कोख
समता उठी तो दिन कुछ ज्यादा ही चढ़ आया था। सास नयनादेवी रसोई की तरफ जा रही थी। समता ने जल्दी से उनके पैर छुए। नयनादेवी ने अपनी भृकुटी केा तनिक ढीला छोड़ते हुए धीरे-धीरे बुदबुदाना शुरू किया - ‘‘पुत्रवती भव , सौभाग्यवती भव ।’’
फिर उसने बढ़कर जेठानी के पैर छुए। उन्होनें भी आशीर्वाद दिया - ‘‘ दूधो नहाओ पूतो फलो ।’’
समता धीरे से बोली -‘‘दीदी आज मुझे रसोई में नहीं जाना है’’ यह वाक्य सुनते ही नयनादेवी के कदम ठिठक गये वे कुछ तल्ख आवाज में बोली - ‘‘ तुम्हारे साथ ही अरविंद के दोस्त की शादी हुयी थी ......बहू पेट से है। अब तुम भी जल्दी से लग्गा लगा दो .......’’ कहती हुयी वे रसोई में चली गयी ।
वह सोच में पड़ गयी । शादी को पाँच माह ही तो हुए हैं। अभी ऐसी भी क्या जल्दी । अभी तो हम एक दूसरे को भी पूरा नहीं समझ पाये ।
अरविंद को भी अम्मा ने कई हिदायतें दे डाली । रात में अरविंद ने समता को फरमान सुना दिया- ‘‘अब हमें बच्चे के लिए सोचना होगा । सभी चाहते हैं एक लड़का पैदा हो जाये........’’ अंतिम वाक्य सुनकर समता चौंक गयी । उसने प्रश्न करते हुए कहा - यदि लड़की हुयी तो ?
उसके इस प्रश्न से अरविंद बुरी तरह बौखला गया और उसे डॉटते हुए बोला - ‘‘ क्यों पहलंे से ही ऐसी अशुभ बातंे सोचती हो । भाभी के दो लड़कियाँ हैं ’’ अम्मा बाबूजी चाहते हैं लड़का हो जाये तो उनका सीना तन जाये।
उसने सहमते हुए धीरे से कहा -‘‘ दीदी ने आगे कोशिश नहीं की.... ?’’
वह बिफरते हुए बोला - ‘‘की थी । दो लड़कियों का एबॉर्शन करवा चुकी हैं । बाबूजी ने उनकी कुण्डली दिखवायी थी । उनकी कुण्डली में कन्या योग प्रबल है। पाँच लड़कियों का योग है। इसलिए घर वालों को हमसे बहुत उम्मीदें हैं ।’’
वह कुछ और भी पूछना चाह रही थी । लेकिन अरविंद ने यह कहते हुए पूरा तारतम्य तोड़ दिया कि - ‘‘ अब ज्यादा सबाल - जबाव नहीं करो जो कह दिया वही होना है।’’
अम्मां जब भी नारियल का प्रसाद चढ़ाती उसका बीज समता को देती और कहतीं - ‘‘ इसे निगल लो। नारियल का बीज खाने से लड़का होता है।’’
तीन माह गुजर गये थे लेकिल आशा की किरण दिखायी नहीं दे रही थी। उसे कई स्थानों पर ले जाया गया जहाँ से पुत्र प्राप्ति का काम हो सके। महाराज जी ने ताबीज बांधा और साथ में कई हिदायतें भी दी - ‘‘ किसी के घर नहीं जाना है , सोर और सूतक में भी नहीं जाना है। ’’
नई समय सारणी के हिसाब से वह उजले दिनों (शुक्ल पक्ष के दिन ) में ही अरंिवद के साथ रह पाती । अंधेरे दिनों (कृष्णपक्ष के दिन) में उसे नयना देवी के साथ सोना पड़ता । महाराज जी ने कहा था उजले दिनों में पति के संसर्ग से पुत्र होता है ।
