त्रिखंडिता
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अधूरी कहानी
रमा को याद है हर्ष। जब पहली बार उसने उसे देखा था तो देखता रह गया था। उसके गाइड ने दोनों का परिचय कराया था। हर्ष को जब पता चला कि वह उसी के क्षेत्र की है और उसी के कॉलेज में पढ़ी है तो खुश हो गया और उसे छोड़ने उसके आवास तक आया। फिर अक्सर उससे मुलाकातें होती रहीं। वह उसके सौन्दर्य का कायल था और हमेशा कहता कि मेरे दोस्तों में आपकी भव्यता की चर्चा होती है। आप भारतीय स्त्री की सुंदरता की प्रतिमान हैं। उसे आश्चर्य होता कि अब तक तो किसी ने इस तरह उसकी सुंदरता का बखान नहीं किया था। अपने रूप-रंग को लेकर वह बचपन से ही हीन भावना की शिकार थी। गोरे-चिट्टे माँ-बाप और भाई-बहनों के बीच उसका गेहुँआ रंग काला माना जाता था ।उसे कलूटी नाम से पुकारा जाता था। स्कूल से कॉलेज तक किसी ने उसे प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। उसे अन्य लड़कियों की तरह छेड़छाड़ का शिकार भी नहीं होना पड़ा और इन सबका कारण उसका सीधा-सादा रहन-सहन, पढ़ाकू छवि और गम्भीर होना था। माँ को लड़की की चंचलता से सख्त नफरत थी। इसका प्रभाव अन्य बहनों की अपेक्षा उस पर ज्यादा पड़ा। माँ कॉलेज तक उसकी चोटी खुद गूँथती थी। उसकी तेल लगी दो चोटी और मेकअप रहित सादा चेहरा लड़कों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता था। पर वे उसका सम्मान करते, क्योंकि वह शरीफ और पढ़ाकू समझी जाती थी। उसको भी लड़कों में दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि उसके सपनों में जो राजकुमार आता था, वह बेहद गम्भीर था | जबकि साथ पढ़ने वाले लड़के ज्यादातर चंचल औार छिछोरे टाइप के थे। नयी उम्र में वह पढ़ाई में जुटी रही। प्रेम-प्यार उसके लिए वर्जित फल था।यही कारण था कि हर्ष द्वारा अपने रूप-रंग की प्रशंसा उसे अतिशयोक्ति पूर्ण लगती थी और इस प्रशंसा से उसे कुछ भी गौरव महसूस नहीं होता था। अपने संघर्षपूर्ण जीवन में वह कोई रस नहीं पाती थी। उसका पूरा ध्यान अपनी आत्मनिर्भरता की ओर था।बचपन में वह बचपना नहीं जी पाई थी तो यौवनावस्था में यौवन की उमंग-तरंग उससे दूर थी। पर हर्ष की बातें उसके मन में सोई कोमल भावनाओं को जगा रही थी पर ये कोमल भावनाएँ हर्ष के लिए नहीं उसके एक मित्र के लिए जगीं। समीर हर्ष का अभिन्न मित्र था। हर्ष और समीर दोनों ही विश्वविद्यालय में लेक्चरर थे और वह शोध कर रही थी। समीर के प्रति उसका आकर्षण हर्ष की वजह से हुआ और बढते-बढ़ते अपने चरम पर पहुँच गया। हर्ष इस बात से जल-भुन गया, पर वह भी क्या करती ? हर्ष विवाहित था जबकि समीर के जीवन में कोई स्त्री नहीं थी। दूसरी बात समीर एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था और उसके प्रति प्रेम भी रखता था।
