लहराता चाँद - 16 Lata Tejeswar renuka द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लहराता चाँद - 16

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

16

अनन्या एक बंद कमरे में बँधी हुई थी। उसकी हाथ पैरोँ को रस्सी से बाँधकर कमरे के एक कोने में रख दिया गया था। वह असह्य पीड़ा अनुभव कर रही थी। काश कि कोई आकर उसके हाथ पैर खोल दे। धूल मिट्टी में पड़े उसका शरीर दर्द से छटपटा रहा था। कई घंटों से वह उसी हाल में पड़ी रही। उसे कोई पूछने तक भी नहीं आया। न जाने कौन है जो उसे बंदी बनाए रखा है और कब तक रखेंगे ये लोग उसे? किस मकसद से अपहरण किया है वह भी पता नहीं। क्या फिरौती लेकर उसे सही सलामत छोड़ देंगे या कोई अन्य मकसद है इनका? जीभ सूख रही थी। उसकी आँखें बंद थी तो क्या उसके ज्ञानेंद्र उसको सचेतकर रहे थे। वह पानी के लिए तड़प रही थी। आवाज़ देने की कोशिश की कि कोई पानी पिला दे।

अचानक दरवाज़े पर आवाज़ हुई। किसी के कदमों की आहट सुनने में आई। कोई आ रहा है? क्या करेगा ? क्या मुझे छोड़ देंगे या क्या विचार है इनकी? पहले से हाथ पैर तो बाँध रखा है। भूख से पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। आँखों पर और मुँह पर भी पट्टी जिस को खोलने को कब से लड़ रही थी अनन्या पर खुद को आज़ाद कर नहीं पाई। किसी के चलने की आवाज़ के साथ एक पतली सी रौशनी अंदर आई।

उसने "उम्...उम्...." कहकर आवाज़ किया। अनन्या के मुँह पर पट्टी बँधी हुई थी जिसके वजह से उसके मुँह से ज्यादा आवाज़ नहीं हुई। जिस दिशा से आवाज़ आ रही थी उसकी ओर देखने की कोशिश करी मगर धूल भरे नंगे पैरों के अलावा उसे कुछ नहीं दिखा।

" खाना लेकर आया हूँ खाना खा लो।" पास से एक आवाज़ आई।

"उम्...उम्.."

"ओह! पट्टी है न मुँह पर चलो खोल देता हूँ।" कहकर उसने पट्टी खोल दिया। जैसे ही मुँह से पट्टी उतरा अनन्या, "बचाओ-बचाओ! बचाओ.. बचा....ओ ..... कोई है?" कहकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी।

"देखो तुम जहाँ हो वहाँ से कितना भी चिल्लाओ कोई नहीं सुनने वाला। अगर सुनाई देगा तो भी कोई बचाने नहीं आएगा। बेहतर है, चिल्ला चिल्लाकर गला खराब करने से अच्छा चुप-चाप बैठकर खाना खाओ।"

"मैं ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा जो मुझे कैद कर रखा है। कौन है आप लोग? मैं कहाँ हूँ। मुझे बताओ। प्लीज। "

"देखो मैं ने अभी कहा तू कितना भी चिल्ला कोई नहीं आने वाला। बेहतर है चुपचाप खाना खा ले।"

"मुझे क्यों कैद किया है? कौन हो आप लोग? अगर मेरे पिताजी को पता चलेगा कि मेरी अपहरण किया गया है तो ..तो वह तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।"

"अब तक उन्हें खबर हो गया होगा।" लापरवाह से जवाब दिया उस आदमी ने।

"मुझे क्यों बंद किया गया है? आप लोग कौन हो? बताओ मुझे।"

"हे लड़की चुप चाप खाना खा। क्यों, किसलिए, कब कहाँ वो सब धीरे धीरे पता चल जाएगा। पहले खाना खा ले। बाकी विषय भाई बताएँगे।"

"कौन है भाई?"

"जल्दी पता चला जाएगा चुपचाप खाना खा। ज्यादा सवाल मत कर।" कहकर कुछ ही दूरी पर एक कुर्सी पर बैठ गया। अपने पैंट के पॉकेट से छुरा निकालकर उसे साफ़ करने लगा। अब वह अनन्या को साफ साफ नजर आ रहा था। उसके हाथ में छुरा देख अनन्या डरकर चुप हो गई। उस आदमी की दाढ़ी और बढ़े हुए बाल से वह एक जेल से भागा हुआ मुजरिम सा नज़र आ रहा था। उम्र में काफ़ी छोटा लग रहा था। अनन्या ने अंदाज़ा लगाने की कोशिश की, 18-20 से ज्यादा नहीं होगा। उसकी नज़र में अभी भी कोमलता के पर्दे लहरा रहे थे। अभी उसमें पूरी तरह धृष्टता और कठोरता ने प्रवेश नहीं किया था।

अनन्या थाली की ओर बढ़ने की कोशिश की, पर हाथ बंधा हुआ था। उसकी तकलीफ़ देख उस आदमी ने पास आकर अनन्या के हाथों को खोल दिया। अनन्या प्लेट उठाने ही लगी तब उसे याद आया कि सुबह से वह ब्रश भी नहीं की है।

नहीं, मैं नहीं खा सकती।"

"क्यों ...अभी भूख नहीं लगी?"