राजेश्वर प्रसाद जी प्रसिद्ध समाजसेवी हैं उनके दो पुत्र अरविंद और नरेन्द्र तथा एक बेटी कामिनी है । राजेश्वर जी नारी उत्थान के सजग प्रहरी हैं । समता कॉलेज में कई बार उनका भाशण सुन चुकी है। बालिकाओं के घटते क्रम पर उनके चिंतापरक व्याख्यान से समता बहुत प्रभावित थी। जब उसका विवाह अरविंद के साथ तय हुआ तो वह बेहद प्रसन्न थी कि वह शिक्षित और सम्भ्रान्त परिवार में जा रही है। उस परिवार में सब आधुनिक विचारों वाले हैं ।
तीन माह बाद घर वालों को सफलता मिल ही गयी। नयनादेवी को जैसे ही पता चला बहू के दिन ऊपर चढ़ गयंे हैं उसे अलस्सुबह गाय के दूध के साथ एक दवाई पिलायी गयी। दवाई बेहद कड़वी थी लेकिन घरवालों की इच्छा विशेशकर पति की इच्छा के सामने उसे झुकना पड़ा।
कुछ लोग चाहते हैं कि उनसे सब खुश रहें । उसकी सब तारीफ करेें । फिर चाहे उसे अपनी इच्छाओं का ही दमन क्यों न करना पड़े। वह सबकी इच्छाओं को शिरोधार्य करता जाता है। ऐसी ही प्रवृति समता की भी थी।
नयनादेवी उसे माता के मंदिर ले गयी। वहाँ उन्होनें उसे समझाते हुए कहा - ‘‘ मंदिर की पिछली दीवार पर हल्दी से सांतियें (स्वस्तिक) बना दों और विनती कर लो कि माँ मातेश्वरी पुत्र देना । पुत्र हो जायेगा तो मैं सातियें उलटने जरूर आऊँगी।
ससुर राजेश्वरप्रसाद जी ने भी रोजाना सुन्दरकाण्ड का पाठ ‘‘ दीन दयालु विरदु सम्भारी , हरहु नाथ मम संकट भारी ’’ का संपुट लगाकर शुरू कर दिया । भोग में ल्रगाया गया प्रसाद समता को खिलाया जाने लगा। समता को आदेश दिया गया कि वह किसी कन्या का अँगूठा धोकर रोज उसका जल ग्रहण करें। इससे इच्छा पूर्ण होती है।
लगभग दो माह व्यतीत हो गये थे । वह नमकीन खाने की इच्छा करती तो नयनादेवी की वक्राकार दृश्टि उसे अंदर तक भेदती चली जाती । वे बड़बड़ाने लगती - मीठा खा , नमकीन मांगती है क्या लड़की जनेगी ? फिर झटके से हाथ जोड़ती हुई कहती - बहू तेरे हाथ जोड़ती हूँ तू हमारी झोली में लड़का डाल दे बड़ी मेहरबानी होगी।
समता कॉलेज के दिनों में कुशल वक्ता रही है। नारी की स्थिति, नारी सशक्तिकरण, कन्या भ्रूण-हत्या जैसे विशयों पर बाद-विवाद , निबंध , आशु भाशण जैसी प्रतियोगिताओं में हमेशा अब्बल आती रही है। इन्हीं सब कारणों से कॉलेज के लड़के उसे इंदिरागांधी कहते थे। लेकिन ससुराल वालों के सामने उसकी जीभ तालू से चिपक जाती।
सबके आग्रह सुन-सुनकर समता के मन पर दबाव बढ़ गया था। वह भी सोचने लगी थी लड़का हो जाये तो सबको खुश रख सकेगी।
आये दिन तरह-तरह के क्रियाकलाप करके अनुमान लगाया जाने लगा कि लड़का होगा या लड़की । रविवार को समता के सिर में जुआँ (जूँ) ढूँढ़ा गया । उसे राख की ढेरी में दवाया गया। अब इन्तजार हो रहा था कि वह कहाँ से निकलता है। अम्माँ बोल रही थीं - ‘‘ हे भगवान जुआँ ऊपर से निकले तो लड़का हो जायेगा। यदि नीचे की तरफ से निकला तो लड़की होगी। ’’
समता के हृदय की धड़कनें तो जैसे रूक गयी थी । उसे लग रहा था कि उसने कोई गुनाह किया है। अदालत लगी हुयी है फेसला होना है - फाँसी का या बरी होने का। जूँ ऊपर की ओर दिखायी दिया तो सब लोग खुशी से उछल पड़े जैसे सचमुच ही लड़का पैदा हो गया हो।
