RAJNARAYAN BOHARE AUR KAHANI KI DUNIYA books and stories free download online pdf in Hindi

राजनारायण बोहरे और कहानी की दुनिया

राजनारायण बोहरे और कहानी की दुनिया

-डॉ. पद्मा शर्मा

हिन्दी कहानी के आठवें दशक में अनेक महत्वपूर्ण कहानी कार उभर के आये। यह ऐसा समय था जब कई पीड़ियाँ एक साथ साहित्य रचना में जुटी थीं, जिनके शिल्प और कथानक से लेकर शब्द भण्डार तक अलग अलग थे। हर पीड़ी में कितने सारे लेखक और हर लेखक की अपनी विचार धारा। मोटे तोर पर इन लेखकों के वर्ग पर विचार किया जाये तो कुछ वर्ग उभर के आते हैं। एक वर्ग ऐसा था जो कि सीधा फार्मूला कहानी लिख रहा था यानि कि क्रांति की विचारधारा से जुड़ा हुआ लेखक वर्ग जिसके चरित्र कहानी के आखिर में क्रांति या सक्रिय विरोध का बिगुल बजा ही देते थे। दूसर वर्ग मे वे लोग थे जो भारतीय संस्कृति और समाज की कहानियां लिख रहे थे। तीसरा वर्ग सामाजिक रिश्तों और घरेलू समस्याओं की कहानियां कह रहा था। एक वर्ग ऐसा था जो कि किसी वाद और विचारधारा से सीधा-सीधा नही जुड़ा था। किसी विचारधारा के प्रसार या वाद के सिद्धांतो को जस का तस रख कर कहानी नही लिख रहा था। ऐसे लोगों की कहानियों मे आम जन की पीड़ा थी तो भारतीय मूल्यों की परम्परा भी। प्रेमचंद से आरंभ आम आदमी की कहानी की सीधी परम्परा में कहानी को आगे बढ़ाते ये लोग कहानी को कहानी बनाये रखते थे किसी शोध ग्रंथ या मनोवैज्ञानिक विश्लेशण का पोथन्ना नही बनाते थे। राजनारायण बोहरे इसी चौथे वर्ग से आते हैं। किसी आलोचक के लाड़ले न होने के कारण या कस्बों-मझोले शहरों में रह कर लेखन में नैरंतर्य रखने वाले बोहरे को भले ही कहानी के इतिहास प्रसंगों और कथेतिहास के पोथन्नों में किसी मूल धारा के लेखक नही माना गया हो लेकिन अपनी मौलिकता और परम्परागत किस्सागोई के कारण लेखकों के बीच राजनारायण बोहरे की कहानियां अपनी कहानियां अलग पहचान कायक करती हैं।‘‘इज्जत-आबरू युवा लेखक राजनारायण बोहरे का पहला कथा-संग्रह है, जिसमेंछोटी-बड़ी दर्जनभर कहानियां शामिल है, नवीन कथा-अनुभव और कथा-भाषा यह कहानियां अपनी विशेष्ताओं का अहसास कराती है, हिंदी मेंपाठकों का अभाव यह विलाप हम वर्षों से छाती पीट-पीटकर कर रहें है, लेकिन इसके कारणों की खोजबीन करने की जहमत हम गवारा नहीं करते और कभी कभार ध्यान गया भी तो नजरअंदाज करना हमारी आदत मेंशुमार हो जाता है, कीमतों के अलावा भी एक अहम कारण है, साहित्य की भाषा और शैली तथा शिल्प का दुरूह होते जाना ऐसे रचनाकार किचेन-कबीनेट लगाकर ’मन तोरा हाजी बगोयम, तू मोरा हाजी बगो’ (मैं तुम्हें हाजी कहूं और तुम मुझे हाजी कहो) की तर्ज पर परस्पर शलाघा की सारी हद लांघ जाएं, पर आज हम कितने उेसे कथाकार का नाम पूरे विश्वास के साथ ले सकते हैं जो प्रेमचंद्र की तरह आमजन तक पहुचां हो? बतौर विरासत प्रेमचंद्र की माला तो हम अवश्य गिन सकते हैं, लेकिन उनकी बोधगम्यता से परहेज करना हमारी नियति बन चुकी है, इस नाते राजनारायण की बोधगम्यता हमें थोड़ी रास आती है।’’(शहरोज ‘ व्यापक अनुभव संसार की कहानियां ) ‘‘इज्जत-आबरू राजनारायण बोहरे की बारह कहानियाँ का ताजा संकलन है। आज की युवा पीढ़ी के सामने कथा लेखन के आयाम काफी विस्तृत है। विषय और शिल्प की विस्तृति की जितनी गुंजाइश इनके सामने है, इतनी पूर्व के कथाकारों के पास नहीं थी। आज की पीढ़ी के लिए ऐसा अवसर जुटाने मेंकुछ तो भूमिका समय के बदलते तेवर की है, वैज्ञानिक विकास की है, भौतिक संसाधन की है, और कुछ श्रम से और बड़ी साधना से आज की पीढ़ी के लिए प्रशिक्षित और प्रबुद्ध और दिशा सिद्ध पाठकों की परम्परा बनाई है। आज के कथाकार और आज की कहानी सीधे-सीधे और बड़ व्यंग्यात्मक अथवा सांधातिक शैली मेंसमय सत्य से मुखातिब होती है और आज के पाठक बड़ी आसानी से उएन कहानियों से दो चार हो जाते हैं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती इसमेंपूर्ववर्ती कथा-परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान है राजनारायण बोहरे को ये पूरी बिरासत प्राप्त थी। कौशल के प्रशिक्षण के लिए पूरी कथा-परम्परा और विषय चयन के लिए बुन्देलखण्ड़ और आस-पास का जनपद, इन दोनों उपादानों के बीच राजनारायण के भीतर के कथाकार का वजूद बनाता है।’’(साक्षात्कार,पत्रिका जुलाई 2000) ‘‘हिन्दी कहानी मेंप्रेमचन्द्र कई कारणों से याद आते है। कुछ लोग प्रेमचन्द्र को हिन्दी कहानी को यर्थाथजगत मेंले आने के कारण याद करते हैं, तो कुछ लोग उनकी भाषा-शैली के कारण याद करते हैं, कुछ लोग उन्हें इसलिए याद करते हैं कि वे मूलतः गावों के कहानी कार है। बाद मेंतो प्रेमचन्द्र का नाम लेकर ही कहानी की समीक्षा की जाने लग, अर्थात् प्रेमचन्द्र हिन्दी कहानी के लिए एक निकष बन गए। कुछ लोग तो प्रेमचन्द्र के बाद की कहानी को इस नजर ये देखने लगे कि प्रेमचन्द्र के बाद की कहानी को इस नजर से देखने लगे कि प्रंेमचन्द्र से आरम्भ परम्परा अब कहां आ पहुंची है। ये परम्परायें भी भाषा, चरित्र, कथ्य, दृष्टि और शिल्प को लेकर अलग-अलग दिशाओं मेंआती देखी जाती हैं। हालांकि आलोचक के पास वह जादूई छड़ी होती है जिससे वह सेव को नारंगी और पपीते को कटहल सिद्ध कर सकता है, लेकिन पाठकीय और लेखकीय नजर से किसी रचना को देखना आलोचक की नजर से सर्वथा अलग होता है। भलें ही यह दृष्टि शास्त्रीय परम्परा से बहुत दूर की हो, पर सम्भवत यही दृष्टि वास्तविक दृष्टि होती है। आज की हिन्दी कहानी को अगर इस नजर से देखा जाये और प्रेमचन्द्र को याद रखा जावें, एवं अपना दृष्टिक्षेत्र सिर्फ युवा कथाकारों तक रखा जावे तो हमारे समक्ष कुछ नाम सशक्त रूप से उभर के आते हैं, जिनमेंगौरीनाथ, सुश्री शरदसिंह, संजयकुमार सिंह, संजय खाती और राजनारायण बोहरे के नाम शामिल हैं।’’(ए.असफल-रोचक व सशक्त कथाऐं)

राजनारायण बोहरे की कहानियों का निष्पक्ष विवेचन किया जाये तो हम पाते हैं कि उनकी कहानी दूसरे समकालीन कहानी कारों से अलहदा किस्म की हैं। कहानी में वृत्तांत की उपस्थिति को वे पहली प्राथमिकता देते हैं। पाठक एक बार उनकी कहानी पढ़ना शुरू करता है तो पूरी करके ही छोड़ता है। उनकी कहानी या तो अचानक किसी संवाद से शुरू होती है या फिर किसी दो-तीन पंक्तियों के किसी खास विवरण से । अस्थान कहानी में एक टकसाली साधु द्वारा अपने सम्प्रदाय में प्रचलित जिन जयकारो के साथ भोग लगाया जाता है उसी के साथ आरंभ हुई कहानी एक प्रकार की उत्सुकता जगाती है और पाठक इस कहानी को जिस दिलचस्पी से पढ़ना शुरू करता है उसी के साथ पूरा पढ़के ही छोड़ता है। चम्पा महाराज... में कहानी के प्रमुख पात्र लूले कक्का के ऐबों का वृत्तात, बाजार वेब में अन्नपूर्णा भाभी की पोशाक का विवरण, मुहिम में बीहड़ों मे पुलिस दल के साथ भटकते गिरराज और लल्ला की मानसिकता दर्शाती पंक्तियों के साथ आरंभ होते ही कहानी पाठक को अपने दायरे में ले लती है।पाठक को अपने साथ बांध लेने की कला में वे माहिर हैं जो शायद कहनी की पहली जरूरत भी है। कहानी कहने के बोहरे अनेक रोचक तरीके अपनाते है, उनके पास कई ऐसे आजमाये हुए शिल्पगत प्रयोग हैं जिन्हे अपना कर वे अपनी बात इस तरह से कह जाते हैं कि कहानी का आकार और भाशा बिलकुल बाधा नही बनती और कहानी सहज भाव से कह दी जाती है। उनकी कहानी कभी फलेश वैब सिस्टम से प्रकाश में आती है तो कभी नदी की तरह कल कल करके बहती चली जाती है। कभी किसी दृश्यमान स्थिति से वे कहानी आरंभ करते हैं तो कभी किसी चमत्कारिक वाक्य से जैसे अस्थान कहानी का आरंभ ”अखिल ब्रह्माण्ड नामक परात्पर ब्रह्म परमात्मा की जय !सम्प्रदाय के आदि आचार्य महराज की जय! गददीधारी आचार्य महराज की जय !अस्थान के महन्त मण्डलेश्वर की जय !सन्त -पुजरी की जय! दाता भण्डारी की जय!अपने-अपने गुरू महाराज की जय!“ या मुहिमा का आरंभ देखिये ‘‘ सिर पर टीकाटीक दोपहरी, लेकिन पुलिस वालों की तरफ से ऐसे कोई संकेत नहीं, कि भोजन-पानी की कोई व्यवस्था जल्दी ही करने वाले हों। भूख के मारे दोनों का बुरा हाल, घर होते तो अब तक दो बार खा चुके होते, लेकिन यहां तो भिनसारे से कलेऊ तक नहीं मिला ।’’ या डूबते जलयान की शुरूआत देखें ‘‘ चूल्हे में लगी लकडी बहुत धुॅधुआ रही थी । सिलेण्डर कोने में लुडका पडा था ’’आदि आदि। ‘‘ इन कहानियों मेंप्रायः आम आदमी के ही दर्शन होते हैं हमंे। वह दुकानदार, ड्रायवर, गृहिणी, प्राध्यापक, उपयंत्री, पारम्परिक ग्राम्य दस्तकार, चपरासी, साधु, दूधवाला, आरक्षक, मजदूर बुनकर आता है। इनमेंविस्ता-विवरण कत ही है, पर जहां भी है, प्रासंगिक ही है। समकालीन कथा-साहित्य का ऐक सबसे बड़ा ऐब जहां उसकी अपठनीय है और उसे पढ़ पाने के लिए खासी कसरत की जरूरत है, इतनी कि धैर्य चुकने लग जाता है...... यह ऐब अमूमन बोहरे का इन कहानियों मेंदेखने को नहीं मिलता। पर बिसात मेंइसके भरपूर दर्शन होते है। हालांकि बाद मेंकहानी इतना अच्छा मोड़ ले जाती है कि जो बृतान्त पहले उबाऊ और निरर्थक लग रहा था, वही प्रासंगिक व जरूरी बन पड़ा है। शायद, यही इस रचना की कलात्मकता है। इसमेंगांव और शहर के आदमी की मानसिकता का बंुनियादी अंतर बड़ें सहज तरीके के दृष्टिगोचर होता है। नायक कैसे खलनायक बन जाता है, चरित्र का यह नामालूम परिवर्तन भी इसमेंबडें कौशल के साथ चित्रित किया गया है। बहरहाल, इस कथा-रचना मेंऔपन्यासिकता के दर्शन जरूर होते हैं। एक से अधिक पात्रों की पड़ताल भी। और घटना प्रसंगों के माध्यम चे सरित्र के उत्थान-पतन का जाल भी। इसमेंइतिवृत्तात्मकता का कौशल भी कम नहीं है। सी, कहानीकार के भविष्य मेंउपन्यासकार बनने के आसार दिखते है।’’(ए असफल -कहानी के प्रति आकर्षण और आस्था जगाती कहानियांँ)

