देव ऋषि नारद विश्व के पहले पत्रकार राजनारायण बोहरे द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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देव ऋषि नारद विश्व के पहले पत्रकार

देव ऋषि नारद विश्व के पहले पत्रकार

नारद आगबबूला हो कहने लगे --या तो मर जाऊंगा या विष्णु को श्राप दे दूंगा!

कथा यह थी कि प्रजाति दक्ष की श्राप के कारण किसी भी जगह दो घड़ी से ज्यादा ना रुकने वाले नारद एक बार एक सुहानी बगिया में पहुंचे और बैठकर भजन करने लगे कि उनको सहज समाधि लग गई थी। उनकी समाधि लंबी चली। उनके तप को देखकर इंद्र को लगा कि यह कहीं इंद्रासन पाने के लिए तो तब नहीं कर रहे ? उन्होंने अपने प्रिय मित्र कामदेव को भेजा कि नारद की समाधि भंग कर दो । कामदेव ने अपसराओं के साथ जाकर बहुत प्रयास किया, लेकिन नारद की समाधि भंग नहीं कर पाया । अंत में उनके चरणों में गिर गया। नारद ने कहा कि आज कामदेव यहां कैसे?

तो कामदेव ने बताया कि आपकी लंबी समाधि देखकर इंद्र को डर लग रहा है, वह सोच रहा है कि आप इंद्रासन तो नहीं लेने वाले!

नारद मुस्कुराए और कामदेव को क्षमा करके वापस भेज दिया !

सहसा उन्हें याद आया कि कामदेव ने तो समाधि लगाए बैठे शिव को भी परेशान किया था और शिव ने गुस्सा होकर कामदेव को जला दिया था! उन्हें लगा मैं तो शिव से बड़ा हो गया! मैंने कामदेव को माफ भी कर दिया और कामदेव ने मेरी समाधि भंग भी नहीं की।

बस यह मन में आते ही उनको छोटा सा अभिमान जब हुआ तो वे कहने लगे चलो मैं तीनों महा देवताओं से बताता हूं । वे आकाश मार्ग से सीधे ब्रह्माजी के पास जा पहुंचा । उन्होंने कहा कि “आज मैंने कुछ देर भजन क्या किया कि इंद्र ही डर गया। उसके कहने से कामदेव ने मेरी तपस्या भंग करने की कोशिश की तो मैंने कामदेव को जीत लिया । ब्रह्माजी मुस्कुराए और कहने लगे कि “ठीक है तुम बड़े अच्छे तपस्वी हो। पर यह कथा कभी विष्णु जी को मत सुनाना। “

नारद को लगा विष्णु को क्यों ना सुनाऊं । मैं तो तीनों को सुनाऊंगा।

नारद ब्रह्मलोक से आकाश मार्ग से चलकर कैलाश पहुंचे । उन्होंने शिव को यह कथा सुनाई तो शिव को लगा कि मुझ पर व्यंग कर रहे हैं कि मेरी समाधि भंग की तो मैंने कामदेव को जला दिया । हो सकता है व्यंग्य न कर रहे हों क्यकि नारद मन से भोले और भले हैं, लेकिन ऐसा ना हो यह घटना ये विष्णु को सुनाएं। हम तो केवल समझाते हैं विष्णु ऐसे अपने लोगों का इलाज बहुत सख्ती से और निर्ममता से करते हैं । उन्होंने नारद से कहा कि ” यह कथा कभी भी विष्णु जी को मत सुनाना । ´