वह हर्ष को अपना अच्छा मित्र मानती थी, पर हर्ष के लिए यह काफी नहीं था। वह उसका प्रेम पाना चाहता था। कई बार स्पष्ट कह भी चुका था। यह जानने के बाद भी कि उसका समीर के साथ प्रेम चरम पर है, वह प्रेम निवेदन करता रहता था। उसके इस निवेदन से वह मन ही मन हर्ष के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगी। उसके इस व्यक्तित्व से उसे चिढ़ हुई। भला कोई अपने मित्र की प्रेमिका के प्रति प्रेम-दृष्टि कैसे रख सकता है ? इतनी प्रगतिशील विचारधारा रखने वालों का जब यह हाल है तो फिर दूसरों से क्या उम्मीद?| हर्ष को जब यह लगा कि वह उसे प्राप्त नहीं कर सकेगा, तो उसने उसका सहयोग करना बंद कर दिया। उसके शोध-कार्य में जो भी मदद वह करता था, एकाएक बंद कर दिया। वह शहर में नयी थी और अकेली भी। उसे परेशानी होने लगी। यही नहीं हर्ष समीर और उसके बीच कटुता के बीज बोने की भी कोशिशें करता रहा। वह तो उसे समझने लगी थी, इसलिए उस पर उसकी बातों का असर नहीं पड़ता था, पर समीर उसकी बातों से प्रभावित हो जाता था और उसका खमियाजा वह भोगती थी। समीर भी उसका भावनात्मक शोषण कर रहा था। वह उससे चोरी-छिपे रिश्ता रखना चाहता था। उसमें हर्ष जैसा साहस भी नहीं था कि उसके साथ दो कदम चल सके। हर्ष समीर की इस कमजोरी [हर्ष के हिसाब से चालाकी] को समझता था, इसलिए बार-बार उसकी दुखती रग पर हाथ रखता रहता था- क्या वह भी आपसे प्यार करता है ? उससे क्यों नहीं मदद माँगती ? हर्ष की इन बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं होता था। समीर को समझना आसान नहीं था। इतना तो वह जानती ही थी कि वह उससे विवाह नहीं करेगा, पर यह नहीं जानती थी कि वह प्रेम भी नहीं निभा पाएगा।
प्रेम जैसा सुंदर भाव हृदय का इतना रक्त पीता है, जिंदगी का इतना वक्त बरबाद करता है। इतनी बेचैनी, इतनी निराशा देता है- यह वह नहीं जानती थी। अपने दुःखद अतीत को भुलाकर समीर के साथ वह जिस स्वप्निल संसार में थी, उसका कोई आधार ही नहीं था। वह अकेली इस संसार को बचाने में लगी थी ..., पर समीर ने एक दिन स्वयं ही इस पर घातक प्रहार किया। सुनहरा संसार धूल-धूसरित हो गया। वर्षो वह उसके कणों में लोटती रही... लोटती ही रही इतनी लोटी कि उसकी देह सुनहरी हो गई।
समीर अपने नये संसार में गुम हो गया। हर्ष अपने व्यक्तित्व की नकार समझकर उसके प्रति उपेक्षा भाव रखने लगा। दोनों बुलंदियों को छूने में लग गए और वह टूट-टूटकर जुड़ती-टूटती रही। स्वर्ण की नियति उसकी अपनी नियति बन चुकी थी। समीर और हर्ष हमेशा एक दूसरे के अच्छे मित्र रहे और एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में सहयोग करते रहे, पर उसे दोनों ने काटने की कोशिश की। हर्ष की बात तो वह समझती थी कि वह नकार की पीड़ा से गुजर चुका है पर समीर जिसे उसने शिद्दत से प्यार किया था, क्यों उसे तोड़ना चाहता है ? क्यों उसे साबुत नहीं देखना चाहता ?वह कभी नहीं समझ पाई | हर्ष ने एक दिन उससे कहा था-ई श्वर ने जिस तरह आपको भरपूर रूप दिया है, मुझे भी भरपूर दिमाग दिया है। हर्ष ने अपने दिमाग का भरपूर उपयोग किया और बुलंदियों पर पहुँच गया ! पर वह अपनी अस्मिता की सुरक्षा में ही पूरा जीवन खो बैठी। एक स़्त्री के लिए अपनी अस्मिता की रक्षा कितनी मुश्किल होती है, उससे अधिक कौन जान सकता है ?'किसको क्या मिला यह मुकद्दर की बात है।' इस गीत को सुनकर वह सोचती है कि मूल्यांकन किया जाय, तो समीर और हर्ष दोनों कामयाब इंसान है। नाम, यश, पैसा, परिवार, समाज, संसार सब कुछ उनके पास है और वह आज भी एक सामान्य स्त्री है। कुँआ खोदकर पानी पीने वाली। कहने को वह भी आत्मनिर्भर है। जरूरत की चीजें उसके पास है, पर कितनी अकेली है वह । कोई भी उसके साथ नहीं । शायद यह स्त्री होने की सजा है। स्त्री होकर भी अपने व्यक्तित्व को गढ़ने की कोशिश की सजा है। अपनी मर्जी से प्रेम करने की सजा है |
