Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

साहित्य आपको सही गलत समझने का विवेक देता है - साक्षात्कार विवेक मिश्र द्वारा नीलिमा शर्मा

साहित्य आपको सही-गलत को समझने का विवेक देता है - विवेक मिश्र 1
विवेक मिश्र

विवेक मिश्र हिन्दी साहित्य की वर्तमान पीढ़ी के उल्लेखनीय कथाकार हैं। उनके उपन्यास ‘डॉमिनिक की वापसी’ को हाल ही में कथा यू.के. द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान’ से अलंकृत किया गया है। उनकी कहानियां पाठकों को सोचने को मजबूर करती हैं। वे एक राजनीतिक विचारधारा रखते हैं मगर विचारधारा के दबाव में साहित्य नहीं रचते। वे खुले दिमाग़ से दूसरों के पक्ष को सुनते हैं और अपनी बात खुल कर सबके सामने रखते हैं। वे राजेन्द्र यादव के प्रिय लेखकों में शुमार रहे हैं। पुरवाई टीम से नीलिमा शर्मा ने उनसे हाल ही में बातचीत की… अपने पाठकों के साथ वही बातचीत साझा करते हुए ख़ुशी अनुभव कर रही है।


नीलिमा शर्मा - विवेक जी आपके उपन्यास ‘डॉमिनिक की वापसी’ के लिये कथा यू.के. के ‘अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान’ की घोषणा हुई है। इस पर आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहेंगे।
विवेक मिश्र:- ‘डॉमनिक की वापसी’ को यह सम्मान मिलना लेखन में इसके किरदार डॉमनिक की उस भावना का सम्मान है जहाँ कला सिर्फ़ कला के लिए है, मनुष्यता के उत्थान के लिए है। वह किसी तरह की सत्ता, धन और यश पाने के लिए किया जाने वाला कोई करतब नहीं है, यदि इनमें से कुछ आपको कला से मिलता है तो वह सह-उत्पाद होगा, उसका बाई प्रोडक्ट, वह उसका उद्देश्य नहीं हो सकता, इसलिए एक कलाकार की उसके प्रति बहुत आशक्ति भी नहीं होनी चाहिए। मतलब मेरे हिसाब से लेखन या कोई भी कला पावर मोंगरिंग का टूल नहीं बननी चाहिए। इसमें मनुष्य को बेहतर बनने-बनाने के संधान का उद्देश्य भी निहित होना चाहिए।
आज जब चारों तरफ़ हर काम सिर्फ़ इसलिए किया जा रहा हो कि उससे कुछ पाया जा सके। जब हर क्षेत्र में एक दौड़ हो, एक होड़ हो, गला काट प्रतियोगिता हो ऐसे समय में ऐसी थीम के उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ को पाठकों का स्नेह मिलना, और इस तरह की पहचान मिलना मेरे लिए ख़ुशी और आश्चर्य की बात है। जानकर अच्छा लगा कि आज भी लोग कला, प्रेम और उसके अंतरसंबंधों पर लिखी कथा पढ़ते और पसंद करते हैं। इसके लिए सबसे पहले इसके पाठकों का, कथा यू.के. के निर्णायक मंडल का आभार।