दूसरे रविवार को फिर से अदालत लगना थी। दो बड़े भगोने उलटे रखे हुए थे। उसे समझाया गया कि एक भगांेने के नीचे चलनी है जो बेटी का प्रतीक है और एक भगोने के नीचे लोड़ा (सिल का बट्टा) रखा हुआ है जो बेटे का प्रतीक है। उसे एक भगोना उलटना है।
उसने घर के सभी लोगों के पैर छुए। सबने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया । वह धीरे-धीरे भगोंनों की तरफ बढ़ रही थी। उसके पैरों में कम्पन था। ऐसा कम्पन तो वरमाला के समय भी न था। अम्माँ की आवाज कानों में आ रही थी - ‘‘भगवान हमारी सुन लियो -बेटा ही होवे ।’’ समता लोड़ा वाला भगोना ही उठाये । सब उसे घेरे हुए थे। सब उत्सुक थे ऐसा लग रहा था जैसे भगोने के नीचे लड़का रखा है। उसने भगोना उठाया । उसके नीचे लोढ़ा देखते ही सब झूमने लगे। वह भी कम प्रसन्न नहीं थी । दूसरों की इच्छा पूरी करने में कितना सुख मिलता है यह उसने आज ही जाना था।
रात में समता ने अरंिवद से कहा - आपने स्पर्श करके भी नहीं देखा कि आपका अंश कैसा है। मुझे परेशान करता है या नहंीं । अरविंद ने बेरूखी से कहा - मैं उससे चार माह बाद मिलूँगा ।
समता सहम गयी । उसकी खुशी काफूर हो गयी। समता को नींद नहंी आयी। एक ही प्रश्न बार-बार परेशान कर रहा था - यदि लड़की हुयी तो.......... ? घरवाले उसके साथ कैसा व्यवहार करेगें । अरविंद का व्यवहार कैसा होगा ?.......
अनजानी आशंकाएं उसको घेरे रहती । वह माँ बनने जा रही है लेकिन मातृत्व सुख को महसूस नहीं कर पा रही है।
जेठानी कुमुद ने बताया था जब दूसरी बार लड़की इुयी तो अम्माँ अस्पताल से ही आ गयी थी। चार-पाँच घण्टे तक मेरी बच्ची को सँभालने वाला कोई नहंी था। फिर मेरी भाभी ने ही मुझे संभाला। तुम्हारे जेठ जी भी कई दिनों तक अस्पताल नहीं आये। जैेसे सारा कसूर मेरा ही था। भाभी अपने साथ ही लिवा ले गयी । वो तो दीदी (ननंद) की शादी आ गयी इसलिये शर्मासैदी (शर्म के कारण) मुझे बुलाना पड़ा। उसके बाद दो बार अबॉर्शन करवा चुकी हूँ ।
आजकल अम्माँ समता से खुश थी। रोज उसकी पसंद का खाना बनने लगा। समता के मुँह से निकली चीज की अम्माँ आकाश -पाताल से भी व्यवस्था कर देती थी। उसके नाश्ते , भोजन और जूस का ख्याल रखा जाता था। मन न होने पर भी उसे जबरन खाना पड़ता था।
अम्माँ प्रायः रोज ही कहा करती - ‘‘ पहली बार में लड़का हो जाये तो दूसरी बार चिन्ता नहीं करनी पड़ती।’’
साढ़े तीन महीने होने जा रहे थे। डॉक्टर से गुपचुप तरीके से बात कर ली गयी थी । डॉक्टर ने अल्ट्रासाउण्ड के लिये तारीख दे दी थी।
क्लीनिक जाने से पहले एक मजार पर भी ले जाया गया जहाँ लड़का होने की मन्नत मांगी गयी। क्लीनिक में सबको निराशा हाथ लगी।
