रीति - रिवाज Ramnarayan Sungariya द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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रीति - रिवाज

कहानी--

रीति - रिवाज

--आर. एन. सुनगरया

हर रोज मेरी पत्नि गीता पश्चिम की ओर यानि जिधर से मैं आता हूँ, बाजार की ओर, खुलने वाले दरवाजे में खड़ी, मेरी प्रतीक्षा में नज़रें बिछाये रहती थी, लेकिन आज?.........ख़ेर, लगी होगी अन्‍दर किसी काम में।

मैं जैसे ही दरवाजे पर पहुँचा मैंने बॉंस की पिन्चियों से बने चिक के पीछे यानि घर में देखा, तो मेरे ऊपर जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। मेरी ऑंखों में खू़न अतर आया। मेरी पत्नि गीता एक हट्ठे-कट्ठे नौजवान से लिपटी हुयी है। वह भी उसे जैसे बॉंहों में जकड़े हुये है, ऐसा प्रतीत हुआ।

नौजवान की सूरत के पीछे गीता की सूरत नहीं दिखाई दे रही है। मेरे हृदय में ऐसा तूफान उठा, ऐसा तूफान उठा कि उठाऊँ कुल्‍हाड़ी और कर दूँ दोनों के टुकड़े-टुकड़े.....।

लेकिन ना जाने क्‍यों, ना चाहते हुये भी, मैं यह सोचने के लिये कि अब क्या किया जाये, अपने अन्‍दर में उठे तूफान को काबू में करते हुये वहॉं से तुरन्‍त हट गया और दरवाजे के बायीं ओर स्‍टेडी रूम, जिसका दरवाजा खुला पड़ा था, उसमें जाकर कुर्सी पर बैठ गया।

मेरे दिमाग में अनेकों प्रश्‍नों के एक्‍सप्रेस चल रहे थे। जो मुझे बार-बार उत्‍प्रेरित कर रहे थे कि खत्‍म कर दे ऐसी बेवफा विश्‍वासघातनी पत्नि को....खत्‍म!....खत्‍म!!....खत्‍म!!!

मैं उठा ही था कि मेरे कदम एकदम वहीं जड़ हो गये। मैंने घर में से उस पापी पाखण्‍डी की आवाज सुनी, ‘’बोर तो नहीं होती यहॉं। वैसे याद तो आती होगी। तालाब की उन लहरों की, जो समीर के झोंकों के साथ हमें आनन्दित करती थीं। उस खामोश वातावरण की, जिसमें तुमने अपनी उम्र के यानि बचपन के सबसे हसीन दिन बिताये हैं। ‘’नीच की औलाद क्‍या शायराना लब्‍ज़ों में बात करता है।‘’

इसके बाद गीता की आवाज सुनकर मुझे कितना क्रोध आ रहा है। इतनी जलन हो रही है। वह कह रही है, ‘’पति के घर आकर सब भूलना पड़ता है।‘’

‘भूलना पड़ता है!.......अब मुझे समझते देर नहीं लगी कि वह कमीना गीता का बचपन का प्रेमी है। मेरी ससुराल भी तालाब के किनारे ही है, जहॉं ये लोग मिलते थे शायद!’ मन ही मन बुदबुदाया।

मैं दबे पॉंव पड़ोस में कुछ हथियार मॉंगने चल दिया, क्योंकि अब मुझसे ये सब सहा नहीं जा रहा है।

मुझे गत वर्ष की अपने मोहल्‍ले में घटी घटना याद आ गई, जिससे गीता के विचार और दृष्टिकोण साफ जा़हिर होते हैं।........

......एक औरत किसी गैर मर्द के साथ भाग गई थी। दो-तीन दिन बाद उसका पति उसे ढूँढ़ लाया और वे दोनों पति-पत्नि पुन: पूर्ववत्त साथ-साथ रहने लगे।

तब गीता ने कहा था, ‘’अच्‍छा हुआ कि उसके पति ने उसे पुन:स्‍वीकार कर ली अन्‍यथा वह बेसहारा अपने कलंकित जीवन को लेकर ना जाने कितने गुनाह और करती। ना जाने कितने घरों में आग लगाती। एक जीवन बचाकर इस आदमी ने अनेक जिन्दगियों को उससे प्रभावित होने से बचा लिया।‘’

मैंने पूर्ण ताव में ऑंखों को लाल करके कहा था, ‘’मेरे जैसा होता तो उसे खत्‍म करके ही दम लेता, फिर चाहे फॉंसी ही क्‍यों ना हो जाती।‘’

तब मुझे मेहसूस हुआ था कि गीता, पति के बावजूद भी गैर मर्द से मिलने में कोई खास गज़ब की बात नहीं समझती। लेकिन मैं तो समझता हूँ, मेरे होते हुये क्‍या मजाल कि कोई गैर कमीना ऑंख उठा कर भी देखे उसे।

मेरे द्वारा पड़ोसी के दरवाजे की कुण्‍डी खटखटाने पर उन्‍होंने दरवाजा खोला। मेरे मुँह से निकल गया, ‘’चाकू देना दीनाजी।‘’ मैं जानता था वे मेरे लिये मना नहीं करेंगे।

वे मुस्‍कुराते हुये बोले, ‘’क्‍यों? क्‍या किसी का खून करके मुझे फंसाना चाहते हो?’’