नीलिमा शर्मा :- विवेक जी हर लेखक अपना समय ही लिखता है। जब आपने लिखना शुरू किया था और आज के समय में आप कैसा बदलाव महसूस करते हैं। एक रचनाकार के तौर पर आपको आज लिखना आसान लग रहा है या कठिन?
विवेक मिश्र:- देखिए, हर लेखक अपने समय में लिखता है लेकिन केवल अपना समय ही नहीं लिखता है। लेखक भूत-भविष्य दोनों को नज़र में रखते हुए, वर्तमान में यथार्थ और कल्पना की संधि पे खड़ा होकर लिखता है। अच्छा लेखक वही है जो समय के पार जा सके। जिसमें अतीत के अनुभव हों, वर्तमान की समझ हो और भविष्य की दृष्टि हो। आपको कुछ लेखक जैसे लेव टॉलस्टॉय, चेखव या अपने यहाँ प्रेमचंद, टेगौर या और पीछे जाएं तो कबीर आज भी क्यूँ प्रासंगिक लगते हैं। क्योंकि रचते हुए वे बहुत सहजता से भूत-वर्तमान और भविष्य में आवा-जाही करते हैं।
हाँ, ये बात सही है कि आपके लेखन पर सबसे ज्यादा प्रभाव जिसका पड़ता है वह आपका अपना समय है। आप अपने समय और उसके यथार्थ से अछूते नहीं रह सकते। आज नियोमॉर्डनिटी के समय में जहाँ कुछ भी स्थिर, या स्थाई नहीं है। हर पल की सच्चाई बहुत तेज़ी से बदल रही है। वहाँ स्थाई महत्व के, सर्वमान्य, कालजयी नायक को केंद्र में रखकर कुछ लिखे जाने की बात संभव नहीं जान पड़ती। क्योंकि कोई भी नायक समाज में स्वीकार्य मूल्यों से बनता है। और आज जीवन मूल्य कई स्तरों पर, कई तरह से, बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं। नैतिकताएं हर समय पुनर्परिभाषित हो रही हैं। जो कल सही था, आज नहीं है। एक समय में, एक मस्तिष्क में कई माध्यमों से कई विचार, कई जानकारियां डाली जा रही हैं। इसलिए इस समय एक व्यक्ति की स्मृति असंख्य बातों का कोलाज है। आज वह किसी एक चीज पर फोकस्ड, केंद्रित नहीं है। यह एक फ्रेक्चर्ड रियलिटी का समय है। सत्य का आइना टूट कर बिखर गया है। उसके हर टुकड़े में एक अलग बिम्ब दिख रहा है। सबका अपना सच है। पर पूरा सच कहीं नहीं है। पूरा सच कुछ है ही नहीं। इसके साथ मीडिया और तमाम सत्ताओं ने मिलकर पोस्ट ट्रुथ को बहुत बड़ा और शक्तिशाली बना दिया है। अब यदि आप सत्य के आग्रह के साथ लिख रहे हैं तो आपको इस टूटे हुए आईने के बिखरे टुकड़ों को जोड़कर लिखना होगा। इसलिए जहाँ एक तरफ माध्यमों की सुविधा ने अभिव्यक्त करना, प्रकाशित करना सरल बनाया है। वहीं दूसरी और कुछ ऐसा रचना जो किसी बेहतर कल के सपने को समाज में बो सके, जो पढ़ने वाले के मन की गहराई में उतर सके, उसकी स्मृति में लम्बे समय तक बना रह सके। एक साथ कई जीवन स्पर्श कर सके, ऐसा लिखना कठिन हो गया है। लेकिन यह बात हर लेखक के लिए अलग तरह से प्रभावी होती है क्योंकि सबकी रचना प्रक्रिया भिन्न है।
मेरा मानना है कि अगर आप अपने जीवन अनुभव के विस्तार को अधिक महत्त्व देंगे, अच्छा साहित्य पढ़ेंगे। तो आपके लिखने की गति धीमी होगी। आप कम लिखेंगे। जो लिखेंगे उसके प्रति मौलिकता और सार्थकता का प्रश्न आपके भीतर खड़ा होगा। आपको एहसास होगा कि केवल अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए कुछ भी लिखे चले जाना अच्छा नहीं है। उससे बेहतर है नए लोगों से मिलना, नए हुनर सीखना, यात्राएं करना, अच्छी किताबें पढ़ना, प्रकृति के रहस्यों को जानना।