बोहरेजी की कहानियों के चरित्र जिस समाज से आते हैं उस समाज की रीति-नीति और बोली-भाशा के साथ कहावतों-मुहाविरों की पूरी समृद्ध विरासत साथ में लेके आते हैं। चम्पा महाराज... में समाज के तीज-त्यौहार, व्रत-पर्व और लोकगीत व लोक परम्पराओं की खूबसूरती इस अदंाज मे आती है कि पाठक को कहानी में धक-धक करता जीवन महसूस होने लगता है। अस्थान में साधुओं की सधुक्कड़ी भाषा, मुहिम में चम्बल घाटी की भदावरी भाषा, चम्पामहाराज में बुंदेलखण्डी बोली का जिस अधिकार और लालित्य के साथ प्रयोग किया गया है वह आम लेखकों में दुर्लभ है।‘‘ वह बुंदेलखण्ड के रहने वाले है, कहानियों में बुंदेलखण्ड का जीवन सिर चढ़कर नाचता है, गांव, कस्बे, शहर की जिन्दगी, दुख-दर्द है, आमजन का जीवन हर कोण और हर विचार से सॉ दृष्टिगोचर होता है, उनकी कहानियां स्वभाव और तेवर में नितांत मुखतलिफ़ है, कहानी का हर वाक्य संवाद करता है और तल्ख हकीकतों की अक्कासी करता है, बुंदेलखण्ड का जीवन है सो उसके प्रभाव से बचा नहीं जा सकता और स्वाभाविकता की जान लेना भी अपराध है, ठेठ और देशज, शब्दों का खुलकर इस्तेमाल हुआ है, जैसे शुकर, बिचारे, बिक्री-बट्टा, गोच, जुहार, टूंचन, भगचल, परवानौ, दहसत, तिहारी, इज्जत-मरजादा, कुचिंया दरसन, दूबा-ड़ठूआ, सींझिया, सुक्का, खुरग ड़िलावरी आदि-आदि।’’ (शहरोज-व्यापाक अनुभव संसार की कहानियां, हंस) ‘‘जहां कहानियों की भाषा में बुंदेली पुट है वहीं ग्रामीण परिवेश की कहानियों मेंबुंदेली संस्कृति की भी झलक मिलती है, इस उपभोक्तावादी युग में प्रतियोगिता इतनी तेज है कि पिछड़ने पर कुचलने का भय सताने लगता है यही कारण है कि इस दौर के अन्य युवा कथाकारों की तरह राजनारायण की कहानियों मेंभी एक उतावलापन तथा कहानी को जल्दी से जल्दी कह कर पूरी कर देने का उत्साह देखने को मिलता है, यही कारण है कि कुछ कहानियां केवल ढांचा रूप मेंअधूरी छूटी हुई सी लगती है, यदि इनको थोड़ा और सजाया, संवारा और संस्कारित किया गया होता तो शायद ये यादगार कहानियां बन जाती, इसके बावजूद भी प्रस्तुत संकलन अनेक संभावनाएं जगाता है तथा पठनीय है।़’’ (वीरेंद्र जैन-अपने समय की कहांनियां) ‘‘ इज्जत-आबरू की सारी कहानियां जीति-जागती सामाजिक घटनाएं है। समाज जैसा है, वैसे ही पात्र हैं,, चरित्र हैं इनके। इसलिए ये नायकों की ही नहीं, खलनायकों की भी कहानियां हैं भय की भांति मुठभेंड़ भी एक गहरी चरित्र प्रधान कहानी है। वहीं प्रोफेेसर तो यहां आरक्षक सत्य और न्याय के प्रति एक गहरी प्रतिबद्धता से जुड़ें हुए मिलते है। ये अपने चरित्र से समाज मेंकोई आदर्श स्थापित करने के इच्छुक नहीं हैं, वरन् अपनी स्वभाविकता/सिद्धान्तप्रियता के लिए जीते-मरते जूझते नजर आते हैं, इन चरित्रों को जो कि समाज मेंनगण्य ही सही, पर हैं-गढ़ने मेंकथाकार ने जो मेहनत की है, वह इन कहानियों को मरने नहीं देगी।.......और लाख उत्तर आधुनिक भौतिक सभ्यता के बावजूद आत्मबल हेतु मनुष्य को जो आकाशदीप/माइलस्टोन चाहिए होंगे, वे इन्हीं मेंमिलेंगे। अकाल से त्रस् बरखेड़ा का नेता रोजी-रोटी को ठूकरा कर जब मनुष्य की अस्म बचाता है तो सारी कायनात उसके कदमों पर झुक जाती दीखती है। भारतीय संस्कृति के यही मूल्य हमारी इज्जत-आबरू रखे हुए हैं वरना तो हम भूखे नंगो कर्ज और अनुदान से काम चलाते लोंगों पर और रखा ही क्या है? किंतु हमारी इस इनरवेल्युज मेंजो कि हमने सदियों मेंड़ेवलप की थी, एक वाशविक लालच ने हमेंगरीबी और अभाव की कमजोर अवस्था मेंपाकर संेध लगा दी और यह बीमारी इस देश के दूधवाले तक मेंफैल चुकी है, यानि कि साधारणीकरण हो गया है उस विचारधारा का जो कि तोप के बहाने तख्त की ओर से चली थी कभी। बोहरे की इन कहानियों मेंपठनीयता का अभाव नहीं है। इनकी भाषा बेहद कस्बाई और मुंहलगी होते हुए भी आंचलिक कि बोझ से दबी नहीं है। कहानियों मेंविवरण इतने चोखे हैं कि दृश्य-सा उपस्थित कर देते है, वहीं पात्रों का चिन्तन, विचार और एकाकी ऊहापोह पाठकों ािक सहज आत्मसात हो जाती है। कहना न होगा कि बेहद सरल, सुस्पष्ट और मुंहलगी भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त ये कहानियाँ पाठक के भीतर ऐसे उतर जाती है जैसे रोजमरा की घटनाएं। पर यह लेख के शिल्प का चमत्कार ही है कि वह सामान्य से कथानक को, उन घटना प्रसंगों को जो आसपास ही है, एक विशिष्ट भावबोध के साथ कहानी के रूप मेंपाठक तक पहुँचा देता है तथा किसी स्मृति पद्धति से नहीं बल्कि भोक्ता की भांति उसकी अंतसचेतना को झिंझोड़कर एक ऐसी अंतदृष्टि प्रदान करता है, जो जीवन और जगत के सारे क्रियाकलाप को एक सजगता और होश में परखने की क्षमता प्रदान करती है। और बकौल फर्स्ट फ्लैप राजनारायण बोहरे की ये कहानियां कहानी के प्रति आकर्षण और आस्था बढ़ाती है।’’ (ए.असफल-कहानी के प्रति आकर्षण और आस्था जगाती कहानियां)‘‘ इस संग्रह को भाषा के तौर पर दुबारा पढ़ा जाना चाहिये, क्योंकि अस्थान कहानी जिस सधुक्खड़ी भाषा और परिवेश मेंलिखी गई है, वह पढ़कर तो पाठक आश्रम और साधु जमात के बीच मेंस्वयं को जा पहुचता अनुभव करता है। इस कहानी की भाषा और कहन अद्भूत है। हिन्दी मेंसाधुओं की कथायें पुराने समय से लिखी जाती रही हैं, पर आधुनिक युग में इतनी प्रमाणित भाषा टर्मिनोलाजी और मनोविश्लेषण के कारण इस कहानी अस्थान का नाम लम्बे समय तक याद किया जायेगा। लौट आओ सुखजिन्दर मेंमुख्य पात्र सुखजिंदर के वाक्य और मनोजगत का विवरण यह सिद्ध करता है कि लेखक सिख न होते हुयंे भी सिखों के मानसिक जगत और बोलचाल को अधिकृत रूप से प्रगट कर सकता है, यह लेखक की अतिरिक्त लेखन कुशलता है। इज्जत-आबरू, बिसात मेंआंचलिकता का आभास होते हुए भी आंचलिक भाषा के बोझ से मुक्त इनकी भाषा प्रेमचंद्र की सशक्त भाषा की याद दिलाती है। ’’( डॉ.लक्ष्मीनारायण बुनकर-इतिवृतात्मकता की वापसी) ‘‘अधिकांश कहानियाँ चलचित्र की तरह फ्लैश-बैक प्रणाली (शैली) मेंलिखी गई हैं, जिसमेंजिन्दगी के कई अहम् मुद्दों को बखूबी कैद करने का प्रयास किया गया है। कथ्य वैविध्य के साथ शिल्प को भी विविधता देने की कोशिश लेखक ने ही है। अनगढ़, गँवारू भाषा-शैली और उसकी संवेदनीयता को कहानीकार ने ठीक ढंग से पकड़ा है, इसमेंकोई शक नहीं।’’(मनोजकुमार पांडेय-मध्यमवर्गीय मानसिकता का प्रामणिक दस्तावेज।

राजनारायण बोहरे समाज और परिवार के रिश्तों की गहराई से छानबीन करते हुए रिश्तों मे पलते मानवीय प्रेम, सम्बंधगत स्नेह, प्यार में बदलते परिचय और रिश्तों की कहानी कहने में भाशा और शब्दों की बाजीगरी नही दिखाते। ‘डूबते जलयान’ में दिवा अपनी बहन के देवर के साथ ऐसे प्रेम में है जो भाषा और संवादों की दरकार नही रखता, इसका सहज-स्वाभाविक विकास हुआ है और हमारे आसपास की दुनिया मे ंऐसे प्रेम संबंध लाखों की संख्या में पाये जाते हैं जो समाज से विद्रोह कर अलग दुनिया बसाने की बात नही करते। ठीक इसी रिश्ते की एक कहानी ‘मृगछलना’ है जिसमें परेश अपनी भाभी की ममेरी बहन के प्रति आकर्शित होता है और जब हर भेंट पर उसे जबलपुर आने का आमंत्रण मिलता है तो वह प्रेम का यह मामला द्विपक्षीय समझ कर फटाफट अपनी भाभी के मामा के यहां पहुंच जाता है , जहां उसकी कल्पना के विपरीत उसकी प्रेमिका साली उसके साथ सामान्य व्यवहार बल्कि निस्संग व्यवहार करती है तो निराश परेश आधा खाना छोड़ वहां से भाग निकलता है, इस कहानी पर बात करते हुये दतिया के वैदिक विद्वान जगदीश चंद सुहाने कहते हैं कि स्त्रीयां अपने सारे कार्य कलाप सामान्य तरीके से करती हैं लेकिन अनेक पुरूश ऐसे व्यवहार खुद के लिए किये गये समझकर मोहित होते रहते हैं यही माया और मोह है। ‘चंपा महाराज’ कहानी में कथा नायक चम्पा महाराज जब अपने भाई को अपनी अलग गृहस्थी बसाते हुए पाते हैं तो अपनी सम्पत्ति के बंटवारे का आसन्न खतरा उनके सामने आ खड़ा होता है और तब उनके विचार जगत में सारे रिश्ते-नाते छिन्न-भिन्न हो कर केवल सम्पत्ति बचाने की चिन्ता सबसे ऊपर प्रकट होती है।‘‘ मृगछलना नामक कहानी एक ऐसे युवा हृदय की कहानी है, जो एक तरफा प्रेम का शिकार हैं, उसे अपनी प्रिय पात्र की हर हरकत अच्छी लगती हैं, मोहती है, लेकिन मधु के लिए वह हरकत खास महत्व नहीं रखती। एक उपनिषद् मेंजिक्र आया है कि नारी अपनी गतिविधियां सहज ढंग से करती हैं, लेकिन मूर्ख नर उनसे मोहित हो जाता है। इस कहानी का विन्यास बड़ा उम्दा बन पद़ा है, जिससे कहानी के पात्र मधु और परेश इतने स्मरणीय हो जाते हैं कि पाठक उनमेंअपना अक्श ढूंढता है।’’ ( ए.असफल-रोचक व सशक्त कथायें)

पशु जगत से मनुश्य का लगाव सदा से रहा है, भले वह गांव में गाय-भैंस और गली के कुत्तों से हो या आधुनिक भारत में डॉगी से। बोहरे जी के कथा संसार में भारत की मध्यवर्गीय समाज की कहानी ‘मलंगी ’ कई स्तर पर पाठक को आल्हादित करती है। मोहल्ले की कुतिया से बच्चों और बड़ों का लगाव कुतिया के संभावित प्रसव की तैयारियों से प्रकट होता है और उसी कुतिया की दोस्ती एक लंगूर से हो जाने पर सारा मोहल्ला उसे ठीक उसी तरह गरियाने लगता है जैसे मोहल्ले की कोई युवती ने किसी विजातीय व्यक्ति से प्रेम कर लिया हो। ‘गोस्टा’ नामक कहानी में भारतीय गांवों की उस समस्या को छुआ गया है जिससे लोग पिछले एक अरसे से दो चार हो रहे है। अब गांव में चरवाहे नहीं मिलते न ही कही चरागाह बचे है,यह कृशि प्रधान देश के लिए एक बड़ी विद्रूप स्थिति है कि खेती के साथ जुड़े पशुधन को दिन में चराने और टहलाने के लिए कहीं मैदान नही बचे, यहां तक कि दो खेतों की विभाजन रेखा मेड़ को भी अतिक्रमण कर फिट-डेढ़ फिट की कर दिया गया है। इस कहानी में इस समस्या का हल एक प्राचीन बुंदेली परम्परा ‘गोस्ट’ के जरिये हल किया जात है, गोस्टा यानि गोइठा या गोश्ठी का पुल्लिंग रूप। गोस्टा वह परम्परा है जिसमें गांव के भर मिल कर तय करता है कि हर ग्रामवासी बारी-बारी से दिन या ओसर (अवसर) तय कर गांव के सारे ढोर चरायेगा ओर इसके लिए सारे गांव के खाली खेत उपयोग कर सकेगा। इस गोस्टा का उपयोग सामूहिक रूप से गांव भर के खेत जोतने, बोनी करने में भी किया जाता है कि कुछ स्वार्थी तत्वों की कुटिल मानसिकता, अवसरवादिता और आलस्य इस गोस्टा को भंग कर देने पर मजबूर होते है और इसे भंग करने का निर्णय लेता है ,गोस्टा का सबसे छोटा भूमिहीन मजदूर।‘‘ मंलगी कहानी यू तो एक आवारा कुतिया की कहानी है, जो मोहल्ले के लिये प्यारी हैं, क्योकि वह हर घर से लेकर हर धर्म के मुहल्ला वासी के बच्चों से लेकर बडों तक सबका ध्यान रखती है। मुहल्ले की हिफाजत करना वह अपना धर्म समझती है, बाहरी तत्वों को वह प्रवेश भी नहीं करने देती। उन्हीं दिनों उस मुहल्ले मेंएक लंगूर आ जाता है, जो मुहल्ले वालों का जीना हराम कर देता है। लंगूर से निपटने के प्रयास व्यर्थ हो जाते है। लोग अपने-अपने दिमाग लगाके उपाय अपनातें हैं, ऐसे मेंही मुहल्ले का एक किशोर मलंगी को लंगूर के पीछे छू करके छप्पर पर चढ़ा देता हैं, और लंगूर उसे छका देता है। लंगूर अपनी असली दुश्मन को पहचान कर उसे पटा लेता है एक दिन मलंगी उसके साथ हो लेती है, और मुहल्लेवालों को उस दिन से दों उत्पत्तियों से जूझना पड़ता है। मुहल्ले की औरतें मलंगी को बदचलन आवारा औी छिनाल जैसे संबोधन देती है। यहां आकर कहानी के कुछ और आयाम प्रकट होते हैं, मलंगी एक पशु मात्र नहीं रह जाती, मानव हो जाती है। कहानी का अंत हालांकि सुखद अंत होता है। लंगूर जैसे बाहरी तत्व बाहरी तत्व से मिल जाने वाली मलंगी जैसी लोप्रिय कुतिया सबको त्याज्य हो चुकी थी, लेकिन जमीन पर चलने वाले लोग जब हवा मेंछलांग लगाने वालों के साथ उड़ने लगते है ंतो जमीन पर आ गिरते हैं, इस निष्कर्ष के साथ ही कहानी समाप्त होने के पहले पालतु हो चुकी कुतिया को घर-घर मेंप्रवेश मिल जाता है। इस कहानी का एक आशय यह भी है कि स्त्री तभी स्वीकार्य है जब वह घरेलू बन जाये।’’ ( ए.असफल-रोचक व सशक्त कथायें(

वर्तमान समाज में आ रही बाजार वाद प्रवृत्ति, विद्यार्थियों की उच्छृंखलता, और विधि एवं अनुशासन पर राजनारायण जी की कई कहानियां हैं। जिनमें से ‘भय’को राष्ट्रीय स्तर की एक प्रतियोगिता में पुरस्कृत किया गया है। भय में परीक्षा के दौरान नकल पकड कर घर लौट़ते एक प्रोफेसर का पीछा कर रहे उद्दण्ड छात्रों से विचलित प्रोफेसर की मानसिकता का जबर्दस्त चित्रण करते लेखक ने आंतक और अनुशासनहीनता की दुनिया में अदब और ईमानदारी के तलबगारों के बचे रहने का एक सार्थक संदेश दिया है। ‘बाजार वेब’कहानी में ऐसे बाजार वादी चक्र का विवरण है जोकि कुछ कंपनियों द्वारा भारतीय समाज की ग्रहणियो ंको सैल्स गर्ल में बदल देने की योजना के मार्फत अपना व्यापार बढ़ा रही है। कथा नायक अमर अपने एक परिचित भरत वर्मा की पत्नी अन्नपूर्णा भाभी को किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रचार करते देख खुद भी उस व्यापार में उतरनाचाहता है और अनायास एक दिन भरत वर्मा के घर पहुंच जाता है जहां अन्नपूर्णा भाभी की कंपनी के एक उत्पाद की तलाश करते हुए उनके वेडरूम तक चला जाता है जहां कि कंपनी के प्राइस टेग के साथ यहां वहां पड़े कंपनी के उत्पादों के बीच अन्नपूर्णा भाभी के अंतरंग वस्त्रों को देख व्याकुल हो बाहर आ जाता है और उसका विचार प्रवाह तेज हो कर यही सोचने लगता है कि अब बाजार केवल बाजारों तक सीमित नही बल्कि घरों के भीतर तक घुस आया है अपने संस्कार,नीति और दुर्गुणों के साथ। ‘ गवाही’ एक ऐसी कहानी है जो भारतीय समाज के विधि एवं अनुशासन की बखिया उधेड़ती है, बिजली कंपनी के एक इंजीनियर को कुछ उद्दण्ड लोग अपमानित करते हुए इस हद तक प्रताड़ित करते हैं कि उनकी मौके पर ही मृत्यू हो जाती है, इस सामूहिक हत्याकाण्ड का गवाह एक ऐसा व्यक्ति है जो निडर हो कर गवाही देना चाहता है लेकिन राजनीति, कानून और व्यवस्था उसे भयभीत कर देती है , हद तो यह है कि मृतक इंजीनियर के परिवार को इतना डरा दिया जाता है कि अन्ततः वे लोग ही गवाह को अदालत जाने से मना कर देते हैं।

जिस विशय को बोहरे अपनी कहानी का कथ्य बनाते हैं उसकी गहरी छानबीन करते हैं फिर उसके तथ्यों और सिद्धांतोें को इस तरह से कथानक में गूंथ कर कहानी रचते हैं कि हर कहानी के साथ पाठक को एक नये क्षेत्र में कुछ खास जानकारी अनायास मिल जाती है। ‘अस्थान’ कहानी में साधुओं के गुप्त और आमजन प्रवेश रोधी संसार के भीतरी रिवाजों, विचारों और प्रचलनों पर जबर्दस्त काम देखने को मिलता है। ‘मलंगी’ में गली के कुत्ते और ‘गोस्टा’ में गाय-बछेरूओं की आदतों पर गहरा शोध दिखाई देता है तो ‘बाजारवेब’ में घर-घर पहुंची एफएमसीजी वस्तुओं की तेजी से फैलती कंपनियों की भाषा , चार्ट और तौर-तरीकों का बहुत बारीक विवरण दिखाई देता है। ‘मुहिम’ कहानी तो अद्वितीय है जिसमें चम्बल घाटी में व्याप्त जातिवाद, राजनैतिक उलटफेर के साथ-साथ पुलिस की कार्यप्रणाली सहित डाकुओं की दुनिया और दिनचर्या के बहुत सूक्ष्म विवरण पाठक को अचम्भे में डाल देते हैं।

राजनारायण बोहरे की कहारिनयोंके षीर्शकि प्रायःछोटे होते है जो कि मनोभावों और परिसिथति की हल्की सी झलक ीाी प्रदान करते हैं, उस भाव की मौजूदगी पूरी कहानी मे ंभी होती है तो उसके बहुअर्थी आशय भी कहानी को संपूर्णता प्रदान करते हैं। षीर्शक के ििलए निर्धारित की गयी परंपरा को देखें तो इनके सारे शीर्शक अपने पैमाने पर संपूणर््ा उतरते है। उदाहरणाथ भय नाम केहानी में भय केन्उ्ररीय भाव है जो कि अपराधी दात्रोां द्वारा प्रताडिंत4 करने की मंशा से पीछ कर रहे होने के कारण प्रोेसर रवि को आद्योपात घेरे रहता है। अस्थान कहानी में साधु और किसी अस्थान के अन्तर्सम्बंध पूरी कहानी में प्रकट होते हैं। हवाईजहाज में अधर मे ंलटकने का भाव है जबकि थाने मे ंपुलिस द्वारा कअपनी कस्टडी में मौजूद संदिग्ध लेगों को दत में अधर मे ंलटका कर पीटते हुए सच उगलवाया जाता है,यह कहानी इंत में असी सिथत मि में पहुंचती है।

