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शम्बूक - 23

उपन्यास: शम्बूक 23

रामगोपाल भावुक

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14. शम्बूक की कथा में भाग 1

14. शम्बूक की कथा में-

सुधीर पौराणिक शम्बूक की कथा को इस तरह व्यक्त कर रहा था कि सभी सुनने वालों को कथा सच सी प्रतीत हो। सहयोग से सुमत योगी उस सभा में पहुँच गया।

अरे! मैं इन दिनों इस सभा में यह क्या सुन रहा हूँ-

एक दिन एक बूढ़ा ब्राह्मण जो अयोध्या राज्य के सुदूर गाँव का रहने वाला था। उसके पुत्र की असमय में ही मृत्यु हो गई। वह अपने मरे हुये पुत्र को लेकर राजद्वार में आया और अपने मरे हुये बेटे को सम्बोधन करके कहने लगा-‘बेटा! मैंने पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया है कि जिससे बुढ़ापे में पैदा हुये इकलौते पुत्र को मौत के मुँह में पड़ा देख रहा हूँ। निश्चय ही यह तो महाराज श्री राम का ही दोष है जिसके कारण तेरी मृत्यु इतनी जल्दी हो गई, इसलिये हे रधुनन्दन! अब मैं भी अपनी पत्नी सहित यहीं, तुम्हारे राजद्वार पर प्राण त्याग दूँगा फिर आपको बालहत्या, ब्रह्म हत्या और स्त्री हत्या जैसे तीन पाप लगेंगे।

सुधीर पौराणिक इतनी सी कथा कह कर सोचने लगा- इस कथा को इस तरह कहूँ कि सभी श्रोता मेरी बात पर पूरी तरह विश्वास कर लें। मैंने चतुरता से ब्राह्मण बालक की मृत्यु को राम जी के मत्थे तो मढ़ ही दिया। हमारी पंचायत में यही कहानी तो प्रचार- प्रसार के लिये तय हुई है। हमारे कुछ लोगों को श्रीराम का परमात्मा के रूप में निरूपण खल रहा है। मुझे अपने साथियों की वात तर्क संगत लगी है। अब मैं आगे की बात कहूँ। यह सोच कर बोला-‘ भैया इस तरह उस ब्राह्मण ने श्री राम जी के समक्ष अपनी बात रख दी। श्री राम जी सोच में पड़ गये कि इस स्थिति में उनके पास एक ही उपाय शेष है कि महर्षि वशिष्ठजी से परामर्श किया जाये। उन्होंने षीघ्र ही सन्देश वाहक से उनके पास सन्देश पहुँचाया। उनके उपस्थित होते ही श्री राम ने सारी बस्तु स्थिति से व्यथित होते हुए निवेदन किया-‘ गुरुदेव! मुझे इस समय कोई उपाय नहीं सूझ रहा है? ऐसी अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए? कैसे इस बालक को जीवन दान दूँ? कैसे इस पाप का परिमार्जन करूँ?

यह बात सुनकर सुमत सोचने लगा-मैंने तो आज तक यह बात सुनी है कि यदि किसी ने किसी मन्त्र का अशुद्ध जाप किया तो हानि जाप करने वाले की ही होती है। किसी की तपस्या से किसी दूसरे को हानि कैसे सम्भव है। श्री राम जी इतने बड़े अज्ञानी तो हो नहीं सकते कि ऐसी अविवेक पूर्ण बात पर विश्वास कर लेंगे।

इस अवसर पर कुछ क्षण के लिये सुधीर पौराणिक फिर मौन रह गया। उसे तय की गई कहानी याद हो आई । वह पुनः बोला-‘इसी समय श्री राम जी के दरवार में श्री नारद जी का आगमन हुआ। वे एक ऐसे ऋषि है कि संसार की सारी कथायें उन्हें ज्ञात रहतीं है। वे विश्व के पहले सन्देश वाहक है। वे स्थिति का अवलोकन कर स्वयम् ही बोले-‘हे रधुनन्दन, इस बालक की जिस कारण से मृत्यु हुई है उसे बतलाता हूँ सुनिये-‘पहले सतयुग में सब ओर ब्राह्मणों की ही प्रधानता थी। जन जीवन के प्रत्येक कार्य उन्हीं से पूछ- पूछ कर किये जाते थे। कोई ब्राह्मणेत्तर व्यक्ति तपस्वी नहीं होता था। उस समय सभी अकाल मृत्यु से रहित और चिरजीवी होते थे, फिर त्रेता युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों की ही तप करने में प्रधानता रही, इस तरह दोनों ही तप में प्रवृत हो गये। द्वापुर में वैश्यों में भी तपस्या का प्रचार होगा। यह तीनों युगों के धर्म की विशेषता है। इन तीनों युगों में शूद्र जाति का मनुष्य तपस्या नहीं कर सकता।