नीलिमा शर्मा :- फ़ेसबुक पर समय समय पर आपकी भिन्न पोस्ट पढ़ने को मिलती हैं। लगता है कि जैसे आपको भारतीय संस्कृति और परम्परा में कोई ख़ास आस्था नहीं है।
विवेक मिश्र: लेखक अपने भीतर और बाहर की दुनिया का अन्वेषी होता है। इसलिए वह आँख बंद करके, बिना प्रश्न किए कुछ भी मानने, उसपर भरोसा करने को तैयार नहीं होता। वह पहले से बनी राहों का राही नहीं है। इसलिए आस्था जैसा भाव उसमें किसी चीज के लिए नहीं होता, यह तो उनके लिए है जिनके मन में प्रश्न और जिज्ञासाएं समाप्त हो चुकी हैं। बुद्ध से सीखा जा सकता है कि प्रश्न से परे कुछ भी नहीं है, गुरु और ईश्वर भी नहीं। क्योंकि प्रश्न आपको किसी भी नई राह को खोजने के लिए प्रेरित करता है। पुराने मूल्यों को नए समय की कसौटी पर कसने से ही नए मूल्य बनते हैं, नए सिद्धांत सामने आते हैं। बुद्ध यदि अपने समय के सभी मूल्यों और सिद्धांतों पर आस्था लाते तो आज उनका दर्शन जो पूरे विश्व में एक बड़े प्रभावी दर्शन की तरह स्थान पाया हुआ है, वह न होता। कबीर प्रश्न न करते तो रूढ़ियों को कैसे तोड़ते। उनसे भी पहले चार्वाक भरतीय दर्शन में प्रश्न की संस्कृति न लाते तो हमारे यहाँ दर्शन का विकास कैसे होता।
कहने अर्थ ये है कि जब आप रूढ़ हो चुके विचार को चुनौती देते हैं तभी तो नए विचार और दर्शन का जन्म होता है। प्रेमचंद आज़ादी से पहले भारत में जात-पात, सामंत और वंचित के बीच के संघर्ष, किसान और मजदूरों के शोषण स्त्रियों पर होते अत्याचार और अन्याय पर, उस समय की दहेज, सूदखोरी, ज़मीदारी जैसी प्रथाओं पर प्रश्न क्यूँ उठाते हैं। क्योंकि वह यथास्थिति से ख़ुश नहीं है। वह चाहते हैं कि हालात बदलें। ऐसा करके वह रूढ़ हो चुके मूल्यों को चुनौती दे रहे हैं। उन मूल्यों में लोगों की आस्था को ढहा रहे हैं। इसलिए ‘संस्कृति और परम्परा’ को आस्था से अलग करके समझने की ज़रूरत है।

नीलिमा शर्मा :- क्या बिना आस्था वाले लेखक समाज के लिये कुछ नये मूल्य स्थापित करने में सफल हो सकते हैं?
विवेक मिश्र:- आस्था को एक मूल्य की तरह स्थापित करने पर तो आप समय के ख़बरी बन कर रह जाएंगे। नया कैसे रचेंगे। नया नए अनुभव से, नए मार्ग के अन्वेषण से पैदा होता है।

नीलिमा शर्मा:- फिर संस्कृति और परम्परा?
विवेक मिश्र:- संस्कृति वो है जो आज है, जो जीवित है, और वह सतत् परिवर्तनशील है। यह वो है जो हम आज बरत रहे हैं। जैसे आज इस महामारी ने मिलने-जुलने की संस्कृति को बदल दिया, इस समय ने दुनिया को एक नई संस्कृति दी। इसलिए संस्कृति का मान तो समाज में रहने वाला हर मनुष्य करता है, करना भी चाहिए, लेखक कोई अलग नहीं, वह भी करता है, मैं भी करता हूँ। पर यह स्थाई नहीं है, यह बदल सकती है।
अब परम्परा, इसे जानना, इसका मान करना परम्परा बोध है। लेकिन उसे संस्कृति समझने की भूल करना जो लगतार बदलती रहती है, मूर्खता है। जैसे लेखन में परंपरा बोध न हो तो पता ही नहीं चलेगा कि क्या लिखा जा चुका है और उसमें नया क्या जोड़ना है। पर परम्परा को पकड कर यह कहना कि इस भाषा में यह लिखा जाता रहा है इसलिए इसमें यही लिखा जाता रहना चाहिए। यह उसे ढोना है। परम्परा का बोध बताता है कि आगे क्या करना है। क्या साथ लेना है और क्या छोड़ देना है। इसी प्रकार इसे देश और धर्म के संदर्भ में भी देख सकते हैं। सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या हत्या, दहेज़ प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं का परिवार से निष्काशन, जाति प्रथा कभी यह सब हमारे समाज की संस्कृति का हिस्सा थे। पर आज ये सब रूढ़ हो जाने की वजह से पीछे छोड़ देने योग्य हैं। आज इन्हें परम्परा के नाम पर ढोया नहीं जा सकता। लेकिन इनका बोध हमें यह बताता है कि हम और हमारा समाज कितना बदला है और अभी हमें और कितना बदलना है, परिवर्तन कोई रोक नहीं सकता।

