पदमा की कहानियां: महिला लेखन के नजरिए से
राजनारायण बोहरे
हिन्दी कहानी का यह सबसे अच्छा समय कहा जा सकता है जबकि किसी एक आन्दोलन के बगैर लगभग पांच सौ कहानीकार एक साथ अपने निहायत निजी अनुभव के साथ परिवेश, बोली और संस्कृति की खासियत तथा मुद्दों के वैविध्य से हिन्दी कहानी को समृद्ध करते हुऐ सृजन कर रहे हैं, इनमें काशीनाथसिंह और पुन्नीसिंह जी जैसे वरिष्ठ कथाकारों से लेकर कलकत्ता के पंकज मित्र जैसे किंचित नये लेखक हैं तो लेखिकाओं में मृदुला गर्ग,चित्रा मुदगल, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर पदमा शर्मा जैसी नई लेखिका अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रही हैंं।
आधुनिक हिन्दी कथा लेखिकाओं के मुख्यतः दो वर्ग कहे जा सकते हैं, जिनमे ंसे एक वर्ग में चित्रा मुदगल, मन्नू भण्डारी, लवलीन,दूर्वा सहाय, जया जादवानी गजल जैगम जैसी करीने से कथा लिखने वाली लेखिकाऐ हैं तो दूसरी ओर अनगढ़़ ढंग से कहानी कह देने की मैत्रेयी पुष्पा से आरंभ होने वाली कथा परंपरा है, जिसमें अलका सरावगी, कविता , दीपक शर्मा और मनीषा कुलश्रेष्ठ के नाम हैैं जिसमें नया दाखिला अभी-अभी पदमा शर्मा का कहा जा सकता है। इस दूसरे वर्ग की लेखिकाऐं अपनी कहानी भले ही अनगढ़ ढंग से व्यक्त कर रही हों, लेकिन उनकी कहानियां कलात्मकता के अभाव का आरोप लगा कर ख़ारिज नहीं की जा सकतीं।
मैत्रेयी जी का उपन्यास इदन्नमम हो या अल्मा कबूतरी, विद्वान समीक्षकों ने हरेक मे ंवे नुकते ढूढे़ जो किसी मुकम्मल कथा रचना के लिए एब कहे जा सकते हैं....मलसन इदन्नमम की मंदा की मां के चरित्र का रहस्यमय होना, एक युवती के लिए असंभव काम करने की मंदा की कुव्वत और अल्मा कबूतरी उपन्यास में झांसी के लोकजीवन की वास्तविक झांकी का सायास अथवा अनायास आजाना, लेकिन इन उपन्यासों की पठनीयता और वृत्तांतों की रोचकता ऐसे बिन्दु हैं जिन पर सारे के सारे आलोचक मौन रह जाते हैं,तो इस परंपरा का एक गुण हुआ पठनीयता अैार वृत्तांत की रोचकता , इस दृष्टि से जब हम युवा लेखिका कविता की वागर्थ मार्च 05 में प्रकाशित कहानी ‘ आईना हूं मेै.. ‘ को देखते हें तो उसमें भी हमको आद्योपांत जबरदस्त पठनीयता देखने को मिलती है, और इसी सिलसिले की अगली कड़ी है मनीषा कुलश्रेष्ठ की पिछले दिनोें हंस मे ंप्रकाशित एक अच्छी कहानी ‘प्रेत कामना’ को मैं याद करना चाहूंगां जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है, वे महसूस कर रहे होंगे कि लेखिका ने एक रिटायर्ड बूढ़े प्रोफेसर की घटना और वृत्तांतों से खाली मानी जाने वाली जिन्दगी में जिस तरह से रंग भरे हैं, उसकी वजह से यह कहानी पाठक पर ऐसी गहरी पकड़ बनाती है कि पाठक एक ही बैठक में पूरी कहानी पढ़ने के लिए मजबूर हो जाता है, और कहानी समाप्त करते-करते उसे वह सुख मिलता है जो किसी क्लासिक रचना के पढ़ने के बाद महसूस होता है। इस दृष्टि से पदमा शर्मा के कथा संग्रह रेत का घरोंदा की शीर्षक कहानी ‘रेत का घरोंदा’ का जिक्र किया जासकता है, यह कहानीें पाठक को आरंभ से औत्सुक्य का सृजन कर अपने घेरे में ले लेती है जा अंत तक बनी रहती हैं और पाठक को तकरीबन वही सुख देती है जो एक अच्छी रचना के पढ़ने के बाद मिलता है।।