अति सुधो सनेह को मारग है
ओम......रमा जब भी यह नाम सुनती है। मन में मंदिर की घंटियाँ बजने लगती है। कितना गहरा है इस शब्द से लगाव, यह उसकी बरबस छलकने लगती आँखेँ बता सकती है। एक ऐसा प्रेम जो अधूरा था, एक तरफा था, पर कितना सुंदर था ! यह उसके जीवन का पहला नहीं अंतिम प्यार साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद कोई पुरूष उसे अच्छा ही नहीं लगा। बचपन में उसकी पढ़ाई का विरोध करते समय उसके पिता अक्सर ताना देते थे- कलेक्टर बनेगी क्या?। शायद तभी से उसके मन-मस्तिष्क में कलेक्टर शब्द बस गया हो। शायद इसीलिए कलेक्टर ओम को पहली दृष्टि में ही वह प्रेम करने लगी थी। ओम की नजरें भी उसकी तरफ उठी थीं फिर उठती ही रहीं थी ।उन नजरों में जाने क्या-क्या होता था कि उसकी अपनी नजरें झुक जाती थीं । उन नजरों की छुअन से वह लाजवंती की तरह सकुचा जाती। उसके पतझर से जीवन में कल्पनाओं के अनगिन फूल खिल गए थे ।जाने कितने सपने उसकी आँखों में आ बसे थे | मन में कितने ... कितने तो अरमान पलने लगे थे । खुशी से वह खिली रहती, दमकती रहती। भूल गयी थी कि दोनों के बीच दो ध्रुवों की दूरियां हैं । वे कभी एक नहीं हो सकते ।सपने में वह अक्सर उससे मिलती। कल्पनाओं की रंग वर्षा में उसके संग भींगती, नृत्य करती। उसका मन हमेशा ओममय हुआ रहता, फिर भी मन नहीं भरता था। ओम भी गाहे-बेगाहे कुछ ऐसी बातें कह जाता कि वह इस भ्रम में पड़ जाती कि वह भी उसके प्रति प्रेम रखता है, पर उसने कभी इस बात का इजहार नहीं किया। शिकायत करने पर कहता-हर बात को बताने की जरूरत नहीं होती। जब वह इजहार करती तो भी कहता सब जानता-समझता हूँ। बार-बार बताने की जरूरत ही नहीं। उसकी प्रेम भरी भावुक- सी आवाज उसके मन को कहीं गहरे छू लेती थी। वे करीब से कभी नहीं मिले। ना एकांत ही उन्हें नसीब हुआ। हमेशा भीड़ में ही मुलाकात हुई, पर वहाँ भी वह बिहारी की नायिका सी "भरे भौन में करत हैं नैनन ही सो बात| " बनी रही | ओम की आँखें, पूरी देह वही भाषा बोलती थीं, जो उसकी आकांक्षा थी। हो सकता है वह भ्रम हो, मृगतृष्णा हो, पर कई वर्षों तक यही सच बन गया था। ओम के दूसरे शहर फिर विदेश चले जाने के बाद भी उसका लगाव कम नहीं हुआ। हाँ, वियोग में उसका मन कसकता था, उसकी आँखें बरसने लगती थीं। आज भी जिस दिन वह उसे शिद्दत से याद करती है, सो नहीं पाती। रोती रह जाती है। वह अपनी दुनिया में खुश है संतुष्ट है, इसलिए वह उसे फोन नहीं करती। नहीं चाहती कि उसके कारण वह परेशान हो। जानती है कि उसने उस तरह उसे कभी नहीं चाहा, जिस तरह वह चाहती रही। दोनों के प्रेम में अंतर है पर ऐसा भी तो नहीं हो सकता कि उधर कुछ भी ना हो। ना होता तो उसे आभास कैसे होता! उनका प्रेम दुनियावी कभी