नीलिमा शर्मा:- क्या धर्म के संदर्भ में भी इसका यही अर्थ होगा?
विवेक मिश्र:- जी बिलकुल, यही धर्म के संदर्भ में है- राम को आराध्य मानने वाले भी, उनके सीता को अयोध्या से निष्काषित किए जाने, उनकी अग्नि परीक्षा लेने के सन्दर्भ में प्रश्न उठाते हैं। शम्बूक के वेद उच्चारण करने पर उसकी जाति के कारण राम का उसका वध कर देने के प्रसंग पर आज भी बहस होती है, उनकी आलोचना होती है। एकलव्य के प्रसंग में द्रोणाचार्य के गुरुदक्षिणा के नाम पर अंगूठा मांग लिए जाने की आलोचना होती है। और यह आलोचना साहित्य के माध्यम से होती है। साहित्य आपको सही-गलत को समझने का विवेक देता है। वह सिखाता है कि यदि कोई जन नायक भी कुछ गलत करता है तो उसकी आलोचना होनी चाहिए क्योंकि साहित्य में मनुष्यता की स्थापना ही सबसे बड़ा मूल्य है। इसलिए इसका उद्देश्य ही समय, समाज और जीवन की आलोचना और व्याख्या करना है।, ताकि हम बेहतर मनुष्य बन सकें। इसलिए नए मूल्य की स्थापना वही करता है जिसके भीतर और बाहर की आँखें खुली होती हैं। जो कोई पुरानी लकीर पीट रहा है, वह तो सही-ग़लत का भेद समझ ही नहीं पाएगा। उसमें वह साहस और दृष्टि ही विकसित नहीं हो पाएगी।

नीलिमा शर्मा :- आप कविता भी लिखते हैं और कहानी व उपन्यास भी। आज छंद विहीन कविता तो मुख्यधारा की कविता है और छंदयुक्त कविता को मंचों की विधा मान लिया गया है। क्या कविता जैसी विधा के साथ यह अन्याय नहीं है?
विवेक मिश्र: जी मेरे लेखन की शुरुआत कविता से हुई, कुछ कविताएँ प्रकाशित भी हुईं, पर संग्रह नहीं आया। फ़िर कहानियां लिखीं, किस्सों – कहानियों ने ऐसा पकड़ा की कविताएँ लिखना कम हो गया। पर अभी भी कभी-कभी कवितायेँ लिखता हूँ। पर अभी वे फिलहाल मेरे लिए हैं। उसके बाद कहानी के विस्तार से उपन्यास में आया और ‘डॉमनिक की वापसी’ संभव हुआ।
आज की कविता को ‘छंद विहीन’ कहना ग़लत होगा। छंद एक प्रकार की काव्य व्यवस्था है, एक लय है। और छंद मुक्त कविता की भी अपनी एक व्यवस्था, एक तरतीब, एक लय होती है। ‘छंद’ का सम्बन्ध शब्द, मात्राएँ और उनकी व्यवस्था के साथ संगीत से, उच्चारण के नाद से, उसकी ध्वनि से, उसके पाठ के तरीके से भी है। हमारे यहाँ काव्य की शुरुआत वाचिक परम्परा से हुई, काव्य पहले कहे गए, लिपिबद्ध बाद में हुए। वाचिक में उच्चारण, स्वर का आरोह-अवरोह, शब्द का नाद, उसकी लय में बसी भाव प्रवणता, पहले प्रभाव पैदा करते हैं फिर शब्द और उनके अर्थ आते हैं। इसलिए उनके सस्वर पाठ से जो प्रभाव पैदा होता है वह उसे सीधे सपाट पढने से नहीं होता। कोई छंद पढ़ते हुए अगर आप लय छोड़कर पढेंगे तो आपको अटपटा लगेगा। तो वहाँ लय, नाद, स्वर, भाव और अर्थ सब समाहित है। सब मिलके कविता बनाते हैं.कविता की विकास यात्रा में यह देखा गया कि जब आप किसी कविता का अनुवाद करते हैं तो लय, नाद, स्वर, उच्चारण, भाषा के अलंकार उसी भाषा में छूट जाते हैं। दूसरी भाषा में जाता है कविता का अर्थ, उसका भाव, उसमें निहित उसका उद्देश्य। और इस तरह छंद मुक्त कविता ने वह भाव और अर्थ पकड़ा, मतलब जब आप उसे पढ़ें उसका अर्थ और भाव आपको प्रभावित करे न कि आप और चीजों में उलझ कर उसे पसंद करें और वह अपने उद्देश्य से चूकती दिखाई देती हो। इसलिए दोनों अपनी जगह अपना प्रभाव रखती हैं पर अंत में उसका अर्थ और भाव जहाँ श्रेष्ठ होगा वही रह जाएगी।

