दह--शत - 43 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 43

एपीसोड ---43

 

    दिल्ली में विभाग के प्रेसीडेंट की पत्नी अखिल भारतीय महिला समिति की अध्यक्ष होती है। श्री अबरोल जब एम.डी. थे तो इस केम्पस में रहकर गये हैं। श्रीमती अबरोल को वह फ़ोन करती है। उनका बंगला सहायक उत्तर देता है, “मैडम  बाथरूम में हैं।”

पंद्रह मिनट बाद फ़ोन करती है तो उत्तर मिलता है, “मैडम बाहर जाने के लिए तैयार हो रही हैं।”

समिधा को याद है लम्बी, गोरी, श्रीमती अबरोल की शख़्सियत परीनुमा थी। वह कल्पना करने लगती है कलात्मक ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी वह कैसी लग रही होगी। उन्होंने गाऊन बदलकर क्या पहना होगा साड़ी या सलवार सूट ? सेंट स्प्रे करक उन्हों ने कटे बालों से घिरे चेहरे पर संतुष्ट नज़र डाली होगी। उसके तीसरे फ़ोन का उत्तर मिलता है, “वह तो तैयार होकर बाहर निकल गई है।”

हफ़्ते भर की फ़ोन से जद्दोजहद के बाद वह उन्हें पकड़ पाती हैं व संक्षिप्त में अपनी समस्या बताती हैं।

“आप क्या ‘हेल्प’ चाहती हैं?”

“मैं वर्मा व विकेश का ट्रांसफ़र चाहती हूँ।”

“आप क्या बात कर रही हैं? मिस्टर अबरोल कड़ी मेहनत करके इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं, ऑफ़िस में चौदह पंद्रह घंटे काम करते हैं। इन दोनों का ट्रांसफ़र करके क्या अपना नाम ख़राब करेंगे?”

“मैडम ! महिला समिति की सदस्य ही नहीं इस विभाग के कर्मचारी की पत्नी बतौर मेरा अधिकार है यदि केम्पस में इनके ऑफ़िस में, इन्हें ड्रग देकर हमारे परिवार को बर्बाद करने की ‘कॉन्सपिरेसी’ की जा रही है तो आपसे सहायता माँगूगी ही।”

“किसी होशियार बच्चे को स्कॉलरशिप चाहिये या किसी विकलांग व्यक्ति को कोई सहायता चाहिये तो हम ‘हेल्प’ करेंगे लेकिन ये तो आपका फ़ेमिली मैटर है।”

“मैम  ! हम लोगों को रिटायरमेंट के कुछ वर्ष रह गये हैं। ये हमारा ‘फ़ेमिली मेटर’ नहीं हैं . मैं जो शब्द ‘मेल ऑफ़िसर्स’ से नहीं कह सकती, वह कह रही हूँ, ‘इट्स ए सीवियर क्रिमिनल सेक्स कॉन्सपिरेसी।’”

“देखिये मैं किसी का ट्रांसफ़र तो नहीं करवा सकती लेकिन आप ‘कम्प्लेन लेटर’ अबरोल साहब को भेज दीजिये।”  

“थैंक यू वेरी मच मैडम ! थैंक यू वेरी मच।”  उसकी आवाज़ भर्रा जाती है।

              वह एक प्रार्थना पत्र प्रेसीडेंट को भेज देती है व एक लम्बा पत्र मैडम के नाम । रजिस्टर्ड ए.डी. की दिल्ली से आई रसीद जानबूझकर अभय की मेज़ पर रख देती है।

        अभय के चेहरे पर धीरे-धीरे डर व दहशत  उभर रही है। अब वह शाम को ढीले ढाले से पड़े ‘संस्कार’ चैनल से दाढ़ी वाले बाबाओं के प्रवचन सुनते रहते हैं। बमुश्किल चौदह-पंद्रह दिन ही गुजरे होंगे कि अगरबत्ती के धुएँ सा ये       धार्मिक वातावरण गायब होते जा रहा है। बड़े धूमधाम से एक सी.डी. के गाने बजते रहते हैं, ‘ये इश्क, इश्क है, इश्क, इश्क।’, ‘सच कहती है दुनिया इश्क पर ज़ोर नहीं’, ‘सलाम-ए-इश्क मेरी जाँ जरा कबूल कर लो...।’ समिधा विचलित नहीं है। अपना इश्क सम्बन्धी फ़िल्मी गानों का ज्ञान बढ़ाने लगती है। ये तो वह समझ गई है ये सी.डी. अभय के पास किसने पहुँचाई है क्यों कि फ़िल्मी गानों का इतना अकूत ज्ञान नविकेश को है, न अभय को ।