पुलिस विभाग लेखक की मानसिकता पर इस कदर हावी है तिक वह लगभग हर कहानी में मौजूद रहता है। कहीं वह व्यवसथा को बनाने में सहयोगी हे तो कहीं कहीं वह सदियो ंसे जीम पुलिसिंग प्रणाली किी भीतरी सड़ांध को प्रकट करता है। पुलिस को प्रतीक माने तो ंप्रशासान या राजव्यवस्था में बोहरे को बहुत गहरा विश्वासस है जो किसी न किसी वहाने कहानी में प्रकट होजाता है।

हिन्दी कहानीकारों पर यह आरोप प्रायः लगता रहा है कि वे वास्तविक दुनिया से बहुत दूर हैं और अपने लेखन की मेज पर ही तमाम कल्पनाओं के सागर में डूबते-उतराते कहानी रचते रहते हैं इसलिए किसी जगह और परिस्थिति की मुकम्मल तस्वीर पेश करने से हिन्दी के लेखक प्रायः चूक जाते है । इस नजरियें से बात होने पर बोहरे सदा ही वरिष्ठ कहानी कार पुन्नीसिंह की सराहना करते हैं जो कि अपने कथ्य के लिए जान का खतरा तक उठाकर कहानी के वास्तविक घटनास्थल तक की कई यात्रायें करते हैं। राजनारायण बेाहरे की कहानियों पर दृश्टिपात करने पर उनकी कहानियां भी वास्तविक दुनिया के भौगोलिक और भाषागत ऐसे रूप खड़े करते हैं कि लेखक के देखे बिना उनका वर्णन असंभव हैं। मुहिम, अस्थान,गोस्टा और चम्पामहाराज इस नजरिये से ऐसे चित्र सामने खड़े करती हैं कि लेखक का श्रम साकार दिखता है।

प्राचीन ग्रंथों के सूक्तिवाक्य या परिस्थितियों के मददे नजर पुरानी कोई कथा या कहावतों का बोहरे जी का गहरा अध्ययन है, जिसे वे अपनी कहानी में न केवल याददाश्त के सहारे प्रयोग करते हैं बल्कि कइ्र बार वे इसकी बहुत अनूठी व्याख्या भी करते हैं। ‘चम्पा महाराज..’ में अनेक स्थानों पर रामायण और प्रेमसागर के काव्यांश, पुरूशोत्तम मास में बुंदेलखण्ड की स्त्रीयों के माह भर के क्रिया कलाप, आपसी बातचीत के सांकेतिक वाक्य, उनके गीत, उनकी उत्सुकतायें और मर्यादा के भीतर रह कर आनंद लेने की उनकी प्रवृत्ति का गहरा अध्ययन पाठक को सहज ही दिखता है। ‘अस्थान’ में साधुशाही दुनिया के श्रुतिपरम्परा के संवाद-प्रतिसंवाद, डूबते जलयान में मनोविज्ञान संबंधी ग्रंथ की पंक्तियां और ओशो के वाक्य इतने सहज आते हैं कि पाठक तक सहज संचार होजाता है वे कृत्रिम या सायास लाये गये अंश नही लगते।

राजनारायण बोहरे एक कस्बाई लेखक हैं, इसलिए उन्हे पात्रों के नाम, उनकी वेशभूशा और ऐसे लोगों की विचारधारा की गहरी जानकारी है। उनकी कहानियों के चरित्रों के नाम कई बार इतने उपयुक्त होते हैं कि उनका विकल्प तलाशने पर निराशा हाथ लगती है। ‘बाजार वेब’ कहानी में नामों का बड़ा मुकम्मल वितान है, जीवन बीमा करने वाला पात्र यहां ‘अमर ’ है , ग्रहणी से सेल्सगर्ल बनी महिला ‘अन्नपूर्णा ’ हैं, परंपरागत भारतीय नौकरपेशा ‘भरत’ है, कंपनी का मार्केटिंग एजेंट ‘ मनीराम ’ है। ‘भय’ में आतंक के अंधेरे से संघर्श कर रहा प्रोफेसर ‘रवि’ है, उसे इस संघर्श से निजात दिलाने वाला ‘कुणाल’ है।इसीतरह दूसरी कहानियों में उनके चरित्रों के नाम कोई अजूबे नही लगते-यथा प्रकाश, ओमदास, प्रयागदास, चंपामहाराज,दीपू, आदि आदि।

राजनारायण बोहरे की कुछ प्रमुख कहानियों का विश्लेशण किया जाना समीचीन होगा। सर्वप्रथम भय कहानी की बात करते हैं। भय कहानी में एक उदार और छात्र मित्र प्रोफेसर द्वारा परीक्षा में नकल पकड़ने के बाद उनके साथ मारपीट करने की मंशा से पीछा कर रहे ाददण्उ छात्रों की कहानी है जिसके कारण प्रोफेसर रवि एक अव्यक्त भय से घिरे हुए कॉलेज से धर को वापस चले जा रहे है जिन्हे कि एक एुसा पुलिस अधिकारी मिलता है जो कि उनका पुराना छात्र है और उसको भी रवि सर नगल करतेह ुए पकड़ चुके हैं। रवि पहले तो पीछा कर रहे छात्रों को समझााता है ओर बाद में अपने गुरूजी को बहुत भावुक होकर निवेदन करता है िकइस तरह के भय और घटनाओं से आप सत्य का रासता न छोड़ियेगा। उलेखनीय है कि यह काहनी अखिलभारतीय प्रतियोगिता मे यचयनित की जाकर पच्चीस हजार के पुरसकार से प्रधान मंत्री द्वारा पुरस्कृत की गयी है। ‘‘कहानी भय घटनाक्रम के आधार पर सुखांत कहानी है जो मोहन राकेश की प्रसिद्व कहानी ठहरा हुआ चाकू के समतुल्य है तथा शिक्षा जगत मेंचल रही अव्यवस्था और उद्देश्यहीनता को कुशलता से उकेरती है,’’ ( वीरेन्द्र जैन-अपने समय की कहानियां)‘‘ भय कहानी एक नैतिकतावादी शिक्षक के मन मेंबैठे भी की कहानी है। कहानी यह तय करती है कि आज के समय मेंभय अनैतिक काम करने के बाद नहीं होता। किसी भी ईमानदार हरकत के बाद भय शुरू होता है और इनकी ईमानदारी के कारण सदा इनके मन मेंबैठा भय जब इन्हें तोडने की हद तक ले आता है, तब इन्हीें की ईमानदारी की शिकार हुआ एक छात्र, इन्हें अपनी ईमानदारी पर कायम रहने की सलाह देता है। आदत कहानी फिर इसी ईमानदारी के कारण जहालत भोगते यादव जी की कहानी है। यादव जी सारी प्रतिकूल परिस्थितियोें से लड़कर जीवन बिताता है, पर अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ता।’’( साक्षात्कार,जुलाई 2000-भयावह परिस्थितियों पर विजय की आकांक्षा) ‘‘ संग्रह की एक प्रमुख कहानी भय आदर्शोमुखी यर्थाथवादी कहानी है, जो प्रेमचन्द्र की नमक का दरोगा और समकालीन कथाकारों मेंमिथलेश्वर की हत्यारों की वापसी जैसा ही सुकून देती है। भय का प्रोफेसर रवि इस बात पर कायम है कि सच कभी भी पूरी दुनिया से पूरी तरह खत्म नहीं होता। कोई न कोई उसको बचाये रखता है। इसी आत्मबल के सहारे वह जब कालेज के नुमाईदे छात्र की नकल पकड़वा देता है और परिणाम स्वरूप हमलावरों से घिर जाता है तों ऐन वक्त पर उसका पूर्व छात्र उसकी रक्षा कर, उसे भयमुक्त कर सत्य के प्रति और दृढ़ बना देता है।’’ ( ए.असफल- कहानी के प्रति आकर्षण और आस्था जगाती कहानियां) ‘‘ भय नामक कहानी एक आदर्श प्रोफेसर वरि की कथा हैं, जो प्रायः नकलची छात्रों को पकड़ने मेंजुटा रहता हैं, और अचानक एक दिन उद्दण्ड़ छात्रों से घिर जाता है, तो एक पुराना छात्र ही अकस्मात प्रकट होकर उसे बचाता है। वह गुरूदीक्षा मेंयह मांगता है कि भविष्य मेंवे ऐसे ही निड़र होकर सत्य पर आरूढ़ बने हरें। कहानी का अन्त संवेदनात्मक है यह कथा आदर्श और संयोगों की बहुलता के कारण अविश्सनीयता के कगार पर पहुँचने के बावजूद रोचक व विश्वसनीय बनी रहती है।’’( डॉ. लक्ष्मीनारायण बुनकर -इति वृतात्मकता की वापसी)

राजनारायण बोहरे की एक कहानी बहुत चर्चित हई है जिसका नाम है-अस्थान! डनके पहले संग्रह इज्जत-आबरू में यह कहानी साधु यह देश विराना के नाम से प्रकाशित है। इस कहानी का शीर्शक ही इसकी विशेशता को उजागर कर देता है। साधु सन्यासी अपने आश्रम को अस्थान के नाम से उच्चारित करते हैं, भले ही यह स्थान का तदभव शब्दहै फिर भी यह आश्रम का ही र्प्याववाची बन गया है। इस कहानी में समाज की कुरीति5यों की वजह से ब्याह योगय एक युवक षादी क ेपटा से हआ दिया जाता है और उसका छोटा ीााई बयाह दिया जाता है तो कुठित और क्रोधित यह युवक साधु मंडिलियों में तथा भजन कीर्तनप में अपन समय व्यतीत करने लगता है और अंततः घर छोड कर साुध बन जाता है जहां उेस साधु सम्प्रदाय की जटिल प्रक्रिया और शास्त्रीय विधान से एक टकसाली साधु बनाया जाता है, लेकिन स्वभाव से भ्रमण प्रिय यह साधु विचरण के लिए निकलता है तो विभिन्न अस्थानों दशा का अवलोकन करता हुआ अंतत साधुओं की दुनिया से अघा जाता है और किरपादास के आश्रम पर वह समलैंगिक आचरण देख कर तैश में अस्थान छोड़कर अपने गांव वापस चल देता है। ‘‘ साधु यह देश बिराना सधुक्कड़ी जीवन पर लिखी गई हिन्दी की दो चार कहानियों मेंसे एक अच्छी कहानी है। पासंग पर ठहरे साधु समाज की भारतीय मानस मेंमहत्वपूर्ण स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता अन्य मजहबी पंथों मेंभी विभिन्न नाम रूपों से इसका जीवन मेंहस्तक्षेप है। इन समुदायों के अपनी ही तरह के मध्यकालीन आचार, व्यवहार व पद्धतियाँ हैं..... अंतर्विरोध और विकृतियाँ भी है। राजनारायण बौहरे इस सबसे परिचय कराते हुये वहाँ प्रचलित टकसाली शब्दों के गुहृय व आन्तरिक लोक मेंभी प्रवेश करते हैं, - जैसे लंका यानी मिर्च, वन लड्डू अर्थात् प्याज तथा उनके संविधान व नीति-निर्देशक सिद्धांन्तों की पुस्तको ठाकुर टहल व सिद्धांत पटल जैसी पुस्तकों के बारे मेंसामान्य पाठक पहली बार जानता है। धार्मिक किले की सुरक्षा या कैद मेंजीवन बिताते इस तरह के घटकों के सामने फौजदारी की कुछ विशेष धाराओं को छोड़कर भारतीय संविधान और सत्ता तटस्थ जैसी भूमिका मेंरह जाते है। कभी-कभी तो सत्ता संशय मेंविशेष उपबंध भी विलोपित कर लिये जाते है किन्तु इस वैधानिक असहायता के परे कहानी की सामाजिक भूमिका यह है कि वह किसी तंत्र यह वाद की जगह जीवन को प्रधानता देती है। पवित्र आकारों के अंतः संसार की परतें उघाड़ते हुये साधुबाना वाले ओमदास को वहीं लौटा लाती है जहाँ-धूप है, धूल है, पसीना है,- बड़े सोच के बाद उन्होंने तय किया है कि वे गांव लौट जायेंगे। तपस्या ही करनी है तो गांव मेंकरेगंे। लांेगों को जगायेंगे.... यह भी एक तपस्या है। (महेश कटारे-सच को सहज शिल्प मे बयान करती कहानियां)‘‘साधु यह देश बिहाना मेंआश्रम-व्यवस्था की मानसिकता से उत्पन्न कुरीति के शिकार समाज मेंमंझले बेटे को साधु बनाने की जो परम्परा है उसके द्वारा कथाकार ने पारिवारिक राजनीति का संकेत दिया है....... जिसके तहत एक शख्स को कैसे अपने हकहुकूक से महरूम कर दिया जाता है, किंतु इस सोची-समझी चाल को साधू ओमदास अपने जीवनानुभव से काटने को जागृत होता है।...... इस कथा के माध्यम से लेखक ने उजली गौरवमयी देवालय संस्कृति के भीतर गिजगिजाते मल का साक्षात् पाठक से सहज ही करा दिया है’’ (ए.असफल-कहानी के प्रति आस्था और आकर्शण जगाती कहानियांँ) ‘‘ साधु यह देश विराना यह कहानी एक ऐसे साधु की है जो महज उत्सुकता एवं अंतिम राह बचने के कारण साधु बनता हैं, पर जल्दी ही उसे उस समाज के अंतविरोध और वासना लोलुपता का पता चल जाता हैं, तो वह अपने हक-हकूक के लिए लड़नें, व पाखण्ड हीन जीवन बिताने का निर्णय लेकर चल पड़ा है।’’( डॉ. लक्ष्मीनारायण बुनकर-इति वृत्तात्मकता की वापसी)