नीलिमा शर्मा :- वर्तमान समय में विमर्शों के दबाव में साहित्‍य को दलित, स्‍त्री, सांप्रदायिकता और समलैंगिकता जैसे आधुनिक विमर्शों पर केंद्रित किया जा रहा है, एक साहित्‍यकार के नाते इससे आप कितने सहमत हैं?
विवेक मिश्र:- देखिए, विमर्शों से साहित्य नहीं बनता, साहित्य जीवन के यथार्थ और उसके संघर्ष से बनता है। और अच्छे साहित्य में समय, समाज और जीवन के विभिन्न मूल्यों एवं आयामों की व्याख्या और आलोचना चरित्रों और परिस्थितियों के विकास से अपने आप होती है, और उससे विमर्श पैदा होता है। न कि किसी विमर्श को केंद्र में रखकर एक सोचे समझे अंत को तय करके रचना लिखी जाती है। अगर ऐसा किया जाता है तो वह रचना के शुरू में ही पता चल जाता है कि रचना कहाँ जाकर समाप्त होगी। इसलिए जब जीवन की आलोचना होगी तो उसमें अस्मिताओं के संघर्ष भी निश्चय ही आएंगे, चाहे वह स्त्री की अस्मिता से जुड़े हों, या दलित अस्मिता से जुड़े हों, या फिर किसान और मजदूरों से जुड़े हों। जो बात हमारे समय और समाज को प्रभावित कर रही है, उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। अगर समाज में जाति और उसके कारण होता शोषण है, अगर साम्प्रदायिकता और उसके कारण फैला वैमनस्य है तो वह किसी न किसी रूप में रचना में आएगा। इसीलिए कहा जाता है कि हर रचना चाहे न चाहे एक स्टेटमेंट होती है। और उसमें कहीं न कहीं समय और स्थान की राजनीति और लेखक का झुकाव दिखाई देता है।
साहित्य को समझने, उसका अध्ययन करने के लिए साहित्य को कई श्रेणियों में बांटना एक अलग बात है लेकिन साहित्य लेखन को विमर्शों के आधार पर खांचों में बांट कर उसपर ठप्पे लगाना मुझे सही नहीं लगता। इससे पढ़ने से पहले ही रचना के बारे में एक पूर्वाग्रह पैदा होता है। पाठक पढ़कर निर्णय करे की रचना क्या कहती है और किसके पक्ष में खड़ी है। इसी तरह आप लेखकों को भी खांचों में नहीं बांट सकते। क्योंकि जाति या धर्म जिसमें एक व्यक्ति पैदा होता है वह उसका अपना चुनाव नहीं होता इसलिए न इसके आधार पर कोई श्रेष्ठ हो जाता है और न इसके आधार पर किसी से घृणा की जानी चाहिए। अगर ऐसा न होता तो मेरी हनियां, ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ, काली पहाड़ी, खरोंच, तन मछरी- मन नीर, और गिलहरियाँ बैठ गईं।। जैसी कहानियां दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श केंद्रित संग्रहों में कैसे शामिल की जातीं। क्यों उन्हें दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श से जोड़कर पढ़ाया जाता।