अब तो नारद ने ठान ली है कि हर हालत में विष्णु जी को सुनाएंगे ! वे सीधे छीर सागर पहुंचे और उन्होंने विष्णु जी से कहा कि “ प्रभु मैं सच्चा तपस्वी हूं । मैं अभी तपस्या करने बैठा था कि इंद्र ने समझा मैं इंद्रासन चाहता हूं । उसने मेरी तपस्या भंग करने को कामदेव को भेजा । कामदेव ने मेरे चारों ओर काम लोक का निर्माण कर दिया । वह अपने तमाम रंगों के साथ उपस्थित था । तमाम अपसराओं के साथ अश्लील और मादक नृत्य कर रहा था, लेकिन उसके कामोद्दीपक क्षेत्र से मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा और मैंने कामदेव को जीत लिया और मैंने महादेव जी की तरह कामदेव पर गुस्सा भी नहीं किया, बल्कि उसे क्षमा कर दिया। यह सुनकर विष्णु जी बोले कि “ नारद आप पर तो एक हजार इंद्र न्योछावर हैं, आपको कामदेव भला कैसे परेशान करेगा?”

यह सुनकर नारद कि बड़ा अभिमान हो गया। उन्हें लगा व्यर्थ ही ब्रह्मा जी और शिव जी मना कर रहे थे कि इनको नहीं सुनाना । उधर नारद प्रणाम करके छीर सागर से निकले कि विष्णु जी ने सोचा कि नारद बहुत भोले हैं, इन्हें अभिमान हो गया है ।अगर इनके अभिमान के अंकुर का अभी से इलाज नहीं किया तो आगे भयानक वृक्ष पैदा होगा और फिर उन्होंने अपनी योगमाया से तुरंत ही नारद के रास्ते में एक नगर बसादिया । नारदजिस रास्ते से लौट रहे थे वहां एक बड़ा खूबसूरत नगर देखा- एकसा समृद्ध नगर जो स्वर्ग से भी बड़ा था। नारद कौतूहल से उस नगर में पहुंचे तो नगर वासी लोगों ने नारद जी को प्रणाम किया और बोले कि “चलो महाराज , नगर के राजा साहब से मिलते हैं । “

नारद उस नगर के राजा से मिले । राजा ने कहा “प्रभु आप अच्छे आए मैं बेटी का स्वयंवर कर रहा हूं ।इसका हाथ देखिए।“

उन्होंने अपनी बेटी को बुलाया । लक्ष्मी जी रूप बदलकर श्रीपुर की राजकुमारी का रूप धरा था । उसे देखकर वे ठगे से रह गये और मोहित हो उठे। फिर जब उसके हाथ की रेखाऐं देखीं तो पाया कि जो इसका वरन करेगा वह विश्व विजयी होगा, अमर हो जाएगा । अहंकार के छोटे से अंकुर का असर था कि नारद को विश्व विजयी बनने की महत्वाकांक्षा जागृत हो गई । उन्होंने सोचा विश्वविजयी बनने का यह बड़ा छोटा सा रास्ता है । इससे में विश्व के सर्वोच्च पद पर बैठ जाऊंगा । इस सुन्दर लड़की से मेरा विवाह हो जाना चाहिए । उन्होंने राजकुमारी को आशीर्वाद दिया और वहां से उठकर क्षीरसागर पैदल ही चल पड़े , अहंकार और मोह में जल्दी में वे भूल ही गयेकि उन्हे आकाश मार्ग से जाने की कति प्राप्त है। वे भागे चले जा रहे थे कि रास्ते में विष्णु जी मिल गए। विष्णु ने कहा “कहां जा रहे हो देव ऋषि?”

नारद ने कहा “आपसे एक जरूरी काम था । प्रार्थना करना था कि मुझे आप अपना सुंदर स्वरूप दो दिन के लिए उधार दे दो । “विष्णु जी ने पूछाकि “ क्यों? ”

तो नादर का उत्तर थाकि “ बस मत पूछो बस एक राजकुमारी से विवाह करना है। मेरे जैसे बाबा जी साधु से कौन ब्यह करेगा?”

