मानस के राम (रामकथा) - 10 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मानस के राम (रामकथा) - 10







मानस के राम
भाग 10



राम का चित्रकूट की तरफ प्रस्थान


गंगा पर कर जब राम सीता और लक्ष्मण उस पार पहुँचे तो तीनों पहली बार अकेले थे। राम ने लक्ष्मण से कहा,
"यहाँ से हमारा वनवास पूर्ण रूप से आरंभ हो रहा है। अब हम तीनों ही एक दूसरे के सुख दुख के साथी हैं। सीता हमारे साथ है। उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। हम दोनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि हर परिस्तिथि में उसकी सुविधा का ध्यान रखें। उसे सदैव प्रसन्न रखें।"
लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर विनीत भाव से कहा,
"आप चिंता ना करें भ्राता मैं माता सीता और आप को कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। चलते समय माता सुमित्रा ने मुझे आपकी और माता सीता की सेवा करने का आदेश दिया था। मैं अपनी माता के आदेश का पालन करूँगा।"
वन में तीनों आगे बढ़ने लगे। रास्ते में उन्हें कई सुरम्य स्थान मिले। जहाँ रुक कर तीनों विश्राम करते। राम सीता को वन में उगने वाली वनस्पति और वहाँ के पशुओं की जानकारी देते जिन्हें वह बड़े चाव से सुनती थीं। इस प्रकार धीरे धीरे वह तीनों वन के वातावरण से अवगत होने लगे थे। अक्सर तीनों इस बात पर विचार करते कि उनके अयोध्या छोड़ने के बाद वहाँ क्या हाल होगा। राम अपने पिता दशरथ माता कौशल्या और सुमित्रा के बारे में सोंच कर दुखी होते। तब लक्ष्मण उन्हें हौंसला दिलाते थे।
इस प्रकार चलते हुए वह तीनों भरद्वाज ऋषि के आश्रम पहुँचे। भरद्वाज ऋषि ने उनका स्वागत किया। वहाँ रात्रि में विश्राम करने के बाद प्रातः काल उन्होंने भरद्वाज ऋषि से उस स्थान के बारे में पूँछा जहाँ वे अपने वनवास काल में शांतिपूर्वक रह सकते हैं। ऋषि भरद्वाज ने उन्हें चित्रकूट में वास करने का सुझाव दिया। राम सीता तथा लक्ष्मण ने भरद्वाज ऋषि के आश्रम में रात्रि विश्राम किया।
भरद्वाज ऋषि के आश्रम से विदा होकर उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करते हुए तीनों आगे बढ़ने लगे। रास्ते में तीनों ने कालिंदी नदी के तट पर विश्राम किया। तत्पश्चात राम तथा लक्ष्मण ने एक बेड़ा तैयार किया जिसकी मदद से उन्होंने नदी पार की। चलते चलते वह एक विशाल वट वृक्ष के पास पहुँचे। यहाँ रात्रि व्यतीत कर अगले दिन उन्होंने पुनः अपनी यात्रा आरंभ की। उस समय वन प्रदेश सुंदर पुष्पों से भरा था। वृक्षों की डालियां फलों से लदी थीं। वन प्रदेश की सुंदरता उनकी थकान को हर लेती थी। इस प्रकार वह तीनों चित्रकूट पर्वत पर पहुँचे। यह एक रमणीक स्थान था। यहाँ स्वच्छ जल धाराएं थीं। कई ऋषियों के आश्रम थे जिनमे आश्रमवासी शांतिपूर्वक अपने नियत कर्म करते हुए रहते थे। इस स्थान के सौंदर्य और शांतिपूर्ण वातावरण पर तीनों मंत्र मुग्ध हो गए। उस मनोरम स्थान पर उन्होंने एक कुटी बनाई जिसमें शांतिपूर्वक रहा जा सके। मलयावती के तीर पर बसे चित्रकूट में तीनों आनंद से रहने लगे।