नीलिमा शर्मा :- विवेक जी, क्या आपको लगता है कि भारतीय लेखन पर पश्चिमी देशों के लेखकों एवं दार्शनिकों का ख़ासा प्रभाव और दबाव है? हम अपनी परम्पराओं से क्यों नहीं कुछ सीख सकते? विदेशी प्रभाव और विमर्श तो उधार का सिंदूर ही रहेगा।
विवेक मिश्र:- जी बिलकुल भारतीय लेखन पर वेदेशी भाषाओं के साहित्य का ख़ासा प्रभाव रहा है, इसका कारण भारत में रही अंग्रेज़ों की हुकूमत तो है ही, फ्रेंच कोलोनी का भी प्रभाव रहा है, इसके अलावा प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर भूमंडलीकरण के समय तक पूरी दुनिया ही बहुत तेज़ी से बदली है। इन सत्तर-अस्सी सालों में दुनिया का स्वरूप ही बदल गया। हर छोटे-बड़े स्थान पर वैश्विक घटनाओं ने अपना प्रभाव डाला। लोग यात्राओं पर निकले, बदलते माध्यमों की वजह से यात्राएं, सूचनाओं की आवा-जाही बढ़ी और आसान हुई इसलिए प्रभाव पड़ना लाज़िमी था। हिंदी कथा साहित्य पर इंग्लैड, अमेरिका से ज्यादा जर्मनी, फ्रेंच और रशियन लिटरेचर का असर पड़ा। और यह हिंदी साहित्य या भारतीय साहित्य पर ही नहीं था यह पूरे विश्व के साहित्य पर था। शेक्सपियर, लेव टॉलस्टॉय, चेख़व से लेकर बोर्खेस, मार्खेस, काफ़्का का हिंदी कहानी पर ख़ासा प्रभाव पड़ा। हिंदी कहानी आज भी रशियन कहानी लेखन से बहुत प्रभावित दिखाई देती है। क्योंकि हमें लगता है कि हम अपनी भाषा के लेखकों से, उनकी परंपरा से प्रेरित हैं, वहां से प्रभाव ग्रहण कर रहे हैं पर गौर किया जाए तो वे भी कहीं न कहीं से प्रभाव ग्रहण कर रहे थे। क्योंकि हिंदी कहानी का इतिहास सौ-सवा सौ साल से पीछे नहीं जाता। प्रेमचंद के लेखन पर गांधी, टॉलस्टॉय और मार्क्स का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। लेकिन यह एक तरफ़ा नहीं है बौद्ध दर्शन का प्रभाव पूरे विश्व के साहित्य पर दिखाई देता है। इसलिए अपना-पराया कहके, साहित्य में आप इससे बच नहीं सकते।

नीलिमा शर्मा :- प्रेमचन्द से लेकर आज के युवा लेखक तक सभी फ़िल्मों से जुड़ना भी चाहते रहे और सिनेमा को दोयम दर्जे का भी मानते हैं। कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी के अतिरिक्त कोई भी साहित्यकार सिनेमा में सफल नहीं हो पाया। इसका क्या कारण हो सकता है?
विवेक मिश्र:- इसके लिए हमें अभिव्यक्ति के दोनों माध्यम साहित्य और सिनेमा के बीच के अंतर को समझना पड़ेगा। साहित्य आप अकेले, एकांत में रच सकते हैं पर सिनेमा एक टीम वर्क है। इसमें प्रोडक्शन कॉस्ट लेखन और प्रकाशन से कई गुना ज्यादा होती है। इसलिए इसमें बाज़ार का दख़ल बहुत बढ़ जाता है और वहाँ मौलिक आइडिया बचाए रखने के लिए आपको एक अच्छे निर्माता की ज़रूरत होती है। यहाँ एक आइडिया कहानी लेखक, स्क्रिप्ट राइटर, डायलोग राइटर, डायरेक्टर, कैमरा मैन, एक्टर और एडिटर सबकी रचनात्मकता से होकर गुज़रता है। दर्शक जब एक बेसिक आइडिया को परदे पर देखता है तो वह केवल एक लेखक का नहीं रह जाता। वह कई फिल्टर्स से होकर दर्शक तक पहुँचता है। कई बार अपनी ही कहानी पर्दे पर देखकर लेखक को हैरानी होती है। मेरी कहानी ‘थर्टी मिनट्स’ पर फिल्म बनी, आइडिया वही है पर स्क्रिप्ट डेवेलप होते-होते, वह क्या से क्या हो गई। इसके बाद जब हनियां, खरोंच, घड़ा और एक और अन्य कहानी पर फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव आया तो मेरे सामने दो विकल्प थे, या तो मैं मना कर दूँ और या फ़िर मैं स्क्रिप्ट राइटिंग और स्क्रीन प्ले राइटिंग में शामिल होऊं, बहुत सोचने के बाद मैंने दूसरा विकल्प चुना। क्योंकि आज एक माध्यम की तरह सिनेमा की पहुँच और ताक़त को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। यहाँ आपको अपने विचार को बचाए रखने के लिए एक टीम खड़ी करनी पड़ती है। अंत तक उसे गार्ड करना पड़ता है। केवल अपनी कहानी देकर आप निश्चिन्त नहीं हो सकते।

