लहराता चाँद - 5 Lata Tejeswar renuka द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लहराता चाँद - 5

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

5

अनन्या जब 14 साल की हुई तब संजय की गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो गई। गाड़ी की दुर्घटना से उसकी जिंदगी में जो भी कुछ खुशियाँ बची थी वह भी काँच के टुकड़े की तरह टूट कर बिखर गई। शायद संजय की जीवन में खुशियों के पल कुछ कम ही लिखे थे भगवान ने।

उस दिन संजय सुबह उठते ही रम्या को पास न पाकर इधर-उधर देखा। यूँ तो रम्या रोज़ सुबह उठ जाती थी। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना जो पड़ता था। लेकिन उस दिन रविवार था और संजय ने रात को घड़ी का अलार्म बंद कर दिया था। वह रम्या के लिए कुछ सरप्राइज सोच रखा था। लेकिन उससे पहले ही रम्या का जाग जाना उसे हताश कर दिया। वह पलँग पर उठकर बैठा। रम्या की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। उसने एक-एक कमरे में झाँक आया। रम्या कहीं नहीं दिखी।

बच्चे अपने कमरे में गहरी नींद में सोये हुए थे। आखिरकार रम्या को पूजा करते देखकर कुछ आस्वस्त हुआ। उसे पता था जब रम्या पूजा घर में प्रवेश करती है, अपने भगवान को प्रसन्न करने में कम से कम आधे घंटे का वक्त लगता है। वह अपनी उँगलियों में गिनतीकर खुद से कहा आधे घंटे तक रम्या पूजा के कमरे से बाहर निकलने वाली नहीं है। इत्मीनान से वह रसोईघर में जाकर गैस स्टोव जलाकर पानी गर्म करने को रखा और ब्रश करने वाशरूम में चला गया। लौटकर हरी चाय की पत्ती और शक्कर मिलाकर चाय बनाया और रम्या के फ़ेवरिट प्यालों को ट्रे में सजाया। पहले दिन शाम को बाज़ार से ला कर छिपाकर रखे लाल गुलाब को एक ओर सजाकर दूसरी ओर प्लेट में बिस्कुट रखा। पूजा के कमरे से रम्या की उठने की आवाज़ होते ही वह तुरंत उस चाय के ट्रे को मखमली कपड़े से ढँक दिया और अपने कमरे की टेबल पर रखकर लाइट बंदकर चुपचाप सो गया।

रम्या अपने कमरे में लौट आई। संजय की नींद न खुलजाए, सोचते धीरे-से अलमारी खोलकर गहनें निकाला और पलँग पर बैठे पहनने लगी। तब उसकी नज़र टेबल पर रखी उस ट्रे पर पड़ी। वह सोच में पड़ गई कि चाय की ट्रे बेडरूम में कहाँ से आई? सोचते हुए उसने मखमली कपड़े को हटाने ही वाली थी कि पीछे से संजय ने आँखे बंदकर दिया।

"वही तो मैं सोचूँ ये सब यहाँ कैसे... पर अब समझ में आया कि ये सब आपकी करतूत है?"

"क्यों भाई मैने क्या गलत कर दिया? अच्छा सोचने पर भी ..." मुँह पिचकाकर संजय ने पूछा।

"नहीं, नहीं मैने कब कहा गलत है? आप तो ऐसे सोये हुए थे जैसे कि आप को कुछ नहीं पता फिर इतनी जल्दी जाग कैसे गए? बोलो-बोलो?" आँखे मटकाकर पूछने लगी रम्या।

संजय ऐसे देखने लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई। फिर कहा "सोचा रोज़ सुबह तुम मेरे लिए चाय बनाती हो तो आज तुम्हारे जागने से पहले मैं चाय बनाकर ले आऊँ। पर मेरे उठने से पहले ही तुम .... ठीक है अब आँखे बंद करो।"

रम्या मुस्कुराकर आँखे बंद की। संजय ट्रे से गुलाब के फूल को निकालकर घुटनों बल बैठकर कहा, "अब आँखें खोल सकती हो।"

"खोलूँ? आर यू स्योर?"

"यस आई एम स्योर।"

जब रम्या धीरे-धीरे आँखे खोली संजय उसके सामने घुटनों बल बैठा हुआ था। वह धीरे से पीछे से गुलाब को बाहर निकालकर रम्या को 'आई लव यू' कहते हुए एक गुलाब को आगे बढ़ाया। और कहा, "ये मुझे प्यार करने के लिए।"

- अच्छा, ठीक है। तुरन्त ही दूसरा गुलाब बढ़ाया।

रम्या उसकी और मुस्कुराते देखकर पूछा, "अब ये किस लिए?"

- "ये आपका मेरे साथ शादी करने के फैसले के लिए।

- अच्छा ऐसी बात है? और...?

- ये आपके मेरे साथ शादी करने के लिए...

