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एक घूँट भंग

कहानी

एक घूँट भंग

-राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

जब कोई अपनी चाहत की वस्‍तु पा जाता है, तब वह उसके उपयोग में तन-मन से जुट जाता है।

हेमन्‍त की निजी डायरी पाकर जैसे रेखा की दिली मुराद पूरी हो गई। यह अत्‍यन्‍त प्रफुल्‍लता व जिज्ञासा पूर्वक उसे पढ़ने में तल्‍लीन हो गई......।

........मैं वह दिन नहीं भूल सकता, जिस दिन मैंने गोरे-गोरे, सलोने हाथों की प्‍यारी-प्‍यारी, पतली-पतली नाजुक-नाजुक ऊॅंगलियों से प्‍याला लेकर नशीला घूँट कंठ से उतारा था।

आँखें उस दिन का अनुपम द़ृश्‍य नहीं भूल सकती, जिस दिन उन्‍होंने, पानी की बूँदों के मोतियों से सुसज्जित तौलिये से झॉंकता हुआ सुन्‍दर सोने समान शरीर आँखों ने निहारा था।

होली की खुमारी और मस्‍ती, अपने मदहोश रंगों की छटा लिये सम्‍पूर्ण वातावरण में मादकता घोल चुकी थी। मन में खुशियों की रंगीन तरंगें दौड् रही है। जब मेरी नज़रें तुम्‍हारे लावण्‍यमयी बदन को चूमती हैं, तो मानो शरीर में कलियॉं खिल उठती हैं। केवल नज़रें ही सरस घबराहट में बातें करती हैं। लगता है, दोनों की जुबान पर अनेक शोखियॉं मचल रही हैं। मगर उनमें इतनी शक्ति कहॉं कि वे होंठों की कोमल दीवार फोड़ सकें। ज्‍यों-ज्‍यों वे रंगों की फुहार और गुलाबी गुलाल की आँधी वाला दिन समीप आता जायेगा, त्‍यों–त्‍यों यादें सुनहरी होती जायेंगीं।

......मेरे ललायित लवलीन लोचन निहार रहे हैं-तुम पश्चिम के धुंधले सिंदूरी क्ष्‍िातिज एवं ठण्‍डी पवन के झोंकों में तारों को निहारते हुये पलंग पर अपने-आपको गिराये हुये हो। उन्‍नत उरोजों का धीमा सा ज्‍वार- भाटा, जो मानो दो कमल पुष्‍प हों व पानी की शान्‍त लहरों के साथ झूला झूल रहे हों।

.......जब मेरी भटकती नज़रें तुम्‍हें पा जाती हैं, तब लगता है-सिर्फ तुम हो और मेरी आँखें हैं। संसार अंधेरा सागर है। चॉंद की चॉंदनी, सूर्य की किरणें व सम्‍पूर्ण सृष्टि का सौन्‍दर्य मानो

तुम्‍हारे सलोने शरीर में है। दुनियॉं दु:ख की दुकान है। तुम सुख की सरिता हो। संसार भूल-भुलैया है, तुम पार लगवैया हो। तुम्‍हारी नशीली नज़रें, मेरी प्‍यासी निगाहों से मिलाप करती हैं, तब मानो सम्‍पूर्ण शरीर में, अंग-अंग में, अद्भुत आनन्‍द का संचार हो जाता है। उस क्षण हम ना जाने किस एहसास में समा जाते हैं।

कितना अच्‍छा होता- काश! तुम मेरी बाहों में होते। मेरे तरसते प्‍यासे होंठ तुम्‍हें स्‍पर्श कर सकते। नेत्र ज्‍योतियों में प्रेमालिंगन होता। मस्‍ती में पड़े जिन्‍दगी का महान रसास्‍वादन कर रहे होते। उस वक्‍त न मुझे कुछ याद रहता न तुम होश में रहते। रात है या दिन कौन जाने। समय की तीव्र गति होती, हम चींटी की चाल-चल रहे होते......।

.....डायरी को आगोश में दवाये रेखा कल्‍पना कमल में बैठकर आसमान में उड़ने लगी। सहसा वह चौंक पड़ी ‘’ रेखा!’’ आवाज आई, ‘’तुम्‍हारे पास मेरी डायरी......’’ साश्‍चर्य।

‘’जी !’’ वह सकपकाई। अपने आपको सम्‍हालते हुई बोली- ‘’क्षमा करना हेमन्‍त बाबू; बहुत दिनों से पढ़ने की जिज्ञासा थी।‘’ रेखा ने विषय बदलकर मंद मुस्‍कान धारण कर, पूछा ‘’कौन है यह खुशनसीब, जिसकी याद में....ख्‍़यालों में, इतने कागज काले कर दिये।‘’

वह इस तरह घूर रहा था, जैसे उसकी खोज पूरी हो गई, तभी बोला- ‘’ताज्‍जुब है, तुमने डायरी पढ़ी और यह अनुमान नहीं लगा पाईं कि वह अज्ञात, अ्दृश्‍य स्‍वप्‍न सुन्‍दरी, शहजादी कौन है! अथवा वह हसीना कौन हो सकती है।‘’

‘’माफ कीजिये हुजूर!’’ वह इठलाते हुये, उस पर नजरें तरेर कर देखते हुये बताती है, ‘’मैं अच्‍छी तरह से जानती हूँ और यह भी मालूम है कि अगलेग माह उसाका चट मंगनी-पट विवाह भी होने वाला है।‘’