‘‘ इज्जत-आबरू’’ राजनारायण बोहरे के पहले संग्रह का भी नाम था और उनकी एक बहुचर्चित कहानी का भी। इस कहानी में उच्च वर्ग के व्यक्ति का निम्न वर्ग में स्खलन होते समय सामने आये मनो विश्लेशण और सरकारी राहत कार्य के दौरान महिलाओं के शारीरिक शोशण की प्रचलन की तथ्यात्मक स्थितियों का गहरा विश्लेशण किया गया है। लगातार अकाल झेल रहे एक अंचल का राजपूत परिवार का युवक पेट भरने की नोबत सामने आने पर मजदूरी करने के लिए निकलता है तो उसके सामने अनेक प्रकार की दिक्कतें और द्वंद्व प्रकट होते हैं। अकाल राहत के लिए खोले गये सरकारी काम देख रहे निर्माण विभाग के इंजीनियर द्वारा काम कर रही एक मजदूरी की एक युवती को रेस्ट हारस लाने का आदेश पाने पर युवक खेता उस युवती को अपनी मंगेतर की उम्र और लगभग उसी हावभाव की पाता है तो इस द्वंद्व मे ंफंस जाता है कि अगर कभी उसकी मंगेतर यूं काम पर आयी और कभी उसे रेसट हाउस पर पहुंचाने का काम सोंपा गया तो वह क्या करेंगा। सहसा वब निण्रय लेता है कि उस युवती को रेस्ट हाएस नही लेजायेगा बल्कि बाइज्जत उसके गांव पहुंचाके आयेगा। ‘‘ इज्जत-आबरू (हालांकि इसका नाम इज्जत-मरजादा ज्यादा बेहतर होता) अपने अंदर ऐसी कडुवी सच्चाई समेटे हुए है जिससे सारी दूनिया परिचित है, पर चुप्प. इस कहानी मेंसड़क निर्माण से जुड़े श्रमिको की जिन्दगी बयान की गई है. रेजा और मजदूरों का किस तरह ठेकेदारों और अफसरों के द्वारा दैहिक, शारीरिक और आर्थिक शोषण किया जाता है. विकास के कथित सोपान हमनंे भले कई तय कर लिए हों, लेकिन कालाहांड़ी आज भी सूरज की तरह सच है और हमारी नई-नई विकासकारी योजनाओं का मजाक उड़ाता है, इंटरनेट और वेबसाइट से गांव भले ़जुड़ जाएं, लेकिन पलामू, छत्तीसगढ़ और बून्देलखण्ड़ मेंअकाल के बाद ग्रामीणों का रोजी-रोटी की तलाश मेंपलायन आज भी जारी है, इज्जत-आबरू का मुख्य पात्र खेता बुन्देलखण्ड़ के अकालजद़ा एक गांव का रहने वाला है, अकाल की जद मेंआए मजदूर, छोटे-मंझोले-बड़ें किसान सभी लोग इस गांव के है। सभी के सामने दो जून की रोटी की समस्या है, ऐसी स्थिति मेंपलायन उनकी विवशता है, दलित और आम मजदूरों के लिए घर से बाहर काम करना इज्जत-आबरू का सवाल नहीं बनता, वहीं सवर्ण समाज के लिए यह मुख्य प्रश्न है, दो हल के किसान ठाकुर वीरसिंह का इकलौता लड़का खेता जवान है और वह भरी अन्य ग्रामीणों की तरह गांव से बाहर मजदूरी करने जाना चाहता है, लेकिन उसके दादा को यह मंजूर नहीं, वह कहते हैं- सारे नाक कटा दे हमारी, सत्तर बीघा धरती का मालिक, जात से ठाकुर और दूसरें की तगारी करोगे. गांव वारे का कहेंगे। बिरादरी मेंकल की जाएगी तो बनी-बनाई इज्जत धुरे मेंमिल जाएगी। खेता की मां कहती है कि वह बाहर जाए, क्योंकि पेट के गड़्ढे को भरना भी जरूर है आखिर खेता गांव के दूसरे लोगों के साथ पास के गांव चल रहे सड़क-निर्माण मेंमजदूरी करने चला जाता है, यहां वह कल्लू और नौनिता की दादागिरी और यमराज जैसे अफसर खन्ना साहब के रूबरू होता है। इधर-उधर घूमती आखें और किसी भी रेजा से मजाक करते-करते हाथ मार देने वाले खन्ना साहब खेता से किसी रेजा को काम के बहाने ड़ाकबंगले बुलवाता है, वहां काम अर्थात् दूसरा काम था। रेजा के साथ बारी-बारी से कई लोग......खेता सच जानकर विचलित हो जाता है, वह ठान लेता है कि अ बवह ऐसा काम कभी नहीं करेगा चाहे उसे कोई भी सजा मिले, वह विद्रोह जो करना चाहता है लेकिन उसके परिवार की कमजोर आर्थिक काया उसे मौन रहने को विवश करती है, उसकी मंगेतर बिन्दों पास के गांव बरखेड़ी की है वह गांव भी अकाल ग्रस्त है और बिन्दों भी यहां काम करने आना चाहती है, एक दिन गांव के लोग पहुचतें है, एक मासूम कमनीय वाला जो उसे बिन्दों-सी लगती है का चयन खन्ना साहब टिगर अफसरों की पार्टी के लिए कर लेता है और खेता को उसे डाकबंगले तक ले जाने का हुक्म देता है, पहले उसे गुस्सा आया फिर यह बिन्दों तो नहीं है वह उसे इशारे से अपने साथ चलने को कहता है, गंतव्य करीब आते ही अचानक थूकते हुए वह खन्ना को मादरजाद गाली देता है और उस लड़की का हाथ थामें बरखेड़ा की राह पकड़ लेता है।’’ ( शहरोज-व्यापक अनुभव संसार की कहानियां)‘‘ ग्राम्य मानसिकता और स्थितियों मेंइज्जत-आबरू जैसे शब्द नाभि नाल की भाँति जुडें है। यहाँ प्यार, शत्रुता, सम्बन्ध तथा हसने रोने तक मेंइसका साया साथ लगा रहता है और तो और डाकेजनी, कत्ल और बलात्कार तक इज्जत के नाम पर हो लेते है। एक बात साफ है कि किसानी से जुडें वर्ग की ठन-ठन गोपाली जिन्दगी जीते रहने के लिए इज्जत-आबरू का भ्रम ही उनके पास है और इस तरह यह एकाध साल का विराम पाकर, ज्यादातर मौसम और व्यवस्था की मार झेलते किसान की व्यथा कथा है। त्वरित परिवर्तन के इस समय मेंकिसान भी बहुत बदला है पर साथ ही साथ शोषण की तकनीक भी और ज्यादा महीन हुई है। पूँजी ने शहरों के आसपास की धरती को फार्म हाऊसों मेंबदलकर किसान की सम्पन्नता विज्ञापित की है- किंतु इन हाथी दांतों की ओट मेंखेतिहर का हाहाकार कब तक छूपाया जा सकेगा? वहाँ तो भूमि की कोख से इज्जत जुड़ी है। कोख फले तो आबरू सलामत अन्यथा कदम-कदम पर बहेलियों के हवाले होना उसकी नियति है। पेट भरने के लिए पीठ और कोख तंत्र की जोत बनकर रह जाते है। कहानी मंे- सूखा की प्राकृतिक सालाना योजना सत्तर बीघा के मालिक खेता को मजूर बना देती है। स्मरण रखना होगा कि सत्तर बीघा वाला कोई सीमांत कृषक नहीें, शहरी, बाबुई और सरकारी परिभाषा मेंछोटा मोटा जगींदार होता है और वह पिघलते डामर तथा टूटे-फूटे ड्रम, डिब्बों के बीच भाँय-भाँय लू मेंनंगे पैर खड़ा है- खेतों के चारों ओर लू की भांय भांय है जितनी बाहर है उससे अधिक भीतर। इतनी अधिक कि जलन का अहसास तक भूल चुका है वह।यह अहसासहीनता जड़ हो चुकने की निशानी है....प्राणहीन..... स्पंदनहीन.... एक निर्जीव मशीन भर हो जाना। इस पर भी चर्बियाये तंत्र को उसकी इज्जत-आबरू चाहिये। इस चाहिये से खेता बचकर निकल भागता है.....किंतु वह भागकर जायेगा कहाँ? इसी भाँय- भाँय मेंलौटना पंडेंगा उसे। यहाँ गुदगुदाता, सुख को कुरकुरापन देते चुभानेवाला, गिटार पर दुख का कीर्तन करता रंगीन सूखा नहीं है जो अहा-अहा पच्चीकारी मेंझिलमिलायें और वाहवाही बटोरे।’’ (महेश कटारे-सच को सहजशिल्प में बयान करती कहानियाँ) ‘‘मजदेरों के श्रम और उसकी इज्जत से सम्पन्न वर्गों का खिलवाड़ करना पूरे भारतवर्ष की विकृति है। श्रमिक वर्ग अपना श्रम और पसीना तो बेचना चाहता है पर अपनी बहू-बेटियाँ की इज्जत को सुरक्षित रखना चाहता है। अपने श्रम के मूल्य और अपने परिवार की स़्ित्रयों के आबरू के प्रति वह पर्याप्त सचेत रहता है। इज्जत-आबरू कथा मेंये बातें झलकती है। कथा का नायक खेता आज के सुबोध मजदूर का प्रतीेक है। कहा जाता रहा है कि भूखों के लिए पैसा सबसे बड़ी चीज होती है, पैसे के बल पर उससे कुछ भी करवाया जाइ सकता है। भारत के सम्पन्न लोग आज तक यही समझते आए है। वस्तुतः शिक्षित वर्गों द्वारा की गई हरकतों को भारत देश मेंयदि देखा जाए, तो लगता भी यही है कि वे पैसे के लिए घृणित से घृणित काम कर रहें है। देश की अस्मिता और दन्सानी वजूद की दलाली से लेकर तरह-तरह के अनाचार और दुर्वृत्ति मेंलिप्त है। पर चूकि ये काम वे मजदेरों की तरह अस्तित्व रक्षा के लिए नहीं, रोटी के लिए बल्कि ऐशोंआराम के संसाधन जुटाने के लिए करता है, इसलिए सामन्तों को यह समझ लेना चाहिए कि आज के मजदेरों का शोषण रोटी के मूल्य पर नहीं किया जा सकता, नैतिकता और अपनी श्रम शक्ति पर आस्था कहीं बची हुई है, तो वह खेता किस्म के मजदूरों के पास ही है। खेता के सहयोगी अपने इज्जत-आबरू के शोषण के प्रति सचंेत नहीं हैं, उनका पूरा समर्थन उन्हें प्राप्त नहीं हैं, पर उसे केवल अपनी ही शंक्ति पर इतनी बड़ी आस्था हो जाती है कि वह अपने अन्नदाता, रोजगारदाता खन्ना साहब की बातों का विरोध करले मंे, उसकी करनी पर थूकने मेंनहीं हिचकता। पूरी कहानी शोषण की विड़म्बनाओं से लबालब है, पर कहानी का अन्त एक अच्छे परिणाम केे साथ होता है, खेता उस चुनी हुई युवती को लेकर, रोजगार से मुंह फेरकर निकल जाता है। यद्यपि आज के कुछ फैशनपरस्त कथाकार, संभव है कि खेता द्वारा जुलूस निकलवाकर खन्ना साहब की बोटी-बोटी नांेचवा सकते थें। पर, राजनारायण ने ऐसा नहीं किया। कहानी का अंत पूरी कहानी के फ्रेम की औकात के अनुकूल हुआ, हो सकता है कि खेता की इस हरकत से अन्य मजदेरों के मन मेंथोड़ी सी ताकत की ललकार उठे या हो सकता है कि खेता ने ड़िप्लोमेटिकली सोचा हो कि भूख के आतंक मेंये श्रमजीवी मेरी बात पर विश्वास न करे।..... ये सारें सोच सही है। पर जैसा कि कहा गया है कि आज की हिन्दी कहानी अपनी विशिष्ट शिल्प और भंगिमा के कारण पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है राजनारायण बोहरे ने खुद अपनी भाषा चुनी है और शिल्प का विस्तार किया है जिसमेंउनकी मौलिकता झलकती है। पर राजनारायण की यह मौलिकता और शिल्प का यह विस्तार थोड़ी-सी चमक और तराश की अपेक्षा रखता है।’’(साक्षात्कार जुलाई 2000-भयावह परिस्थितियों में विजय की आकांक्षा) ‘‘ कहानी इज्जत-आबरू प्रेमचन्द्र की स्टाइल की एक अनूठी कहानी है। इस कहानी को पढ़तें हुए प्रेमचन्द्र के पास बरबस ही याद आने लगते हैं। खेतिहर मजदूर की समस्या ही नहीं बल्कि अकाल और महामारी की मार को झेलते मानव-मात्र की जिजीविषा की तस्वीर श्री बोहरे की कहानियों मेंउभरी है। यथार्थ की जो ज्वलंत तस्वीर प्रेमचन्द्र ले प्रस्तुत की थी और संवेदनशील दृष्टिकोण से उसका जो कलेवर भले ही आदर्शवादी हो-प्रस्तुत किया था, वैसा ही कुछ इज्जत-आबरू मेंभी है। भूखे मरना कबूल मगर मजदूरी नहीं करने की अभिजात्यवादी सोच इस कहानी मेंदेखी जा सकती है। पेट पर पत्थर रखकर सोना कबूल है। मगर मरजाद (इज्जत-आबरू) नहीं जाने देंगे।

गाँव मेंअकाल पड़ा है। खेत-खलिहान सूख चुके हैं। जानवर तो जानवर इंसान तक के लिए चारा-पानी मयस्सर नहीं है, पर फिर भी मजदूरी करने मेंतौहीन महसूस कर रहें हैं,-यहाँ के लोग। आज का नौजवान जो कि ढकोसलों मेंयकीन नहीं रखता, उसका प्रतिनिधित्व करता खेता घर की हालत देखकर मजदूरी करना चाहता है, मगर उसका दादा इज्जत-आबरू की दुहाई देकर उसें वैसा करने से मना करता है। इस खोखली सी इज्जत के पीछे हमारे निम्न मध्यमवर्ग की सोच आज भी यही है।’’( मनोजकुमार पांडेय-मध्यमवर्गीय मानसिकता का प्रामाणिक दसतावेज) ‘‘इज्जत-आबरू मेंअकाल और सूखे के कारण होने वाले राहत-कार्यों की वास्तविकता और उसके पीछे होने वाले शोषण और अत्याचार के बारे मेंकहानीकार ने बहुत कुछ लिखा है। सड़क बनने के काम मेंढेर सारे मजदूरों को काम पर लगाया जाता हैं, लेकिन इन मजदूरों का कितना शोषण होता है यह किसी से छिपी हुयी बात नहीं है। कहानी मेंअफसरों के द्वारा कितनी ही युवतियों का चाहें जब मनचाहा शारिरीक शोषण होना रेखांकित किया गया है।’’(ऋशि मोहन श्रीवास्तव-परिवेश का प्रतिविम्ब)

‘‘बुलडोजर’’ कहानी भी हमारे देश के हर उस कस्बे की कहानी है जहां कि अतिक्रमण हटाने और शहर के सौन्दर्यकरण के नाम पर लोगों के रोजी-रोटी के ठिकाने खत्म कर सेठ को नौकर और बारोजगार को बेरोजगार कर देने से लेकर आर्थिक अभाव में मानसिक संतुलन खोदेने और यहां तक कि जान तक देने की घटनायें आये दिन घट रही हैं। कहानी में कस्बे का पुराना जमा हुआ बाजार एकाएक हलचल का शिकार हो जाता है जबकि नजूल को सूचनापत्र मिलता है कि दुकान खाली करो। यह भी खबर पता लगती है कि ऐसे अतिक्रमण हआये जाने के पक्ष मे ंपहल ेसे देश ही सबसे बड़ी अदालीत को कोई आदेश बताया जारहा है। रोज-ररोज कसबे नयी अफवाहेंा के साये में जी रहा है कि एक दिन अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर को आगमन होता है। बंुलडोजर यानि देत्याकार वह यंत्र जो भारी लोहे से बनाया गया है और जब वह अपा काम शुरू करता है सामने की हर बाधा हर चीज को नेसतनाबूद करता हुआ चलता है। एसे में कथा नायक अनिद्रा का शिकार हो कर नींद न ओ की बीमारी के घेरे में आकर उल्टे सीधे सपनों में जीने लगता है। कहानी का अन्त बेहद कलात्मक है जब सपने की भयावहता से अचानक जागा कथानायक पानी पीता हूइा देख्ताा है कि उसकी पत्नी अस्त-व्यस्त दशा मे ंसो रही है तो उसे उनमाद सा चढ़ जाता है और वह पत्नी में खो जाता है। ‘‘ हमारे यहां शहर और गांव योजनाबद्व तरीके से वास्तुविदों के नक्शे के आधार पर नहीं बनाए जाते है, जहां चाहा नाली निकाल दी, जिधर जगह बनी सड़क ने रूख ले लिया और जरूरत मुताबिक जगह-जगह दुकानें खुल गई इन सबके मूल मेंकहीं न कहीं बढ़ती जनसंख्या है, आए दिन अतिक्रमण हटाओं के बहाने शहरों मेंछोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी छीन ली जाती है, बुल्ड़ोजर के मार्फत यहीं बात करने की सार्थक चेष्टा की गई है।’’(शहरोज-व्यापक अनुभचव संसार की कहानियां,हंस) । ‘‘ बुल्ड़ोजर में एक दुकान के कर्मचारी द्वारा अपनी दुकान खोल लेने से कुपित थोक के दुकानदार द्वारा अतिक्रमण के नाम पर उसकी दुकान को तुड़वा देने के षड़यंत्र का चित्रण है, जिससे बेरोजगारी, असंगठित मजदेरों कर्मचारियों का शोषण, बडें दुकानदारों द्वारा बिकाऊ प्रशासकीय मशीनरी का व्यापारिक लाभ मेंइस्तेमाल, असंगठित क्षेत्र की बेचारगी, उनका अकेलापन, भयग्रस्तता और प्रशासन का अमानवीय दृष्टिकोण आदि अनेक प्रश्न उभरते हैं, ड़ूबते जलयान मेंसामाजिक संविधान तथा भौतिक यथार्थ के बपुराने द्वंद को एकबार पुनः रेखांकित किया है जिसे पढ़कर कभी चित्रलेखा तो कभी गुनाहों का देवता स्मृति मेंकौंधती है।’’(वीरेन्द्र जैन-अपने समय की कहानियां) ‘‘ बुल्ड़ोजर कहानी बुल्ड़ोजर के सारे अर्थों को ध्वनित करती हुई चलती रहती है। अपनी पूरी आयत मेंयह कहानी मैं और मोहिनी की इच्छा आकांक्षा श्रम, निष्ठा, लगन....सब पर कितनी-कितनी बार बुल्ड़ोजर चलाती है, नायक कितनी-कितनी बार ध्वस्त होकर फिर से अपने को संकलित, संग्रहित और पुनर्रचित करता है, पर अनीति और अन्याय के ठेकेदार, जिसमेंप्रशासनिक अधिकारी भी शामिल हैं, उसे सिर उठाने के काबिल नहीं रहने देता है। पूर्वाग्रह और धन मद मेंचूर सेठ उसे बेईमान करार देता है, फिर भी वह अपना सर्वस्व लगाकर नई दुकान प्रारम्भ करता है। इस दुकान की प्रगति, नैतिकता और निष्ठा की विजय का संकेत देती है। पर आततायियों ने उसें भी नष्ट करवाने मेंजी-जान लगा दी। और यह दिलचस्प है कि इस कथा का नायक परास्त नहीं होता। यह कहानी परोक्ष रूप से नारी शक्ति के जिस उत्कर्ष की ओर इशारा करती है, उसे आज के फैशनेबुल नारीवादी नहीं समझ पाएंगे।जब सेवा से बहिष्कृत नायक टूटने को होता है, तब उसे दंकान संभालने का साहस मोहिनी देती है। और जब बुल्ड़ोजर के नीचे अपनी तमाम आकांक्षा को ध्वस्त होने का नजारा नायक सपने मेंदेखता है, तो वहाँ भी उसें नारी शंक्ति का ही सहारा दिखता है-मैं अवश-सा उससे ऐसे लिपट गया, गोया ड़ूबने वाला बचाने को पकड़ ले। इस कथा के नायक का अपनी पत्नी मोहिनी से इस प्रकार लिपट जाना और उसमेंड़ूबते से बचाने वाले का बिम्ब देखना, निश्चित रूप से नारी के प्रति कथाकार के उत्तम सोच का परिचायक है। यहाँ नारी शक्ति के जिस संरचनात्मक पहलू के प्रति आदर भाव दिखाया गया है, वह निश्चय ही हमारे समाज और परिवार की सांगठनिक शक्ति को परिपूर्ण करेगा।’’ (साक्षात्कार,जुलाई 2000-भयावह परिस्थितियों पर विजयकी आंकांक्षा)।‘‘ अधिकांश कहानियाँ रोजमर्रा की जिन्दगी से ताल्लुक रखती है। बुल्ड़ोंजर कहानी को ही लें। इस कहानी की कथावस्तु बिल्कुल ताजी है।’’( मनोज पांडेय-मध्यमवर्गीय मानसिकता का प्रामाणिक दस्तावेज)ंे‘‘ कहानी बुल्ड़ोजर अतिक्रमण हटाने के जन-आक्रोश का दर्शाती हैं। किस तरह अतिक्रमण हटाने के लिए सरकारी प्रयास होते है। बुल्ड़ोजर जैसे ही शहर मेंप्रवेश करता हैं, वैसे ही लोगों के चेहरों मेंउमरते-मिटते भावों का चित्रण कहानी को प्रभावी बनाता है। बुल्ड़ोजर की चर्चा जब हर जुबाँ पर हो तब अफवाहों का बाजार भी एकदम से गर्म होने लगता है। ऐसे नाजुक समय मेंप्रत्येक व्यक्ति को अपने सपने मेंभी बुल्ड़ोजर है, बुल्ड़ोजर नजर आता है। कहानीकार मेंकहानी मेंयथार्थ का वर्णन कर कहानी को अत्यन्त रोचकता प्रदान की है। ’’ ( ऋशिमोहन श्रीवास्तव-परिवेश का प्रतिबिम्ब)। ‘‘ बुल्ड़ोजर कहानी का आरंभ भाषा की ताजगी और कथ्य मेंनयेपन का आभास देता हुआ होता है। उत्तम पुरूष मेंलिखी इस कहानी का नायक एक छोटा दुकानदार है, जिसकी दुकान उजड़वा देने के लिए बडें दुकानदारों ने अतिक्रमण हटाओं मुहिम के माध्यम से शासन को चेताया है। एक-एक दिन का घटनाक्रम और मनोविश्लेषण की सूक्ष्मता इस कहानी को रोचक बनाती है। यद्यपि कहानी का अंत सहज है, पर परम्परावादी इसे सैक्सुअल अंत मान सकते है।’’ ( डॉ.लक्ष्मीनारायण बुनकर-इति वृत्तात्मकता की वापसी)।