मुस्कुराते हुए विष्णु ने कहा “ एवमस्तु ।“

जब नारद वहां से चले तो रास्ते में महादेव मिल गए उन्होंने पूछा कि नारद कहां जा रहे हो ।

प्रभु एक विवाह में यानि स्वयंवर में जा रहा हूं ।

ठीक हे जाओ मेरे दो गण तुम्हारे सेवक की तरह रहेंगे तो तुम राजा की तरहदिखोगे

दो गण नादर के साथ लग गए थे और नारद श्रीपुर जा पहुंचे । उन्होंने देखाकि सब उन्हें अलग तरह से देख रहे हैं । उन्हें लगा वे बहुत सुंदर हैं ।

वे सीधे राजसभा पहुंचे । उन्होंने देखा राजकुमारी ने राज्यसभा में घूमना शुरू कर दिया था । सजे धजे राजकुमार बैठे थे । राजा बैठे थे । जिन्हेंनिरखती हुई राजकुमारी बढ़ रही थी। जहां से राजकुमारी को निकलना था नारद वही आगे जाकर बैठ गए । राजकुमारी न उनकी तरफ देखा भी नहीं ।

नारद उठ कर नयी जगह वैठ गये, ऐसी जगह जहां से निकलना था। ऐसा अनेक बार हुआ पर राजकुमारी ने उनकी तरफ देखा भी नहीं कि अचानक राजा के वेश में वहां विष्णु जी प्रकट हुए और राजकुमारी ने विष्णु जी को माला पहना दी उनका वरण कर लिया और वे लोग वहां से चले गए। विष्णु जी को तो नारद भी नहीं पहचान पाए राज सभा में बैठे लोग कहने लगे कि “अरे विष्णु जी वरण कर लिया ।“

ज्यों ही नादर कोविश्णु जी के आने का ज्ञान हुआ तो उन्हे बहुत गुस्सा आया कि मुझे भी अपना रूप दे दिया और खुद भी आ गए । बड़े लालची है। विष्णु लक्ष्मी के साथ भी बैठे रहते हैं और यहां राजकुमारी से विवाह कर लिया। बे बड़े गुस्से में शिव सागर की ओर चले कि मैं शाप दे दूंगा विष्णु को मेरे साथ धोखा किया है। शिवगण। हंसने लगे तो नारद ने कहा क्यों हंस रहे हो।

उन्होंने कहा मुनि जी आप किसी आईने में अपना चेहरा तो देखिए, राजकुमारी आपका क्यों वरन करती ।

नारद ने एक ताल में अपना चेहरा देखा तो वे हक्के बक्के रह गए।उनका चेहरा तो बंदर का चेहरा था । विष्णु जी ने उन्हें बंदर का चेहरा दे दिया था। अब वे नारद आगबबूला हो गए कहने लगे या तो मर जाऊंगा या विष्णु को श्राप दे दूंगा।

वे पैदल ही क्षीर सागर जा रहे थे कि रास्ते में अचानक विष्णु जी प्रकट हो गए । विष्णु जी के साथ में लक्ष्मी जी थी और वह श्रीपुर की राजकुमारी भी थी। विष्णु जी को देखते ही नारद चिल्लाने लगे “”आप बेईमान हैं । आपने मेरे साथ ठीक नहीं किया। आपने बुरे घरों को न्योता दे दिया । मैं बहुत बुरा आदमी हूं । मैं आपको शाप देता हूं कि जैसे मैं इस नारी केलिए तरस रहा हूं आप भी पत्नी के बिना तरसोगे और मैं तो चला।“

विष्णु ने कहा “आपके भले के बदले यह शाप स्वीकार है मुनि।“

क्षण भर में ही राजकुमारी बनी योग माया वहां से गायब हो गई । नारद ने पलटकर देखा तो पूछा कि “वह कहां गयी ।“ तोविष्णु जी ने कहा वह तो योगमाया थी यानि लक्ष्मी जी और आप तो जानते होकि लक्ष्मी तो विष्णु का ही वरण करेगी।‘

नादर परेशान हो गये। एक पल में अहंकार और मोह खत्म हो गया। वह विष्णु जी के चरणों में गिर गए तब विष्णु जी ने कहा “अब कुछ नहीं होता नाराज बहुत सोच समझकर बोलना चाहिए ।“!