सुधीर पौराणिक सोच में पड़ गया कि अब तो मुझे सीधे-सीधे विषय पर आ जाना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने अपनी डाढ़ी -मूछों पर प्यार से हाथ फेरते हुये कहा-‘नारद जी बोले, हे राजन ! इस समय आपके राज्य की सीमा में खोटी बुद्धिवाला एक शूद्र अत्यन्त कठोर तप कर रहा है। उसी के इस शास्त्र विरुद्ध आचरण के कारण इस बालक की मृत्यु हुई है। राजा के राज्य अथवा नगर में जो कोई भी अधर्म अथवा अनुचित कर्म करता है उसके पाप का दशांश राज्यकर की तरह राजा के हिस्से में आता है। अतः हे पुरुष श्रेष्ठ! आप अपने राज्य में घूमिये और जहाँ कहीं ऐसा पाप होते दिखाई दे उसें रोकिये। ऐसा करने से आपके धर्म, बल, और आपकी आयु में बृद्धि होगी। साथ ही यह बालक भी जी उठेगा। नारद जी के इस कथन को सुन कर श्री राम जी सोच में पड़ गये।’

सुमत योगी उनकी बात ध्यान से सुन रहा था। वह सोचने लगा-नारद जी श्री राम को यह नहीं बतला पाते हैं कि वह कहाँ तप कर रहा है! अरे! सभी बातें बतला दी , एक यह बात भी उन्हें बतला देते।

इसी समय सुधीर पौराणिक को यह बात याद हो आई तो बोला-‘श्री राम जी लक्षमण जी से कह कर उस मृत बालक के शरीर को तेल के पात्र में सुरक्षित रखवा देते हैं तथा लक्षमण और भरत को अपने नगर की सुरक्षा का भार सोंपकर अपने स्वर्णभूषित विमान से धनुष वाण और एक चमचमाता खंग लेकर महाराज बसिष्ठ जी को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर उसे ढूढ़ने निकल पड़ते हैं। दण्डकारण्य के पास पहुँचने पर एक पर्वत के किनारे बहुत बड़े सरोवर के पास एक आश्रम दिखाई देता है।

श्रीराम जी गुरुजी बसिष्ठ जी के साथ उसके आश्रम में प्रवेश करते हैं। उन्हें देखकर शम्बूक ने प्रश्न किया-

‘मान्यवर अतिथि! मैं आपसे परिचित तो नहीं हूँ किन्तु इस आश्रम में आपका स्वागत है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप हमारा आतिथ्य स्वीकार कर आसन ग्रहण करें।

आश्रम के नियमानुसार श्रीराम शम्बूक को प्रणाम करते हैं।

शम्बूक-आपके आने का प्रयोजन सफल हो।

श्रीराम आसन ग्रहण करते हुये बोले-हमारा दुर्भाग्य है हम आज तक आप जैसे ज्ञानी के सत्संग से वंचित रहे। हमने यहाँ प्रवेश करते समय आपके उपदेश सुने तो कृतार्थ हो गये। आपने हमें इतना सम्मान दिया इसके लिये हम आपके आभारी हैं। मैं अयोध्या का राजा दशरथ पुत्र राम हूँ। मेरे साथ मेरे गुरुदेव महाराज बसिष्ठ जी भी हैं।

शम्बूक-मेरा अहोभाग्य, आपके आगमन से मेरा आश्रम पवित्र हो गया। हमारे प्रजा पालक एवं गुरुदेव स्वयम् इस आश्रम में हमारे आतिथ्य में पधारे हैं।

राम ने श्रद्धानवत् होते हुये कहा-‘मुनिवर, आप जैसे तपस्वियों के कारण ही यह धरती पावन है। हमारे ही राज्य में आज तक आप जैसे सत्पुरुष से हमारा परिचय कैसे नहीं हुआ! मुनिवर क्या मैं जान सकता हूँ कि आप कौन हैं? तथा किस कुल से सम्बन्धित है?ं और किस कारण से इस उपस्थित जन मानस को शिक्षित कर रहे हैं?

