविष्य में वे भी यहीं गिरेंगे। ये बात और गटर बंद हो जाने पर उसे फ़ोन कर सफ़ाई कर्मचारी बुलाने पड़ते हैं।

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“समिधा ! तेरा ध्यान किधर है?” अनुभा चौथे दिन उसके कंधे पर हाथ मारती है।+

“अरे तू ? तू हॉस्पिटल में क्या कर रही है?”

“बस थोड़ी तबियत नासाज़ थी।”

“मेरे दिमाग़ में कुछ उलझने चल रही थीं।” फिर समिधा कहाँ रुक पाती है। धारा प्रवाह इन्क्वॉयरी की बात, अपने फ़्रेम करने की कोशिश की बात बताती जाती है।

अभी सप्ताह ही बीता है। बाई ब्रश से ड्राइंग रूम का कालीन साफ़ कर रही है। वह उसे आवाज़ देती है, “आँटी ! कोई कागज़(पत्र) डाल गया है।”

वह आकर देखती है। दरवाज़े की देहरी पर ख़ाकी रंग का लिफ़ाफ़ा है जिस पर मुम्बई सुरक्षा विभाग की मुहर है। दिल में हल्की सनसनी, घबराहट हो रही है। चोर तरीके से सुबह पत्र पहुँचाने वाले की नीयत भी वही होती है। पत्र में लिखा है, “अभय व कविता का अनैतिक सम्बन्धों का कोई प्रमाण नहीं मिला है इसलिए वर्मा का स्थानांतर नहीं होगा।” पत्र पर न हस्ताक्षर हैं, न मुहर। अपराधी जब बौखलाते हैं तो गलतियाँ करते हैं। ये तीसरा प्रमाण समिधा के हाथ लगा है। मुख्यालय की मुहर वाला लिफ़ाफ़ा अमित कुमार ही हासिल कर सकते हैं और उसका दुरुपयोग अपराध है। यदि वह चाहे तो उन्हें कोर्ट  में घसीट सकती है लेकिन कोर्ट  केस करना किसको है।

उत्तर में वह शतपथी साहब व सुरक्षा विभाग के प्रमुख को पत्र डाल देती हैं कि किस तरह जाँच में अनियमिततायें  गईं हैं। पत्र घर से दूर के पोस्ट ऑफ़िस में पोस्ट कर आती है।

प्रथम जनवरी को वह मायूस है -केम्पस में उसे कौन ‘विश’ करेगा ? नीता बाहर है अनुभा तो सुरक्षा विभाग की इन्क्वायरी की बात सुनकर कैसे फ़ोन करेगी लेकिन टुनटुनाते हुए फ़ोन के दूसरी तरफ अनुभा ही है, “समिधा ! हैपी न्यू ईयर।”

“सेम टु यू” कहते हुए उसकी आवाज़ रुँध गई है, “अनुभा ! तू बहुत निडर है.....‘आइ एम टच्ड’।”

“तेरे से तो कम निडर हूँ।``

“अनुभा ! याद है कुछ वर्षों पहले तक हम क्विज़, आर्ट व कल्चर पर बातें किया करते थे और अब ?”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई -मेल – kneeli@rediffmail.com