नहीं रहा। कुछ पाने की आकांक्षा से रहित शुद्ध-सात्विक प्रेम! फिर यह कसक क्यों! शायद इसलिए कि ना चाहते हुए भी प्रेम में चाह आ ही जाती है। मानसिक प्रेम भी दैहिक रूप की कुछ न कुछ इच्छा रखता ही है, क्योंकि मन देह से बाहर की चीज नहीं। तो क्या वह ओम को दैहिक रूप से पाना चाहती थी? वह खुद को टटोलती है, तो एक आवेग से भर जाती है। यह आवेग कुछ और ही बयान करता है जिसे वह झुठलाती रही है। शायद ओम के साथ एकांत में वह संयम खो देती। उसी में लीन हो जाती। गनीमत है कि समय ने कभी इसकी इजाजत नहीं दी। दोनों ने इसका अवसर आने ही नहीं दिया। वह कभी नहीं चाहती थी कि ओम अपने जीवन साथी से बेवफाई करे। किसी को चाहना अलग बात है, पर पाने की इच्छा करना अलग बात! पर पाने-खोने से प्रेम पर कोई असर नहीं पड़ता। प्रेम तो रहता है किसी न किसी रूप में। वह कभी खत्म नहीं होता। आग में तपाए जाने पर निखरता ही है, जलकर भस्म नहीं हो जाता। ओम को वह कभी नहीं भूल सकती। स्पर्श-रहित इस प्रेम ने उसकी देह के अंग-प्रत्यंग ही नहीं मन-आत्मा को भी छुआ है। प्रेम का आस्वाद भले ही गूँगे को गुड़ की तरह अव्यक्त हो, पर उसे व्यक्त करने की कोशिश से सदियों से साहित्य समृद्ध हो रहा है। वह भी यही कर रही है क्योंकि ओम ने कहा था कि अपने प्रेम का प्रवाह रचना की तरफ मोड़ दें। अपनी हर किताब की पहली प्रति वह आज भी ओम को भेजती है और वह उसे बधाई जरूर देता है। तो क्या वह उसके प्रेम का नहीं साहित्य का सम्मान करता रहा है? जिसे वह प्रेम समझ बैठी थी, वह भ्रम था ? कितना लुभावना था, अगर वह भ्रम भी था | वह भ्रम जिस दिन टूटा थाए वह बुझ गयी थी। फिर वह कभी नहीं खिली। जीवन जीती तो रही पर उसका रोमांच गायब हो गया। जिन्दगी में प्रेम का होना ही इंसान को सही मायने में जिन्दा रखता है। अब जिन्दगी बढ़ तो रही है पर उसी मोड़ पर ठहरी भी हुई है, जहाँ से ओम के प्रेम का भ्रम टूटा था। वह वहीं खुद को बिखरा हुआ पाती है| काश, ओम इस सत्य को समझ सकता। हॉलाकि ओम ने ना तो इकरार किया थाए ना इन्कार। ना प्रोत्साहन ना हतोत्साहित ही । एक वही थी जो अपनी तरफ से सब कुछ गढ़ती- गिराती रही। पता नहीं उसकी आत्मा की यह कैसी अबूझ प्यास है, जो पूरी उम्र बीत जाने और कई जलाशयों के समीप रहने पर भी ना बुझी। कारण भी साफ था वह जिन जलाशयों के पास थी। जिसके जल को देखती रही थी, वे सही मायने में जलाशय थे ही नहीं।कहीं जल पीने लायक नहीं था, कहीं उस जल पर पाबन्दियाँ थीं, कहीं वह जल किसी खास के लिए आरक्षित था।ओम के बाद उसने अपने जीवन को लेखन की तरफ मोड़ दिया। सोच लिया कि प्रेम-प्यार का रास्ता उसके लिए नहीं । बस बहुत हुआ। हृदय का कितना तो रक्त पिला चुकी उसे। कितना कुछ खो दिया उसके लिए पर मिला क्या! सिर्फ अतृप्ति... ...भटकन। अब और नहीं। ओम अन्तिम प्यार रहेगा उसका। कसक है तो रहे। अकेली है तो रहे...