Aakha teez ka byaah - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

आखा तीज का ब्याह - 14

आखा तीज का ब्याह

(14)

"मम्मा! मम्मा! देखो, देखो!” वन्या का आल्हादित स्वर कानों में पड़ा तो वासंती की तंद्रा टूटी| उसे लगा जैसे वह गहरी नींद से जागी| उसने चौंक कर वन्या की और देखा वह कार से बाहर के नज़ारे देख देख कर खुश हो रही थी| वो लोग रामपुर पहुँचने वाले थे| रामपुर! रामपुर तो वासंती की ननिहाल थी। यहीं पैदा हुई थी वह अपनी नानी के घर, कितनी ही यादें जुडी हैं यहाँ से उसकी| रामपुर से कुछ ही दूरी पर तो है उसका गाँव| वासंती के दिल में ख़ुशी और भय के मिले जुले से भाव आये, पर वह खुद पर काबू पाते हुए वन्या को गोद में ले उसके साथ अपने जन्मस्थान को निहारने लगी| कितने बरस बीत गए इन गलियों के दर्शन किये| शायद ये गलियां भी भूल गईं होंगी कि कोई बसंती भी थी जो धूल में सनी उनकी गोद में खेला करती थी|

कितना कुछ बदल गया था यहाँ| कृषि व सिंचाई की आधुनिक तकनीक ने इलाके को सरसब्ज़ बना दिया| पहले जो खेत बरसात के इंतज़ार में उदास से लगते थे आज वहां गेहूं की बालियाँ लहलहा रही थीं| वन्या ने यह सब पहली बार देखा था, वह बहुत खुश हो रही थी, वासंती का मन भी अपना गाँव देख कर आल्हादित हो गया| वह भी वन्या की तरह तालियाँ बजाने लगी| उन दोनों को ऐसे खुश देख कर प्रतीक भी मुस्कुरा दिया| तभी कार वासंती के बापूजी के खेत के पास से गुज़री| बापूजी और गोपाल भाईजी खेत में मजदूरों के साथ काम पर लगे थे|

बरसों बाद अपनों को इतना करीब पा कर वासंती की आँखों में आंसू आ गए| कैसा आनन्द था उन पलों में वह शब्दों में बयान नहीं कर सकती थी| उसका मन किया उसी पल कार रुकवा कर वह दौड़ कर जाये और बापू के गले में बाहें डाल कर झूल जाये| ठीक वैसे ही जैसे बचपन में झूल जाया करती थी| पर वह अब ऐसा नहीं कर सकती, वह जानती थी इन बरसों में उसका गाँव ही नहीं और भी बहुत कुछ बदल गया था| उसके घरवाले, उनका उसके प्रति प्यार, भावनाएं और शायद...शायद वह खुद भी|

अब किस हक से जाये वासंती उनके पास, उसने खुद ही तो सब कुछ छोड़ कर प्रतीक का हाथ थाम लिया था| उसके सही होने के बावजूद भी उसके अपनों ने उसका ही साथ छोड़ दिया, दादी-दादा ने तो उस दिन जीते जी उसका चेहरा ना देखने की कसम खा ली थी और अपनी इस कसम को उन्होंने अपनी अन्तिम साँस तक निभाया| वासंती के अपनों ने उसे अपने जीवन से काट कर ऐसे बाहर फेंक दिया था जैसे डॉक्टर किसी मरीज के शरीर के सड़े अंग को काट कर फेंक देता है| अपने सपनों को पाने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई थी वासंती ने कि ख़ुशी के पलों में भी उसकी आँखों में नमी छाई रहती है

जैसे जैसे कार आगे बढ़ रही थी वासंती के दिल की धड़कन भी बढती जा रही थी| प्रतीक सीधे हॉस्पिटल की बजाय पहले तिलक के घर जाने की बात कह रहा था| वासंती के मन में तरह तरह की आशंकाएं उठ रही थी| जाने तिलक के घर उनके साथ कैसा व्यवहार हो| खुद तिलक उसके साथ कैसा व्यवहार करे, तलाक के बाद उसकी आँखों में अपमानजनित आक्रोश की चिंगारियां वासंती ने खुद भी देखी थी| आज उसे मौका मिलेगा तो वह कसर तो नहीं छोड़ेगा उसका और प्रतीक का अपमान करने में|