राजनारायण बोहरे की कहानी ‘‘ गोस्टा ’’ ऐसी कहानी है जो काफी चर्चा में रही और उनका दूसरे संग्रह की शीर्शक कहानी भी वही रही है। इस कहानी में राजनारायण ने अपने याददाश्त के समुद्र से अनमोल मोती की तरह एक पारंपरित सहकारी प्रथा को उदघाटित किया है जो कि बुंदेलखण्ड के अंचल में विद्यमान है, इस प्रथा में गांव के लोग मिल बैठ कर यह तय करत ेहैं कि गांव के सामूहिक कार्य बारी-बारी से अवसर (ओसर) दे कर निपटायेगे ऐसी गोष्ठी या समझाौता(गोस्टा) आज भले ही इतिहासक ी चीज हो लेकिन किसी जमाने में गांव गांव मे ंयह प्रथा प्रचलित थी, जिसका प्रमुख उपयोग गांव के ढोर चराने में किया जाता था क्योंकि गांव के ढोरो ंको चराने हेतुं ग्वाले या चरवाहे की समस्या अरसे से गावों में विद्यमान रही आयी है। गांव का प्रकाश नामक निरक्षर लेकिन जागरूक युवक यह प्रथा अपनाने का सुझाव देता है तो गांव में चरवाहे के इंतजाम से शुरू हुआ यह गोस्टा सड़क बनाने, मिल जुल कर खेत जोतने और ब्याह-शादी के इंतजाम में काम में लाया जाता है, लेकिन गांव के राजनैतिज्ञ इसे सामूहिक एकपक्षीय मतदान में काम में लाने लगते हैं और फिर जानबूझ कर अपने ओसर ( अवसर-बारी) पर गैरहाजिर हो जाते हैं तो बेचारे प्रकाश को ही महीने मे ंज्यादातर ढोर चराने होते हैं और अंततः एक दिन वह गोस्टा तोड़ देता है और अकेले अपने ढोर चराने चला जाता है। कहानी के अंत में समाज के पिछलेतबके का अपना अलग गोस्टा बनाने का संकेत देते हुए बहुत अच्छे मोड़ पर यह कहानी समापत की गयी है।‘‘ गोस्टा एक महत्वपूर्ण कहानी हैं भारतवर्ष के प्राचीन गांवों मेंआपसी चर्चा से ऐसा संगठन बनाने की प्रथायें थी। जिनमेंलोग बारी-बारी से अपनी ड्यूटी निभाकर गांव भर का काम संभालते रहे हैं ऐसे संगठन की वर्तमान मेंसामयिकता और उसके विफल होने के कारणों पर बोहरे जी की गहरी नजर इस तरह पहुची है कि कलम चूम लेने को जी करता हैं। संग्रह की मलंगी, मृगछलना, जीमल चच्चा, बेटा और उम्मीद कहानी मार्मिक तथा अनूठी कहानियां हैं जिन्हें केवल बोहरें जी ही इस मजबूती, कलात्मकता और बुनावअ मेंलिख सकते हैं।’’ (रामभरोसे मिश्रा’गोस्टा तथा अन्य कहानियां: पठनीय संग्रह)‘‘ संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कथा गोस्टा है, जिसमेंभारतीसय ग्राम समाज मेंवरसों से प्रचलित गोस्टा प्रथा का उल्लेख आता है, जिसमेंकि गांव के लोग मिलजुलकर ऐसी व्यवस्था बनाते थे कि सामूहिक काम लोग मिलजूलकर बारी-बारी से करते थे। इस प्रथा को याद दिलाकर प्रकाश गांव मेंयह व्यवस्था लागू करता है, और पटेल दरयावसिंह, पंडित भैरोप्रसाद बगैरह इसे असफल करना चाहते हैं, तो गांव के पिछड़े लोग अपना एक अलग गोस्टा बनाने का निर्णय कर लेते हैं।’’( ए.असफल-रोचक व सशक्त कथाऐं)‘‘ गोस्टा समय के साथ बदलते गांव का चित्र प्रस्तुत करती है ं’जमाना बदल चुका हैं गांव के लोग किसी न किसी बहाने रोज शहर भागते हैं कुछ लो दूध बेचने जाते है, कुछ साग-तिरकारी, कुद लोग इलाज कराने जाते है, तो कुछ लोग अदालत-कचहरी कइयों के बच्चे शहर में ही पढ़ रहे है। ऐसे में कौन को फुरसत है कि गांव में र हके सुबह से शाम तक ढोर चराए, अर्थात् गांव की निर्भरता शहर के साथ जुड़ गई है तो शहरी चलन और मानसिकता भी देहरी के भीतर आ पहुॅची हैै गोस्टा सहकारता का एक रूप है किन्तु जब इसमें चालाकियां और राजनिति घुसने लगती है तो मिल-जुलकर काम करने का ताना बाना उधड़ जाता हैं जगह-जगह दिखाई देने लगते हैं। ’’( महेश कटारे-जिन्दगी की कुपच का कैनवास)

‘‘गाड़ी भर जोंक’’ कहानी समाज के उस वर्ग की है जो सदरा चलते पहियो ंपर सवार रहता है, यानि ड्रायवरों की जिन्दगी पर केन्द्रित यह कहानी बचपन से अनायास ही क्लीनरा बनके बाद में ट्रक ड्रायवर बन जाने पर उसकी कठिनाइयों और मुसीबतों से दोचार होत्रने पर रामबरन ऐसा आदमी हो जाता है जिसका घर बार भी है और रिश्तेदार ीाी लेकिन घर वाली उसे दस बारह दिन मे ंवैसे ही मिलती है जैसे दूर के रिश्ते दार जबकि ढाबा चवालों से उसकी जयादा भेंट हो जारत्रती है। इस पेशे के दूसरे लोगों की तरह परस्त्री गमन का ऐब भी अनायास रामबरन में आ गया है। वह पुराने दिनों की ड्रायवरी को याद करता है जबकि दस साल में ड्रायवर अपनी ही गाड़ी बना लेता था अब हालत ये है कि नौ खाये तेरह की भूख रहती है। ट्रक मालिक रास्ते के सारे खर्च भुगतने की जवाबदारी देकर रास्ते का ठेका ड्रायवर को देने लगा है। ऐसे में आरटीओ के चालान, ओवरलोड रन करने की यूनियन की बंदिश ओर चोरी बदमाशी सेस उसे ख्चाुद निपवटना पड़ता है। हमारे आसपास की लेकिन नयी दुनिरया, समाज मे ंहोते हुए भी समाज मे ंन रह कर सदा ही पहियो ंपर रहने वाली दुनिया की यह कहानी कुछ नये सूत्र नये किस्से और नयी जानकारी प्रदान करती है।‘‘ गाड़ी भर जौंक ट्रक ड्रायवरों की जिन्दगी पर है, तो डूबते जलयान अपने एकाकीपन के दवाब व ऊब मेंपरपुरूष की ओर झुकती चली जानेवाली दिवा का अंतर्द्वद्व समेटे है। आदत का सब-इंजीनियर कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी की आदत का फल भोगता है....। आदत भला छूटती कब है, पर बीमारी का भीमा अंततः ईमानदारी के रोग से पीछा छुड़ा लेता है तथा भ्रष्टाचार की मुख्यधारा मेंशामिल हो जाता है। इस तरह बीमारी हर हाल मेंशहीदी मुद्रा वाले नायकत्व का भ्रम तोड़ती है। हवाई जहाज थानेदारी करतबों यानी हिकमत अमली का कच्चा चिट्ठा खोलते हुये ग्राम समाज मेंघुसी आ रही क्रुरता, चालाकी और लोभ की ढलान पर फिसलने परिवर्तन का संकेत देती है।’’ ( महेश कटारे-सच को सहज शिल्प मे ंबयान करती कहानियां)‘‘ गाड़ी भर जौंक मेंट्रक-ड़ªायवरों और क्लानरों का रोजमर्रा की जिन्दगी का मार्मिक वर्णन मिलता है। इन लोगों की रोजाना की जिन्दगी मेंअनेक प्रकार की घटनायें घटित होती है।, उनके आसपास रोजाना ही विभिन्न पात्र एकत्रित रहते है।’’( ऋशि मोहन श्रीवास्तव-परिवेश का प्रतिविम्ब)‘‘गाड़ी भर जांेक का चालन रामचरन बीहड़ों मेंट्रक लेकर दौड़ता एक निरीह व्यक्ति है जो ईमानदार होने के कारण परेशान हैं, और अनायास ही बीहड़ों मेंजाने को मजबूर हो जाता है। इस कथा मेंट्रक ड्रायवरों के साथ बीहड़ क्षेत्र के समाजशास्त्र का गहन विश्लेषण मौजूद है। ’’( डॉ. लक्ष्मीनारायण बुनकर- इतिवृत्तात्मकता की वापसी)

‘‘ डूबते जलयान ’’ कहानी औसत भारतीय दम्पत्ति की कहानी है जिसमें विवाह के पहले एक प्रेेम में रही युवती दिवा विवाह के बाद अपने पति के प्रति पूर्णतः समर्पित पत्नी के रूप में जीवन बिता रही है। पूर्व प्रेमी चाहता है कि पूर्व सम्बंध यथावत रहें। दिवा को अपना अतीत याद आता है कि उच्चवर्गीय पर पर बैठे अपने पिता के घर मे ंसदा से खिलंदड़ी रही दिवा का जीवन बहुत आनंद में बीत रहा था कि अचानक दीपू से उसके ताल्लुक बने और उसके पिता ने आनन फानन में घरवर देखनाशुरू किया और डॉक्टर विपिन के साथ उसका बयाह करा दिया गया। विपिन ने किसी तरह मेडीकल कॉलेज में एडमीशन लेकर यह कोर्स कर लिया था अन्य था उसका घर बहुत कमजोर आर्थिक दशा का घर था, लेकिन दिवा ने सब कुद स्वीकार कर अपना गृहस्थ जीवन षुरू किया था । फिर सास की मृत्यू व ससुर को लगवा लग जाने के कारण दिवा को मजबूरन पति के साथ न रह कर अपने ससुर व ननद के साथ रहना पड़ता है जहां वह लगातार परेशान रहती है। कहानी अपने कथ्य मे ंपूर्णतः सफल है। दीपू से दिवा क ेसंवाद इस कहानी के सौन्दर्य और प्रभाव मे ंचार गुनी वृद्धि कर देते हैं। ‘‘ स्त्री-पुरूष संबंधो को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी ’डूबते जलयान’में आपसी संबंधो की कडुवाहट, वर्गीय भेद तथा पांच वर्ष छोटे लड़के की तरफ एक युवती का झुकाव तथा प्रेम को भी समेटने की कोशिश की गई है।’’( शहरोज-व्यापक अनुभव संसार की कहानियां)‘‘ ड़ूबते जलयान मेंबिपिन, दिवा और दीपू मेंप्रेम का जो त्रिकोण बना है, उसमेंकिसी के पक्ष मेंऔर किसी के विपक्ष मेंनिर्णय देना कठिन है इस कहानी के हर पात्र जलयान के यात्री हैं, जो ड़ूब रहा है। विड़म्बना यह है कि इस जलयान को ड़ूबने से कोई बचा नहीं सकता। फर्ज पूर्ति की नैतिकता मंे, अधिकार प्राप्ति के औचित्य मेंऔर आकांक्षाओं एवं सपनों की ललक मेंहर पात्र अपने-अपने तर्क के साथ अपना-अपना किरदार निभा रहा है। सामाजिक बंधन और व्यवस्था की शिकंजा यूँ कसा हुआ है कि कोई भी काम कोई भी पात्र पूरी प्रतिबद्धता और अन्य जोखिम उठाने के साहस के साथ नहीं कर रहा है। कुछ आगमन ऐसे होंते है, जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल जाएँ तो निष्कृति बोध भी। इस पंक्ति मेंमानवीय द्वंद्व का उत्कर्ष निखरा है, जो भी हो, यह कहानी हमारे समाज मेंनैतिकता के पाखण्ड़ से प्रेम की हत्या और जीवन के काटों की फसल को चित्रित करती है। यद्यपि पूरी कहानी यातना और कल्पना मेंबीतती है, पर इसका अंत भी कथाकार ने ऋणात्मक नहीं किया है। एक शंका है कि हो न हो दीपू इस साहस के साथ आया हो कि वह हदवा को ले जाएगा और दिवा इस मनः स्थिति मेंहो कि वह दीपू का आमंत्रण स्वीकार लेगी।’’(साक्षात्कार 2000-भयावह परिस्थितियों पर विजय की आंकांक्षा) ‘‘

क्हानी ‘‘आदत’’ आज के बेईमान जमाने में अप्रांसगिक हो चुके ईमान के मूल्यों के सहारे जीते एक सबइंजीनियर की कहानी है जो सरकार के निर्माण विभाग में सरकारी धन का एक-एक पैसा काम में लगाने की कसम खाके बैठा है लेकिन उसके विभाग और समाज का भ्रष्ट तबका उसे ईमानदारी से जीने नही देता, रोज उसके काम में टांग अड़ाता है और ऐसे कारनामे कर देता है कि बेचारे ईमानदार आदमी को तनख्वाह से पैसे कटा के झूठे गबन यानि नुकसान की भरपाई करना होती है।ऐसे लोगों को आज बचाना बेहद जरूरी है, यह समाज और सोसायटी की धरोहर है, सत्य और निष्ठा की विरासत है, इन्हंे उचित माहौल और संरक्षण मिलना चाहिये। ‘‘ आदत मेंपी. ड़ब्लू. ड़ी. विभाग की कार्यशैली और उस व्यवस्था मेंढ़ल सकने मेंअसमर्थ एक इंजीनियर की दुर्गति की रिपोर्टिंग है जो इस व्यवस्था के बारे मेंअनेक तथ्यों को उद्घाटित करती है, हवाई जहाज पुलिस व प्रशासन के गांव के चंद प्रमुख लोगों के हाथों मेंकैद रहने के सत्य को प्रगट करती है और बताती है कि बुंदेलखण्ड़ के क्षेत्र के गावों मेंअभी भी लोकतंत्र सरपंच के घर मेंगिरवी है तथा पुलिस और तहसीलदार पटवारी वहीं से भोजन प्राप्त करते हैं, उनके इशारे पर स्वयं पीड़ित व्यक्ति ही न्याय मांगने की सजा भुगतता है,’’( वीरेन्द्र जैन-अपने समय की कहानियांँं) ‘‘ कहानी-आदत मेंएक इंजीनियर की व्यस्तता और उसके इर्द-गिर्द के वातावरण का खूबसूरत वर्णन, कहानीकार की अपनी विशेषता प्रगट करता है। मस्टररोल पर लाखों का इधर-उधर होना ऊँची तरक्की पर पहुचंे इंजीनियर की ऊँची पहुँच को प्रगट करता है। जितनी ज्यादा दंद-फंद, उतना सफल इंजीनियर आज की पहचान बन चुका है। क्योंकि ऐसे सफल इंजीनियर की पहुंच ऊँच तक बन जाती है।’’ (ऋशि मोहन श्रीवास्तव-परिवेश का प्रतिविम्ब)