नीलिमा शर्मा :- आप के इसी बात से जुड़ा एक दूसरा सवाल भी। बांग्ला, उर्दू, अंग्रेज़ी और रूसी साहित्य पर तो अच्छा हिन्दी सिनेमा बना है मगर हिन्दी साहित्य को लेकर निराशा ही दिखाई देती है। कभी भी किसी बड़े निर्माता निर्देशक ने हिन्दी में बेनहर, टेन कमाण्डमेन्ट्स, एल-सिड, गॉडफ़ाडर, या फिर चार्ल्स डिकन्स या शेक्सपीयर के नाटकों जैसी फ़िल्म हिन्दी साहित्य पर क्यों नहीं बनाई होगी। क्या हिन्दी साहित्य इस काबिल नहीं है या फिर सिनेमा के लोगों की समझ की समस्या है?
विवेक मिश्र: यहाँ साहित्य और सिनेमा के निर्माता निर्देशक से ज्यादा हिंदी सिनेमा के दर्शक के संस्कार और अभ्यास का प्रश्न है। भारतीय सिनेमा जब कलकत्ता से शुरू होकर मुंबई आया तो वह या तो धार्मिक कथाओं पर केन्द्रित रहा, या मध्यवर्ग की घरेलू-पारिवारिक और प्रेम कहानियों को केंद्र में रखा गया, इसके मूल में भावनात्मक मनोरंजन रहा। इसे दर्शकों ने सराहा भी बहुत इसलिए सरोकारों का सिनेमा बहुत बाद में विकसित हुआ और उसे मुख्यधारा के सिनेमा जैसी सफलता कभी नहीं मिली, इसलिए जिसे आप अच्छा साहित्य कहते हैं उसे सिनेमा में लाया न जा सका। प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म ‘मिल मालिक की बेटी’ को सेंसर बोर्ड ने इसलिए पास नहीं होने दिया की बोर्ड में कई मिल मालिक थे और उन्हें डर था कि इसके प्रदर्शन के बाद मिलों में हड़ताल हो सकती है। बाद में जब कुछ फेरबदल के साथ यह फिल्म आई तो बताया जाता है कि सचमुच ऐसा ही हुआ और उसके बाद प्रेमचंद की अपनी प्रेस में भी मजदूरों की हड़ताल हो गई। इसके बाद रेणु की कहानी पर शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ बनाई। हाँ लेकिन इसके उदाहरण कम है।

नीलिमा शर्मा:- हिन्दी कथा-साहित्य में मुसलमान चरित्र तुलनात्मक रूप से कम दिखाई देते हैं। लेखक लिखते भी हैं तो बहुत डर डर के लिखते हैं। क्या लेखक का यह फ़र्ज़ नहीं कि वह समाज के हर तबके का चित्रण अपने साहित्य में करे? या फिर प्रतिक्रिया का डर रहता है?
विवेक मिश्र:- देखिए किसी विषय पर लिखने, किसी समाज के किसी व्यक्ति को कहानी का चरित्र बनाने से पहले लेखक का उसे जानना ज़रूरी है। आज़ादी के बाद मुस्लिम समाज में बैठी असुरक्षा ने उन्हें अपने तक सीमित रखा, तो दूसरी तरफ़ देश की धर्म केन्द्रित राजनीति ने उन्हें और हाशिए पर धकेलने का काम किया। लेकिन ऐसा नहीं कि लिखा नहीं गया, राही मासूम रज़ा, भीष्म साहनी, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा का कथा साहित्य, संजीव की कहनियां, इस क्रम में शानी को, उनके उपन्यास ‘काला जल’ को, भगवान दास मोरवाल के ‘ हलाला ‘ याद किया जा सकता है। मेरा ख़ुद का एक अधूरा उपन्यास है जिसमें कई मुस्लिम पात्र हैं पर आप उन्हें जाने बिना एक परसेप्शन के आधार पर उनसे न्याय नहीं कर सकते। अगर ऐसा है तो उससे बचना चाहिए। समाज में बने या बनाए गए मुस्लिमों के परसेप्शन को काउंटर करती बहुत सुंदर कहानी पढ़ीं थी, प्रज्ञा की ‘ मन्नत टेलर ‘ , एक जनरल परसेप्शन, एक सामान्यीकरण से हमेशा बचना चाहिए। अभी आरिफा अविस का उपन्यास ‘मास्टर प्लान’ आया था। वह मुस्लिम परिवारों की समस्याओं को बहुत अच्छे से उठाता है, लेकिन उन्हें अलग समझा जाना, उन पर अलग से बात करना ठीक नहीं लगता, वह वैसे ही समाज के हिस्से हैं जैसे बाकी सब। उन्हें हमारी, हम सबकी कथाओं में घुला मिला होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि समाज वैसा नहीं रहा, समय ने रेखाएं खींची। दीवारें खड़ी कीं। साहित्य का काम दीवारें गिराना है। और समय समय पर इसकी कोशिशें होती हैं।

