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शम्बूक - 24

उपन्यास : शम्बूक 24

रामगोपाल भावुक

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15. सुमत योगी का श्रीराम से मिलन भाग 1

15. सुमत योगी का श्रीराम से मिलन

आज सुबह से ही सुमत की पत्नी उमादेवी उसके इर्द-गिर्द मड़रा रही थी। जब-जब उसके मन में कोई बात होती है तो वह इसी तरह इर्द-गिर्द मड़राती दिखाई देती है। उससे पूछ ही लेता हूँ, क्या चल रहा है उसके मन में? यह सोचकर सुमत ने पूछ लिया-‘ देवी, मुझे यह लग रहा है कि आज आप मुझ से कुछ कहना चाह रही है।’

‘मैं कहती क्या? आपको पता ही है कि अपने पड़ौसी चतुर्वेदी जी का पुत्र ज्वर से पीड़ित है। आज मैं उनके लड़के के स्वास्थ्य के वारे में पूछने उनके यहाँ गई थी।’

‘कैसा है वहं?’

‘उसे लम्बे समय से ज्वर ने घेर लिया था। वे अपने पुत्र को शम्बूक के आश्रम में इलाज के लिये लेकर गये थे। वहाँ से दवा लेकर आये हैं। उसका दो दिन में ही ज्वर ठीक हो गया है।’

‘अरे। यह तो बहुत अच्छा समाचार है।’

‘समाचार तो अच्छा है लेकिन शम्बूक के वारे में जो चर्चाये फैल रहीं है वह उसके हित में शुभ संकेत नहीं है।’

देवी, मै भी लम्बे समय से यही सोच रहा हूँ कि शम्बूक के जीवन का अस्तित्व खतरे में है।’

वह झट से बोली-‘ आप, महाराजा श्रीराम के दरवार में यदा- कदा जाते रहते हैं। उनसे मिलकर शम्बूक की वास्तविक स्थिति से उन्हें अबगत क्यों नहीं करा देते। नहीं तो बाद में पश्चाताप करना ही शेष रह जायेगा।’

‘देवी,मैं आपकी बात से सहमत हूँ। शम्बूक मेरा मित्र है। व्यक्ति एक, उससे जुड़ी कथायें अनेक। ऐसी स्थिति में निश्चित ही महाराज श्री राम भी भ्रमित हो गये होंगे। मैं इस राज्य का निवासी हूँ, मेरा दायित्व है अपने राजा को सही बस्तुस्थिति से अबगत कराना। आप ठीक कहती है। मैं महाराज श्रीराम से आज साँय काल की सभा में मिल ही लेता हूँ।’

यह सोचकर तो उसने महाराजा श्रीराम से मिलने की योजना बना ड़ाली। राज दरवार में जाने के लिये उसने अपनी वही पाण्डित्य वाली भेषभूषा धारण की, साथ में रुद्राक्ष की मालायें पहनी, साथ ही उसने रामानन्दी तिलक के स्थान पर शैव तिलक लगाया जिससे वह एक योगी के रूप में दिखने लगे। दिन ढ़ले वह घर से निकल पड़ा। वह किन शब्दों में उनके समक्ष अपनी बात रखेगा। यह सोचते हुए वह कनक भवन के राजद्वार पर पहुँच गया। बाहर दरवान ने उसे अन्दर जाने से रोक दिया। सुमत बोला-‘ मैं बहुत ही आवश्यक सूचना महाराज को देना चाहता हूँ।’

पहरेदार ने उसकी वेषभूषा पर दृष्टि डाली और बोला-‘ मैं महाराज से मिलने की आज्ञा लेकर आता हूँ, आप यहीं प्रतीक्षाकरें। वह दूसरे पहरेदार को वहीं छोड़कर महल में प्रवेश कर गया। कुछ ही समय में लौटकर आया। बोला-‘महाराज इस समय साधु-संतों से किसी विषय पर गहरी वार्तालाप में व्यस्त हैं। पहले उन्हें आने दीजिये। उसके वाद आप उनसे मिलने जा सकते हैं। सुमत् सोचने लगा-‘ कहीं ये साधु-संत शम्बूक के बारे में ही चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। मैं समय पर उपस्थित हो रहा हूँ। यह सोचते हुए वह वहीं खड़ा रहा। लम्बी प्रतीक्षा के वाद वे वहाँ से बाहर निकले। उसने उनके चहरों से अन्दर के भाव पढ़ना चाहे। वह समझ गया ये शम्बूक की ही चर्चा करके आ रहे हैं।

उनके प्रस्थान करने के वाद पहरेदार ने उसे अन्दर जाने का संकेत दिया। वह आगे बढ़ा। श्री राम जी अपने स्वर्णजटित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके चेहरे से वृद्धावस्था की लकीरे झाँक रहीं थीं।

उसने महाराज का राजकीय परम्परा के अनुसार अभिवादन किया और बोला- महाराज की जय हो। मैं महाराज से एकान्त में कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। ’

यह सुनकर उन्होंने एकान्त का संकेत दिया, उनका संकेत मिलते ही सभी वहाँ से चले गये। अब वे पूरी तरह एकान्त में थे। सुमत बोला-‘ मैं आपकी प्रजा हूँ। महाराज, शम्बूक मेरा मित्र है उसके बारे में समाज में तरह-तरह की चर्चाये फैली हुई हैं। मैं चाहता हूँ, उसके विषय में कोई निर्णय लेने से पूर्व एक बार आप चुपचाप उसके आश्रम में प्रवेश करके तो देखें, तभी आप उसके वारे में ठीक-ठीक अवगत हो सकेंगे। मैं बस यही निवेदन करने श्रीमान की सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।’ उसकी बात सुनकर वे गम्भीर हो गये। यह कह कर वह वहाँ से उन्हें प्रणाम करके चला आया।

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