कहानी--
चंचल की चाहतें
राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
‘’है...हेल्लो प्रज्ञा; मैं चंचल!’’
‘’हॉं चंचल बोलो।‘’ कुछ प्रतीक्षा के बाद, ‘’बोलो क्याहुआ!’’
‘’नहीं कुछ नहीं....।‘’ चंचल ने अपनी मनोदशा बताई, ‘’यूं ही कुछ मन भारी लग रहा था।‘’
‘’सच बताओ।‘’ प्रज्ञा ने कुछ रोष जताया।
‘’कुछ उधेड़–बुन में; उलझ गई थी।‘’
‘’कैसी उलझन ?’’
‘’तुम तो जानती हो प्रज्ञा.....।‘’ चंचल अपनी व्यापक व्याकुलता दोहराने लगी, ‘’अनेकों प्रयासों के बाबजूद भी समस्या ज्यों के त्यों मुँह वायें खड़ी है।‘’
‘’..........’’ प्रज्ञा चुप ही रही।
‘’कुछ निदान....’’ चंचल ही बोलती गई, ‘’मिलेगा कि नहीं....!’’
‘’इतनी अधीर क्यों होती हो; चंचल ?’’
प्रज्ञा ने पुन: समझाया, ‘’पढ़ी लिखी हो, सर्वसम्पन्न घराने की बहु हो। आदर्श पति प्राप्त हुआ है। सज्जन, शरीफ, उ़द्ययोगपति; किसी तरह की कोई कठिनाई नहीं! नौकर- चाकर सब काम करते हैं। घर गृहस्थी के। तुम तो बस इतने बड़े महल में खाली दिमाग से सिर्फ यही सोच-सोचकर उदास होती हो कि कब गोदभरी होगी!’’
‘’तुम मुझे फटकार लगा रही हो या सहानुभूति दर्शा रही हो।‘’
‘’धैर्य रखो चंचल।‘’ कुछ नर्म रूख करके प्रज्ञा बोली, ‘’तुम्हारे मिस्टर हर प्रकार की तकनीकी पद्धति पर विचार कर रहे हैं; मगर तुम.....!’’
‘’दिल-दिमाग से ये चट्टान हटती ही नहीं।‘’ चंचल उदास सी होकर, ‘’क्या करूँ....खैर, रखती हूँ मोबाइल!’’
हल्के-फुल्के ढंग से, ‘’वाय।‘’ कहकर मोवाईल काट दिया।
कोमल भावनाओं के ऊबाल को शॉंत करने की गरज से चंचल बालकनी पर आ गई। वहॉं टंगे झूले पर अधलेटी मुद्रा में आसमान ताकने लगी। ‘कितना विशाल है आकाश! जिसकी छत्रछाया में बादल कैसी किलकोरी करते हुये धमा-चौकड़ी कर रहे हैं; जो सम्पूर्ण धरती को शीतल करते हैं। क्या मेरी तपती आशाओं को ठण्डक पहुँचाकर खुशनुमा राहत नहीं दे सकते!
थके हुये दिमाग के कारण ऑंखों में खुमारी सी छाने लगी थी। उसी समय चिडि़या के घौंसले पर नजरें टिक गईं। गौर किया तो बहुत ही महीन चैंचहाट सी ध्वनि सुनाई दी। तभी एक चिडि़या, तेजी से उड़ती हुई उस घौंसले पर बैठ गई। चंचल ऊर्जावान होकर गम्भीरता से घौंसले को खोजी दृष्टि से निहारने लगी। उसने देखा वह चिडि़या अपने दो बहुत ही कोमल नन्हें-नन्हें बच्चों को दानें दे रही थी। अपनी चौंच से उनकी बहुत ही छोटी-छोटी चौंचों को। वे बच्चे बड़े चाव, उत्साह एवं शीघ्रता से दाने झपट रहे थे। कभी-कभी नहीं झपट पाते तो, अपने साथी बच्चे का ही दाना छीनने लगते। जैसे खेल-खेल में खा रहे हों। कितना प्यारा व न्यारा नज़ारा था।
उनकी यह स्वभाविक अटखेलियों को देखकर ममत्व जाग उठा। उसे एक अव्यक्त सी टीस उभर आई। चंचल को मातृत्व की अनुभूति होने लगी। मूर्छित सी झूले पर बैठी और ना जाने कब, अर्धलेटी सी नींद के आगोश में समा गई।
प्रज्ञा की झुंझलाहट का आवेग जब कम हुआ, तो वह सोचने लगी, उसे आत्म -ग्लानि व पश्चाताप सा मेहसूस होने लगा। बेकार ही मैंने उसे प्रताडि़त कर दिया। डॉंट दिया। फटकार दिया। चंचल तो वैसे ही अपने-आप में गमगीन है। उदास है। अंधेरी कोठरी में सर पटक रही है। कहीं से कोई भी आशा की किरण, उसकी जिन्दगी में दिखाई नहीं दे रही है। दूर-दूर तक।
प्रज्ञा अपराध बोध से विचलित हो रही है। उसे तुरन्त उसके पास जाकर चंचल को अपने आप में ही ढांढ़स बन्धाना चाहिए। मानसिक सहारा होगा। उसे वर्तमान दिमागी झन्झावतों से बाहर निकालना होगा।
