शम्बूक - 25 ramgopal bhavuk द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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शम्बूक - 25

उपन्यास : शम्बूक 25

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email-tiwari ramgopal 5@gmai.com

16. धटना केवल इतनी सी घटी भाग 1

16. धटना केवल इतनी सी घटी-

इस घटना के वाद सुमत को ज्ञात हुआ-श्री राम को शम्बूक के बारे में प्रत्येक जानकारी मिल रहीं थी। लोग उसके विरोध में उनके कान भरने का प्रयास कर रहे थे। आश्रमों के माध्यम से मिली जानकारी को श्रीराम असत्य नहीं मान पा रहे थे। वे सोचते हैं उनके राज्य के सभी आश्रम सत्य के पक्षधर हैं। शम्बूक के आश्रम की व्यवस्था को लोग है कि अव्यवस्था का नाम दे रहे हैं, इसीलिये वे प्रत्यक्ष जाकर उस आश्रम को देखना चाहते हैं। उसके बारे में तरह- तरह की बातें सुनने को जो मिल रहीं हैं जो आता, वहाँ के बारे में नई- नई बातें ही कहता है।

एक दिन श्रीराम राजकीय वेषभूषा त्यागकर सामान्य जन के वेष में शम्बूक के आश्रम के लिये चुपचाप ही निकल पड़े। उन्हें अपने गुप्तचरों से स्थान के बारे में सूचना मिल ही गई थी। उन्होंने सामान्य जन की तरह आश्रम में प्रवेश किया। पहले वे उसके कृषि क्षेत्र में पहुँचे। खेतों में लहलहाती फसलों को आनन्द विभोर होकर देखे जा रहे थे। सरिता के किनारे दो बैलों पर जुआ रखकर उसके सहारे पराहा से जल को खीचकर ऊपर लाया जा रहा था। इस तरह खेतों की सिचाई की जा रही थी। गेंहूँ की बालें दानों के बजन से झुकी थीं। बड़ी देर तक वे उसे निहारते रहे। अब तो वे पूरे आश्रम को देखने के लिये व्याकुल हो उठे।

सम्पूर्ण आश्रम की कार्य प्रणाली को उन्होंने गौर से देखा। प्रत्येक काम में नई पहल दिखाई दी। अपने रामराज्य के लिये नये सोच, नई प्रगति की बातें देखकर वे दंग रह गये। लोग इस आश्रम के बारे में अनर्गल वार्तालाप करके मुझे भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह सोचते हुये वे उसके आयुर्वेद के संस्थान में पहुँच गये। कुछ लोग जड़ी-बूटियों को पत्थर से बनी ओखली में कूट रहे थे। कुछ दवाओं से लेप तैयार कर रहे थे। एक जगह कुछ जड़ी-बूटियाँ सूख रहीं थी। उस कार्यशाला के मुख्य द्वार पर मरीजों की भीड़ लगी थी। एक वृद्ध बैद्य जी उन मरीजों को देख रहे थे। कुछ अधेड़ से व्यक्ति उन्हें समझा-समझाकर दवायें देते जा रहे थे।

श्री राम बड़ी देर तक उन्हें गौर से खड़े- खड़े देख रहे थे। वे अब उस आश्रम के मध्य में स्थित लोगों के विश्राम हेतु नीम के पेड़ों की छाया में बने चबूतरे जो गो के गोवर से लिपे थे, जिन पर आगन्तुकों के लिये कुशा-आसन बिछे थे। श्रीराम जी भी उस चबूतरे पर आराम से आकर बैठ गये। नीम के पेड़ों पर पसरी बेलों को निहारने लगे। सभी नीमों पर गिलोय की बैलें पसरी थी। बड़ी देर तक उनका निरीक्षण करते रहे। उन्हें एक कहावत याद हो आई- गिलोय और नीम चढ़ी। गिलोय ज्वर से निवृत्ति पाने के लिये बहुत ही उपयोगी औषधि है, फिर ये कहावत कैसे सामने आई है। गिलोय बहुत ही कड़वी औषधि होती है फिर वह नीम के पेड़ पर चढ़ी हो तो उसकी कडवाहट कई गुना बढ़ जाती हैं। वैद्य लोग जानते हैं कि नीम चढ़ी गिलोय ज्वर से निवृत्ति में और अधिक कारगर हो जाती है। शायद इसी कारण शम्बूक ऋषि ने इन्हें नीम पर चढ़ा दिया है। ज्वर से निवृति के लिये यह एक कारगर औषधि तैयार करने का प्रयोग कर रहे हैं। लोग हैं कि इनके ऐसे प्रयोगों से ईर्ष्या बस विरोधी हो गये हैं।