शम्बूक निर्भीक होकर बोला-‘ अतिथि, मैं कठोर तप के कारण शम्बूक नाम से प्रसिद्ध हो गया हूँ तथा मैं शूद्र कुल से सम्बन्धित हूँ।

महाराज बसिष्ठ जी क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘शूद्रकुल में उत्पन्न होने पर तुम्हें तप करने का अधिकार किसने दे दिया?

शम्बूक ने उत्तर दिया-‘महोदय ज्ञान की प्राप्ति में आप बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यह तो हम आर्यों की संस्कृति नहीं है, किन्तु यह सत्य है कि हे राजा राम! मैं शूद्र कुल में ही उत्पन्न हुआ हूँ।

महाराज बसिष्ठ जी बोले- वत्स! इन दिनों सभी के परामर्श से इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। तुम उसका उल्घंन कर रहे हो। इससे समाज में अव्यवस्था फैल जायेगी तथा सभी लोग मनमुख होकर व्यवहार करने लगेंगे।

शम्बूक ने आत्मविश्वास उडे़लते हुये कहा-‘क्या शूद्र को ज्ञान प्राप्त करना अपराध है? क्या यह अपने देंश और संस्कृति के प्रति अन्याय नहीं होगा?

महाराज बसिष्ठ जी ने उत्तर देना उचित समझा, बोले-‘सामाजिक मर्यादायें धीरे- धीेरे विकसित होतीं हैं। तुम उसे तोड़ने का प्रयास कर रहे हो। तुम जन्मना की अवधारणा से अनभिज्ञ हो। इसमें पिता अपने अनुभवों को अपने पुत्र को जितने प्यार से सिखाता है उतना किसी दूसरे के पुत्र को नहीं। इसमें शिल्प के विकास की अधिक संम्भावनायें हमें दृष्टि गोचर हो रही हैं। इसी कारण इस नई संस्कृति का चलन जो स्वाभाविक रूप से बढ़ता जा रहा है। अब स्थिति यह हो गई है कि राजा का पुत्र राजा और वणिक का पुत्र सफल वणिक बनकर सामने आ रहे हैं। यह संस्कृति जन-मन में बैठ गई है। अपने आप विकसित हो रही, इस संस्कृति में हस्तक्षेप हम पसन्द नहीं करेंगे।’

शम्बूक ने उनकी बात काटी-‘यह तो आप सब आर्यों की मूल संस्कृति को घ्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं।

राम ने उत्तर देना उचित समझा-‘यह तो आप उल्टे हमीं पर दोषारोपण कर रहे हैं। हमारे ऋषि गलत नहीं हो सकते। निश्चय ही ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु तुम्हारे कारण ही हुई है। हम राम राज्य में किसी को दुःखी नहीं देख सकते।

शम्बूक ने पुनः उनकी बात काटी-‘मैं आपके धर्म को समझ गया हूँ। जो आपको उचित लगता है वह धर्म है औा जो अनुचित लगता है वह अधर्म है।’

महाराज बसिष्ठ जी बोले-‘शम्बूक तुम अपनी वाणी पर अंकुश लगाओ। तुम्हारे विचार दिशाहीन हो रहे हैं। एक विकसित होती संस्कृति पर तुम अंकुश लगाना चाहते हो। राम तुम्हें इसका उपचार करना ही पड़ेगा।’

राम-‘शम्बूक अब यदि तुमने गुरुदेव की बात का खण्ड़न किया तो ठीक नहीें होगा।

शम्बूक बोला-‘ मैं अपने सत्य से डिग नहीं सकता। आप की असत् बातों का सदैव विरोध करता रहूँगा।

यह सुन कर महाराज बसिष्ठ जी ने राम से कहा-‘इसे रास्ते से हटाओ।’

उनके आदेश कें पालन में राम ने चमचमाती तलवार से शम्बूक का बध कर दिया। यह देख कर उसके सभी साथी चुपचाप खिसक लिये।

सभा में से किसी ने प्रश्न किया-‘आपने उस ब्राह्मण बालक के बारे में स्पष्ट नहीं किया?उसका क्या हुआ?