राजनारायण बोहरे की एक कहानी बहुत चर्चित हुई ‘‘ चम्पामहाराज, चेलम्मा और प्रेमकथा’’ यह कहानी राजनारायण ने अपनी अ़िद्वतीय भाशा क्षमता और सर्वश्रेश्ठ रचना कौशल के साथ लिखी है। ग्रामीण महाजन पण्डित चंपाप्रसाद के अधेड़ और विधुरवत जीवन जीते बड़े भाई कलकाप्रसाद ग्रामीण अस्पताल की नर्स चेल्लम्मा के प्रेम में डूबे है। यह खबर चम्पाप्रसाद को बिचलित कर देती है। वे यह रिश्ता और आगे के संभावित बयाह की घटका को किसी भी तरह पचा नही पाते। इस रिश्ते को तुड़वाने के लिए वे हर हथकण्उा सोच लेते है। लेकिन किसी सी संतुश्ट नही हो पाते। उन्हे अपने भाई का अतीत बहुत सूक्ष्म विवरणो ंक ेसाथ याद आता है कि किस तरह से किशोरावस्था में ही उनका बयाह पास के गांव की एक बावरी लड़की से हो गया था और अम्मां ने गुस्सा हो कर उस लड़की को मायके रवाना कर दिया था,। युवा हो रहे भैया कालकाप्रसाद का एकाकी जीवन आरंभ हाता है तो उसमें गांव में पुरूशोत्तम मास और कार्तिम मास में नहान का व्रत ले बैठी चायियों भाभियों को कथा सुनाने और स्नान कराने के लिए नदी और घाट पर लेजाने की जिम्मेदारी कालका प्रसाद पर पड़ती है तो स्त्री सामीप्य को तरसता उनका जीवन सहसा आपा खो बैठता है और उनकी ऐसी वैसी हरकत पर उन्हे झगड़े का सामना करना पड़ता है। बाद में सोझिंया की परित्यक्ता वहन से भी उनका रिश्ता बनता है और वह भी टूट जाता है ओर अब नर्स से प्रेम हो जाने की खबर चम्पाप्रसाद को हलाकान कर देती है। उन्हे लगता है कि यदि नाराजगी बनी रही तो कालकाप्रसाद भैया अलग हो जायेगे और घर की ईंट-ईंट आधी बंट जायेगी, तो ऐसे में घर का वर्चस्व समापत होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा। कालकाप्रसाद किसी की डांट और समझायश को नही मानेगें, सो अब भलाई असी में है कि यह रिश्ता मान कर इस नर्स को अपने घर की बहू बना ली जाये। लेकिन चंपाप्रसाद का बा्रहमण्ीा मन इस रिश्तेको मानने तध्ेयार नही होता तो उनका महाजरी मन एक रास्ता सुझाात है कि मनुस्मृति के मुताबिक लड़की को कोई गोत्र नही होता वह जहां ब्याही जाती है उसका वही गोत्र हा जाता है तो कयों न इस गोत्र बदलने के सिद्धांत को जाति बदलने तक विस्तृत कर दिया जाये ! वे तय कर ते है कि यह ब्याह आयोजित कर लेते हैं ओर समाज से कह देते है। कि चेल्लम्मा दक्षिण भारतीय ब्राहमण आयंगरो ंकी कन्या है , जिसे वे उत्तर भारत के ब्राहमणों में चल रहे उपजाति समापत करने के आंदोलन के अगले क्रम में उत्तरी और दक्षिणी ब्राहमण के भेद को मिटाने के सोपान तक ले जाके यह ब्याह स्वीकार कर रहेहैं। ‘‘ चम्पा महाराज, चेलम्मा और प्रेमकथा की चर्चा करेें। यह कथा चम्पाप्रसाद के चरित्र को समाज के सामने खोलकर रखने की कथा है। पंड़ित चम्पाप्रसाद लूले कक्का महाऐवी के भतीजे के प्रेमरोग के खिलाफ निर्णय देकर उन्हें अपना घोर विरोधी बना लेते है। चम्पाप्रसाद के भाई कालकाप्रसाद का ब्याह बचपन मेंही एक ऐसी औरत से हो गया था जो पुरूष प्रधान लक्षणों वाली थी। उसे मेंके मेज कर उन्होने को ली थी। पिता की मृत्यू के बाद दे ड़ाकघर की सेवा एवं खेती बाड़ी के काम मेंलग गये। चम्पाप्रसाद पण्ड़िताई का काम करने लगे। दक्षिण भारतीय चेलम्मा गांव के अस्पताल नर्स बनकर आई। इधर कालकाप्रसाद के शरीर मेंखुजली का रोग हो गया। चेलम्मा ने उसके पूरे शरीर मेंदवा लगाकर उन्हें स्वास्थ्य कर दिया। इस घटना ने कालकाप्रसाद को नर्स के नजदीक ला दिया। दोनों का प्रेम प्रसंग चर्चा मेंआने लगा। चम्पाप्रसाद को अपने पण्ड़िताई के धन्धे मेंआने लगा। चम्पाप्रसाद के खिलाफ लगी। उन्हें अपने बेटे और बेटी का उनके खिलाफ प्रचार करने लगे। इनने जो अपने वाषणवाद का नारा लगाया था। वह धूपिल होता दिखाई देले लगा। सोच ही सोंचेंगे इन्हें अपनी जायदाद का बटवारा होते लगने लगा। यह सोचकर तो इनका सोच बदलने लगा। सोच ही सोच मेंवे इस पक्ष मेंआ गये, कि चेलम्मा वर्ष और माई कालकाप्रसाद को अपने घर मेंबुलाकर उनका व्याह करा देंगे।’’( रामगोपाल भावुक-हादसा कहानी संग्रह: हादसों की कहानी)‘‘ इस संबंध में समाज के उदाहरण छोड़ संग्रह की कहानियों को ही देखा जाए, हम पाते है कि दलित तो छोड़िए सवर्ण आज भी किसी दूसरे धर्म, जाति और प्रदेश की स्त्री को उसके सम्पूर्ण बज़ूद के साथ ईमानदारी पूर्वक स्वीकारने को तैयार नहीं है-‘कदाचित यही औरत उत्तरी न सही, दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती तो वे कुछ सोचते!’’ ( डॉ. जितेन्द्र विसारिया - अपने समय से भुठभेड़ करती कहानियां )

पुलिस विभाग में ‘‘मुठभेड़’’ एक जमाने में बहुत चर्चित शब्द हुआ करता था जिसके कारण व्यक्ति को समयपूर्व पदोन्नति सहित तमाम सुविधाऐं मिलती थी। एक कहानी ‘ मुठभेड़’ भी बोहरे जी ने काफी पहले लिखी थी , इस कहानी में पुलिस विभाग की आपसी रंजिश और मुठभेड़ की झूठी-सच्ची कहानियांे की भीतरी सचाई को जिस आधिकारिक ढंग से वे लिखते हैं, उससे लगता है कि उन्होने इस पर बड़ा होमवर्क किया है। चम्बल क्षेत्र मे ंएक जमाने में डाकूओं के मूवमेंट, उनके बहाने पुलिस की मुठभेड़ों की कहानियां चर्चित रही हैं। रिटायर होने के बाद सिपाही धनसिंह की इच्छा नही कि उनका बेटा पुलिस में ज्वाइन करें लेकिन ज्यों ही उसे पता लगता है कि उसके दोस्त को षर्मा दारोंगा ने क मुठभेड़ के दौरान पीठ में गोली मारदी त्यों ही वह छिपा कर रखा हुआ नियुक्ति पत्र बेटे को सोंपता हुआ कहता है कि जाऊ जोइन हो जाऊ,र्श्मा दरोगा खो देख लेवे को कौन हम कर रह ेतिमसे ! बहंुत सारे कहे-’अनकहे पक्षों को बताती यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण कहानी है। ‘‘ मुठभेंड़ पुलिस तंत्र की बखूबी चीर-फाड़ करती है, फर्जी मुठभेड़ और इसके बाद पदोन्नति और इनामो-इकराम की भागदौड़, इस गीच धनसिंह जैसा ईमानदार पुलिस कर्मी किस मनोदशा मेंरहता है, जब उसका खास सहयोगी उसी तरह का ईमानदार और सच्चा राममिलन अपने ही साथयों की गोली का शिकार हो जाता है, इस अमानवीय होते जा रहें माहौल मेंभी धनसिंह अपने बेटे को दरोगा बनने से नही रोकता।’’ ( शहरोज-व्यापक अनुभव संसार की कहानियां) ‘‘ मुठभेड़ डकैत व पुलिस तथा पुलिस व पुलिस के बीच चल रहे वर्चस्व के संघर्ष की कहानी है जिसमेंएक ग्रामीण परिवेश का हवलदार हमप्रभ होकर मानवीयता के पतन को देख और भोग रहा है, यह कहानी न्याय एवं प्रशासन के सामने अनेक व्यवस्थात्मक प्रश्न रखती है।’’( वीरेन्द्र जैन-अपने समय की कहानियां) ‘‘ मुठभेंड़ नामक कहानी मेंग्रामीण क्षेत्र के पुलिस थानों पर होने वाली रोजमर्रा की घटनाओं के चित्र नजर आते है। चंबल क्षेत्र के थानों मेंआए दिन ड़ाकुओं और पुलिस के बीच मुठभेड़ें होती है। लेकिन इन मुठभें़ड़े का श्रेय लेने वालों की एक लम्बी सूची तैयार हो जाती है। कुछ ऐसी ही घटनाओं के चित्रों को रेखांकित किया है, कहानीकार ने। ’’( ऋशि मोहन श्रीवास्तव-परिवेश का प्रतिविम्ब)

‘‘ राजनारायण बोहरे की कुछ कहानियां ब्राहमण समाज की ऐसेी कहारियां है जिनमें िक बैठ के खाने या पूजा पाठ से आजीविका की आदत का विरोध करते है, ऐसी कहारिनयांें में ‘‘ समय साक्षी’’ और ‘6कुपच’’ प्रमुखा है। कुपच में एक ऐसा पंउित है जो अपनी अच्छी खासी नौरी इसलिये तयाग चुका है कि उसको दूर तैनात कर दिया गया था। चूंकि रोज रोज सुंदरकांड पाठ करने से उसे अच्छा खासा चढ़ावा मितलाजाताथा सो उसे अध्यापककी की नौकरी कम तर लगी और वह तबादला होरने पवर नयी त्रजगह उपसिथत नही होता। समय बदलने पर रोज रोज सुंदरकाण्ड या अखण्ड रामायण के पाठ नही होते इस कारण पंउित का धंधा फीका हो चुका है, पत्नी स्वर्ग सिधार गयी अब घर मे ंएक बेटा मंजुल और वे स्वयं है। सो रातदिन वे जितजमान का इंतजार और सुंदरकांड गाने का रियाज करते रहेते है। एक जगह सुंदरकांड के पाठ का न्यौता मिलता है तो सुबह से सिकी भी प्रकार का भोजन नही बनाया जाता और सांझ को होने वाले सुंदरकांड के बाद के भण्डारा की प्रतयाशाा में नारियल की गरी खिलाकर दिन गुजार देते हैं । सांझ को सुंदरकाण्ड का पाठ होता है, तो मंलजुल की भूख बढ़ रही है, उसे फोओ में दिख रहे फल को देा कर मुंह मे ंपानी आ जाता है, प्रसाद मे ंरखे फल ओर मिठाई देख कर वे लालायित हो जाता है और भूख की आंग को लगातार बढ़ते देख सोचता है कि पापा आज क्याूं बहुत सुर राग में चोपाई गा रहे है, जल्री से पाइ निपटायें ताकि भोग लगे त्रऔर परसादमिले। बहुत देर बाद पाठ समापत होता है औ प्रसाद र्के रूप् में भुने हूये आटा की पंजीरी बंटने लगती है, चूंकि इसके बाद भोजन की काकई गुंजायश नही दिख रही तो मुंजुल खूब बड़ा खोवा बना कर प्रसाद ले लेता है और जल्दी जल्दी उसे खाने लगता हे किसूखा कसार गले मे ंफंस जाता है और उसे जबर्दस्त ठसका लगता है। फिर सूखी उल्टी आने लगती है तो उसके पिता आपत्रकर पीठ पर धोल जमाते हुए कहतेहैं कि जब यह पेट से ज्यादा खा लेता है ता े इसे ऐसे ही कुपच हो जाता है। ‘‘कहानी कुपच एक कमजोर औरद मुफ्तखोरपंडित की मानसिकता का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करती है, जिनमेंउसका किशोर बच्चा भूखा-प्यासा रह कर अपने बाप की आदतों और मनोवृत्ति की म नही मन आलोचना करता है, सुन्दरकाण्ड़ के पारायण के साथ प्रसंगानुकूल स्मृतियां कहानी को प्रभावशाली बनाती है। ’’( ए असफल-रोचक व सशक्त कथाऐ) ‘‘ कहानी के केन्द्र में कस्बे के एकमात्र ऐसे पंडित का पुत्र है जो गा-बजाकर पूरा सुन्दर काण्ड सुनात है, काम और अनुश्ठान जो भी इसे कहें, का पारिश्रमिक या दक्षिण मिलती है मात्र इक्यावन रूपए। ये पाठ भी राज नही मिलते सो कभी-कभी बाप-बेटे को भूखा तो सोना ही पडता है। पाठ के दिन भी शाम तक भोजन की प्रतीक्षा करनी पडती है। एक दिन भूखी आंतो वाले इसी पंडित पुत्र को अपेक्षित पूडी कचौडी के स्थान पर भूंजे आटे की पंजीरी ही नसीब हो पाती है, भूख का मारा मंजुल जल्दी-जल्दी में यही गटकने लगता है और उसे ठसका लगने से ऐसी खांसी उठी कि सीने में दर्द बैठ गया, मुंह से वमन, नाक, आंखों से पानी बहाते हुए बेहोश होते पुत्र पर पिता की टिप्पणी भयावह विडामबना सामने रख देती है ंपिता निश्चिंत भाव से जिजमान से कह रहे थे कि ‘‘ पेट से ज्यादा खा लेने पर हर बार ऐसा ही कूपच होता है इसे, चिंता की बात नहीं है, अभी ठीक हो जाएगा।’’ कुल मिलाकर यह परजीवी अमानवीयता की कहानी है। श्रम से दूर श्रेश्ठता के दंभ की दयनीयता यहीं आकर खुलती श्रीराम तिवारी ने भी अपनी कहानी ’भूख’ में एक अलग घटना के माध्यम से इस ’ब्राम्हण’ की दयनी श्रेश्ठता का खुलासा किया है। ब्राम्हणवाद के विरोध की मार सबसे ज्यादा इसी परजीवी श्रेश्ठता को भोगना पड़ती है। ’’ ( महेश कटारे-जिन्दगी की कुपच का केनवास)

जिन लोगों ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद फैले सिख विरोधी दंगों को निकट से देखा होगा उन्हे राजनारायण बोहरे की कहानी ‘‘लौट आओ सुखजिंदर’’ बहुत जबर्दस्त कहानी लगेगी। यह कहानी एक सहृदय व्यक्त् िा की कातर पुकार है जो कि अपने खो गये दोस्त सुखजिंदर को म नही मन पुकार रहा है ‘‘कि -लौट आओ सुख जिंदर। दो युवाओं के बीच एक सिख युवक की गहरी मित्रता है, वे तीनों साथ साथ सुंदरकाण्ड पढ़ते हैं, गुरूद्वारा मे ंलंगर चखते हैं, चर्च भी पहूंच जाते हैं यानि कोई विचार भेद नही उनके बीच, मजहबी फर्क नही, कि अचानक इदिरा गांधाी जी की हत्या के बाद का सिख विरोधी दंगा फैल जाता है। ऐसे में वे युवक जान की बाजी लगा कर सिख युवक सुख जिंदर को अपने घर में छिपाते है कि दंगाई टोली को पता लग जाता है ओर वे कथा नायक युवक के घर के ईर्द गिर्द घूमते हुए टोह लेने लगते हैं। जब साफ धमकी मिल जाती है कि सिख युवक को बचाने के जुर्म में आपको भी घर सहित जला दिया जायेगा, तो मकान मालिक दुखी हो कहते हैं कि अब इन्हे पुलिस सुरक्षा में भेजना होगा। मजबूरी में सुखजिंदर को पुलिस सुरक्षा में सोंप दियाजाता है और यही सब सुखजिंदर को अखर जाता है-तुम लोग भी ! वह पहला धार्मिक व्यक्ति होता है जो गुरूद्वारे जाकर कार सेवा आरंभ करता है। इसके बाद वह अपने दोस्तों से मिलने कभी नही आता । उसका विश्वास, स्नेह,दोस्ती सब खत्म हो जाते है। लगता है िक वह कही खो गया है और कथा नायक आर्त पुकार कर रहा है-तुम लौटा आओ सुखजिंदर। ‘‘ लौट आओ सुखजिंदर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिक्ख विरोधी दंगे का चित्र खींचती है, सुखजिंदर एक कालेज का लेक्चर है और उसके सभी सहकर्मी हिंदु है लेकिन दंगे के माहौल मेंरोज की यारी कहां फिना हो जाती है पता ही नहीं चलता, उसके साथी चाहकर भी उसको सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाते और अंततः वह शहर छोड़कर चला जाता है, यह सवाल बना रहता है कि वह शहर छोड़कर क्यों चला जाता है, और लौटकर वापस क्यों नहीं आता है।’’(शहरोज-व्यापक अनुभव संसार की कहानियां)‘‘ लौट जाओ सुखजिंदर एक धर्म निरपेक्ष कालेज व्याख्याता की साम्प्रदायिकता की शरण मेंचले जाने की विवशता की कथा कहती है हमारे समाज के कमजोर धर्म निरपेक्ष असंगठित लोग संगठित साम्प्रदायिकता तथा उसके बहाने लूटपाट करने या अपना बदला लेने वालों के समक्ष किस तरह कमजोर है, उसको प्रगट करती है, यदि किसी भी धर्म निपपेक्ष व्यक्ति को साम्प्रदायिकता के दौर मेंकेवल उस सम्प्रदाय के लोगों द्वारा ही संरक्षण मिलेगा जिसमेंउसने जन्म लिया है तो उसका एक न एक दिन सांप्रदायिक तथा अंतमुर्खी हो जाना कितना स्वाभाविक है यह बात कथा के माध्यम से खुलती जाती है।’’( वीरेन्द्र जैन-अपने समय की कहानियां)।