महाराज दशरथ को श्राप

जब से सुमंत अयोध्या वापस लौटे थे महाराज दशरथ की व्यकुलता और बढ़ गई थी। दिन पर दिन वह पश्चाताप की अग्नि में जल रहे थे। कौशल्या और सुमित्रा उन्हें ढाढस बंधाने का प्रयास करतीं किंतु कोई लाभ ना होता। एक बार जब कौशल्या उन्हें सांत्वना देने का प्रयास कर रही थीं तब दशरथ ने कहा कि जो भी हो रहा है सब उनके पाप कर्म का परिणाम है। उन्होंने युवावस्था में स्वयं को मिले श्राप के विषय में बताया।
अपनी युवावस्था में महाराज दशरथ ने शब्दभेदी बाण { आवाज़ सुन कर उसकी दिशा में तीर चलाना } चलाने की कला सीखी थी। उस कला को परखने हेतु वह शिकार खेलने वन में गए। वहाँ उन्हें नदी की तरफ से आती हुई ध्वनि सुनाई दी। उन्हें लगा जैसे कोई जंगली पशु पानी पी रहा है। अतः उन्होंने आवाज़ की दिशा में तीर चला दिया। किंतु जब तीर लक्ष्य पर लगा तो वहाँ से एक मानव के कराहने का स्वर सुनाई दिया। महाराज दशरथ भाग कर वहाँ पहुँचे तो उन्होंने देखा कि एक युवक रक्त से लथपथ वेदना से कराह रहा था। उन्हें देखकर वह युवक बोला,
"कौन हैं आप ? मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो आपने मुझ पर बाण चलाया ?"
महाराज दशरथ ने अपना परिचय दिया। फिर उससे क्षमा मांगते हुए उसे सारी बात बताई। उनकी बात सुन कर युवक बोला,
"आपकी यह भूल मेरे प्राण ले लेगी। मेरे मरने के पश्चात मेरे वृद्ध माता पिता पर क्या बीतेगी ? वह दोनों नेत्रहीन हैं। मेरे अतिरिक्त उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। वह किस प्रकार अपना जीवन बिताएंगे ?"
अपने नेत्रहीन माता पिता के लिए पीड़ा उसकी आँखों में साफ दिखाई पड़ रही थी। महाराज दशरथ मन ही मन अपने किए पर पछता रहे थे। कुछ ठहर कर वह युवग आगे बोला,
"वह दोनों प्यासे थे अतः उनके लिए मैं जल लेने आया था और आपने मुझ पर शब्दभेदी बाण चला दिया। आप राजा हैं। अब आपको अपनी भूल का प्रायश्चित करना होगा। मेरे नेत्रहीन माता पिता की देखभाल का जिम्मा अब आपको लेना होगा। यह जल पात्र लेकर जाइए और उनकी प्यास बुझाने के बाद उन्हें मेरी मृत्यु की सूचना दीजिये।"
उसने उस स्थान के बारे में बताया जहाँ उसके बूढ़े माता पिता उसकी राह देख रहे थे। अंतिम बार उन्हें याद कर उसने प्राण त्याग दिए।
उसकी मृत्यु से महाराज दशरथ को बहुत दुख हुआ। अपनी भूल पर वह बहुत पछता रहे थे। उन्होंने जल से भरा घड़ा उठाया और भारी कदमों से नेत्रहीन दंपत्ति की तरफ चल पड़े। पद चाप सुन कर वृद्ध ने कहा,
"आ गए श्रवण। बहुत विलंब कर दिया पुत्र। लाओ हमें जल पिलाओ। प्यास से हमारा कंठ सूख रहा है।"
महाराज दशरथ ने जल पात्र से उस वृद्ध और उसकी पत्नी को जल पिला दिया। पानी पीकर वह बोला,
"इतने शांत क्यों हो पुत्र ? तुम्हारा यह मौन मुझे परेशान कर रहा है। कुछ तो बोलो पुत्र।"
उस वृद्ध की पत्नी ने कहा,
"बेटा श्रवण क्या हमने कुछ ऐसा कह दिया है जिससे तुम्हारा दिल दुखा हो। तुम्हारा मौन हम नेत्रहीनों के लिए असह्य है।"
दोनों पति पत्नी की बात सुनकर महाराज दशरथ का धैर्य छूट गया। उनकी आँखों से आंसू बहने लगे। हाथ जोड़ कर वह बोले,
"मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं आप लोगों का दोषी हूँ।"
अंजान स्वर सुनकर दोनों पति पत्नी चौंक गए। अपने पुत्र की जगह किसी और का स्वर सुन कर वृद्ध बोला,
"कौन हो तुम ? हमारा पुत्र कहाँ हैं ?"
दशरथ ने अपना परिचय देते हुए कहा,
"मैं अयोध्या नरेश दशरथ हूँ। अनजाने में मेरे द्वारा चलाये गए शब्दभेदी बाण ने आपके पुत्र के प्राण ले लिए।"
अपने पुत्र श्रवण की मृत्यु का समाचार सुनकर दोनों पति पत्नी विलाप करने लगे। जो दुख उन्हें महाराज दशरथ ने दिया था वह उनके लिए असह्य था। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे महाराज दशरथ का बांण उनके ह्रदयों को बींध गया हो। वृद्ध ने क्रोधित होकर कहा,
"यह तुमने क्या किया राजन। हम अंधे दंपत्ति की लाठी तोड़ डाली। अब हम जीवित नहीं रहेंगे। किन्तु तुम्हें मैं श्राप देता हूँ कि जिस प्रकार हमें पुत्र वियोग सहन पड़ा वैसे ही तुम्हें भी अपने पुत्र का वियोग सहना पड़ेगा।"