जब यौवन विदा ले लेगा, फिर कौन प्रेम की बात करेगा? इस दुनिया में प्रेम के लिए उम्र की भी शर्त होती है | भले ही लोग कहते रहें कि प्रेम उम्र नहीं देखता। ओम ने भी एक बार उससे कहा था कि प्रेम से उम्र का क्या लेना-देना? ऐसा उसने तब कहा था, जब उसने कहा था कि वह उम्र में उससे बड़ी है। पर खुद ओम के मन में उम्र का फासला एक दूसरा भाव पैदा करता ही रहा। भले उसने यह दर्शाना नहीं चाहा। पुरूष के लिए स्त्री की उम्र मायने रखती ही रखती है। उसने कई संयमी, आदर्शवादी पुरूषो की आँखों में भी कमउम्र नवयौवनाओं के प्रति ललक देखी है। बाकियों की बात तो छोड़ ही दें, वे तो हर लड़की के लिए लार टपकाते दिख जाते हैं। लड़की शब्द में ही इतना आकर्षण है कि देव-दानव, ऋषि-मुनि सबकी नीयत डिग जाए। पुरूष के लिए अपनी उम्र मायने नहीं रखती है। वह साठे पर भी पाठा बना फिरता है। पुरूष प्रधान समाज ने इतनी अहमन्यताएं, इतना श्रेष्ठ भाव उसमें प्रविष्ठ करा दिया है कि वह दिव्य हो उठा है और अपने सिंहासन से उतरना नहीं चाहता। उसका वश चले तो दुनिया की हर सुंदर लड़की उसके रनिवास में हो। जब भी वह पावर में आता है, अधिक से अधिक लड़कियों का शिकार करता है। यही उसे पौरूष लगता है पर ओम में उसे पुरूष की यह कमजोरी नहीं दिखी थी। वह अपने पद, कद, सौन्दर्य, संगीत, साहित्य और खेल जैसे अनेकानेक गुणों से किसी भी लड़की को प्रभावित कर सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। वह सभा-सम्मेलनों में अक्सर पत्नी के साथ जाता और उसी के करीब रहने की कोशिश करता। उसने उसमें कभी छिछोरापन नहीं देखा, इसी कारण वह उसे और अच्छा लगता। ओम ने प्रेम-विवाह किया था। दोनों की जोड़ी सुग्गा-सुग्गी सी थी, फिर भी उसके प्रेम पर इसका असर नहीं पड़ा।
रमा ने कभी ओम से किसी भी तरह का लाभ लेने की कोशिश नहीं की। उसके एक मित्र ने कहा भी कि वह इतने महत्वपूर्ण पद पर है ...| तुम आसानी से उससे कोई प्लाट अपनी संस्था के लिए अलाट करवा सकती है। कम से कम कोई सरकारी नौकरी तो पा ही सकती हो। उससे कहो तो... पर उसने जवाब दिया कि वह ऐसा कभी नहीं कर सकती। जिस दिन वह उससे कोई मांग रखेगी, उसी दिन अपनी नज़र से गिर जाएगी। उसकी नजरों से तो गिरेगी ही। अपना संघर्ष वह खुद करेगी। अगर वह उससे प्रेम नहीं कर रही होती, तो शायद अपने करियर के लिए उससे मदद माँगती भी, पर प्रेम करते हुए नहीं। यह तो स्वार्थ होगा। मित्र ने उसकी नासमझी पर सिर पीट लिया। मित्र प्रेम के स्वाभिमान से परिचित नहीं था या फिर इसी प्रकार के प्रेम को समझदारी मानता था। अक्सर वह देखती है लोग अच्छी तरह देख-भाल, सोच-समझकर प्रेम करते हैं। लड़कियाँ भी जाति-धर्म, पद-पैसे, परिवार को रूप रंग से ज्यादा महत्व देती हैं और उसी आधार पर प्रेम करती हैं। जहाँ ऐसा संभव नहीं, वहाँ सिर्फ टाइमपास और मौज-मजा के लिए ही प्रेम है। प्रेम हो जाता है, का तर्क अब मूर्ख देते हैं। ऐसे में ओम के प्रति उसके प्रेम को लोग क्या समझेंगे ? उसने ओम को इसलिए तो नहीं चाहा था कि वह अधिकारी है, पर एक मित्र ने एक दिन ताना मार ही दिया कि ओम कलेक्टर है, इसलिए। ओम के कलेक्टर होने ना होने से रमा को क्या फर्क पड़ रहा था ? वह ओम को उसके गुणों के नाते चाहती थी, वह कलेक्टर ना भी होता..., तब भी उसके मन में वही स्थान पाता। देश में कलेक्टरों की कमी तो नहीं, पर क्या सभी प्रेम के लायक होते है ? पर दुनिया के लोग व्यावहारिक हैं। लाभ की भाषा समझते हैं तभी तो सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाते हैं। वह आज भी वहीं की वही हैं। एक अध्यापिका ...