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खुशबुएं पकड़ में कहां आती हैं

उसे पक्का यकीन हो गया कि भावनाएं कहीं नहीं पहुंचतीं। वह कोई अन्तर्यामी तो है नहीं, पहुंचती भी होंगी, पर इतना वह ज़रूर कह सकता है कि भावनाओं की पावती नहीं आती। प्रत्यावर्तन का कोई ऐसा ज़रिया नहीं है जिससे वह मान ले कि उसका मन अपनी बात वहां रख आया है, जहां के लिए अरसे से छटपटाता आया है।
हां, छटपटाता आया है। दो बरस हो गए। जबसे उसे मोनी की मौत का सदमा झेलना पड़ा है, दो वर्ष हो गए हैं। उसे याद नहीं कि इस अंतराल के क्या- क्या साक्ष्य, कैसे - कैसे उसके पास आ गए हैं,पर अब साक्ष्य के बूते नहीं, बल्कि यकीन के दम पर वह कह सकता है कि बस, बहुत हो गया। सचमुच बहुत हो गया।
ये जीवन है। उसका जीवन। उसने इसके लिए कहीं अर्जी नहीं दी थी। लेकिन ये उसे मिला। न जाने किसकी इच्छा से। न जाने किस प्रयोजन से। लेकिन जब मिल गया, तो उसका अपना ही हुआ न! तो बस, अब वह इत्मीनान रखने की कोई वजह नहीं देखता। बहुत हो चुका। उसे जीवन ही नहीं, इसे जीने का तरीक़ा भी अपना ही चाहिए।
उसे किसी बात की शिक़ायत नहीं थी। सब कुछ ठीक चल रहा था। समय पर जैसे - तैसे सब होता रहा। क्या - क्या गिनाए, सब ही तो होता रहा। भूख लगती थी, तो अम्मा का हाथ थाली लेकर कहीं - न - कहीं से सामने आ जाता था। कोई गलती उससे हो जाती तो पिता की डांट भी क़रीने से समय पर मिल जाती। रोजगार मिलने में समय लगा था, पर उसने ऐसा कभी नहीं माना कि उसे समय पर रोजगार नहीं मिला। वह मानता है कि समय बेरोजगारी का ही था। बेरोजगारी रही। उन दिनों भी सब ठीक चल रहा था। अम्मा कहीं से भी, कैसे भी पैसे दे देती थी। यार - दोस्त गुटखा - सिगरेट दे देते थे। समय पर सब हुआ।
हां, ये बात वो पूरे विश्वास से नहीं कह सकता कि मोनी भी उसे समय से ही मिल गई थी या नहीं। उसे धुंधली - सी याद है ऐसा कुछ, शादी के सारे बखेड़े - झंझट के पहले भी कभी एकाध बार उसे तलब लगी होगी। वह शायद इच्छाओं का ही समय रहा होगा। असमय कुछ नहीं हुआ होगा। और मोनी के घर में आ जाने के बाद तो समय का तेवर जैसे और पैना हो गया। समय पर सान चढ़ गई। चाय, अख़बार, रूमाल, सोना, जागना जैसे मान दण्डों पर कहीं कोई बाधा नहीं।
बाधा पड़ी तब, जब समय ने पहली बार उससे दगा किया। ज़िन्दगी में पहली बार कोई काम असमय हुआ। मोनी जवानी में ही चली गई। जवानी माने उम्र की जवानी। यूं तो बहुतेरे अस्सी साल के भी जवानी में ही जाते हैं।
गर्भवती थी। सब कहते थे कि दो - चार महीने में वह भी पिता बन जायेगा। वह सोचता था, यह कैसा वरदान है समय का। अपने घर में, आराम से रहता - रहता एक दिन वह भी पिता बन जायेगा। एक घर में दो - दो पिता। एक उसका पिता,एक का वह पिता। दरख़्त का बीज, बीज का दरख़्त। समय एक कमरे में उमड़ता - घुमड़ता इतना खेल रच सकता है। उसे हैरानी हुई थी। उसने समय पर सब किया, समय ने उस पर सब किया।
परन्तु यह फॉर्मूला फला नहीं। यह तिलिस्म परवान न चढ़ सका। यह कोई समय नहीं था, मोनी के दुनिया से चले जाने का।
उसे तो मोनी की सारी खुशबुएं याद हो गई थीं। उसकी साड़ी में से एक झिरझिरी शामी गंध आती थी। उसके बालों में से छांव की खुशबू आती थी, सिर पर काला आकाश होने की गंध। धरती पर अंतरिक्ष ठीक से लिपटे होने की गंध।