दीपक शर्मा आज की हिन्दी कहानी लेखिकाओं में एक ऐसा नाम है, जिन्हे छोटी और प्रभावशाली कहानियां लिखने के लिए जाना जाता है, वे एक तरफ तो छोटे छोटे वाक्यों में पात्र परिचय और इतिवृत्त बताती चलतीं हैं वहीं घटना बहुलता उनकी कहानियों की एक ऐसी विशेषता है। हालांकि इस विशेषता को कमजोरी मानकर आलोचक उन्हे उचित स्थान नहीं देते, भले ही पाठकों को वे कहानियां अच्छी लगती हैं, जबकि खुद लेखिका कहानी का आशय दरअसल एक विशेष घटना और चरित्र को खास नजरिए से देखना मानती है । कथादेश पत्रिका के मार्च 2005 के अंक में प्रकाशित उनकी कहानी ‘दूसरे दौर में’ एक ऐसी ही अच्छी और पठनीय कहानी है, जो दो स्त्रियों के बीच दुख में स्थापित होने वाले तालमेल या भावऐक्य को ष्खुबसूरती से सामने लाती है , पदमा शर्मा की कहानी ‘ अस्ताचल गामी‘ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें लेखिका कम शब्दों में गहरी और बड़ी बात कह कर कहानी जल्दी पूरी कर देती है।
मैत्रेयी जी की कुछ स्त्री विमर्श की यादगार कहानियां यौनदृश्यों के चित्रण के बिना ही बहुत सशक्त और विमर्शमूलक कहानियों के रूप में सामने आई हैं, जिनमें कहानी ‘बसुमति की चिट्ठी’ और ‘गोमा हंसती है’ का नाम लेना ही पर्याप्त है। बसुमति वाली कहानी में महिलाओं के नाम से राजनीति करते पुरूषोें के विरोध में खड़ी होकर पति के उम्मीदवार के खिलाफ वोट देती बसुमति आज के स्त्री-आरक्षण के युग में उस नारी की पहचान बन कर उभरती है, जिसे पुरूष अपनी आज्ञापालक और अनुगामिनी मात्र मान कर घर के अंधेरे में बंद रखना चाहता है। जबकि गोमा हंसती है कहानी में गोमा के रूप में सबको चकित करती एक ऐसी महिला सामने आती है, जो गोमा को दूर से देखने भर से तुष्टि पा लेता है। ऐसे आदमी की मानसिकता पर गोमा हंसती रहती है।
पदमा शर्मा की कहानियों को अगर तटस्थ भाव से देखा जाय तो हम पाते हैं कि उनके संग्रह रेत का घरोंदा की लगभग सभी कहानियां अपने स्तर पर नारी विमर्श की कहानियां हैं, जिनमें लेखिका ने अपने तरीके से इन मुददों की पड़ताल की है। दरअसल इस लेखिका के पास अभी मंच और अकादमिक संगोष्ठियों में बोली जाने वाली शब्दावली नहीं है, बस बीसवीं सदी की उस एक आम भारतीय घरेलू लड़की के अपने अहसास, अपने अनुभव और अपनी अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हे वह किसी से कहती नहीं, चुपचाप अपनी कहानियों की बही मेें टांक देती है, समय आने पर संभवतः इन अनुभवों को वे सब भी सुनेंगे जो अभी इक्कीसवीं सदी की युवतियों के अहसास, अनुभव और अभिव्यक्तियां सुन रहे हैं। ये बात और है कि इस लेखिका को अभी कथालेखन की तकनीक और अपने नजरिये में भी बड़ा होमवर्क करना बाकी है। उनकी कहानियांें में से आधी से ज्यादा कहानियां अभी पापुलन राइटिंग के खाते में डाली जा सकती है, जबकि उनमें स्मरणीय साहित्यिक रचना बननेकी संभावनाऐं मौजूद थीं ं
यहां मैं पिछले दिनों हंस में प्रकाशित कुछ लेखिकाओं की कहानियों की बात करना चाहूंगा हंस के फरवरी 2005 के अंक में प्रकाशित लवलीन की कहानी ‘ एक लड़़की की मौत’ में छायावादी तरीके से एक ही बात घुमा फिरा के कइ्र दफा कही गई हेै, कि किशोरावस्था में देखा गया सपना युवावस्था में हमेशा टूटता है, लेखिका के इस दुहराव से पाठक बहुत जल्दी उकता जाता है । हंस के इसी अंक में दूर्बा सहाय की कहानी ‘ अंधेरे में आकार लेता नाटक’ रेल के दूसरे दर्जे के शयनयान के डिब्बे में एक अधेड़ आदमी और एक युवती की अश्लील हरकतों के नैरेशन को आधार बना कर लिखी गई है, कहानी पढ़ने के बाद पाठक गहरी निराशा,जुगुप्सा और नफरत से भर जाता है, क्या कहानी पढ़ने के बाद ऐसे ही भाव आना चाहिए? आखिर क्या लिख रही हैं ये करीने से कहानी लिखने वाली लेखिकाऐं ! यही हाल हंस के मार्च अंक में प्रकाशित गजल जैगम की कहानी ‘मधुवन में राधिका’ ेका है जिसकी नायिका टेलीविजन के सीरियल की नायिका सी सामने आती है।