एक साधारण सी लेखिका। अन्य लेखिकाओं सी सफल कहाँ है वह ! कारण भी है सबके साथ किसी न किसी रूप में सफल पुरूष हैं। उनका हर कदम पर साथ देने वाले, प्रोत्साहित करने वाले। पुरस्कार-सम्मान का लाभ दिलवाने में भूमिका निभाने वाले और उसके साथ कोई नहीं। हाँ, पैर खींचने वाले कई सारे हैं । ये वे ही लोग हैं, जिनके ईशारों पर चलने से उसने इन्कार कर दिया। उनके साँचों में फिट ना हो सकी। अपनी अस्मिता, अपने स्वाभिमान की उसे बड़ी कीमत देनी पड़ी है, पर वह इस बात से संतुष्ट है कि उसने समझौतों की राह पर चल कर कुछ हासिल नहीं किया ।उसके पास जो कुछ है अपने श्रम से अर्जित किया हुआ है । उसके अंदर जो आग लोगों को दिखती है वह इसी स्वावलम्बन की आग है। कितनी स्त्रियों को मिलता है आजादी का ऐसा सुख ! सुरक्षा व संरक्षण के नाम पर अपने स्त्रीत्व को कुर्बान कर देने वाली स्त्रियाँ उसके सुख को नहीं समझ सकतीं। समझ तो पुरूष भी नहीं सकते, जिनके अनुसार बिना पुरूष के कोई स्त्री जी ही नहीं सकती। पुरूष का साथ उसके जीवन की अनिवार्य शर्त है। इसी कारण उसके जीवन में प्रवेश के इच्छुक पुरूषों ने पहला प्रश्न यही किया कि अकेले कैसे रहती हैं? इस अकेले शब्द के अनेक निहितार्थ है। पर सबसे बड़ा अर्थ है देह । यानी पुरूष देह स्त्री के लिए जरूरी है और प्रत्यक्ष में कोई पुरूष नज़र नहीं आ रहा, तो जरूर छिपाया जा रहा है यानी झूठ बोला जा रहा है। मनोविज्ञान के एक प्रोफेसर ने तो एक दिन यहाँ तक कह डाला कि पुरूष का साथ न करने वाली स्त्री जल्द ही बूढ़ी, बेरौनक, रसहीन, शुष्क होकर स्त्री का सारा सौन्दर्य खो बैठती है। उसने उनसे पूछा कि फिर वह क्या करे ? उसके पास तो कोई पुरूष नहीं, तो उन्होंने कहा-आपको जो अच्छा लगे, बुलाइए | बिना मन से बँधे, सम्बंध बनाइए और थोड़ी देर बाद बिना अपराध बोध के विदा कर दीजिए। जुड़ना नहीं है, ना ज्यादा देर अपने घर रोकना है, वरना बदनामी होगी। उनके इस सुझाव पर वह चौक पड़ी। एक बुर्जुग प्रोफेसर, जिनकी उसकी उम्र की बेटियाँ है उसे कैसी सलाह दे रहा है? उन्होंने उसके आगे कहा कि किसी एक का चयन करने से वह आप पर हॉवी हो सकता है, इसलिए पुरूष बदलते रहिए। उसने जब यह कहा कि- यह तो वेश्यावृति -सा है, तो उन्होंने कहा-कदापि नहीं, वेश्यावृति वहाँ होती है, जहाँ पैसा लेकर संबंध बनाया जाता है | यहाँ तो सिर्फ देह-सुख के लिए रिश्ता बनेगा। वह समझ गई कि इनका उद्देश्य बिना कोई जिम्मेदारी लिए मुफ्त में स्त्री सुख भोगना है और इसीलिए उसका ब्रेनवाश करने आए हैं। उसने सोचा-अगर देह सुख चाहिए होगा तो अपने मनपंसद आकर्षक पुरूष को चुना जाएगा। प्रोफेसर से बूढ़े, बदसूरत, भयावह चेहरे वाले शख्स को नहीं। उसने बड़ी ही उपेक्षा से प्रोफेसर की बात टाल दी और कहा-कुछ अच्छी बात करिए सर । मैं आपका सम्मान करती हूँ आप मेरे पिता तुल्य है। इस तरह की बातें मत करिए। प्रोफेसर साहब का चेहरा उतर गया। फिर कभी वे उसके घर नहीं आए।