नीलिमा शर्मा:- वर्तमान समय में हिन्दी की कम से कम तीन या चार पीढ़ियां साथ-साथ सृजन कर रही हैं। क्या कुछ ऐसे लेखक हैं जिनका सृजन आपको आकर्षित करता है?
विवेक मिश्र:- आज हिंदी कथा साहित्य में एक साथ पांच पीढ़ियां सक्रिय हैं। हालांकि मैं लेखन और लेखक को इस तरह पीढियों के खांचों में बांटकर देखने के पक्ष में नहीं हूं। लेखक अपने समय और भाषा का होता है। यह समय अगर मृदुला गर्ग, काशी नाथ सिंह, ज्ञान रंजन, विनोद कुमार शुक्ल, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मैत्रेई पुष्पा, संजीव, शिवमूर्ति, प्रियंवद, उदयप्रकाश जैसे वरिष्ठ कथाकारों का है तो उसका भी है जिसकी आज पहली या दूसरी कहानी प्रकाशित हुई है। आज यही कहूंगा कि हिंदी कहानी का एक अच्छा और विषय की विविधताओं से भरा समय है। निश्चय ही उदय प्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति, मैत्रेई पुष्पा के लेखन ने शुरुआत में मुझे खासा प्रभावित किया। उसके बाद निर्मल वर्मा को पढ़ा और भाषा के प्रयोग को लेकर और सजग हुआ। आज समकालीन लेखकों में अखिलेश, मनोज रूपडा, योगेन्द्र आहूजा, किरण सिंह, मधु कांकरिया, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनिल कुमार यादव, आकांक्षा पारे आदि की कहानियां अच्छी लगती हैं। ये वो लेखक हैं जिन्होंने अपना शिल्प गढ़ा है।

नीलिमा शर्मा :- आप तो भारत से बाहर लिखे जा रहे साहित्य से बाक़ायदा जुड़े हैं। कुछ लेखकों पर आपकी टिप्पणियां भी पढ़ने को मिलती रही हैं। भारत से बाहर लिखे जा रहे साहित्य को आप कैसा पाते हैं?
विवेक मिश्र:- यहां मैं यह मान के चल रहा हूं कि आप भारत से बाहर रहकर लिखे जा रहे हिंदी साहित्य की बात कर रही हैं। जिसे आम तौर पर यहां लोग प्रवासी हिंदी साहित्य कहते आए हैं। मैंने प्रवासी हिंदी लेखकों को थोड़ा बहुत पढ़ा है जिसकी शुरुआत उषा प्रियंवदा और सुषम बेदी जी को पढ़ने से हुई। यह उस भारत की कहानियां हैं जो उनमें बाहर जाकर भी बचा रहा, या जिसे उन्होंने अपने भीतर जिलाए रखा, आज हमें वह यथार्थ चाहिए जो उन्होंने वहां जाकर देखा, जो वहां से दिखाई देता है। इस तरह का काम पंजाबी के कुछ प्रवासी साहित्यकारों ने बहुत अच्छे से किया है। हिंदी में अर्चना पैन्यूली, पुष्पिता अवस्थी अच्छे उपन्यासकार हैं। कहानियों में जिन्होंने प्रवासी साहित्य के खाके से इतर भी अपनी जगह बनाई उनमें तेजंद्र शर्मा, सुधा ओम ढींगरा, दिव्या माथुर जैसे नाम प्रमुख हैं पर नई पीढ़ी में हिंदी में लिखने वाले बहुत कम हैं। लघु कथाओं में दीपक मशाल अच्छा लिखते हैं, इन दिनों वह कहानियां भी लिख रहे हैं आशा है जल्दी ही हमें उनकी कहानियां पढ़ने को मिलेंगी।

नीलिमा शर्मा : हमसे बातचीत करने के लिए आपका धन्यवाद।

विवेक मिश्र : धन्यवाद