....मुझे मेहसूस हुआ कि मैंने खून कर दिया है और तुरन्‍त पकड़ लिया गया हूँ।....तथा जेल की यातनाऍं भुगत रहा हूँ। ‘’नहीं जी, जरा ऐसे ही....’’ मैंने मुस्‍कुराने की कोशिश की।

‘’मैं तो मजाक में कह रहा था।‘’ वह मुस्‍कुराया।

जब मैं जेब में चाकू डालकर लौटा, तो मुझे एक वाक्‍यात और याद आ गया। जिसने मेरे हृदय में काफी दिनों तक खलबली मचाई थी। यह बात मेरी शादी के कुछ ही दिन बाद की है।.........

....वह कोमल कमल कली के समान सिमटी हुई, हल्‍की पीली साड़ी में लिपटी दूध में नहाई गुडि़या की तरह बैठी है। आँखों में अथाह गम्‍भीरता और लज्‍जा है। होंठों पर मंद मधुर मुस्‍कान मंडरा रही है।

मैं उस महान मादक वातावरण में अपने आपको कैसे सम्‍हालता। मैंने बगैर कुछ कहे-सुने उसे अपनी बॉंहों में समेटकर आलिंगन करना चाहा, लेकिन तुरन्‍त उसके – मुँह से एक अजीब सी चीख निकल पड़ी, ‘’अरे छोड़ो कोई आ जायेगा।‘’ मैंने तुरन्‍त छोड़ दी उसे।

मुझे ऐसे लगा जैसे मेरे हृदय में किसी ने छुरी भोंक दी हो। मेरा सारा मादक नशा उतर गया।

हालांकि मैं ही नहीं, वह भी जानती थी, वह ऐसा समय और स्‍थान था कि कोई वहॉं आ ही नहीं सकता था।

उस वक्‍त तो मैं वह ज़हर सा घूँट पीकर रह गया, लेकिन आज मेरे समझ में आ गया कि उस कमीनी की वह आदत मायके की ही है। यानि वहॉं यह प्रेमी उसका आलिंगन बगैरह करता होगा, तब डर के मारे उसे यही कहने की आदत पड़ गई होगी।

हॉं, इसके बाद कभी ऐसा नहीं कहा। शायद, होशियार हो गई होगी। कहीं मैं समझ ना जाऊँ और उसकी यह हरक़त जाहिर ना हो जाये। लेकिन आज तो पकड़ी गई।

मैं सोच ही रहा था कि अब उन दोनों की कुछ ही समय की जिन्‍दगी है। मुझे वही मरदानी आवाज सुनाई पड़ी, ‘’अब चलूँ जीजी, कुछ लोगों से और मिलकर कवि सम्‍मेलन में पहुँचना है।‘’

‘’जीजी!’’ शब्‍द सुनकर मुझे ऐसा झटका लगा, जैसे मेरा हाथ बिजली के नंगे तारों को स्‍पर्श कर गया हो।

गीता की आवाज आई, ‘’बैठो बस वे भी आते ही होंगे।‘’ इसके साथ ही मैंने अपने आपको सम्‍हालते हुये प्रवेश किया। वह मेरी ओर संकेत करती हुये बोली, ‘’लो वो आ गये।‘’

मैं उसकी और मौन मुद्रा में एक टक देखता ही रह गया। उसने हाथ जोड़कर ‘नमस्‍ते’ किया। फिर मेरे पैर छूने झुका। ना जाने क्‍यों मैंने उसे कन्‍धे पकड़कर गले से लगा लिया।

गीता उसका परिचय देने लगी, ‘’ये हैं मेरे सबसे प्‍यारे भैया ओम, कविताएं लिखते हैं। यहॉं कवि सम्‍मेलन में आये हैं। इनके इसी शौक की वजह से ये अपनी शादी में नहीं आ सके, कहीं कवि सम्‍मेलन में ही गये हुये थे।‘’ वह हंसी।

उसे मैंने अपने से कुछ दूर करके कुछ कहना चाहा, इससे पूर्व ही वह बोल पड़ा, ‘’अब हंस रही है।‘’ उसने मेरी और देखते हुये कहा, ‘’अभी-अभी आपकी तरह मैंने पैर छूकर इसको गले लगाया तो रो रही थी।‘’ वह भी हंसने लगा। मैं मुस्‍कुरा दिया।

वह बोली, ‘’यह तो रीति है। गले लगने और रोने की रस्‍म के तौर पर.......।‘’

मैंने मेहसूस किया और आश्‍चर्य भी हुआ कि ये सामाजिक रीति-रिवाजों का गलत अर्थ लेकर मैं एक ऐसे कुये में गिर रहा था, जिसमें करोड़ों ज़हर रहित सांप-बिच्‍छु पल रहे हैं। जिनके काटने से आदमी उम्र भर तड़प तो सकता है, मगर मर नहीं सकता।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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