चंचल अपने आप में ही बहुत दिलेर, जिन्दादिल और आत्मनिर्भर है। उसका दृष्टिकोण स्पष्ट और व्यापक है। मन बिलकुल निर्मल।
चंचल की चहक, कॉलेज के कौने-कौने में मेहसूस की जा सकती थी। वह सबकी चहेती थी। उसके प्रति सभी प्रेम, प्यार स्नेह रखते थे। चंचल पूरे कॉलेज की एक मात्र सदस्य थी। जिसे सारे के सारे पसन्द करते थे। अपने नाम के अनुरूप वह लोगों के दिलों पर राज करती थी। सबका सम्मान प्राप्त होता था उसे।
चंचल की स्वछन्दता के कारण ही उसका सबसे सुन्दर, सम्पन्न, सज्जन, सौम्य सहपाठी से प्यार हो गया। वह भी वगैर किसी बाधा के धूम-धाम से शादी हो गई। शेष लड़कियॉं, आहें भरती रह गईं। कितनी भाग्यशाली निकली, चंचल। अब जीवन के यथार्थ से दिग्भ्रमित जैसी हो गई है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में चुटकी बजाकर हल निकाल लेती थी। इतनी प्रतिभाशाली! चंचल आज अपना मार्ग ढूँढ़ नहीं पा रही है। उफ!! बेचारी!!
प्रज्ञा ने चंचल के बँगले की वेल बजाई।
‘’प्रज्ञा मेमसाब!’’ संतरी ने तुरन्त गेट खोला।
प्रज्ञा ने ज्योंही हाल में कदम रखा। त्योंही चंचल चहक उठी, ‘’ओह..प्रज्ञा!’’ उससे लिपटकर चंचल पूर्ण प्रफुल्लता से, ‘’अरे मैं तुम्हें ही याद कर रही थी।‘’
‘’तो मोवाईल नहीं करना था?’’
‘’कुछ संकोच हो रहा था।‘’
‘’कैसा संकोच....!’’ प्रज्ञा को ताज्जुब हुआ।
दोनों के स्वागत-सत्कार का ईशारा किया अपने सेवक-सेविकाओं को।
बल्कि स्वयं ही चली गई, व्यवस्था देखने किचिन की और।
प्रज्ञा सोचने लगी, भला इतनी, जिन्दादिल सहेली को मैं क्या प्रोत्साहित करूँ। चंचल तो खुद ही इतनी सक्षम है। हर दृष्टि से।
चंचल आते ही बोली, ‘’अब मैंने सोच लिया है। यह रोना-धोना बिलकुल बन्द! अनेकों तकनीकी, चिकित्सिय, सामाजिक व कानूनी विकल्पों पर सोच-विचार, चिन्तन मनन, विचार विमर्श जारी रहेगा। फिलहाल मैं किसी प्रोजेक्ट पर व्यस्त रहूँगी, उसी में फुलटाईम संलग्न रहूँगी। यही संकल्प तुम्हें बताने हेतु आतुर थी। ठीक है!’’
‘’तूने तो मेरे मन की बात कह दी।‘’
प्रज्ञा ने बहुत ही उत्साहित होकर अपनी खुशी जाहिर की ‘’इससे तेरी सारी चाहतें पूरी हेंगी!’’
‘’यानि चंचल की चाहतें’’
दोनों खुलकर ठहाके लगाने लगीं।
♥♥♥ इति ♥♥♥```
संक्षिप्त परिचय
नाम:- राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
जन्म:- 04 नवम्बर 1957
शिक्षा:- स्नातक ।
साहित्य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-पत्रिकाओं में
कहानी व कविता यदा-कदा स्थान पाती रही हैं। एवं चर्चित भी हुयी हैं। भिलाई
प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो चुका है। एवं एक कहानी
संग्रह प्रकाशनाधीन है।
सम्मान:- विगत एक दशक से हिन्दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्तरीय कार्यक्रम हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्य-प्रदेश की महामहीम, राज्यपाल द्वारा भोपाल में सम्मानित किया है।
भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर उ.प्र. में संस्थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्ट्रबन्धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्मानित करके प्रोत्साहित किया। तथा स्थानीय अखिल भारतीय साहित्यविद् समीतियों द्वारा सम्मानित किया गया।
सम्प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001, व्हाट्सएप्प नम्बर:- 9893164140 एवं मो. नं.— 8839407071.
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