राजनारायण बोहरे की आरंभिक कहानियों में से एक है-हवाई जहाज। बहुत छोटी लेकिन मार्मिक और मार्के की कहानी है।बर्तन बनाने वाले प्रजापति समाज का रतना अधेड़ावस्था मे ंजब अपने बेटों से देख रेख नही पाता तो फिर से बर्तन और ईंट बनाने का काम शुरू करता है और पथरपुर जाकर उस जमीन पर ईंट बनाने की जुगत लगाने लगता है जो सरकार ने उसे पटटे परदे रखी है। चूंकि उस जमीनपर गांव के बाहुबली पहलवान सिंह की नजर है तो उसे रतना का पटटे वाली जमीन पर आकर काम करना नही सुहाता ओर वह कभी कुत्ते पीदे लगा कर कभी गीली ईंट तुड़वा कर उसे तंग करता है जिसकी शिकायत करने पर जिले से आये हुक्काम पहलवार की कोठी पर जाकर उसके अनुरूप तस्दीक करते हुए उसके पक्ष मं रपट तैयार करते हैं तो दुखी रतना अन्ततः थाना पहुंच कर एफआई आर कटाने का निर्णय लेता है। दिन भर इंतजार के बाद उसे कोतवाल साहब नही मिलते तो वह निराश सा उठना ही चाहता था कि थाने मे ंकोतवाल साहब प्रवेश करते हैं जिनके साथ पहलवान(यानि वह व्यक्त् िजिसके खिलाफ रपट कराने आया था ) भी पीछे पीद ेप्रवेश करता है और उसे देख्चाते ही कहता है कि इसी आदमी ने उसे तंग कर रखा हैं यह सुन कोतवाल कहता है िकइस उतपाती आदमी को पकड़ के भीतर ले जाओ और इस को हवाईजहाज बना के टांग दो क्येांकि यह भले आदिमियों के लिए परेशान कर रहो है। लेखक चाहता तो रतना के विद्रोही तेवर दिखा सकता था लेकिन ऐसा न कर लेखक ने इसके फार्मूला अंत से बचा लिया है, अंत मे ंरतना पकड़ा जाता है और पाठक मन मसोस कर रह जाता है। ‘‘ कहानी हवाई जहाज भी सरकारी दावों को झूठा करार देती है, यहां सरपंच की दादागिरी खुलकर सामने आती है और जिसे दरोगा से लेकर तहसीलदार का भी संरक्षण पत्राप्त है।’’ (शहरोज-व्यापक अनुभव संसार की कहानियां) ‘‘ हवाई जहाज पुलिस व प्रशासन के गांव के चंद प्रमुख लोगों के हाथों मेंकैद रहने के सत्य को प्रगट करती है और बताती है कि बुंदेलखण्ड़ के क्षेत्र के गावों मेंअभी भी लोकतंत्र सरपंच के घर मेंगिरवी है तथा पुलिस और तहसीलदार पटवारी वहीं से भोजन प्राप्त करते हैं, उनके इशारे पर स्वयं पीड़ित व्यक्ति ही न्याय मांगने की सजा भुगतता है।’’( वीरेंद्र जेन-अपने समय की कहानियां)

‘‘विश्वास’’ कहानी बोहरेजी के अपने रंग और शिलप की कहानी है जिसमें एक नगरपािलका कार्यालय में तरख्वाह न मिलने की वजह से दीवाली पर बांटने के वास्ते चांदी हर साल की तरह चांदी की सिक्के खरीदने भेजे गये आदमी को वह सेठ उधार रेने से मना कर वापस कर देता है जो िकइस कार्यालय के बाबुओं से लाखों का लाभ लेता रहा है। कथानायक इसी सदमें में है कि कार्यालय भवन में मोघिया जन जाति का वह युवक दवाई बेचने आता है जो कि हर साल सर्दी की शुरूआत में आता रहाहै। कथा नायक दुखी मन से कहता है िकइस कार्यालय में किसी को वेतन नही मिला इसलिये तुम्हारी दवा कोई नही खरीदेगा ! लेकिन मोघिया युवक उधार बेचने की अनुमति लेकर कार्यालय में प्रवेशक करता है तो आठ कहजार की दवा उधार बेच कर ही निकलता है। कथा नायक हैरान है कि एक इतना बड़ा सेठ उधार देने से मना कर रहा है लेकिन यह आदिवासी आठ हजार की बड़ी रकम उधार करके कैसे चला गया? तब कर्मचारी यूनियन के नेता सिंह साहब उसे बताते हैं कि दरअसल इस सेठ को तो आपके आफिस से काम निकलना था सो वह अटकी होने से आपको सम्मान और अपनापन देता हे अन्यथा आप सब उसके लिये सरकारी मशीनरी से काम निकालने के एक सामान्य से टूल हो, जबकि इस युवक का ेपता है कि समाज के जिस मुकाम पर वह खड़ा है आप भी लगभग वहीं है, इस कारण उसे आप केवर्ग पर विश्वास है। ‘‘(डॉ.जितेन्द्र विसारिया-अपने समय से मुठभेड़ करती कहानियां)

खुले बाजार की नीति और विश्व व्यापार के समझौतों के बाद हमारे देश में जिस तरह की कार्पोरेट लोगों की दुनिया आयी है उसे खुल कर बताती है कहानी ‘‘विडम्बना’’। एक कार्यालय में पदस्थ महिला कर्मी तनु को सहसा जानकारी मिलती है िकइस कार्यालय से कोई एक आदमी कम होने का निर्णय लिया गया है तो वह मन ही मन विचार करती है कि कोन कम हो सकता है, क्या गलत अंग्रेती बोलने वालाव्यक्ति, क्या हकलाने वाला व्यक्ति या वह स्वयं। उसे लगता है िकवह खुददारी के साथ रहने के कारण कभी किसी के कुत्सित इरादे को सफल नही होने दिया है इसलिये वही सबसे आसान टारगेट होगी ओर इस छंटनी के बाद उसकी ओर से किसी हंगामेे की उम्मीद रीाी नही इसलिसे वह म नही मन डर जाती है। बाद में कार्यालय प्रमुख छंटनी के लिए एक कमेटी बनाते हैं जिसमें तनु को भी रखा जाता है तो तनु कार्पोरेट दुनिया की इस धारणा में बह जाती है कि अब छंटनी से उसे किसी तरह खुद को बचाना है चाहे किसी निरपराध और मेहनती आदमी को हटाना पड़े। ‘‘ बोहरे जी की विड़म्बना कहानी एक तनु नाम की लड़की महिला की कहानी है। आफिस मेंचार कर्मचारियों की छटनी की जा रही है। आफिस का प्रत्येक कर्मचारी इस सोच तमेंडूब है कि कहीं छटनी मेंउसकी अपनी हो रही है। तनु सोचती है- मेरी छटनी तो होना ही है मैंने अपने अधिकारी के अनैतिक प्रयास को अस्वीकार करके उसकी कार से उतर आई थी। उसे याद आती है उसे आफिस और घर मेंक्या-क्या भोगना पड़ा है। वह इन बातों की किस-किस से शिकायत करें। मामा का लड़का रानू, बुआ का दीपू, बड़ी बहन का देवर चन्दू हरके ने कुछ न कुछ जोड़ा है तनु की स्मृति कोश मेंजिसने जब भी मौका मिल पाया, उसने बदन को छुआ जरूर। ऐसे सोच से कहनी खुलती चली जाती है। जब कर्मचारियों से छटनी पर परामर्श लिया जाता है सभी अपने को बचाना चाहते है। इसमेंमाननीय दृष्टिकोण को सभी पीछे छोड़ देते है। ’’ (रामगोपाल भावुक-हादसा कहानी संग्रह: हादसो ंकी कहानी)

‘‘जमीन का आदमी’’ राजनारायण बोहरे की ऐसी कहानी है जो कि आजादी के पहले से राजनीति को सेवा मान कर जुटे एक पुराने दलित कार्यकर्ता की कहानी है जिसे आजादी के बाद कभी किसी जगह प्रतिनिधित्व नही मिला और जब संविधान मे ंसंशोधन के बाद रिजर्व हो गयेपद पर वह चुनाव लड़ना चाहता है तो भी उसे हटा कर किसी नये कार्यकर्ता को आगे कर दिया जाता है लेकिन आत्मविश्वास में भरा वह बंुजुर्ग कार्यकर्ता अपने बूते चुनाव जीतता हैग् तो इलनाके के पुराने जनप्रतिनिधियो ंको गवारा नही होता वे ऐनकेन प्रकारेण उसे परेशाकरते हे और गलत सलत काम कराना चाहते हैं जिसका तोड़ वह अपनी जन्मजात आदत के चलते इस तरहसे निकालता है कि खुद का बहुत खुशी मिलती है और दूसरे हक्के बक्के रह जाते है।‘‘यह आश्चर्य नहीं कि लेखक के सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘हादसा’ की अधिकांश कहानियाँ वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह, स्वप्नभंग और मोहभंग की कहानियाँ हैं, फिर उसमें चाहें लोकतंत्र में निर्वाचन प्रणाली के मँहगे और उसमें अवैद्य धन व बाहुबलियों के प्रवेश के चलते, एक आम इंसान के चुनाव में खड़े न हो पाने की टीस और विश्वास विघटन वाली संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हादसा’ हो, या वर्तमान शासन व्यवस्था में भृश्टाचार, तानाशाही और सवर्ण वर्चस्व के चलते लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष कही जाने वाली तथाकथित राष्ट्रीय पार्टी से, एक भले ईमानदार दलित के अपने पद से त्यागपत्र देने को आधार बनाती ‘ज़मीन का आदमी’ कहानी, सभी लगभग यही सच प्रकट करती दिखाई देती हैं।’ ’( डॉ. जितेन्द्र विसारिया-अपने समय से मुठभेड़ करती कहानियां)

‘‘ बेटा’’’ एक मार्मिक कहानी है जिसमें कि एक बच्चे को रेबीज हो गय है और वह मृत्यूशैया पर है ,दूर बेछठी उसकी मों को याद आता है कि पति से विवाह पहले बन गये संबंधों की देन होने से ेइस बचचे पर उसका लगावा जतयादानही था इस कारण कुत्ते के काटने का ध्याननही नही दिया और बच्चा ऐसी बीमारी का शिकार हो गया जा ेकि लाइलाज है।‘‘ संग्रह की बेटा, उम्मीद, उलाज संभवत पहले-दूसरे प्रारूप मेंही अंतिम करदी गयी कथायें हैं, यदि इन कथाओं मेंथोड़ा श्ल्पि, थोड़ी गहराई आ जाती तो सर्वथा अछूते विषय पर लिखी ये कहानियां स्मरणीय गन जाती है। उम्मीद मेंएक कस्बे के शहर बनने की कथा है। जहां औघौगीकरण के कारण आधुनिक अर्थ मेंखूब विकास हुआ है। लेकिन कस्बे के लोगों ने इस विकास के लिए बहुत कुछ खोया है। आपसी प्रेम-लगाव, मर्यादा, लिहाज, चरित्र, विचार लुपत हो गयें हैं, और उनकी जगह आ गयी है धन कमाने की लिप्सा, अपना स्वार्थ भावना, और बेलिहाज मौज-मस्ती। बेटा मेंएक मां का ब्याह के पहले ही पेट मेंआये बेटे के प्रति उपेक्षा का भाव है, यहां तक कि उस बेटे को कुत्ता काट लेता है और मां ध्यान नहीं देती, परिणामतः बेटा बड़ी दर्दनाक मौत मर रहा है और अब जाकर मां को अपना अतीत, अपनी गलतियां याद आ रही हैं, जबकि वह उन्हें सुधार भी नहीं पायेगी।’’( ए असफल-रोचक व सशक्त कथाऐं)

‘‘ पूजा’’ अमूमन उस हर अधिकारी की कहानी है जो किसी धार्मिक स्थाना पर तैनात है और जिसे अपनी डयूटी से जयादा बाहर से आये अधिकारियों के लिये धार्मिक स्थान पर पूजा की सुविधा कराने को लकर सक्रिय रहना पड़ता है। जैन साहब बहुत सिद्धांत वादी हैं और वे ेइस काम से बहुत परेशान रहते हैं फिर भी इधिकारियों के गुस्से का शिकार होते है।‘‘‘पूजा’ कहानी भी प्रशासन में वीआईपी अधिकारियों द्वारा दौरे के समय, किस तरह आज्ञा (ओबिडेन्ट) और अनुशासन (डिसिप्लिन) के नाम पर दूसरे शहर और विभाग के मातहत कर्मचारियों को परेशान किया जाता हैं। किस प्रकार तनाव झेलते वे अधीनस्थ कर्मचारी, उन वीआईपीओं की कितनी ही बेढंगी फ़रमाइसें पूरा करते आगे-पीछे हलकान होते घूमते रहेते हैं; यह सब डायरी शैली में लिखित ‘पूजा’ कहानी में सअक्षर और सतिथिवार आया है।... ’( डॉ. जितेन्द्र विसारिया-अपने समय से मुठभेड़ करती कहानियां)

‘‘बीमारी’’ क महत्वर्पूा कहानी है ििजसमें कि गांव का गरीब दूध वाला अपने देह की बीमारी से उतना परेशान नही जितना समाज की बीमारी से परेशान हे। अगर वह दूध मे ंपानी नही मिलाता तो उसे मजूदरी भी नही मिल पाती और अगर मिलाता है ताो खाद्य विभाग के अधिकारी उस जैसासें को पकड़ने का कजलाल बिछाये मिलते हैं। बुखारग्रस्त होकरक ीाी वह अचानक आ पड़ी ऐसी विपदा से पीदा छुड़ाकर भाग निकलता है। ‘‘ बीमारी इस ओर संकेत करती है कि व्यवस्था दोष के कारण रोजी-रोटी की खातिर किस तरह एक ईमानदार व्यक्ति बेइमान हो जाने पर विवश कर दिया जाता है।’’(शहरोज-व्यापाक अनुभव संसार की कहानियां)

‘‘हडताल ’’ एक ऐसी मरीज की कथा है जिसको बचपन से दिल में छेद है और वह दिल्ली के बड़े अस्पताल में ीार्ती है लेकिन डॉक्टरों ी हड़ताल के करण परेशान है। इस बीच उसके परिवार की तंगहाली , पिता की असामयिक मौत और बहनों की स्वेच्छा चाहिरता की ायाद आती है।‘‘ हिन्दुस्तान का शायद ही कोई नागरिक हो जिसने हड़ताल शब्द न सुना हों। बंद और हड़ताल हमारे जनतंत्र की स्थाई पहचान बन चुके हैं सरकार की खाल भी इतनी मोटी है कि इसके बिना वह नींद से भारी पलके खोलती ही नहीं, पूंजीवादी सरकारों के यहां हड़ताल नहीं सुनी जाती क्योंकि उस व्यवस्था में किसी तरह का घाटा उठाने की नैतिकता ही शामिल नहीं है। समाजवादी व्यवस्था में हड़ताल हो नहीं सकती क्योंकि श्येन आनमन दुहरा दिए जाते हैं हड़ताली रोग उन देशों में है जो ब्रिटिश उपनिवेश रहकर लोकतंत्र के गौरव से मण्डित हुए है, बिजली, पानी, परिवहन, शिक्षा आदि के साथा यहां प्रायः जिंदगी भी हड़ताल पर चली जाजी हैं और दैनंदिन जीवन की किसी न किसी शिरा का रक्त संचार बंद हो जाता है। ’हड़ताल’ के इसी पक्ष को कथाकार ने निम्न मध्यवर्गीय परिवार की जटिलताओं के माध्यम से उजागर किया है। ’जमील चच्चा’ है तो असल में नीचे वाल निम्नवर्गीय ही पर बीच के होने के भ्रम में जी रहे है। इस भ्रम में जीने वाली आबादी हिन्तुस्तान में आधे से अधिक है जिनके परिवार सरकार और समय की मार झेलते हुए पुरानी सायकल पर अपना बोझा लादे जिंदगी को धकेले जा रहे है ंनाम को छोड़कर जमील चच्चाकी अलग से धार्मिक पहचान का न आग्रह है, न इच्छा । वे खालिस अपने शहर या कस्बे का आदमी है । ऐसे लोगो ं को अलग पहचान का रोग अलापने वाले ही अलगाव का पाठ पढ़ाते है अन्यथा वे जीवन के पहिए को तेल की खुराक वाली जुगत में फंसे आत्मीय से इतर कुछ नहीं। ’’( महेश कटारे-जिंदगी की कुपच का केनवास)