- रम्या मुस्कुराती रही और संजय एक-एक कर गुलाब देता रहा। खाना बनाने के लिए, फिर घर का ख्याल रखने के लिए, और हीरे जैसी बच्चियों को देने के लिए और ..!

- बस बाबा बस, बहुत हुआ अब मैं कुछ बोलूँ?

"अभी नहीं और भी है। उसके बाद तुम कहोगी मैं सुनूँगा।" कहते हुए संजय ने खड़े हो कर माथे पर चूमा और 'आई लव यू' कहकर गले लगाया। रम्या को संजय पर बहुत प्यार आया। खुशी से उसकी जुबान से कोई शब्द निकल नहीं रहे थे। रम्या ने फूल क़बूलकर संजय के माथे को चूम लिया। संजय उसकी दूसरी ऊँगली में अँगूठी पहनाकर "शादी के 15 साल पूरे होने की खुशी में आप को बहुत बहुत बधाई।" कहकर उसकी हथेली पर चुम्बन किया। संजय का यह अनूठा अंदाज़ रम्या को बहुत पसंद आया।

रम्या ने संजय के हाथ पकड़कर कही, "आप को भी ढेरों बधाई। लेकिन मैं आप को क्या दूँ?"

"आप तो पहले से अपना सब कुछ मेरे नाम कर चुकी हैं फिर ...."

...हाँ, वह तो है फिर भी..." कहते वह अपने हाथ में छुपाए हुए गोल्डन वाच उसकी कलाई में पहनाया। रम्या कुछ और कहती उससे पहले संजय ने उसके हाथ रम्या के होंठों पर रखकर कहा, "नहीं रम्या तुम मेरी जिंदगी हो, मैं आज अगर खुश हूँ वह सब तुम्हारी बदौलत है। मकान तो ईंटों से बनती है लेकिन तुमने इस मकान को घर बनते हैं, मुझे दो परियों का पिता बनाकर संसार की हर खुशी दे दी है। तुम्हारा कितना भी शुक्रिया अदा करूँ तो भी कम है। लेकिन.... लेकिन... अब हम एक दूसरे को शुक्रिया नहीं कहेंगे बल्कि अब चाय पिएँगे। चलो अब बैठ जाओ।" कहकर रम्या को सोफ़े पर बिठाया। ट्रे पर से मखमली आवरण को हटाकर चाय को दो प्यालों में भरा। एक रम्या की ओर आगे बढ़ाकर कहा "लो! चाय पी लो ठंडी हो रही है।"

"ये कब किया?" रम्या आश्चर्य चकित हो पूछा।

संजय ने कहा, "उठते ही देखा तुम पूजा में व्यस्त हो। सोचा कि बस तुम्हारे आने से पहले चाय बना दूँ ताकि दोनों साथ चाय पिएँगे।"

चाय की चुस्की लेते हुए रम्या ने कहा, "अच्छा तो मेरे पीछे इतना कुछ कर लिया तुमने? लेकिन चाय बहुत अच्छा बना लेते हो।" पैर पर पैर रखकर कुर्सी पर पीछे की ओर आराम से बैठते हुए कहा, "तो बोलो कितनी सैलरी चाहिए। और सिर्फ चाय बना लेते हो या खाना बनाना भी आता है?"

संजय सोफ़े से उठकर खड़े हुआ और दोनों हाथ बाँधकर उसके सामने खड़े होकर कहा, "जी मालकिन आप कहो तो खाना भी बना दूँगा मगर बस मेरे हाथ की खाने की आदत बनानी पड़ेगी। चाहे नमक-मिर्च कम हो या ज्यादा।"

"वह सब हम देख लेंगे पहले क्या लोगे बताओ?"

"तीन लाख लूँगा मालकिन, इतना तो बनता है।"

"तीन लाख ? इतना महँगा कुक?"

"और नहीं तो क्या ? एक डॉक्टर को अगर डॉक्टरी छोड़कर खाना बनाना पड़े तो इतना तो देना पड़ेगा ही। लेकिन मालकिन आप जब प्यार से मुस्कुरा दो तो बंदा आप के लिए कुछ भी करने को तैयार है। अपनी जान भी आपके कदम में रख देगा।"

"सच?" बड़ी-बड़ी आँखे मटकाकर ऊँगली दिखाकर पूछी रम्या।

"मुच ।" कहकर संजय ने अपनी उँगली से रम्या की ऊँगली को फाँसकर दूसरे हाथ को राजेश खन्ना की तरह घुमाया। दोनों जोर-जोर से हँसने लगे। तभी दूसरे कमरे से अवन्तिका उठकर आँख मलते हुए रम्या की गोद में आ बैठी। रम्या खाली प्याले को टेबल पर रखकर अवन्तिका को गोद में भर ली।

संजय अवन्तिका के सिर को प्यार से सहलाकर उठ खड़ा हुआ। फिर कहा, "रम्या आज शाम को तैयार रहना कहीँ चलेंगे।"

कहाँ ले जाने का इरादा है?"