अंत में वह गाना तो बजना ही है, ‘संसार से भागे फिरते हो.....ये भोग भी एक तपस्या है।’

इन बातों से समिधा अध्ययन कर रही है कि एक ख़ानदानी बाज़ारू अपराधी औरत किस तरह से एक पुरुष का दिमाग़ काबू कर उसकी पत्नी को प्रताड़ित करवाती है।

इतवार की सुबह नौ बजे  उन दोनों ने सुबह की पहली चाय ली है। वह ट्रे अंदर रखकर रसोई में नाश्ता बनाने लगती है। नाश्ता व चाय लेकर कमरे में वापिस आती है तो अपनी चीख को बमुश्किल रोकती है। अभय अपने में गुमसुम डीवीडी से एक ब्लू सीडी देख रहे हैं। वह चुपचाप स्विच ऑफ़ कर देती हैं उसे लगता है अभय अब गुस्सा होकर गालियाँ देने लगेंगे लेकिन वह चुपचाप अख़बार खोलकर बैठ जाते हैं, अबोध बच्चे से। तो अभय की भावनाओं को भड़काकर उन्हें फिर कहीं मिलने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

प्रेसीडेन्ट के डर से कविता तो अभय़ से मिलने से रही इसलिए वह विकेश पर फ़ोन से फट पड़ती है, “यू पिम्प ऑफ़  प्रौस ! तुमने अगर कोई डर्टी सीडी अभय को दी तो देखना ये अकेली औरत  क्या  कर सकती है ?”

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ये गुंडे अपना दाँव खेलते रहते हैं कि अभय की मानसिक हालत विकृत ही रहे। लालची विकेश को ऐसी औरत कहाँ मिलेगी जो आदमी को नशा देकर मनमानी करवा ले, उसे रोबोट बना दे। उसका बिज़नेस ऐसे तभी फले फूलेगा जब समिधा जैसी ज़िद्दी औरत  इस शहर से हट जाये।

सीडी के दबावों से मुक्त हो, अभय का स्पर्श नॉर्मल होने लगा है। वह इत्मीनान से ट्यूशन से बच्चों को फ़र्स्ट टर्म की तैयारी करवाने में व्यस्त होती चली जा रही है।

सवा महीने बाद वह देहली के चेयरमैन के पी.ए. से फ़ोन पर अपनी शिकायत की पूछताछ करती है। वे बताते हैं, “आपकी कमप्लेन सिक्योरिटी को भेज दी गई है।”

सिक्योरिटी से ख़बर लगती है कि ये वहाँ नहीं विज़िलेंस में भेजी होगी। वह अपनी कमप्लेन का दिल्ली फ़ोन कर पता लगाते-लगाते हैरान है। जिस सम्बन्धित व्यक्ति को फ़ोन करो वह कभी साहब के पास होता है, कभी ऊपर या नीचे के ऑफ़िस में गया होता है, कभी चाय पीने। इस तरह इन दो विभागों में फ़ोन करते करते डेढ़ महीना और निकल जाता है। दिल्ली से दूर एक छोटे से शहर के छोटे से घर में बैठी समिधा परेशान है। कभी-कभी मन थरथराता है, डरता है, वह ये क्या कर बैठी है ? तभी एक व्यक्ति पूछता है, “मैडम ! आपकी कमप्लेन का नम्बर क्या है?”

“क्या इसका नम्बर भी होता है?” उसका सिर पीट लेने का मन करता है इन मैडम ने कभी शिकायत की हो तो ये बात पता है।

“जी हाँ, चेयरमेन के पी.ए. से ये नम्बर पता करिए तब ही पता लगेगा कि आपकी कमप्लेन कहाँ भेजी गई है ?”

प्रेसीडेंट के पी.ए. बताते हैं, “आपकी कमप्लेन का नंबर है नाइन फोर एट थ्री।”

दिल्ली सिक्योरिटी के एडीशनल जनरल के पी.ए. आश्चर्य करते हैं, “आप अब फ़ोन कर रही हैं? आपकी कमप्लेन तो तुरंत ही आपकी ज़ोन मुम्बई भेज दी गई थी।”

“ओ ! थैंक्स!” वह श्रीमती अबरोल के लिए आभार से गदगद  हैं। भारत में यहाँ से वहाँ तक फैले अर्द्धसरकारी विभाग के लाखों कर्मचारियों में से एक कर्मचारी की पत्नी की शिकायत उन्होंने रद्दी की टोकरी में नहीं फेंकी।

भाई साहिल हैड ऑफ़िस मुम्बई में हैं वह संकोच से उसे फ़ोन पर बताती है। वह भी चौंक जाता है, “आप वहाँ तक पहुँच गई? मुझे आश्चर्य हो रहा है उन्होंने ये ‘रिफ़र’ कैसे कर दी ?”

