Manas Ke Ram - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 14







मानस के राम
भाग 14




दल का चित्रकूट में पड़ाव डालना


चारों भाई और तीनों माताएं एक साथ एकत्र थे। भरत के साथ आए सभी लोगों को पूरा यकीन था कि अब राम अपना वनवास छोड़कर अयोध्या वापस जाने को तैयार हो जाएंगे।‌
सुमंत और निषादराज सारे दल के विश्राम व भोजन की व्यवस्था करने लगे। यह तय हुआ कि भोजन और विश्राम के बाद सभा बुलाई जाएगी। जिसमें भजन राम के समय अपनी प्रार्थना रखेंगे।
महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनकर राम तथा लक्ष्मण अत्यंत दुखी थे। उन्हें अफसोस था कि वह दोनों अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सके। राम लक्ष्मण उनके पास गए। महर्षि वशिष्ठ उनकी दशा को जानते थे। उन्होंने दोनों को सांत्वना देते हुए कहा,
"तुम दोनों भाई अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हो। परंतु दुख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जन्म और मरण मनुष्य के हाथ में नहीं है। यह तो विधाता के हाथ में है। मनुष्य जन्म लेता है। इस जीवन के अपने कर्म करता है। पूर्व के कर्मों का फल भोगता है। उसके पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक जीव को मोक्ष नहीं मिल जाता।"
राम ने हाथ जोड़कर कहा,
"गुरुदेव जन्म और विधाता के हाथ में है।‌ हमें हमारे पूर्व कर्मों का फल भुगतना ‌होता है। यह सब हमारे हाथ में नहीं है। ऐसे में मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?"

गुरुदेव वशिष्ठ ने समझाया,
"मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सत्कर्म करे। अपने दायित्वों का सही प्रकार से निर्वहन करें। यही उसकी मुक्ति का उपाय है।"
राम तथा लक्ष्मण गुरुदेव वशिष्ठ से ज्ञान ले रहे थे तब सीता माता कौशल्या के पास बैठी उनकी सेवा कर रही थीं। वह सीता से कह रही थीं,
"पुत्री सीता मैं तुम्हारे माता पिता को क्या मुंह दिखाऊंँगी। राजा जनक की पुत्री। महाराज दशरथ की पुत्रवधु वन के कष्टों भोग रही है। तपस्विनी की भांति रहती है।"
सीता ने विनम्रतापूर्वक कहा,
"माता आप व्यर्थ ही अपना मन दुखा रही हैं।‌ मेरे लिए तो वह स्थान स्वर्ग की तरह है जहांँ मेरे पति साथ हों। मुझे यहाँ कोई कष्ट नहीं है। मेरी माता ने भी सदा पति का साथ निभाने की शिक्षा दी थी।"
कौशल्या के साथ कुछ देर मन हल्का करने के बाद सीता सुमित्रा के पास गईं। सुमित्रा ने उनसे वन में उनकी दिनचर्या के बारे में पूँछा। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या लक्ष्मण उन दोनों की मन लगा कर सेवा करते हैं। सीता ने कहा कि लक्ष्मण उन दोनों की बहुत सेवा करते हैं। उनके होते उन लोगों को कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता है।
कैकेई सीता के सामने रो रो कर अपने ह्रदय की पीड़ा को व्यक्त कर रही थीं।‌ उन्होंने कहा,
"भरत ने कहा है कि मैं राम की अपराधिनी हूँ और वही मेरा न्याय कर सकता है। पुत्री तुम राम से कहो कि वह मुझे मेरे किए का कठोर दंड दे। तभी मेरे पापों का प्रायश्चित हो सकता है। मेरे मन की पीड़ा को कम करने का एक यही उपाय है।"
सीता ने उन्हें समझाया कि राम ने कभी भी उन्हें दोष नहीं दिया। उन्होंने तो अपनी प्रसन्नता से अपने पिता के वचनों की रक्षा करने के लिए वनवास में आना स्वीकार किया है। अतः है जो कुछ हुआ है वह राम की इच्छा से हुआ है।‌ कैकेई बार बार अपने किए पर पछता रही थीं। सीता उन्हें सांत्वना दे रही थीं।
भरत की चिंता थी कि क्या राम उनकी बात मान कर अयोध्या वापस जाएंगे या नहीं। यदि उन्होंने अयोध्या वापस जाने से इंकार कर दिया तो वह क्या करेंगे। अपनी चिंता लेकर वह महर्षि वशिष्ठ के पास गए। महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि अब यह बात स्वयं राम के सामने करना ही उचित होगा। ‌ उन्होंने इस संबंध में सभा बढ़ाने का आदेश दिया।

