लघु-कथा--
समाधीशाला
राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
आजादी, स्वतंत्रता फ्रीडम किसे पसन्द नहीं! इन सबका उपयोग, निर्धारित मर्यादाओं में ही रहकर स्वीकार किया जाता है। दायरे में रहकर ही यह सुख-शॉंति देती हैं। इसके विरूद्ध अपने क्षेत्र से बाहर जाकर अनेकों प्रकार के तनावों को जन्म देती हैं। रिश्तों में दरारें पैदा कर देती हैं। जहॉं तक हालात मजबूर न करें तब तक किसी भी तरह की बन्दिश, जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व कौन अपने सर पर ओढ़ेगा! कॉंटों भरा ताज जब्कि प्रत्येक रोजमर्रा की आवश्यकता बिना कुछ बाधा के अति-सुलभ हैं, तो कुछ भी प्रयास करने की क्या जरूरत है। जब सुदृढ़ छत्रछाया उपलब्ध है। तो फिर किसी भी तरह का दीर्घकालिक विचार दिमाग में लाकर मानसिक व भौतिक स्थ्िाति को बाधित करने में कौन सी समझदारी है। पड़े रहो.....अजगर करे ना चाकरी...की तर्ज पर......
और अगर कोई हमारी सर्वसुख-सुविधा के आलम को भंग करने की कौशिश करे तो बहुत ही चतुराई से उसे माथा ठोंकने या सर पीटने पर मजबूर कर दो। बेफिक्र होकर काम ना सही काम का अभिनय ही करके अपना काम चला लो। और समय आगे बढ़ा तो, दीर्घकाल में जब लाभ-हानि पर विचार होगा या नुकसान-फायदे का आभास होगा, तो ऑंखें दिखाकर, कोई भी अप्रमाणिक असम्बंधि अड़चन का उद्धरण देकर प्रताडि़त कर दो एवं गलती की घण्टी उसकी गर्दन में बॉंध दो—बजाता रह जहॉं-तहॉं कौन मानेगा। और उलटा तुम्हारे चेहरे पर ही दोष की कालिख पौत देगा। हकीक़त मालूम किसे है? तो बस.....!
......कुड़मुड़ाते रहो अपने आप में। हम तो अपने ढर्रे से हिलने वाले नहीं हैं। कोई ना कोई तो हमें अपनी गुडबुक में रखेगा ही। तुम बजाते रहो झुनझुना। कौन है, सुनने वाला।
दीर्घकाल से सम्बन्धों के बन्धन कठोरता पूर्वक स्वत: ही बगैर किसी हीला-हवाले के निवाहते रहने की परम्परा है। जिसका जो कर्त्तव्य है, वह उसे हर हाल में निर्वहन करता आया है। प्रत्येक रिश्ते की कुछ सर्वमान्य प्रचलित निर्धारित मर्यादाऍं हैं, कुछ कर्त्तव्य हैं। जिन्हें समय-समय पर पूरा करके मनुष्य अपने आपको धन्य मानता चला आ रहा है। वह व्यवस्था समाज में आदर की परिचायक हैं। इन्सानियत की धरोहर हैं। शॉंति व सुकून की द्धयोतक हैं। ऐसा व्यक्ति समाज में प्रसन्नता का पात्र होता है। इसे सज्जनता और सम्मान का हकदार माना जाता है। उससे अनेक लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं, कुछ के लिये वह उदाहरण बनता है।
आधुनिकता की भौतिकवादी परस्पर प्रतिस्पर्धा भागम-भाग में आज की पीढ़ी मशीनी स्तर पर स्वजीवी होकर सम्पूर्ण मानवीय अवधारणाओं को नज़र अन्दाज करती चली जा रही हैं। भावनाओं को कुचलकर खुश होने का अभिनय करने की कौशिश कर रही हैं। अपने अधिकारों को अनेकों-अनेकों साजिषों के जाल बिछा कर हड़प रहा है। और कर्त्तव्यों को निवाहने का समय आने पर ऑंखें दिखाकर मुँह मोड़ ले रहा है। सपनों को चकना-चूर होते हुये देखकर हर्षित हो रहा है। यह सोचकर कि बाल-बाल बच गया बेकार के झन्झावतों से। ना तो किसी तरह का दबाव और ना ही कोई नैतिकता भी नहीं रोक पा रही है, उस पत्थर पर।
......कलयुग है कलयुग.....! गये राम, और श्रवण कुमार समाधीशाला में.......।
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संक्षिप्त परिचय
नाम:- राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
जन्म:- 04 नवम्बर 1957
शिक्षा:- स्नातक ।
साहित्य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-पत्रिकाओं में
कहानी व कविता यदा-कदा स्थान पाती रही हैं। एवं चर्चित भी हुयी हैं। भिलाई
प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो चुका है। एवं एक कहानी
संग्रह प्रकाशनाधीन है।
सम्मान:- विगत एक दशक से हिन्दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्तरीय कार्यक्रम हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्य-प्रदेश की महामहीम, राज्यपाल द्वारा भोपाल में सम्मानित किया है।
भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर उ.प्र. में संस्थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्ट्रबन्धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्मानित करके प्रोत्साहित किया। तथा स्थानीय अखिल भारतीय साहित्यविद् समीतियों द्वारा सम्मानित किया गया।
सम्प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001, व्हाट्सएप्प नम्बर:- 9893164140 एवं मो. नं.— 8839407071.
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