और जबसे डॉक्टर ने उसे बताया था कि उसके घर में उसका अपना बिरवा अंकुआने वाला है, तबसे तो अनुमानों ने भी गंधाना शुरू कर दिया था। छोटे छोटे हाथ - पैरों की मुड़ी - सिकुड़ी गुलाबी अंगुलियों की खुशबू। सूखे - गीले रंग के कपड़ों की खुशबू। कलाइयों में घूमने वाले काले - सफ़ेद मोतियों की खुशबू। कमरे की हर चीज से भीने पाउडर की दूधिया खुशबू।
लेकिन समय का समय पर न होना पहाड़ों को उड़ा देता है, खुशबुओं की क्या बिसात।
मोनी चली गई। उसे कोई ऐसी बीमारी हुई जो डॉक्टर समय पर नहीं पकड़ सके। जब हस्पताल में भर्ती हुई तो कहा गया था कि बच्चे की जान को ख़तरा है। फ़िर कहा गया कि बच्चा खोकर मां का ख़तरा टाल दिया गया। फ़िर कहा गया कि मां को भी ख़तरा है। और फ़िर समय से भी चूक हो गई। इतने ख़तरे और इतनी राहतें बांटने के फेर में समय गड़बड़ा गया। ख़तरों की तुलना में राहत कम पड़ गई।
एक दिन अपने दिन पूरे कर मोनी चली गई। मोनी को एक बार फिर उसी तरह सजाना पड़ा, जैसे दुल्हन बनते समय सजी थी। फ़िर आग ने उसके ऐसे ही फेरे लिए, जैसे उसने कभी आग के समक्ष लिए थे। श्मशान में उसे मिटना पड़ा।
समय का यह विचलन बस एक बार को ही हुआ था। फ़िर झटके से उसने अपना रास्ता पकड़ लिया। थोड़े दिन बीते कि फ़िर सब होने लगा।
अम्मा फ़िर से दाल - साग में राई का बघार मारने लगी। दफ़्तर में संगी - साथी हंसी मज़ाक करने लगे। पिता की खतो - किताबत फ़िर शुरू हो गई।
वह मर्द था। सो किसी से यह नहीं कहा गया कि वह अपनी औरत को खा गया। कोई न कह पाया कि बदजात, कमीना, कर्मजला अभागा निकला। कोई पंचायत उसकी चैक और लाइनिंग की कमीज़ें उतरवा कर उसके बदन पर सफ़ेद कुर्ता नहीं डलवा पाई।
किसी ने आकर उसकी ओल्डस्पाइस, नीविया और ब्रिलक्रीम की शीशियों को फेंक कर उसकी कलाई घड़ी नहीं तोड़ी।
और तो और, पड़ौस की किसी औरत ने खिड़की से उसके कसरती बदन को चटखारे ले - लेकर रोज़ देखना तक शुरू नहीं किया।
समय ने बस एक चूक की थी, हमेशा के लिए नहीं चूका था। फ़िर सब होने लगा।
मोनी के जाने के बाद कुछ दिन एक खट्टा - सा अवसाद उस पर सवार रहा। सब सूखा - सा रहता। कपड़ों में कलफ चुभता था। रोटी ज़रा कड़ी हो जाए तो दांत को ठेलती थी। पानी का स्वाद चला गया था। हर बात में कुछ अटकता था।
पर फ़िर सब होने लगा। कुछ दिन बाद तो न जाने क्या - क्या होने लगा। अम्मा ने पिछले हफ़्ते घर की सफ़ाई के बहाने मोनी की सब तस्वीरें, कपड़े और असबाब न जाने कहां कर दिए थे। लेकिन बातों को कहां करती! बातें जब- तब हवा की दीवारों पर टंगी मिल जातीं। वह बातों को पींजता। बातें मुलायम होकर और तप जातीं। फ़िर एक दिन तो बात और भी आगे बढ़ गई। सवेरे डेयरी पर दूध लेने जाते समय एक मकान की छत पर सूखती साड़ी पर उसके देखते - देखते एक तोता आकर बैठ गया। तोते के पंजे बड़े गुलाबी थे। उस दिन देर तक याद रहा तोता उसे।
जैसे कोई सूखा सा तिनका अदृश्य होकर उसके गले में आ अटका। उस लाल साड़ी का फंदा सा लग गया उसकी गर्दन में। उसे कैसा- कैसा अजीब सा होने लगा।
एक दिन तो पानी और ऊंचा चढ़ गया। उसे नींद न आई। बिस्तर को किसी रोलर की तरह रौंदता रहा। उसने पुरानी खुशबुओं को पकड़ कर उबरना चाहा। घट चुकी बातें न छोड़ कर जा पाती हैं, और न रह ही पाती हैं।
एक दिन उसने अपने ही कपड़ों को रगड़ डाला। खींच- खींच कर तार- तार कर दिया। उसका कमरा देर रात तक हिलता रहा। जैसे कोई बच्चा सूनी छत पर पतंग उड़ा रहा हो। पर दूसरी छत से कोई और पतंग न उड़ी। 'वो काटा' की कुरकुरी आवाज़ न आई।