भरत द्वारा राम को मनाने का प्रयास

सभा का आयोजन हुआ। महर्षि वशिष्ठ ने अपना आसन ग्रहण किया। तीनों माताएं एवं सीता एक स्थान पर बैठी थीं। शत्रुघ्न, सुमंत और निषादराज महर्षि वशिष्ठ के पास खड़े थे। महर्षि वशिष्ठ के पास ही राम एक आसन पर बैठे थे। लक्ष्मण उनके बगल में खड़े थे। भरत राम के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े थे।
महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"भरत तुम अयोध्या से यहाँ जिस उद्देश्य के लिए आए हो वह राम से कहो।"
महर्षि अशिष्ट की बात सुनकर राम बोले,
"मैं भी जानना चाहता हूँ कि पिता महाराज की मृत्यु के पश्चात जब अयोध्या के राजा का पद संभालने की जगह तुम सब कुछ छोड़कर यहाँ क्यों आए हो ? अपने राजा के ना रहने से अयोध्या सुनी हो गई होगी। तुम्हारा परम कर्तव्य अब अयोध्या वासियों की सेवा करना है। अतः तुम मुझे अपनी आने का प्रयोजन बताओ।"
अश्रुपूर्ण नेत्रों से भरत बोले,
"मुझे अयोध्या का राजा ना कहें। अयोध्या की राजगद्दी पर केवल आपका अधिकार है। आपके बिना अयोध्या सूनी है। मैं आपको अयोध्या वापस ले जाने के प्रयोजन से यहाँ आया हूँ। मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अयोध्या वापस चलिए और राज्य का भार संभालिए।"
भरत की बात सुनकर राम ने कहा,
"यह किस तरह की अनुचित बात कर रहे हो। मैं वनवासी हूँ। एक वनवासी राज्य में प्रवेश भी नहीं कर सकता है। फिर मैं राजा कैसे बन सकता हूँ ?"
"आप अपना वनवास त्याग दीजिए। हमारे साथ अयोध्या चलिए और उसका राज्य संभालिए। रघुकुल की परंपरा के अनुसार तो ज्येष्ट पुत्र होने के नाते आपको ही राजा बनना चाहिए था। परंतु मेरी माता ने बड़ी कुटिलता के साथ दो वरदान मांग कर आपको आपके अधिकार से वंचित कर दिया। इस वन में आने के लिए विवश कर दिया। मैं अपनी माता के किए पर बहुत लज्जित हूँ। अतः मुझ पर दया कीजिए। हमारे साथ वापस अयोध्या लौट चलिए।"
राम ने कहा,
"तुम क्यों लज्जित हो रहे हो। मैं तुम्हारे सरल हृदय को जानता हूँ। उसके अंदर कोई छल प्रपंच या लालच नहीं है। ना ही मेरे मन में माता कैकई के लिए कोई मैल है। अतः तुम इन व्यर्थ की बातों में ना पड़कर अपने कर्तव्य का पालन करो। पिता महाराज की मृत्यु के पश्चात अब उस राज्य को संभालना तुम्हारा ही दायित्व है। तुम एक क्षत्रिय हो। इस नाते मिले हुए राज्य का संरक्षण और संवर्धन करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। किसी भी प्रकार की दुर्बलता में ना पड़ो और अपने कर्तव्य का पालन करो। मैंने अपने पिता के वचन का पालन करने हेतु ही वन का जीवन स्वीकार किया है। अतः निर्धारित अवधि के पूर्ण होने से पूर्व मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। अतः लौट जाओ और अपने कर्तव्य का पालन करो।"
"नहीं भ्राता यह उचित नहीं है कि बड़े भाई के रहते मैं राज्य पर अपना अधिकार जमाऊँ। आप वन के कष्ट सहें और मैं राज्य का सुख भोगूँ। यह तो हमारे महान कुल की परंपरा नहीं है।"
राम ने कहा,