विष्णु की यह श्राप पूरी करने के लिए विष्णु जी ने राम के रूप में जन्म लिया और लक्ष्मी ने सीता के रूप में जन्म लिया। नारद की बात पूरी करने के लिए सीता का हरण हुआ और जब राम पत्नी केबिना जंगल में भटक रहे थे तो नारद को बड़ी ग्लानि हुई। वे राम के पास पहुंचे और उन्होगे राम लक्ष्मण से क्षमा मांगते हुए कहा कि प्रभु मेरे कारण आपको कष्ट हो रहा है, आपने मुझे बंदर का रूप दिया है । यह बंदर ही आपकी मदद करेंगे।

राम बने विष्णु ने कहा कि नहीं यह तो मैं खुद चाहता थाए क्योंकि रावण का वध करना है।

तो ऐसे थे नारद, बहुत भोले, बहुत सीधे, बहुत सच्चे।

पौराणिक पात्रों में सबसे ज्यादा सक्रिय कोई पात्र हैं तो वह देव ऋषि नारद देव है । ऋषि नारद को ब्रह्मा का छोटा पुत्र कहा जाता है। ब्रह्मा जी ने सबसे पहले अपने चार बेटे सनकादिक बनाए,जिनके नाम थे सनक,सनंदर, सनत और कुमार। इन चारों से ब्रहमा जी ने कहा कि जाओ विवाह करो और सृष्टि बढ़ाओ, जनसंख्या बढ़ाओ सृष्टि का क्रम आगे बढ़ाओ । लेकिन ब्रह्मा जी के चारों लड़के, चारों कुमार जो सनकादिक कहे जाते हैं, वे संसार बसाने की जगह तप करने के लिए जंगल में चले गए। उनके बाद ब्रह्मा जी ने नारद को उत्पन्न किया । उन्होंने नारद से कहा कि “”सृष्टि का आरंभ करो “” तो नारद ने भी वही जवाब दिया जो सनकादिक भाइयों ने दिया था, कि “” मैं तो भजन करूंगा, तपस्या करूंगा, कीर्तन करूंगा ।”

तो गुस्से में आकर ब्रह्मा जैसे पिता ने भी कहा कि “ जाओ तुम जिंदगी भर यूं ही वीणा बजाते रहना, कीर्तन करते रहना, कभी तेरी गृहस्थी नही बसेगी ”

नारद हाथ में वीणा लेकर नारायण नारायण करते हुए घर से निकल गए ।

एक जगह लिखा है कि एक बार नारद चले जा रहे थे कि उन्होंने देखा कि सृष्टि के आरंभ करने के विचार से प्रजाति दक्ष ने दस हजार पुत्रों को जन्म दिया है, उनके बेटे सृष्टि के आरंभ की तैयारी कर रहे थे , यानि विवाह करने वाले थे , जिनसे बहुत सारी संतान होती।

अचानक नारद जी के मन में आया अगर इतने लोग सृष्टि के निर्माण में लग जाएंगे तो पृथ्वी पर जनसंख्या बहुत बढ़ जाएगी, सो उन्होंने दक्ष के पुत्रों को एक जगह इकट्ठा किया और इस तरह से ज्ञान ओर वैराग्य का व्याख्यान देना आरंभ किया कि व्याख्यान समाप्त होते-होते बे सारे राजकुमार बजाय महलों में लौटने के जंगल की ओर चले गये ।पिता दक्ष उन्हें रोकते रह गए , लेकिन पिता दक्ष के कहने के बावजूद वे रुके नहीं और जाकर जंगल में तपस्या करने लगे । यह देखकर दक्ष को बहुत गुस्सा आया और नारद से कहा कि मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि कभी तुम किसी भी जगह दो घड़ी से ज्यादा नहीं रखोगे और तुम अब जितनी देर बैठ कर जो मेरे बेटों को वैराग्य की शिक्षा दे रहे थे, उतनी देर बैठ नहीं पाओगे तो किसी को शिक्षा भी नहीं दे पाओगा