तलब, फ़िर तलब। वह तलब का शिकार होने लगा। तलब उभरती, वह मिटने लगता। वह उभरता, तलब न मिटती।
वह सारे पुराने कपड़े बिस्तर पर डाल कर उन पर किसी बच्चे- सा लोट जाता। कमरे में तेज़ चलता संगीत भी कुछ न कर पाता। वह फ्रिज में से ठंडे पानी की बोतल निकाल कर ज़मीन पर फ़ैला देता, और ज़मीन पर छटपटाता।
उस दिन पड़ोस में रहने वाली बच्ची सुपर्णा सुबह- सुबह एक प्लेट में केक लेकर आई, तब वह नहाने जाने की तैयारी कर रहा था। उसने आते ही कहा- "अंकल, आज हमारा 'बर्थडे' है।" उसे न जाने क्या हुआ, उसने सुपर्णा को झट गोद में उठा लिया और बेतहाशा चूमने लगा। एक के बाद एक कई चुंबन उसके गालों पर अंकित कर देने के बाद उसने केक का टुकड़ा मुंह में रखा।
हैरान- सी सुपर्णा उसे देखती जाती और अपने फ्रॉक की सलवटें झाड़ती जाती। "अंकल,आप तो बहुत ज़ोर से गोद में लेते हैं, आपने हमारे कपड़ों की प्रेस भी ख़राब कर दी, आपने तो हमारा सारा मुंह गीला कर दिया।" कहती वह अपनी नन्ही हथेलियों से गाल रगड़ती जाती।
"अरे, आज तो आप आठ साल की हुई हैं न, इसीलिए हमने आठ पप्पियां ली थीं।" वह झेंपते हुए बोला।
"अच्छा अंकल,पर आपने तो छह ही ली थीं, फ़िर दो और लो।" वह अब तक संभल चुका था। उसके दिमाग़ की किसी नस पर बच्ची की बात ने छल्ला सा डाल दिया था, कि आप तो बहुत ज़ोर से गोद में लेते हैं। उसने आगे बढ़ कर उसके गालों पर दो दीए और जला दिए। गंगाजल छिड़के हुए पवित्र दीए।
उस दिन तैरने गया तो देर तक तैरता-तैरता नदी के किनारे-किनारे दूर निर्जन में निकल गया। घाट और लोग सब पीछे छूट गए। ऊंचे टीले और सूने जंगल के अलावा कोई देखने वाला न रहा। वह पानी में छटपटाता रहा। सब छोड़ कर तड़पता रहा। हालात यहां तक पहुंचे कि अपनी ही ख़ुशबू आने लगी। अपने भीतर ही उसने सैनिक कर लिए। लड़ा दिया उन्हें। भयंकर मारकाट मची। रोम-रोम दहल गया। इसके सिवा कोई चारा भी तो न था। लड़ाइयां शांति के लिए ही होती हैं।
उस दिन पूजा करते समय पहली बार उसका ध्यान इस बात पर गया कि विष्णु के पार्श्व में बैठी लक्ष्मी की साड़ी कितनी चुन्नटदार और चमकीली है। उसे उस चमक में से कोई धार उठती हुई दिखाई दी। लेकिन इससे पहले कि वो चमक उसकी आंखों को ढके, उसने ध्यान वहां से हटा कर विष्णु के इर्द गिर्द उफनाते क्षीर सागर पर लगा दिया। नाग के फ़ैले फन की छांव में उसके आराध्य फ़िर जीवंत हो गए।
उससे मिलने वाले ये समझने लगे थे कि वह बहुत गर्मजोशी से मिलता है। किसी से हाथ मिलाता तो ऐसे भींच देता, मानो लुगदी ही बना छोड़ेगा। गले मिलता तो ऐसे, कि सामने वाला झेंप कर रह जाता। संबंधों की खुशबू उड़ती, पर अंतरिक्ष में टूट कर दूर गिरे तारे की भांति बल का कोई नया समीकरण गढ़ जाती।
छटपटाना जैसे उसकी नियति हो गई थी।
बस की भीड़ में जब- तब उसका बदन अजब फ़ैल जाता। कहीं कुछ भी हो जाता था। उसे लगता था कि ज़िन्दगी और जीवन का एक अंतरंग रिश्ता है। ज़िन्दगी है, और उसे जीवन का अधिकार है। जीवन जहां दिखे, उसे भागना है उस ओर। उसकी आंखों को भागना है, उसके हाथों को भागना है। छटपटाने की न कोई मियाद है और न कोई सरहद।
उस दिन दफ़्तर जाने लगा, तो अम्मा ने कह दिया, "आज ज़रा जल्दी आ जाना।" कुछ पूछने से पहले ही खुलासा भी कर दिया अम्मा ने ही, "ब्राह्मणी को बुलाया है खाना खाने को।"
"तो !"