"तो क्या अपने वचन को तोड़ देना हमारे कुल की परंपरा है। हम महाप्रतापी महाराज दशरथ के पुत्र हैं। अतः इस उच्च कुल में जन्म लेकर हम कोई भी अनुचित कर्म नहीं कर सकते हैं। हमारे पिता ने अपने वचन की रक्षा करने के लिए प्राणों से प्यारे अपने पुत्र को त्याग दिया। उसके वियोग में अपने प्राण त्याग दिए। अब उनके इस दुनिया से जाते हैं क्या हम उनकी कीर्ति को कलंकित करेंगे। मेरा धर्म तो यही है कि जिस वचन के पालन के लिए मैं वनवास पर आया हूँ उसे पूरी तरह निभाऊँ। अतः जब तक वनवास की अवधि पूरी नहीं हो जाती तब तक मैं अयोध्या वापस नहीं आ सकता।"
"तो ऐसा करते हैं जिससे हमारे पिता के वचन का पागल भी हो जाए और मेरी इच्छा भी पूरी हो जाए। हम दोनों ही महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मैं आपकी जगह चौदह वर्ष का वनवास भोगूँगा और आप जाकर अयोध्या का राज्य संभालिए।"
भरत की यह बात सुनकर राम ने कहा,
"बुद्धिमान होकर तुम कैसी बातें कर रहे हो ? कर्तव्य पागल कोई बच्चों का खेल नहीं है। जहाँ मेरी जगह तुम खेलोगे। वचन जिसने दिया है उसे ही निभाना होता है।"
राम की बात सुनकर भरत दुखी हो गए। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ की तरफ देखकर कहा,
"भ्राता राम मेरी प्रार्थना को स्वीकार नहीं कर रहे। मेरा हृदय इस बात को स्वीकार नहीं कर रहा कि मैं इन्हें लिए बिना वापस जाऊँ। अतः मैं भी प्रण लेता हूँ कि इसी जगह पर अन्न जल त्याग कर अपने प्राण दे दूंँगा।
राम कुछ क्रोधित होकर बोले,
"एक क्षत्रिय होकर तुम कायरों जैसी बातें कर रहे हो। क्षत्रिय का धर्म है कि वह अपने कर्तव्य का पालन करे। क्षत्रिय होने के नाते मेरा और तुम्हारा कर्तव्य है कि हम अपने अपने दायित्वों का उचित पालन करें। अतः तुम वापस जाओ और राज्य संभालो।"
भरत ने हठ करते हुए कहा,
"मैं एक भाई और पुत्र का कर्तव्य निभा रहा हूँ। मेरी माता ने मेरे भाई के साथ जो अन्याय किया है उसका प्रायश्चित करने आया हूँ। मैं अपने कर्तव्य का पालन किए बिना पीछे नहीं हटूँगा। जैसा मैंने कहा है यहाँ पर बैठकर अपने प्राण त्याग दूँगा।"
भरत वहीं भूमि पर बैठ गए। उनकी हठ देखकर राम ने महर्षि वशिष्ठ से कहा,
"गुरुदेव अब आप ही कोई मार्ग दिखाएं। मेरा भाई कुछ समझने को तैयार नहीं। वह जो चाहता है मैं कर नहीं सकता।"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"राम इस समय में दोनों भाइयों के निर्मल प्रेम को देखकर कुछ भी निर्णय करने की स्थिति में नहीं हूँ। तुम दोनों के प्रेम ने मुझे अभिभूत कर दिया है। ‌ मैं तो बस यही चाहूँगा कि कोई ऐसा रास्ता निकले जिससे तुम दोनों भाइयों का प्रेम बना रहे और तुम्हारे वचन का पालन भी हो।"
सभा में उपस्थित सभी लोग परेशान थे। ‌ गुरुदेव वशिष्ठ भी कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे। तभी मिथिला के राजा जनक का एक दूत सभा में उपस्थित हुआ। उसने बताया कि राजा जनक अपनी पत्नी में सुनयना के साथ चित्रकूट पधारे हैं। वह मंदाकिनी नदी के तट पर पहुँच चुके हैं। यह समाचार सुनकर महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"यह तो बहुत शुभ समाचार है। राजा जनक नीति और धर्म के ज्ञाता हैं। अब वही इस समस्या का हल निकालेंगे। राम तुम अपने भाइयों के साथ जाओ और उनका स्वागत करो।"
राम अपने भाइयों तथा महर्षि वशिष्ठ के साथ राजा जनक का स्वागत करने के लिए चले गए।

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