एक बार गंधमादन पर्वत पर नारद गंधर्व योनि में भी उत्पन्न हुए थे और उनका नाम बर्हरहण था। गंधर्व योनि में होने के कारण उन्हें कीर्तन भजन गायन वादन की अद्भुत कला हासिल थी । जब बर्हरहण गंधर्व की योनि में थे तो उनकी 60 पत्नियां थी और हमेशा सुंदर स्त्रीयों के बीच रहते था ।

पुरानों में नारद एक ऐसे पात्र है जो हर युग में पाये जाते है । जब कंस ने देवकी के आठवे वेटे से अपनी मौत्‍ की बात जानी और पहले बेटे को मारने से इन्कार करदिया तो नारद जी ने ही कंस के हाथ में एक आठ पत्ते का कमल दे कर पूछाकि उसमें कौन सी पत्ती पहली है और कौन सी आख री है, गिन कर बताओ ।

कंस बड़े धोखे में पड़ गया और वह नारद का आशय समझ गया। उसने देवकी के पहले बेटे को जो मारने से छोड़ दिया था उसे बुलाया और जमीन पर पटक कर मार डाला । लोग कहते हैं कि नारद दरअसल यह चाहते थे कि कंस के अत्याचार बढ़ते जाएं, इसके मन की हिंसक प्रवृत्ति बढ़ती जाए और तब जल्दी से जल्दी अवतार हो।

नारद हर जगह पहुंच जाते थे ओर नये ताजे समाचार सुनाते थे। वे विश्व के पहले पत्रकार भारत कहे जाते हैं। उन्हें देवता भी इतना सम्मान देते हैं जितना राक्षस देते हैं और राक्षस भी उनके खास चेले होते हैं । जो समाचार कहते हैं उस पर सब विश्वास कर लेते हैं क्योंकि वे कभी मिथ्या नहीं बोलते । हां अपनी बात को इस तरह से घुमा कर बाते करते हैं कि लोगों को उस में मजा आता है , आनंद आता है । कुछ लोग उसका अलग-अलग अर्थ लगा लेते हैं और कुछ लोग सोचते हैं कि नाराज झूठ बोल रहे हैं । तुलसीदास जी ने कहा है नारद बचन सदा सुखी सांचा ।

नारद ही तो थे जो हिमाचल के घर जाकर पार्वती का हाथ देखकर बोले थे कि शिव से इस कन्या का विवाह होगा और जो तपस्या करने पार्वती गई तो वहां भी परीक्षा लेते हुए उनसे यही कहा था कि आपका भगवान शिव से ब्याह होगा । बाद में शिव के कहने पर भी गए और पार्वती को यह कहकर पुकारने लगे कि जोगी हैं, जटिल मन से रहते हैं, अमंगल वेश में रहते हैं, तुम क्यों उनके साथ ब्याह कर रही हो। तब पार्वती गुस्सा हो गई थी।

हर देवता के साथ नारद के तमाम किस्से जुड़े हैं । हर असुर के साथ नारद के बहुत किस्से जुड़े हैं । ऐसे सर्वव्यापी सब जगह जाने वाले हैं ।

लगता है नारद कोई एक व्यक्ति ना हो कर मन की मनोवृति हैं । या नारद नाम के बहुत से चरित्र हैं । नारद नाम सुनते ही सब के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है , हंसी आ जाती है और रामलीला की शुरुआत तो नारद मोह से ही होती है। किस्से सुनाने वाले तो नारद के बारे में बहुत सारे किस्से सुनाते हैं इसमें से एक में यह प्रसंग यह हैकि एक कुण्ड में स्नान करने से वे खुद ही स्त्री बन गए थे और बारह वर्ष तक ताललंघ नाम के राजा के साथ रहे। संयोग से राजा की मृत्यु के बाद उसी कुंड में स्नान करने गए तो फिर से नारद गए थे