कथा सुनते हुए महाराज दशरथ भावुक होकर रोने लगे। कौशल्या और सुमित्रा उन्हें सांत्वना देने लगीं। पर महाराज दशरथ पश्चाताप की आग में जल रहे थे। वह बोले,
"किए गए पाप का परिणाम भुगतना ही पड़ता है। आज मेरे उस पाप की मुझे सजा मिल रही है। अब मैं अपने प्रिय राम का मुख देखे बिना ही संसार से विदा हो जाऊंँगा। "
महाराज दशरथ की आत्मग्लानि बढ़ती जा रही थी। अक्सर वह ' हाय राम ' करके विलाप करने लगते थे। एक रात्रि को उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनकी मृत्यु से सारी अयोध्या शोक में डूब गई। कौशल्या तथा सुमित्रा विलाप करने लगीं।
महाराज दशरथ की मृत्यु के समय उनका कोई पुत्र अयोध्या में उपस्थित नहीं था। अतः मार्कण्डेय, वामदेव , कश्यप, जाबालि और सुमंत के साथ महर्षि वशिष्ठ के पास गए तथा वर्तमान स्तिथि में क्या किया जाए इस पर सुझाव मांगा। महर्षि वशिष्ठ ने कहा,
"स्थिति विकट है। राजा के ना होने से राज्य असुरक्षित हो जाता है। राजा ही धर्म और न्याय की रक्षा में सहायक होता है। उसकी अनुपस्तिथि में धर्म का ह्रास होता है और अराजक तत्व सक्रिय हो जाते हैं। राम ने चौदह वर्ष वनवास का व्रत लिया है। अतः शीघ्र ही संदेश भेज कर भरत को बुला लिया जाए। जब तक महाराज दशरथ का अंतिम संस्कार नहीं होता है उनके शव को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाए। राजवैद्य से कहा जाए कि वह विशेष औषधियों से मिश्रित तेल का एक कुंड बनाकर महाराज दशरथ के शव को उसमें रखें।"
महर्षि वशिष्ठ के आदेश का पालन किया गया। तेज़ गति से चलने वाले अश्वों वाले रथों पर सवार होकर कुछ दूत कैकेय प्रदेश रवाना हो गए। उन्हें आदेश था कि भरत को अयोध्या की स्तिथि के बारे में ना बताया जाए।
इधर कुछ दिनों से भरत का मन बहुत ख़राब था। किसी अनहोनी की आशंका से वह विचलित थे। उन्हें रात में बुरे स्वप्न आते थे। शत्रुघ्न तथा उनके अन्य साथी उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास कर रहे थे। जब दूत कैकेय पहुँचे तो कैकेय प्रदेश के राजा और उनके पुत्र युद्धजित ने उनका यथोचित सत्कार किया। उन्होंने दूत से उनके आने का कारण पूँछा। दूत ने उन्हें बताया कि अचानक ही कोई विशेष कार्य उत्पन्न हो गया है। जिसके कारण राजकुमार भरत और शत्रुघ्न को यथाशीघ्र अयोध्या आने का आदेश दिया गया है।
अयोध्या से दूत आए हैं यह जानकर भरत किसी अशुभ समाचार की आशंका से घबरा उठे। उन्होंने दूत से उसके आगमन का कारण पूँछा। उनके नाना ने उन्हें बताया कि किसी विशेष कार्य हेतु उनकी उपस्तिथि अयोध्या में आवश्यक है। उन्हें शीघ्र निकलना होगा। भरत परेशान थे। उन्होंने दूत से अपने परिजनों के विषय में प्रश्न किए। पर दूत ने उन्हें कुछ नहीं बताया। उसने कहा कि उसे आदेश मिला है कि आपको तथा राजकुमार शत्रुघ्न को शीघ्र अयोध्या पहुँचा दिया जाए। दूत जिस प्रकार उत्तर दे रहे थे उससे भरत की चिंता और बढ़ गई थी। अयोध्या से आए संदेश का पालन करते हुए भरत सबसे विदा लेकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या के लिए रवाना हो गए।
रास्ते भर भरत का मन यह सोच कर व्याकुल रहा कि ना जाने ऐसा कौन सा आवश्यक कार्य है जिसके लिए दूतों से संदेश भिजवाया गया।