उस दिन उसे खाने के लिये किसी ने नहंी कहा। रोज तो मनमाफिक व्यंजन मिल रहे थे। अरविंद करवट लेकर लेटे थे। घर में सभी लोग थोड़ा बहुत खा चुके थे । उस पर भूख सहन नहीं हो रही थी। वह रसोई में गयी और खाना परोसने लगी । तभी अम्माँ की कर्कश आवाज आयी - ‘‘ अब ज्यादा मत खाना। कलमुही का लोथड़ा और अधिक बड़ा हो जायेगा तो निकलने में परेशानी होगी। ’’
उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। उसे लग रहा था कि उससे बहुत बड़ा गुनाह हो गया है। वह अपराध बोध से दब रही है।
सुबह वह अम्माँ के पाँव छूने झुकी तो अम्माँ व्यंग्य मंें बोल पड़ी -‘‘ रहने दे -रहने दे .... अब क्या आशीर्वाद दूँ .....। ’’ सुबह से अपना चेहरा मत दिखाया कर । वह पत्थर बुत के समान खड़ी रह गयी। वह अपने कमरे की ओर आने लगी। तभी जेठानी दिखी उन्होनें भी इशारे से पैर छूने के लिये मना कर दिया।
सबका व्यवहार देख उसके मन में विरोध पलने लगा। कमरे में आकर उसने हिम्मत कर के अरंिवंद से कहा - ‘‘ मैं अबॉर्शन नहीं कराऊँगीं । अरविंद ने उसका चेहरा देखा और कड़क आवाज में बोला -‘‘ तुम्हें मेरे साथ रहना है तो मेरा कहना मानना पड़ेगा।’’ कहकर वह बाहर निकल गया।
रात में समता को सपना आया एक छोटी लड़की हाथ जोड़कर विनती कर रही है - मुझे मत मारो माँ । भला मेरी प्यारी-प्यारी कोमल हृदय वाली माँ ऐसा कैसे कर सकती है ? कोख में पल रही अपनी लाड़ली के सुकुमार शरीर पर नश्तरों की चुभन एक माँ कैसे सहन कर सकती है ? स्नेहदात्री माँ मुझे मारने के लिए आप जो दवा लेगी वह मेरे नन्हें से शरीर को बहुत कश्ट देगी.........डॉक्टर के औजार बेरहमी से मेरी कोमल खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर डालेगी....मेरे नाजुक हाथ-पैर वे काट डालेगें...........दवा मुझे आपके शरीर से इस तरह फिसलादेगी जैसे गीले हाथों से साबुन की टिकिया फिसलती है..........मैं कहूँ भी तो किससे.............।
वह बच्ची समता के आँसू पौंछते हुए बोली- ‘‘ माँ मैं अपका खर्च नहीं बढ़ाऊँगी.............. मैं दीदियों की उतरन पहन लूँगी..............मुझमें क्या बुराई है माँ ? मैं घर के सब काम करूँगी................आप की सेवा करूँगी............... मुझे ये दुनियाँ देख लेने दो माँ...........मैं कभी जिद नहीं करूँगी................अपने पैरों पे खड़ी हो जाऊँगी जिससे दहेज नहीं देना पड़ेगा। मैं तुम्हारा अंश हूँ तुमको ही न्याय देना पड़ेगा। तुम सोच लो तो निर्णय अटल हो जायेगा। मैं जीना चाहती हूँ । मुझे मत मारो। ’’
समता हड़बड़ा कर उठ गयी । वह पसीने से तरबतर हो रही थी। उसे लगा जैसे उसकी ही बच्ची सपने में उससे याचना कर रही हो। वह दुर्गा माँ की तस्वीर की पास आयी और बोली - माँ मुझे शक्ति दो जिससे मैं इस संहार को रोक सकूँ ।’’
समता अस्पताल ले जाने के लिए आवश्यक सामान जमा रही थी। अम्माँ पूजा घर में थी और जेठानी नहा रही थी। तभी घर की बाई समता से कहने आयी कि वह आज काम पर नहंी आयेगी।
समता ने पूछा - क्यों ?