" तो क्या, खाना तू परोस देगा तो कुछ बिगड़ जाएगा तेरा? ब्राह्मणी को भोजन कराना है।"
"ब्राह्मणी को भोजन?"
अच्छा, तो शायद अम्मा मानती थी कि मोनी के श्राद्ध के नाम पर इतना तो होना ही चाहिए। ब्राह्मणी को भोजन का अर्थ था कि ब्राह्मणी मोनी का प्रतिरूप बन कर उपस्थित होगी। वह जो खाएगी, मोनी के उदर में जाएगा। उसे जो कपड़ा दिया जाएगा, वह मोनी के तन पर जा लिपटेगा, परलोक में।
ब्राह्मणी आ गई। ऐसी होती है ब्राह्मणी! उसने तो किसी बूढ़े पंडित की थुलथुल पंडिताइन की कल्पना की थी। पर ये... ऐसी? इसे खिलाना है? इसे पहनाना है? कहीं ये अम्मा का कोई फितूर तो नहीं!
सूनी दोपहर में भूखी ब्राह्मणी! पिछवाड़े के कमरे में! ख़ूब लंबा गलियारा पार कर के। घर में कोई नहीं। अम्मा खाने का सब सामान रख कर, उसे बता- समझा कर न जाने कहां लोप हो गई। खाट पर ये नया जोड़ा रखा है, खाना खिलाने के बाद ये दे देना है उसे, अपने हाथ से।
ब्राह्मणी ने खाया। ललचाई आंखों से लाल जोड़े को देखा। जोड़े पर रखे पचास रुपए के नोट को देखा।
यह सब मोनी तक पहुंचेगा, जो उसे मिलेगा, परलोक में जाकर मोनी को मिलेगा। ऐसा ही विधान है। यही लिखा है शास्त्रों में। शास्त्र झूठे नहीं होते।
अगरबत्ती अब भी सुलग रही थी। ब्राह्मणी किसी अंतरलोक- गामिनी कोरियर सेवा के एजेंट सरीखी तैनात बैठी थी। जो लेगी सो मोनी तक पहुंचेगा। कहीं कोई विघ्न- बाधा नहीं। कहीं कोई शास्त्र-उल्लंघन नहीं। कहीं कोई गैर-पुण्य नहीं। ब्राह्मणी मोनी का अवतार है।
पलभर पहले चाहे जो हो, पलभर बाद चाहे जो हो जाए। इस घड़ी तो ब्राह्मणी मोनी है। मोनी ब्राह्मणी है। इस लोक और उस लोक के बीच यही सेतु है। मोनी उस लोक में है। यह इस लोक में है। इस लोक से अदृश्य हरकारा उस लोक तक जाएगा। उस लोक में मोनी को वह मिलेगा,जो इस लोक में उसके प्रतिरूप को दिया जाएगा। सब- कुछ पारलौकिक है।
आदान - प्रदान की तमाम ऊर्जा, समस्त ऊष्मा भरी है ब्राह्मणी में। केवल एक तरीका है लोक से लोक जोड़ने का। यहां की आवाज़ वहां पहुंचाने का। यहां की गंध वहां पहुंचाने का। यहां की तड़प वहां पहुंचाने का। वहां की खुशबू यहां पाने का। अप्रतिम, तिलिस्मी, विरला पल है ये। इसमें सब जायज़ है। इसमें सब अपाप है। समय, जल्दी करो। अपने औचित्य का न्यायालय लगाओ!
उस रात उसे फ़िर नींद नहीं आई। दिमाग़ तैल रंगों से पुते किसी भड़कीले कैनवस- सा ठहरा। दूर कहीं से दौड़ती एक बैलगाड़ी बार- बार आकर उसकी दृष्टि के ठीक सामने आकर रुकती थी, और उसमें से एक बूढ़ा किसी मेले में बिना बिके रह गए अपने खिलौनों की पिटारी लिए नीचे कूदता था। मिट्टी का बना सब था, बंदूक, सिपाही, वकील, पिंजरा।
उसने कितनी बार अम्मा से कहा है, इतना गरिष्ठ खाना मत बनाया कर। अब पेट वैसे नहीं होते। नींद टूट जाती है... सपने टूट जाते हैं!
- प्रबोध कुमार गोविल, बी 301, मंगलम जाग्रति रेजीडेंसी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर - 302004 (राजस्थान) मो 9414028938


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