वे उनके उपानह केन्द्र में पहुँच गये। पशुओं के सूखते हुये चर्में पर दृष्टि डालते हुये वहाँ एक काम करने वाले से पूछा- इतने चर्म तो बिना उनकी हत्या किये, सम्भव नहीं है।’

उसने सहजता से उत्तर दिया-‘ हमारे ऋषि का सख्त आदेश है हत्या किये गये प्राणियों के चर्म उपयोग में न लाये जाये। जो प्राणी सहज ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं उनके ही ये चर्म है। यह सुनकर वड़ी देर तक उन्हें टकटकी लगाये देखते रहे। सभी चर्म वृद्ध प्राणियों के ही प्रतीत हो रहे थे। वे समझ गये निश्चय ही ये प्राणी स्वाभाविक रूप से मृत्यु को प्राप्त हुये होंगे। उसके बाद उपानह निर्मित करने वाले मोचियों के पास पहुँच गये। उन्होंने देखा वे कुछ युवा कलाकारों को दत्तचित्त हो कर काम करना सिखा रहे हैं।

राम ने एक मोची से पूछा-‘ आपका नाम?

उसने उत्तर दिया-‘ सुशील चर्मकार।

राम ने उससे पूछा-‘ सुशील जी, आप यहाँ कार्यरत हैं, आपके बच्चों का निर्वाह कैसे होता होगा?’

वह बोला-‘ यहाँ सभी के श्रम का लेखा-जोख रखा जाता है। उस श्रम पर श्रमिक का पूरा हक रहता है। उससे उसके परिवार का निर्वाह आसानी से हो जाता है। सप्ताह में एक दिन मैं अपने घर चला जाता हूँ। मेरे परिवार का जीवन यापन आनन्द पूर्वक हो रहा है। उसकी बातें सुनते हुए श्री राम यह सोचते हुए आगे बढ़ गये- जब तक श्रमिक के श्रम पर उसका पूरा हक नहीं होगा, उसके साथ न्याय नहीं किया जा सकता। देखना किसी दिन यही व्यवस्था समाज में समरसता ला सकेगी।

अब वे कुछ ही समय में बुनकरों की कार्यशाला में खडे़ थे। वहाँ भी वृद्ध जन अनेक युवाओं को यह कार्य सिखा रहे थे।

इस कार्य प्रणाली को देखकर वे सोचने लगे-लोग है कि इस आश्रम के बारें में कैसी- कैसी चर्चायें करने लगे हैं। यह सोचकर वे शम्बूक ऋषि से मिलने के लिये उनकी कुटिया की ओर बढ़ गये।

जब वे उनके सामने पहुँचे ,वे अपने शिष्यों से कह रहे थे- किसी भी स्थिति में निरीह प्राणियों की हत्या न की जाये। श्री राम ने पत्नी के कहने से एक निरीह हिरण की हत्या की थी। उसके परिणाम स्वरूप उन्हें क्या- क्या नहीं भोगना पड़ा? पत्नी का छल से हरण हो गया। वे उसे दर- दर की ठोकरें खाते हुये खोजते रहे। हमारे अपने हनुमान के सहयोग से वे किष्किन्धा में पहुँचे। जन सामान्य में से कुछ वीरों को एकत्रित करके उन्होंने लंका पर चढ़ाई कर दी। वे क्षत्री जरूर थे, किन्तु क्षत्री कहलाने वालों की सेना तैयार नहीं की। वल्कि जन जीवन में से वीरों की सेना तैयार की फिर तुम लोग क्षत्री क्यों नहीं हो सकते। आज भी जो वीर है निःसन्देह वही क्षत्री है। व्यापारी बनने पर भी किसी का नियन्त्रण नहीं है। नियन्त्रण है तो इस समय में केवल ब्राह्मण बनने पर। इसमें इन आश्रम वासियों ने अपनी सोच समाहित कर दी है। वे अपनी बौद्धिक क्षमता प्रर्दशन में लगे हैं। बदलते युग की नई सोच को हटाकर अपनी परम्परावादी सोच को बनाये रखना चाहते हैं।