"सरप्राईज़ है।"

"ठीक है।" मुस्कुराकर रम्या अवन्तिका को सुलाने पलँग के पास ले गई। वे इस बात से अनजान थे कि जिंदगी उनके साथ क्या खेलने जा रही है।

###

रम्या की मौत से उसकी हँसती-खेलती दुनिया जैसे बिखर गई। तब अनन्या और अवन्तिका की वह उम्र थी जब एक लड़की को उसकी माँ की सब से ज्यादा जरूरत होती है। ऐसी कच्ची उम्र में माँ का साथ खोकर दोनों बच्चियों ने जिंदगी की पहली जंग हार गए थे। लेकिन संजय ने बच्चों की माता और पिता की जिम्मेदारी लेकर पालन-पोषण कर बड़ा किया। संजय ने रम्या की मृत्यु के बाद से सारी जिम्मेदारियाँ अपने काँधों पर उठाई।

बेटियों की पढ़ाई से लेकर बाल बनाने तक के, खाना खिलाने से लेकर उनके सोने तक के सारे इंतजाम संजय खुद देखता था। कई मुश्किलों के बावजूद कभी उसने दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा। वह रम्या को बहुत प्यार करता था। उसकी बेटियाँ उसके लिए सब कुछ हैं। घर की साफ़ सफाई और खाना बनाने के लिए नौकर और महाराज जरूर थे लेकिन बच्चों के हर छोटे-छोटे काम वह खुद अपने हाथों से करता था। इस तरह उसने दोनों बेटियों को बखूबी सँभाला। जब अनन्या 20 साल की हो गई संजय की गैरहाज़िरी में उसकी छोटी बहन अवन्तिका के साथ घर का सारा काम वह सँभालने लगी।

अनन्या छोटे-छोटे कामों में पापा की सहायता करते-करते कुछ समय बाद घर की सभी ज़िम्मेदारियों को सँभालने लगी। यूँ ही कई साल बीत गए। अब अनन्या "बाबुल की आँगन" का सह-संपादक है और अवन्तिका फैशन डिजाइनिंग की दूसरी साल की पढ़ाई कर रही है।

संजय नहीं चाहते थे कि उसकी बेटियाँ औरों लड़कियों की तरह घर में बैठ खाना पकाएँ। बल्कि वो खुद पूरी हिम्मत और साहस से समाज में अपनी जगह और इज़्ज़त बनाएँ। वे खुद अपने भविष्य का निर्णय करने के लिए स्वतंत्र थीं। वह अपनी बच्चियों पर कभी भी किसी बात पर दबाव नहीं डाला ना ही कोई शर्त मानने को मजबूर किया। रम्या की अपने बच्चों के लिए सोच अलग थी। वह चाहती थी की बच्चे खूब पढ़ाई करें लेकिन घर-परिवार को प्राथमिकता दें। जरुरत पड़ने पर काम की जगह घर और परिवार को सँभालें। उसका मानना यह था कि परिवार में रहकर ही लड़की अपना जीवन महफूज़ रख सकती हैं और स्त्री के गुणों से सार्थक और एक परिपूर्ण स्त्री बनकर उभरती है। रम्या के होते हुए उसकी बातों में गूढ़ता को समझ नहीं पाया था लेकिन उसके जाने के बाद जब अनन्या को पूरा घर सँभालते देखता तो रम्या की बातों का मर्म समझ पाया संजय।

अनन्या ने कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म होते ही वह दुर्योधन वर्मा के साथ काम करने का निर्णय लिया। अनन्या हरदम सामाजिक कामों में तत्पर रहती थी। गरीबों के प्रति उसकी सहानुभूति और सामाजिक कार्यों में समर्पण, लोगों के दुःख कष्ट में भागीदारी से उसके परिपक्व चरित्र का चित्र देखने को मिलता था। पत्रकारिता से उसका बहुत लगाव था। वह गली-गली जाकर किसानों के दर्द को, आवश्यकताओं के बारे में जानकर उनकी सहायता करती थी। उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी की मुश्किलों को पत्रिका में प्रकाशित कर जन-जन तक पहुँचाती थी। वृद्धाश्रम में जाकर वृद्धों की जरूरतों के अनुसार चीज़ें दे आती थी । महीने में कुछ एक दिन उनके साथ खेल-कूदकर उन्हें उनकी बच्चों के यादों से दूर करने की कोशिश करती। वृद्धाश्रम के वृद्ध उसे अपनी बच्ची की तरह प्यार करते। वह कभी निडर होकर छोटे-छोटे गाँव कस्बे में जाकर कट्टरपंथियों के हिंसा से पीड़ित महिलाएँ और गरीबों को मुक्त करवाने में पुलिस की सहायता लेती थी तो कभी जानकारियाँ मुहैय्या करवाके उनकी मदद भी करती थी।