महिला लेखन में बोल्डनेस के नाम पर साहित्य के डॉन भले ही खुले चित्रण को प्रश्रय देते रहें लेकिन अगर इस बोल्डनेस को यौनदृश्यों के चित्रण के बजाय अनुभव की प्रामाणिकता और मन की भावनाओं को माना जाय तो इसकी तस्वीर अलग होगी जो कि उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ या कहानी ‘काकरोच’ और ‘ भीतर के पानियों में कोई कांपता है’ जैसी कहानियों से अलग होगी,ये बात अलग है कि ऐसा होने पर सिर्फ साहित्य से रस लेने को मजबूर हो चुके हमारे वरिष्ठ कथा लेखकों और संपादकों को तमाम रस भरे वृत्तांत पढ़ने को नहीं मिलेंगे। इस दृष्टि से लेखिका पदमा शर्मा का लेखन कतई निराश करता है....और यह निराशा लेखन की अच्छाई -बुराई,न होकर मुण्डे-मुण्डे मतिरभिन्ना का सही रूप् में दरअसल हर लेखक केे अहसास अलग हैं, अभिव्यक्तियां अलग हैं, और बोल्डनेस की वजर से आने वालां रिस्क झेलने का माद्दा अलग है।
लेखिका ने इस संग्रह में ऐसे नारी चरित्रों से हमारा परिचय कराया है जो हमारे इर्द-गिर्द प्रायः देखने को मिल जाते हैं चाहे वह कस्तूरी मृग... की लाजवंती हो,चांद पर दाग...की सौदामिनी हो,कंचन बरसे की सगुना हो, या परिवर्तन की प्रतिभा! इन चरित्रों के बोल-व्यवहार बिलकुल वैसे हैं जैसी वे हैं, जबकि इस संग्रह में लेखिका ने कुछ पात्र ऐसे पैदा किये हैं जो उनके मानस में बसे बैठे हैं यानीकि जो है तो नहीं पर लेखिका उन्हे समाज मे जीता-जागता देखना चाहती है, ऐसे चरित्रों में आंचल के साये की देवश्री, अस्ताचल गामी की सावित्रीदेवी, बीच का धमचोला का भरोसा या बदलते घेरे की जमुना ! इससे यह सिद्धांत एक बार फिर सही साबित होता है कि हम समाज मंे जो नही पाते उसे अपने साहित्य में रच कर उसके होने का अहसास कर आत्मसुख पा लेते हैं।
रचना की समीक्षा के जो साहित्यिक प्रतिमान स्थापित किए गए हैं, वे कालजीवी रचना को खोजने के प्रतिमान हैं, जबकि आचार्य रामचन्द शुक्ल और उनके पूर्ववर्ती अचार्योे ने साहित्य सृजन के तमाम ऐसे उद्देश्य भी बताए हैं जो इस कालजयी होने की महत्वाकांक्षा से अलग हैं जैसे-कांता जन ललितयोे या लोक रंजन...। अगर इस नजर से पदमा की कहानियों को देखा जाय तो हम आश्वस्त होते हैं कि वे पाठक जिन्हे किसी अखबार और पत्रिका में छपी कहानी पढ़ कर उसका मजा लेने भर मे ंदिलचस्पी है, जो अपना मनोरंजन करना चाहते हें और अपने जीवन से जुड़ी समस्या को वे साहित्य में ढूढ़ना चाहते हैं , उन्हे सिर्फ कहानी के कथ्य में रूचि होती है न कि लेखक के नाम और परिचय जानने में उन्हे पदमा के संग्रह रेत का घरोंदा की कहानियां अच्छी और रूचिकर लगती है, एक लेखिका का इससे ज्यादा चाहिए भी क्या?
यद्यपि लेखिका की कहानियों के वर्तमान स्वरूप से पूरी तरह संतुष्ट नही हुआ जा सकता, उनके लिए अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है, हमारी कामना हेै कि सदैव सीखने का भाव मन में लिए रहें और अपनी हर नई कहानी पिछली से बेहतर लिखें ं।
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