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आगोश

लघुकथा--

आगोश

--राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

कमरे का दरवाजा खोलते ही मधु अन्‍दर चली गई, तत्‍काल बाद ही मैं उसके पीछे-पीछे आ गया। वह पंखा, कूलर, ट्यूबलाईट आदि ऑन करने लगी। मैं उसके शरीर सौष्‍ठव को पीछे से घूरता रहा, वह जिधर-जिधर चहल-कदमी करती मेरी निगाहें उधर-उधर ही अनायास घूमती रही। पीछे भी एकाग्र होकर देखने पर कितनी मादकता पूर्ण मनोस्थिति मेहसूस होती है। एक मस्‍ती सी मिजाज में घुलने लगती है। जो उत्तरोत्तर उन्‍नत होती जाती है। चरम बिन्‍दु की ओर.....।

सन्‍नाटे में, खासकर रात्रिकालीन स्निग्‍धता में सुरूर घुलने लगता है। ऑंखों में ही नहीं, सारे शरीर में शररारते अंगड़ाई लेने लगती है। उमंगें व एहसास के सैलाव को नियंत्रित करना, मदमस्‍त मादकता में असम्‍भव है।

मैं अधलेटा सा मधु के सामान्‍य क्रियाकलाप पर गौर करता हूँ.....

......वह अपने एक-एक अंगवस्‍त्र सम्‍मोहक अंगड़ाई लेती हुई उतार रही है। बीच-बीच में जेबर भी बड़ी सावधानी एवं नजाक़त से अपने शरीर से अलग कर ड्रेसिंग टेबल पर रखती जा रही है। साथ ही अपनी काया को भी दर्पण में निहार लेती है। तथा कनखियों से मुझे भी घूर लेती है। मैं बहुत ही उताबला हुआ जा रहा हूँ। शरीर में चिनगारियॉं सुलगने लगी हैं। सांसों में कम्‍पन्‍नयुक्‍त गति आना शुरू हो गई है।

वह रात्रिकालीन पहनावे में और आकर्षक दिखने लगी है। हर पल वातावरण में मादकता घोल रही है। मगर उसकी अनावश्‍यक चहलकदमी समाप्‍त होने के संकेत नहीं मिल रहे हैं। कहीं कपड़े-लत्ते व्‍यवस्थित करती है, कभी पर्दे लगाना शुरू कर देती है। फिर खिड़की-दरवाजे की सिटकनी चट-चुट करने लगती है। एवं अंत में ट्यूब लाईट बन्‍द करती है। टी.व्‍ही. तो पहले ही बन्‍द था।

उत्तेजना चरम पर थी मेरा ख्‍याल था कि वह स्‍पर्श करते ही; पके आम की तरह टपक पड़ेगी आगोश में मगर .....’’हटो...रूको कर्कश शब्‍दों ने मेरी तरंगित शौखियों को खण्डित कर दिया। फिर भी काम भावनाओं का तूफान इतना भीषण था कि मैं शक्तिशाली अश्‍व की तरह चढ़ कर उसे दबोच लिया। वह छटपटा उठी शब्‍दों के अंगारे उगलने लगी,--‘’हट! वहशी जानवर!’’

निर्जीव सी महिला के शरीर से जोर जबरजस्‍ती करते हुये काफी लिजलिजा व घिनोना मेहसूस कर रहा हूँ। बदबू इतनी कि उवाई आ...आ...कर रूक रही है। उफ! इतना ठण्‍डा शरीर...।

मैं अर्धचेतना में धड़ाम से जमीन पर गिरा। कुछ चेतना लौटी तो लगा कि किसी पर्वत चोटी से ढुलकता हुआ अथाह नीचे लुढ़कता जा रहा हूँ।

एक कंटीली झाड़ी में अटक गया। मैंने मेहसूस किया कि मेरे शरीर पर लपटा हुआ अदृश्‍य मकड़जाल अनेकों जगह से कट-फट गया है। और मैंने अपने आपको मुक्‍त मेहसूस कर रहा हूँ। सारे बन्‍धन व मर्यादाओं के मोहपाश की जकड़न से आजाद परिन्‍दे की तरह आसमान में उड़ान भरता हुआ प्रतीत हुआ।

एक मदहोश सुगन्‍घ ने अपने दायरों में समेट लिया है। शरीर में शीतलता घुलने लगी है। वातावरण बहुत बहका-बहका लग रहा है। आँखों में एक आकृति छा रही है, जो होले-होले अस्तित्‍व में एकाकार होने के लिये उदित हुई है। उसके कोमल मर्मिय स्‍पर्श से कुछ चेतना जागृत हुई; तो ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्‍नत हुये मादक दरिचे में सराबोर हूँ। वातावरण में मस्‍त मादकता घुलने लगी है। दो परछाईयॉं लिपटकर एक दूसरे में विलीन होने को आतुर हो उठीं। कुछ ही क्षणों में दिव्‍य अद्भुत आनन्‍द एवं समय संतुष्‍टी, शांति मेहसूस होने लगी.....अन्‍तत: एक गहरी नींद के प्राकृतिक आगोश में समा गया...।

♥♥इति♥♥

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