"मुँह धोना है और ब्रश भी करना है।"

"यहाँ ब्रश कुछ नहीं मिलता, ये लो पानी, कुल्ला करलो इसीसे.. जल्दी करो मुझे जाना है।"

"मेरा पैर खो.... खोल दो ... यहाँ नहीं धो सकती।"

उस आदमी ने हाथ में छुरी लिए उसके पास आया और उसके चेहरे पर लगाकर पूछा, "ये क्या है जानती हो ना, ज्यादा चालाकी की तो काट के रख दूँगा। वह तो भाई ने कहा की एक खरोच भी नहीं आना चाहिए वरना....." कहकर छुरी को पेंट के पॅकेट में रख लिया और पैरों को भी खोल दिया। अनन्या को थोड़ा सा आराम लगा। वह उठकर खिड़की के पास गई और मुँह धोने लगी। एक नज़र गहरे जंगल की ओर घुमा ले आई।

जंगल काफ़ी घना था। दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आ रहा था। पवन के शोर के अलावा। तब उसके आवाज़ सुनाई दिया, "देख लिया, इस जंगल में परिंदा भी पर नहीं मारता, अगर ज्यादा फड़फडाई तो पर काट के रख देते हैं। इसलिए भागने की कोशिश मत कर।"

"मुझे मुझे.!"कहकर चुप हो गई।

"क्या मुझे, अब क्या चाहिए?"

आप के यहाँ कोई औरत नहीं है? मुझे तुमसे नहीं कहना।"

"देखो यहाँ कोई औरत नहीं हैं, जो भी कहना है मुझे कहो।"

"मुझे मुझे ...... वाशरूम .....जा.....ना है।"

"वाशरूम?" कुछ देर सोचते हुए उस आदमी ने कहा, "वाशरूम पीछे है चल दिखाता हूँ, पर भागने की कोशिश मत करना।"

अनन्या को कमरे से बाहर ले आया। सुबह के करीब 8 बजे होंगे। कमरे के बाहर कदम रखते ही सुखे पत्तों की कड़कड़ाती आवाज़ बता रही थी कि वह घर कई दिनों से बंद पड़ा है। घर के चारों ओर कई दिनों से साफ-सफाई की निशान तक नहीं। पैर रखते ही सूखे पत्तों की खनक से किसी की चलने का पता चल जाता था। कमरे के पीछे एक छोटी सी झोंपड़ी थी।

"अब उसी से काम चलाओ।" कहकर व पीछे घूमकर खड़ा हुआ। अनन्या कुछ देर में वापस लौट आई।

रात से बेहोश थी तो भूख बर्दास्त नहीं कर पाई। तुरंत प्लेट उठाकर हाथ में ले लिया। दो टुकुड़े सूखे ब्रेड को मुँह में डाली ही थी, उसे अवन्तिका और पापा संजय की याद आई। वह फूट-फूटकर रोने लगी। यह देख उस आदमी ने कहा, "ये लड़की यहाँ रोने से कोई फायदा नहीं होगा इसलिए चुपचाप खाना खाओ।"

"मुझे कब से यहाँ बाँध रखा है?" उसने रोते हुए पूछा।

"बस कल ही तो उठा लाए, रात भर बाहर ही बेहोश पड़ी थी। देर रात को यहाँ लाया गया।"

अनन्या एक ब्रेड का टुकुड़ा खाकर बाक़ी वहीँ छोड़ दिया। फिर गिड़गिड़ाते बोली, "मुझे छोड़ दो प्लीज... मुझे छोड़ दो..।"

"वह सब हिसाब किताब भाई देखेगा। आपुन को तुझ पर नज़र रखने को कहा गया, बस।" कहकर रस्सी से उसके हाथ पैर बाँध दिया और प्लेट लेकर चला गया।

####

अनन्या के घर न लौटने से संजय और अवन्तिका परेशान थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था अनन्या गई तो कहाँ गई। वह उन लोगों में से नहीं थी की घर या परिवार वालों से बिना सूचित किए कहीं देर तक वापस न लौटे। संजय और अवन्तिका संभावित जगह फ़ोन कर पूछ लिया कहीं किसी दोस्त के साथ हो। संजय दुर्योधन को भी फ़ोनकर पता किया लेकिन रोज़ के समय पर उसका ऑफिस से निकल जाना और देर रात तक घर न पहुँचना सभी को परेशान कर रहा था। संजय को डर था कहीं उसके साथ कोई अनहोनी तो नहीं हुई? फिर भी संभावना थी किसी साथी को पता हो पर कोई खबर न मिलने पर संजय गाड़ी लेकर गली-गली देख आया लेकिन उसका पता नहीं लगा पाया। लगता भी कैसे अनन्या का अपहरण जो हुआ था। आखिरकार संजय और दुर्योधन ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ करने का निश्चय किया।