‘‘टीका बब्बा’’ जेसे पात्र हर कस्बे में मिल जते है जो आजादी के आंदोलन मे ंसक्रिय यरहने के बाद भी,देश भक्ता होेन के बाद भी सरकारी सुविधा का कोई लाभ और आजादी का कोर्ठ सुचा नही उठा पाते। उनके कस्बे में नये खुले कारखाने मे ंदेश ीार से आये लोगो को रोजगार मिलता जात है लेकिरन टीका बब्बा के पढ़े लिखे ीातीजे का एक छोटी सी नौकरी भी नीि मिल पाती। ‘‘ इसी क्रम की अगली कड़ी है- टीका बब्बा! पिचहत्तर साल पूरे कर चुके इस शख्स की पहचान है उसका तांगा, अंग्रेजी जमाने की चपरासगिरी से लेकर रोजाना की मजूरी आदि कई काम कर चुके है। इनके बहाने कथाकार आज की सफेद कालरी काहिल मानसिकता पर बड़ी मौजूं चोट करता है ं ’पढ़े-लिखे तो थे नहीं, सो कोई काम करने की शर्म भी नहीं थी उन्हें,’ जाति, मजहब के परहेज बिना हर किसी के काम आने को तत्पर। अपने कस्बाई शहर में औद्योगिक विकास से शुरू-शुरू में तो प्रसन्न थे पर उद्योग के साथ और बहाने आने वाली स्वार्थी भीड़ से अब संशय में है। आपसी प्रेम बढ़ाने वाली हर चीज मिटती जा रही है... बस वहीं कैसे भी जेब में ज्यादा से ज्यादा ठूंसने की आपाधापी और तो और व्यक्ति तथा समाज की पहचान तक खत्म होती जा रही हैं। टीका बब्बा के भतीजे का गुम होना एक परिवार के भविश्य का ही खो जाना नहीं है समाज और देश की पहचान का गुमा होना भी है। ’उजारा’ कहानी में मानवीय संवेदना शेश रहने की आश्वस्ति है तो हड़तालें जारी है, हड़ताल के सकारात्मक पक्ष को उद्घाटित करती है किन्तु इस कहानी में इतने नाटकीय आयाम है कि ....... ? कहानी हिन्दी फिल्म की बलू प्रिंट सा होने लगती है जिसमें सिर्फ नाना पाटेकर के अवतरण की प्रतीक्षा हों हिन्दी कहानी ने अपनी चमगोइयों के बीच भी बहुत जिम्मेदारी के साथ यात्रा तय की है , अतः राजनारायण बौहरे जैसे जनमानस के सहज प्रवक्ता की नाटकीय चूक स्वीकार नहीं हो पाती। उनके सामने महानगरीय उच्च वर्ग की स्वीकृति-लालसा में जादू दिखाने लोगों का अभियान भी है । वे पंख से पखेरू बना लेते है किसी ग्रामीण रचनाकार के पास न वह चतुराई है न होना चाहिए क्योंकि बौहरे जैसों की प्रतिबद्धता कम से कम सत्तर प्रतिशत के साथ है और उन्हें अपना सात प्रतिशत सत्तर में एनलार्ज करने का प्रमाण पत्र जाना है। ’’’’( महेश कटारे-जिंदगी की कुपच का केनवास)

‘‘बदलाहट’’ लगभग पच्चीस साल पुराने उस दौर की याद दिलाती है जब देश मे ंदलितों की अपनी पार्टी उभर रही थी और उसने दूसरे दलों की तरह अपने दल की भी रैली और मेले आयेाजित करनाशुरू किया था। ऐसी ीत्रही एक रैली की अराजकता मे ंफंस गये सामारनय यात्रिये ंऔर रैली मे गये सामान्य कार्यकर्ताओं कहानी है बदलाहट जो देश की राजनीति में आ रही बदलाहट की भविश्यवाणी है।‘‘ बदलाहट’ जहाँ आजादी से लेकर अब तक अस्तित्व में रहीं तमाम गैर दलित पार्टियों के बाद सत्ता में आई तथाकथित दलित पार्टी और दलित रहनुमाओं द्वारा दलितों के ठगने और मोहरा बनाये जाने को सवर्ण पात्रों की दृष्टि से देखी गई एक संक्षिप्त कहानी है। कहानी में दलित और दलित राजनीति के उभार के चलते सवर्ण पात्रों का भय कुछ इस प्रकार भी सामने आता है कि अब तक की पार्टिर्यों का ध्येय मात्र दलितों को मोहरा बनाकर सत्ता प्राप्ति मात्र था, किन्तु अब दलित पार्टियाँ सरकार आने पर दलितों के आने पर ठाकुर, ब्राह्मण, बनियों को पानी भरने का भी स्वप्न दिखा रही हैं; जो प्रकारांतर से देश में जातिय संघर्ष और वैमनस्य फैलने का कारण बनेगा? चुनावी सभाओं से लौटे यह रक्तबीज अवश्य हमारी आर्य संस्कृति के लिए संकट का कारण बनेंगे? किंतु इस भय के इतर देखा जाए तो जातिवाद और वर्णवाद के नाम पर देश में इस तरह का वैमनस्य भाव, क्या अब से पहले कम रहा है? तथाकथित दलितों की मानी जाने वाली वह तथाकथित पार्टी भी अपने एजेंडे में परिवर्तन लाकर, ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ से ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ के मार्ग पर चल पड़ी है, किन्तु हजारों साल से अस्तित्व में असमानता परक जाति और वर्णव्यवस्था की पक्षधर पार्टियाँ और उनके लोग, क्या अपने में इस तरह की तब्दीली ला पाए हैं? यह भी विचारणीय है...।’’ ( जितेंद्र विसारिया- अपने समय से मुठभेड़ करती कहानियां)

‘‘बिसात ’ ऐसे चतुर लोगोेकी कथा है जो कि खुद ीाले ही बहुत दाूटी हैसियत पर हों लेकिन मौका मिलते ही अपने से छोटे आदमरी का षोशण करने से ेनही चूकते। अंधविश्वास और खर्चीली परंपरा को निभाने की दुहाई देकर ऐसे लेाग गरीब किसान का खेत लहड़पने को बिसात बिछाये तेयार बैठे मिलते हे।

‘‘ हादसा ’’ देश के हर उस नागरिक की कथा है जिसे भले ही खब्ती कह कर उस पर हंसा जाये लेकिन वह हर आम नागरिक का प्रतीक र्है जो कि लोकसभा और विधान सभा में सबसे पहले जाकर पर्चा भरता है और साइकिल पर चुनाव चिनह लगाकर बिना कार्यकर्ता और बिना धन के अपना प्रचार करता है ,भले ही हर चुनवव मे ंवह बुरी तरह हारे लेकिन उसका जोश ठण्इा नही होता । ‘‘ अब मेंसीधे-सीधे संग्रह की पहली कहानी हादसा पर आपका ध्यान आकृष्ट कटना चाहता हूँ।हादसा कहानी हमारे लोकतंत्र के उस आम आदमी की कहानी है जो अपने असूलों के लिये हर चुनाव मेंअपने आपको प्रन्यासी बनाता है। पचास पचास रूपये पचास लोगों से एकत्रित करके, उनमेंसे पाँच सौ रूपये जमानत की राशी जमा करता है। शेष बचे दो हजार अपनी यात्राओं के लिये सुरक्षित रखता है। साइकिल पर अपना वैकट टांग कर घूमता रहता है। भूख लगने पर चने खाता है या पजींरी गटकता है। वह एक काले रंग की ड़ामरी लिये रहता है जिसमेंवह अपने चुनवा क्षेत्र की समस्यायें नोट करता रहता है।’’ ( रामगाुपाल भावुक-हादसा कहानी संग्रहः हादसों की कहानी)

वह अधिक भीड़ भी एकत्रित नहीं कर पाता। एक वार उसने प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिये। इससे अज्ञात लोगों ने उस पर हमला कर दिया। कलेक्टर ने उसकी सुरक्षा के लिए गार्ड लगा दिया। एक बार नेताओं से उक्वाये लोग उन्हें वोट दे आते है। वह समझता है उसका जनाधार बढ़ रहा है। जब गुण्ड़े चुनाव मेंबूथ पर कब्जा करते है, वह उनका विरोध करता है तो वे गुण्ड़ें उसे पीट देते हैं। वह साधन टीम व्यक्ति हाईकोर्ट मेंरिपोर्ट दायर भी नहीं कर पाता। वह इस बार के चुनाव मेंचुपचाप घर बैठकर रह जाता है। कुछ लोग उसके चुनाव मेंखड़े न होने से उससे मिनले जाते हैं, वह कहता है-अब जमानत की राशी दस हजार रूपये हो गई है। मैं पचास-पचास रूपये के हिसाब से कितने लोगों से चंदा कर पाऊँगा।

जब एक वृद्ध आदमी उससे चुवान मेंन खडे होने का कारण पूछता है तो वह कहता है- आप नहीं जानते बाबू जी ये सब पैसे वालों के षड़्यंत्र है। वे कहाँ सटन करेंगे कि कोई सड़क छाप आदमी चुनाव लड़े और ऊपर पहुँचे। दरअसल मेरा दस पूरे तंत्र से विश्वास उठ गया है। वे लोग सोचते हैं- किसी और को यह बात छोटी लगे पर हम सबको भारतीय लोकतंत्र के इतिहास मेंयह सबसे बड़ा हादसा है। यें आप आपसी का समूचे तंत्र से विश्वास उठ जाना सबसे बड़ा हादसा है।

‘‘अपनी खातिर’’ एक एसी युवती की कहानी है जिकसा ब्याह अधिक उम्र के आदमी के साथ कर दियाजाता है तो वह उसे छोड़का घर आताती है और पढ़ लिखकर खुद को अपने पांव खड़ा करती है । आफिस के एक युवक से स्नेह संबंध में बंधी हुयी होती है कि युवका का अन्यत्र ब्याह हो जाता है कि वह निराधा क े ेभंवर मे ंघिर जाती है इसी ऊहापेाह मे ंउसे एक रास्ता या सूत्र मिलता है कि उसेने अपनी खातिर खुद का तेयारकिया है, एक स्त्री होने के नाते उसका अपना वजूद है, किसी युवक या अल्पकालीन दोस्त के कारण उसका वजूद खतरे मे नही पड़ गया। ‘‘कहानी ”अपनी खातिर” मेंएक युवती का अन्तर्द्वन्द्व इहै, जो कि कम उम्र मेंएक द्विजवर प्रौढ़ के साथ ब्याह दी गयी। पहली ही रात उसने जब पति का चेहरा देखा तो अपनी दुनिया लुटी नजर आयी, और वह लौट कर ऐसी आयी कि अपने पिता के यहां से पति के घर कभी नहीं गयी। पति से दूर रहकर उसने शिक्षा ग्रहण की, नौकरी पायी और मनभाया कोई साथी चुन लेने का निर्णय किया है, पर पति उसे छोड़ नहीं रहा है, सो म नही मन परेशान है, लेकिन हताश नहीं है। स्त्री स्वातंत्रय और बेमेल विवाह की भयावहता प्रकट करती यह कहानी भी विमर्श के कई द्वार खोलती है। लोकगीतों, विवाह संस्कारों और रीति रिवाजों ने इस कथा को प्रभावशाली व संवेदनशीलद बना दिया है। जीमल चच्चा एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो हड़डी जोड़ने का हुनर जानता है पर उसके बेटे यह रिजक सीखना नहीं चाहते, उन्हें नौकरी की इच्छा है, जिनका कि अकाल है। जीमल चच्चा अपने बच्चों पर फैसला नहीं थोपते, उन्हें नौकरी ढूंढतें की स्वतंत्रता दे कर उनके परिवार का बोझ दपने उपर ले लेते है।, और तय करते है कि हाथ का हुनर वे मंगल को वैसे ही सोंप देंगे जैसे कि जाति, मजहब, रिश्तों से दूर रहकर कल्लू उस्ताद ले उन्हें सोंप दिया था। समाज का यही रिवाज है।’’ ( ए.असफल-रोचक व सशक्त कथाऐं)

‘‘एकबार फिर’’ हर उस बड़े पुराने परिवार की कथा है जहां एक न एक ऐसा आदमी होता है जो अपने मुह के स्वाद और पहननने ओढ़ने के शौक के खातिर अपनी जायदसद बरबाद करते हुए सारे घर को खतरे मे ंडालता है। जिसके बच्च्े और पत्नी भले परेशनरह ेव हमजे में रहता है। ‘‘‘एक बार फिर’ कहानी भारतीय परिवार और वंशवाद के बीच प्रचलित दो उक्तियाँ, पहली कि ‘परिजन चढ़कर बिटिया ही नहीं ब्याहते बाकी सब गत कर डालते हैं’ और दूसरी कि गैर मलयागिरि से गाड़ीभर चंदन लाकर भी दाह संस्कार करे तो भी व्यक्ति का उद्धार नहीं होता और अपना आकर लात ही मार जाए तब भी आदमी तर जाता है’ के दो छोर छूती कहानी है। ...कहानी से कम संस्मरण अधिक ‘एक बार फिर’ संयुक्त परिवार के एक ऐसे विघ्नसंतोषी छोटे दादाजी का कथा है, जिनकी वापसी घर में हर बार तोड़-फोड़ और फ़साद का कारण बनती है किन्तु आश्चर्य वे हरबार माफ़ी पा जाते हैं...।’’ ( जितेंद्र विसारिया- अपने समय कसे मुठभेड़ करती कहानियां)

‘‘ मुहिम’’ बोहरे की एक महत्वा कांक्षी आर श्रमसाध्य कहानी है जिसको उन्होने बाद में उपप्यास के रूप् में विस्तार दिया और मुखबिर उपन्यास के रूप् मे ंयह कहानी चम्बल घाटी का एक प्रामाणिक आख्यान बन कर पाठको व आलोकको के समच आयी। लम्बे समय से पुलिस की पकड़ से दूर रहते एक ऐसे डाकू की कहानी एक अलक रिूशल्प मे कहते हुए बोहरे ने चम्बली घाटी के समाज में तेजी से फैल रहे सामाजिक बदलाव की कहानी कही है जहां कि राजनीति की तहरह अब हाािसये पर बैठे लोग ही अपना रोब ओर नाम स्थापित कर रहे है भले हरी वह डकेती का क्षेत्र कयों न हो। डकेत की पकड़ मे ंरहे गिरराज ओर लल्ला पंडित जब फिरोती के ाद दूट कर आत ेहैं तो पुलिस उन्हे अपने साथ इस आशय स ेले लती है िकवे लोग उन स्थानों क ेपते बतायें जहां डाकू कुपाराम को शरण मिलती है ओर वह पुलिस की पकडत्र से ूदर छिपा रहता है। इस सुरागरसी और तलाश में पाक्को ंको डाकुओंकी जिंदगी के अनजाने सच, भयावह जिंदगी की दिनचर्चा, चम्बल के लोगों का अभिशापित जीवन ओर पुलिस वालो ेी अपनी मुसीबतों की जाकारी मिलतरी है।‘‘‘मुहिम’ कहानी में भी लेखक ने चंबल की दस्यु समस्या को जातिवादी नज़रिये से देखते उसे सवर्ण-पिछड़े और दलितों के संघर्ष के रूप में रेखांकित किया है, जिसमें पिछड़े वर्ग के दस्यु डकैती और अपहरण जाति देखकर करते हैं-‘‘लोग अपनी जाति-बिरादरी और गाँव का नाम बताने लगे। गिरराज ने गौर किया कि सवारी जब अपनी जाति-बिरादरी और गाँव का नाम बताती तो घोसी, गड़रिया, कोरी, कड़ेरा, नरवरिया और रैकवार सुनकर कृपाराम चुप रहा जाता था। लेकिन बांमन-ठाकुर या कोई दूसरी जाति का आदमी पाता तो वह एक ही वाक्य बोलता था, ‘‘तू उतै बैठि मादर...।’’(पृ.114) ( जितेंद्र विसारिया- अपने समय कसे मुठभेड़ करती कहानियां)

सारिका , साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशन का सिलसिला आरंभ कर कथादेश, हंस सहित हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रही है। शोरगुल और समारोही हाजिरीयों से दूर रह कर चुपचाप लेखन करने वाले राजनारायण बोहरे के शांत लेखन में रची गयी कथाओं में एक तरफ हिन्दी कहानी की समकालीन प्रवृत्ति दृश्टिगोचर होती है और समाज के सामने व्याप्त संकट, नये चलन, मुख्य दुनिया के समानांतर चल रही जिंदगियां, परम्परागत जीवन उभर के आता है। दूसरी तरफ वे अपने अंचल की सांस्कृतिक समृद्धि को पूरे गौरव के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनके साथ उनके अंचल की भाषा, बोली , मुहाविरे, रीतिन्रिवाज और मान्यतायें हिन्दी साहित्य को समृद्ध ही करती है।

डॉ. पद्मा शर्मा

ऐसोसिऐट प्रोफेसर, म0प्र0उच्च शिक्षा विभाग

श्रीमंत माधवराव सिंधिया शास0महाविद्यालय शिवपुरी

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