‘’क्‍या?’’ हेमन्‍त आगे न बोल सका। रेखा डायरी रखकर चलती बनी।

......जब मैंने सुना कि तुम्‍हारी शादी निकट भविष्‍य में होने वाली है, तब मेरे दिल को धक्‍का सा लगा। मैं सन्‍न रह गया। पुतलावत बैठा गम्‍भीर सोच में पड़ गया-कैसे अपने ऊपर नियन्‍त्रण कर पाऊँगा उसा हंसी को, जो अनेक मुस्‍कुराते कमलों के समान हैं, जो पसीने में तरबतर शरीर में ठण्‍डक के साथ आनन्‍द का एहसास कराती हैं। कैसे भुला पाऊँगा उन कुटिल

नज़रों को, जो मेरे कोमल दिल में चुभी हुई, हर पल मीठे दर्द से पागल किये रहती हैं। कैसे भुला पाऊँगा उन लाली से लाल अमृत भरे होंठों को जिनके छुअन मात्र से मानों सम्‍पूर्ण दु:ख टल जाते हैं। कैसे भुलाऊँगा गदराये गालों की चमक और कैसे.......

.......नहीं नहीं मैं नहीं भुला पाऊँगा, उस सुन्‍दर संगमरमर की गुडि़या को। जिसे मेरी आँखों ने हृदय में उतार रखा है, जो मुझे कण-कण में दिखाई देती हैं। मेरी नज़रें उसके सिवा अन्‍य कुछ भी नहीं देखतीं। प्रत्‍येक पल मेरे पास, बिलकुल पास रहती हैं। यदि वह मेरी आँखों से ओझल हो गई, तो मेरी आत्‍मा उसके पीछे-पीछे छाया बनकर भटकती रहेगी। मैं निर्जीव पड़ा आँखें मीचे हृदय में उसकी पूजा करता रहूँगा। एक क्षण भी, व्‍यर्थ नहीं जाने दूँगा। आयु के अन्तिम पल तक उसी को रटता रहूँगा। जैसे प्‍यासा पानी की गुहार लगाता है।

अगले दिन हेमन्‍त की अनुपस्थिति में रेखा ने उसकी डायरी पढ़ी और उसे मेहसूस हुआ कि वह अपनी सुद-बुद खो रहा है। तो उसी डायरी में रेखा ने अपने सान्‍तवनायुक्‍त भाव लिपिवद्ध कर दिये। रहस्‍य से पर्दा हटा दिया।

......कितनी खुश किस्‍मत होगी वह, जिसके लिये यह डायरी लिखी गई। कितना प्‍यार है तुम्‍हें उससे। तुम्‍हें जब-जब उसकी याद आई या उससे बातें करने की हूंक उठी, इच्‍छा इुई, तब-तब तुमने लेखनी का सहारा लिया और अपने मन के भावुक उद्गार दिल का धुऑं डायरी के पृष्‍ठों पर उड़ेल दिया। कितना अच्‍छा किया तुमने। यदि ऐसा ना करते, तो लुका-छुपी करके गली-कूँचियों में मिलते, समाज की निगाहों में खटकते, तब बदनाम तो होते ही, साथ में समाज तुम्‍हारे प्‍यार में दीवार बन जाता और तुम्‍हें प्‍यार की परीक्षा देनी पड़ती तथा ना जाने कौन-कौन से दुर्दिन देखने पड़ते। परिणाम कौन जाने क्‍या होता....?

मैं उस सजीव प्रतिमा को उतना ही जानती हूँ, जितना अपने-आप को। उसे भी तुमसे कितना प्‍यार है, यह तुम स्‍वयं ही परखना; लिखना मेरे लिये, कठिन है।

उससे तुम्‍हारा पहला मिलन या यूँ समझो कि तुम्‍हारे हृदय में उसने तुम्‍हें प्‍याले में रखी भांग दी थी। तुमने बहुत ना-नुकुर करते हुये केवल एक घूँट ही भांग पी थी। कदाचित वही एक घूँट भांग का नशा अभी तक नहीं उतरा है। शायद तुम्‍हें मालूम नहीं था कि यह पहला निर्मल दृश्‍य हमारे अभिभावकों को प्रेरित कर गया और वह पवित्र प्रेमालय उनको प्रभावित भी कर गया। दोनों की शादी का निर्णय भी उसी दिन हो चुका था। परस्‍पर बातों-बातों में।

सगाई व शादी अगले माह होने जा रही है।

अन्‍त में तुम्‍हें स्‍पष्‍ट बता दूँ कि मैं ही हूँ वह रेखा, जो तुम्‍हारे हृदय पर लक्ष्‍मण-रेखा बन, अंकित हो गई।

......रेखा चली गर्इ।

......जब हेमन्‍त ने डायरी पर गौर किया, तो सारा शरीर झंकृत हो उठा। उमंगों का सैलाब सम्‍हाले नहीं सम्‍हल रहा था। इतनी आतुरता, उत्‍तेजना कि अंग-अंग फड़क उठा था। खुशी इतनी कि दिल में समा नहीं पा रही थी। सारी इन्द्रियॉं निर्विकार हो गई, कहीं कोई क्रिया-प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करना सम्‍भव नहीं हो पा रहा है......

पलकें बन्‍द करके अन्‍तरिक्ष में भ्रमण करते हुये मेहसूस हो रहा है। अब जान पड़ा एक घूँट भांग का स्‍थाई नशा.......।

इति

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