‘‘बच्चियों की फीस जमा करने स्कूल जाना है। ’’
...........और तुम्हारा आदमी ?
‘‘ बहन जी बाये तो मैंने चार साल पहले छोड़ दओ हतो ।’’
क्यों ?
‘‘ दूसरी लड़की पैदा भई तो वाको गला मसक कर मार रओ थो ’’ कहते -कहते वह तैश में आ गयी और बोली - ‘‘ मैं ऐसे कैसे अपनी मोड़ी को मार लेन देती। मेनेऊ थाने जाके रपट कर दयी। तब से मेई मोड़ियन कौं पाल रईऔं ।’’
सुनकर समता का चेहरा सफेद पड़ गया। बाई तो चली गयी किन्तु उसके मन में एक द्वन्द्व छोड़ गयी । वह सोचने लगी एक वो है अनपड़ जो लड़कियो की जिम्मेदारी खुद उठा रही
है। मे तो पढ़ी लिखी हूँ।मै भी अपनी बच्ची की जिम्मेदारी उठा सकती हूँं । अरबिंद भले ही मुझे अपने साथ न रखे मै अकेले रह लँूँगी।
समता मन ही मन निर्णय करते हुए उठी और घर फांेन मिलाने लगी।
बाहर गाड़ी का हॉर्न बज रहा था। कुमुद जल्दी से आयी और बांेली - ‘‘समता गाड़ी तैयार है..............
समतो ने कहा - ‘‘ कह दो मैं नहंी आ रही। नहंी दीदी मैं अपनी बेटी पैदा करूँगी। ’’ कहने के साथ - साथ वह अपने कपड़े ब्रीफकेश में जमाती जा रही थी।
कुमुद की आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े वह बोली - ‘‘ समता तुमने इतनी हिम्मत की आज मैं भी तुम्हारे साथ हूँ । मैं तो दो लड़कियों के बोझ तले दब गयी थी इसलिए हिम्मत नहीं जुटा पायी। ’’
समता उनके इस दबंग रूप को देखती रह गयी।
वह हकलाते हुए बोली - ‘‘ मैने पापा को फोन कर दिया है । मैं उनके साथ चली जाऊँगी क्योंकि अब तुम्हारे देवर मुझे साथ नहीं रखेगें।
कुमुद अरावली पर्वत की तरह अटल खड़ी होकर बोली - देखें तुम्हें कौन नहीं रखता ।
खबर बाहर तक पहँुुँँच गयी । अरविंद बद्हवास- सा अंदर आया । वह कुछ कहता इससे पहले ही कुमुद बोल पड़ी - ‘‘ लाला जी देवियाँ तो नौ होती हैं । तीसरी और आ जाने दो । लक्ष्मी ,सरस्वती, दुर्गा हो जायेगीं। तुम्हें हमारा कौल । ’’ कहकर वे फूट-फूट कर रोने लगी............... मैने तो अपनी बच्चियों को खो दिया है। उसका पाप आज भी सिर पर चढ़ा है.................तीन माह में जी पड़ जाता है । हत्या का पाप सिर पर मत लेा........ नौ देवियों में कन्याओं को पूजते हो उन्हें मत मारो ।
अरविंद निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गया । वह सोच रहा था सदा मूकदर्शक बनी रहने वाली भाभी आज कटु सत्य कह रही हैं।
भाभी फिर से बोली - ‘‘ साजे से ज्यादा आधे में परेशानी होती हैं। समता को कुछ हो गया तो.............’’
यह सुनकर अरंिवंद के होश उड़ गये । उसे याद आया कल के ही अखवार में छपा था शादी के सात साल तक बहू असामयिक मौत मरती है तो उसकी जिम्मेदारी ससुराल पक्ष की होगी।
समता अरंिवंद को सुनाते हुए दृढ़ श्ब्दों में बोली - ‘‘ भाभी मैने पापा को फोन कर दिया है..............’’
अरविंद के हाथ पैर ढीले पड़ गये । वह झुका और जूतों के फीते खोलने लगा।
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