प्रश्न सुनकर एक व्यक्ति खड़े होकर बोला-‘बन्धु, आपने यह उचित समय पर प्रश्न किया है। मैंने इस सम्बन्ध में जो जनश्रुति सुनी है वह तो हम सभी को आश्चर्य में डाल देने वाली है। एक ब्राह्मण अपने मरे हुये बालक को राज द्वार पर लाता है। श्रीराम उस ब्राह्मण की उसकी आनी व्यथा सुनते है और उस बालक को जिन्दा करने की दृष्टि से उसे सुरक्षित रखने के लिये उसे तेल में डालवा देते हैं। जरा सोचे कि मरा हुआ बालक जिसे तेल में डाल दिया गया हो वह प्रकृति के प्रतिकूल जिन्दा होना कैसे सम्भव है ? मुझे तो सच्चाई कुछ और ही लग रही है। लक्ष्मण जी को युद्ध में जैसे समय बोधक शक्ति लगी थी। ठीक बैसे ही इस सम्बन्ध में मैने जो बात सुनी है उसे आप सब के समक्ष रखता हूँ। उस बालक को ऐसी औषधि दी गई थी कि वह कुछ समय के लिये मृतवत् हो गया था। इसी बात का श्रीराम से द्वेष रखने वालों ने लाभ उठाया। राम को जन साधारण से दूर करने के लिये एवं राम को नीचा दिखाने के लिये चाल चली।

कुछ लोगों ने ऐसी चाल चली कि ब्राह्मण बालक को ऐसी दवा दी गई कि वह तीन दिन तक मृतवत् बना रहे। उसके बाद अपने आप स्वस्थ हो जाये। इधर उस ब्राह्मण ने राम से कहा कि यदि तीन दिन में समस्या का उपचार नहीं किया तो मैं अपनी पत्नी के साथ आपके राजद्वार पर आत्महत्या कर लूंगा। उन्होंने नारद जैसे ऋषि को भी अपने पक्ष में कर लिया। उनसे कहला दिया कि एक शम्बूक नाम का शूद्र तप कर रहा है जिसके कारण इस ब्राह्मण बालक की मृत्यु हुई है। राम इस बात से इतने भयभीत हो जाते हैं कि स्वयम् ही उसे मारने के लिये चल देते हैं। उसे चारो दिशाओं में खोजते फिरते हैं। सुना है वह उलटा लटका तप कर रहा था। श्रीराम उसे देखते हैं और उसका वध कर देते हैं।

सभा में से कोई दूसरा खड़े होकर बोला-‘ ऐसी कथा तो हम पहली वार सुन रहे हैं।’

उसकी बात सुनकर वही व्यक्ति पुनः बोला-‘ऐसे अमनौवैज्ञानिक कथ्य की आशा नहीं की जा सकती। सम्भव है, ऐसी कथायें जनश्रुति का ही भाग हो। अब तो हमारे सामने यह प्रश्न खड़ा है कि राम ने शम्बूक का वध किया भी है या नहीं ?

सुधीर पौराणिक चुपचाप बैठा इस प्रसंग को सुन रहा था। वह मन ही मन पश्चाताप करने लगा। मैं यह क्या कहानी रच डाली। मैंने तर्कहीन बातें कह कर राम का अस्तित्व कम करना चाहा है। मैं यह समझ रहा हूँ कि मेरी इस कहानी में अनेक त्रुटियाँ रह गई हैं। किन्तु इस समय तो मुझे इसका समापन अच्छी तरह कर देना चाहिए।

वह यह सोच कर पुनः बोला-‘ बन्धुओ,श्रीराम ने ही शम्बूक का वध किया है। शम्बूक का वध देखकर सभी देवता प्रशन्न हो गये और श्री राम की बहुत-बहुत प्रशंसा करने लगे। सुना है जिस समय शम्बूक मारा गया ठीक उसी समय वह बालक जी उठा। श्री राम जी उसी समय विमान से महषि अगस्त्य के तपोवन की ओर चल दिये।

बन्धुओ मेरी यह कथा आज यही विश्राम लेती है। अब मैं आज ही दूसरे गाँव में इस कथा के प्रचार-प्रसार हेतु प्रस्थान कर रहा हूँ। बोलो- भगवान श्री राम की जय। सभी ने श्रीराम भगवान की जय बोली और कथा विर्सजित हो गई।

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