मैं एक बात और आप सब के सामने रखना चाहता हूँ-श्री राम की यह नीति मेरी समझ में नहीं आई कि अग्नि परीक्षा के बाद उन्होंने सीता जी को स्वीकार किया फिर किसी के कहने से उन्हें त्याग कर पुनः जंगल में भेज दिया। आश्चर्य !श्री राम के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं रहा। मुझे यह अच्छा नहीं लगा है। उन्हें अग्नि परीक्षा पर भी विश्वास नहीं रहा। लोग यदि इसका साक्ष्य मांग रहे थे तो इस बात का प्रमाण तो श्री राम को ही देना था। वे जन मानस को संन्तुष्ट नहीं कर पाये। मैं महाराज श्री राम से मिलकर इन बातों को उनके सामने रखना चाहता हूँ।’

यह सुनकर श्री राम खड़े हो गये और बोले-‘ महाऋषि मैं गुप्तचर के रूप में भ्रमण करने निकला हूँ। मैंने आपकी सारी कार्यप्रणाली का अवलोकन कर लिया है। निःसन्देह आप जन- जीवन को खुशहाल बनाने के लिये प्रयासरत हैं। मैं आपके कार्यों की जितनी प्रशंसा करूँ उतना कम ही है। आप तो सच में राम के राज्य को रामराज्य बना देना चाहते हैं। आप जैसे नई सोच के ऋषियों के कारण बीमारों का समय पर उपचार होने लगा है। व्यर्थ में निरीह प्राणियों की होने वाली हत्या पर रोक लग गई है। लोग सुन्दर- सुन्दर वस्त्र पहनने लगे हैं। कृषि कार्य में नये-नये अनुसंधान होने लगे हैं। आपने तो सिचाई के लिये नये -नये उपकरण ढेंकुली एवं पराहा निर्मित करके कृषकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। सम्पूर्ण राज्य में इसका उपयोग किया जाने लगा है। मैं आपकी कार्य प्रणाली से पूरी तरह संतुष्ट हूँ। आप जो भी कार्य कर रहे हैं, बहुत सोच विचार कर कर रहे हैं। मैं दशरथ पुत्र राम आपके कार्यों की बार वार प्रशंसा करता हूँ। राज्य की ओर से आपको सभी सुविधायें उपलब्ध करादी जायेंगी।’

ऋषि शम्बूक बोले-‘ महाराज, यह आश्रम किसी अनुदान पर संचालित नहीं हैं। हम राजकीय अनुदान को भिक्षा का ही एक नया संस्करण मानते हैं। मैं इसे इस आश्रम के लिये अस्वीकार करता हूँ। चाहें तो इसके लिये मुझे आप दण्ड दे सकतें हैं। रही, इस आश्रम की सुरक्षा की बात तो मेरे आश्रम के क्षत्रिय इस कार्य में पूर्ण समर्थ हैं। मैं अपनी इस आश्रम प्रणाली को अपनी तरह से संचालित करते रहना चाहता हूँ।’

इस तरह श्रीराम उसकी बातों से संन्तुष्ट होकर लौट पड़े। आश्रम के मुख्य द्वार तक शम्बूक ने उनका आतिथ्य किया। चलते बक्त शम्बूक उनसे बोला-‘ महाराज चाहे तो आश्रम से जो बस्तु पसन्द की हो उसे उसका उचित मूल्य देकर ले जा सकते हैं। राम ने उत्तर दिया-‘ मैं अपने सेवकों को भेजकर आपके यहाँ की निर्मित वस्तुएं मंगवा लूँगा।’ यह कह कर उन्होंने वह आश्रम छोड़ दिया।

बात तीव्रगति से चारो ओर फैल गई। अन्य सभी आश्रम बासी ईर्ष्या से जल-भुन गये। शम्बूक ने राम की सुरक्षा को भी स्वीकार नहीं किया। यह इतना बड़ा शक्तिशाली हो गया शम्बूक। वे सभी मिलकर उसके आश्रम को नष्ट- भृष्ट करने की सोचने लगे।

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