अनन्या के ऑफिस से निकलकर 9घंटे बीत चुके थे। पुलिस भी 12 घंटे तक कोई एफ़.आई.आर दर्ज नहीं कर सकती थी। लेकिन दुर्योधन के कहने पर और पिछले दिनों अनन्या के द्वारा छपी खबर से पुलिस भी हरकत पर आ गई थी और अनन्या को ढूँढ़ना शुरू कर दी। अकेली लड़की रात को कहाँ है कैसी है पता नहीं। गौरव, अंजली और साहिल भी उसका पता करने निकल पड़े। आखिर उनकी चहेती पत्रकार और दोस्त थी। उसके गायब होने की खबर ने स्टाफ़ को परेशान कर दिया। सभी अपनी गाड़ी ले कर मुंबई के जगह जगह छान-बीन करने लगे। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अनन्या को किसी जंगल में एक अँधेरी कोठारी में बंदकर दिया गया था। आतंकवादी के गुर्गों ने उसे उठा लिया था।

जैसे ही संजय ने घर में कदम रखा अवन्तिका दौड़ती हुई आई, उसकी आँखें अनन्या को ढूँढ रही थी। संजय के साथ अनन्या को न देख, "डैड, दीदी कहाँ गई, क्या हुआ दीदी को? अब तक क्यों नहीं आई?" वह रोती हुई पूछी। उसे समझाना संजय के लिए मुश्किल था।

"तू चिंता मत कर किसी जरूरी काम से किसी दोस्त के यहाँ रुक गई होगी, आ जाएगी।"

"लेकिन दीदी ने कभी ऐसे नहीं किया और दीदी का फ़ोन भी नहीं लग रहा है।"

"आ जाएगी तू खाना खा कर सो जा।"

"नहीं दीदी जब तक नहीं आयेगी मैं खाना नहीं खाऊँगी।"

" मैं लेकर आऊँगा तेरी दीदी को, चिंता मत करो।" उसे समझाने की कोशिश करता रहा पर अवन्तिका चुप नहीं हुई। अनन्या का रात भर घर न पहुँचने से उसके मन में तरह-तरह की शंकाएँ घर कर रही थी। सुबह ऑफिस के लिए निकली अनन्या का कोई पता खबर नहीं। शाम 7 बजे फ़ोन आया था कि ऑफिस से निकल गई और घर जल्दी पहुँच जाएगी। उसके बाद से उसका कुछ पता नहीं, कहाँ गई अनन्या, हर संभव प्रयत्न तो कर चुका है, पुलिस में भी रिपोर्ट कर दिया। शहर की गली-गली में ढूँढा गया, अनन्या के दोस्तों से फ़ोन कर पूछने पर भी कोई खबर नहीं मिली। शाम का सात बजने को आया। पूरे 24 घंटे बीत चुके थे, अनन्या को घर से निकले हुए।

- ना जाने कहाँ होगी किन हालात मैं होगी मेरी बेटी। हे भगवान उसकी रक्षा करना जहाँ भी हो ठीक हो।' मन ही मन कई देवी देवताओं की प्रार्थना कर चुका है। जैसे जैसे वक्त गुजर रहा था उसके पैरों तले ज़मीन खिसक रही थी। अवन्तिका रोते-रोते सोफ़े पर ही सो गई थी। संजय रात भर उसके पास बैठा रहा।

ऑफिस बंदकर दुर्योधन संजय से मिलने आया। काफी समय सोच विचार के बाद अगले दिन अनन्या को ढूँढ़ने चलने को तय किया। सुबह जल्दी आने का वादा कर दुर्योधन घर लौट गया। रात भर संजय की आँखों में नींद नहीं थी। अनन्या के बारे में सोचकर वह बेचैन था। घर में कई चक्कर काट चुका था। सुबह ऑफिस जाने से पहले दुर्योधन क्षमा को साथ ले आया। संजय का अवन्तिका को लेकर चिंतित होते देख उसने क्षमा को अवन्तिका के साथ रहने के लिए अनुरोध किया। संजय अवन्तिका को क्षमा के जिम्मेदारी में छोड़कर दुर्योधन के साथ अनन्या को ढूँढ़ने गाड़ी लेकर निकल गया। शहर की हर गली चौपाटी ढूँढ़े पर अनन्या का कोई सुराग नहीं मिला। पुलिस भी अपना काम कर रही थी।