“मेरी समस्या ही विचित्र है।”

साहिल दो तीन दिन बाद फ़ोन करता है, “दीदी ! हैड ऑफ़िस के चीफ़ ने क्राइम ब्राँच के दो तीन आदमी भेजकर पता कर लिया है। वे कह रहे हैं आप ठीक कह रही हैं लेकिन आपको एक पत्र भेज दिया है कि ये आपका ‘पर्सनल मैटर’ है आप पुलिस में शिकायत करें।”

“क्या?” उसे पहली बार पता लगता है पृथ्वी का बामशक्कत पूरा चक्कर लगाने के बाद कैसा लगता होगा कि जहाँ से चले थे, वहीं पहुँच गये।

“ दीदी ! डोन्ट वरी ! मेरी कोशिश से हैड ऑफ़िस से इनक्वायरी का काम आपके केम्पस के अमित कुमार को सौंप दिया है आप उनसे मिलकर एक एप्लिकेशन दे दीजिये वे आपकी सहायता करेंगे।”

उसकी एप्लिकेशन पढ़कर अपने ऑफ़िस में अमित कुमार चिड़चिड़ा उठते हैं, “ये केस मेरे विभाग को क्यों दे रही हैं?”

“जी, मैंने दिल्ली भी शिकायत की थी।”

“आप जो कह रही हैं या लिखकर दे रही हैं उससे कुछ ‘प्रूफ़’ नहीं होता । आप ही कहीं ‘इन्वॉल्व’ हों तो?”

“वॉट?” समिधा किस दीवार पर अपना सिर ठोंक दे? औरत किसी बात के लिए ज़रा मुँह खोलकर तो देखे। यदि वह प्रेसीडेंट से शिकायत करने की हिम्मत कर रही है तो क्या उसके जीवन में ही कोई  ‘लूपहोल’ होगा? यदि एक पुरुष ने अपनी पत्नी पर लांछन लगाया होता तो सब पुरुष कोरस में ऊँचे स्वर में बोलते, “यदि पति कह रहा है तो ये बात सच होगी।”

वे अपने सहायक को उसकी कमप्लेन देकर कहते हैं, “इस हैरसमेंट व टॉर्चर केस को नोट करें।”

“सर ! ये कोई ‘हैरसमेंट’ का केस नहीं है। ये ‘क्रिमनल कॉन्सपिरेसी’ है।” वह कहती है।

“ओ ! अगर इन्क्वायरी हुई तो आपके पति ‘मिसकन्डक्ट ऑफ़ ड्यूटी’ के कारण सस्पेंड भी हो सकते हैं।”

“वह क्यों सस्पेंड होंगे?”

“हो सकते हैं।”

“मैं तो चाहती हूँ इन्क्वायरी हो पता तो लगे किस तरह तीन लोग एक घर को बर्बाद करने पर तुले हैं। ये सब ऑफ़िस व केम्पस के घर में हो रहा है। मेरे पति को बीच-बीच में ड्रग दी जाती है।”

“हो सकता है वह ‘ड्रग एडिक्ट’ हों, स्वयं ही ड्रग ले लेते हो।”

“यदि वह ‘ ड्रग एडिक्ट’ होते तो क्या मुझे पहले पता नहीं चलता?”

“ओ ऽ ऽ....।”

“सर! वर्मा का ड्रग टेस्ट ज़रूर करवाइए। प्रेसीडेन्ट साहब से शिकायत का भी इन पर कुछ असर नहीं हो रहा। नशे में सब शेर बने घूम रहे हैं।”

“आप डरिये नहीं यदि ज़रूरत पड़ी, तो पुलिस को बुला लेंगे।”

“नहीं, सर ! मैं डर नहीं रही। मेरे हसबैंड टूर पर भी जाते हैं। मैं अकेली रहती हूँ।”

“गुड।” फिर वह अपनी पी.ए. को फ़ोन करते हैं, “जरा पता करिए कि केम्पस के वेस्टर्न गेट के पास किसकी ड्यूटी थी ? डिप्टी एम.डी. चतुर्वेदी जिनका ट्रांसफ़र हो गया है उनकी मैडम यहीं रह रही हैं। वह आदमी ग़लत पार्किंग का उन पर इल्ज़ाम लगाकर सौ रुपये माँग रहा था।”

समिधा अपनी मुस्कराहट दबाती वहाँ से उठ लेती है।

नीलम कुलश्रेष्ठ

ई मेल—kneeli@rediffamil.com