फिर उसकी पत्नी भी तो होगी वहां, वह क्या सोचेगी उन लोगों के बारे में, वासंती अपना परिचय क्या देगी उसे| क्या उसकी पत्नी समझ पायेगी वासंती का दृष्टिकोण, शायद नहीं, वह तो उसके प्रति पहले से ही वैमनस्य पाले बैठी होगी| वह तो क्या पता फिर भी चुप रह जाये पर तिलक की माँ, वह तो एक मौका ना छोड़ेगी वासंती को ज़लील करने का, उफ़ ये प्रतीक ने उसे और खुदको किस मुसीबत में डाल लिया| खैर! अब जो भी हो उसका सामना तो करना ही होगा अब इस मोड़ से वह पीछे नहीं हट सकती| कार तिलक के घर की ओर मुड़ी तो वासंती सीट पर ऐसे तन कर बैठ गई जैसे किसी युद्ध के लिए खुद को तैयार कर रही हो|

तिलक आज जल्द से जल्द घर से निकल जाना चाहता था ताकि उसे वासंती और प्रतीक का सामना न करना पड़े| हालाँकि वह जानता था कभी न कभी उसे उन दोनों का सामना करना ही है पर कम से कम आज वह उनसे मुलाकात की अप्रिय स्थिति से बचना चाहता था| पर संयोग कुछ ऐसा बना कि वासंती और प्रतीक की कार घर के दरवाजे से अंदर उसी समय घुसी जब वह घर से निकल रहा था| अब उसके पास उनका स्वागत करने के आलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था|

“मेहमान आ गए श्वेता|” तिलक ने श्वेता को आवाज़ दी| श्वेता को तिलक के घर देख कर वासंती हैरान रह गयी।

“मैंने कहा था ना तुम्हारे लिए एक सरप्राईज़ है, वो भी प्लीजेंट वाला, यहां कोई हमारा बहुत ख़ास रहता है जो हमारी मदद करेगा| यह ही है वो मददगार, मिसेज़ श्वेता तिलक राज, जो कि जीवन रक्षा हॉस्पिटल की डायरेक्टर भी हैं और हमारी बॉस भी|” प्रतीक ने मुस्कुराते हुए श्वेता का परिचय करवाया|

“मुझे चने के झाड़ पर मत चढ़ाइये प्रतीक जी अगर गिर गयी तो बहुत चोट लगेगी| मैं तो सिर्फ़ नाम की डायरेक्टर हूँ, पर असली बोस तो यह ही हैं|” श्वेता ने तिलक की ओर इशारा करते हुए कहा और वासंती के गले लग गयी| वासंती हैरान सी कभी उसे और कभी प्रतीक को देख रही थी और सोच रही थी जाने उससे और क्या क्या छिपाया है इन लोगों ने|

“ये दोनों सहेलियां तो आज सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही करेंगी| आओ डॉक्टर साहब हम अंदर चलते हैं| आप लोग भी बता दीजिए आपका भीतर आने का इरादा है या चाय नाश्ता यहीं भिजवा दूं|” तिलक ने श्वेता और वासंती की तरफ़ एक मुस्कान उछाली|

“चलो वासंती हम भी अन्दर चलें वरना हमारे पति हमारा मज़ाक उड़ाने लगेंगे|”

श्वेता वासंती का हाथ पकड़ कर घर की ओर मुड़ी ही थी कि वन्या सीढ़ियों से फ़िसल कर गिर गयी और रो पड़ी| उसे रोते देख तिलक ने लपक कर गोद में उठा लिया और बहलाने लगा| “अरे हमारी लाडो बिटिया को किसने मारा, हमें बताओ हम उसकी पीटी करेंगे|” वन्या ने रोते रोते नीचे सीढ़ी की ओर उंगली कर दी| “हप्प! हप्प! हप्प! हमारी बिटिया को मारा, अब फिर मारेगी तो मैं तेरी और जोर से पीटी लगा दूंगा| चलो अब अपन ने इसकी बहुत पीटी करी, अब बस करदें वरना ये टूट जाएगी फिर अपन अन्दर कैसे जायेंगे|”

सीढ़ी पर पैर मारते हुए उसने वन्या से पूछा तो उसने धीरे से सर हिला दिया| अभी भी उसकी आँखों में आंसू थे| वासंती ने पर्स से चोकलेट निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दी पर तिलक बोला, “ना चॉकलेट नहीं खाते, चॉकलेट खाने से दांत ख़राब हो जाते हैं| हमारी बिटिया तो ढूध पीयेगी, बादाम वाला| ठीक है बिटिया|” वन्या ने फिर से अपना सर हिला दिया| “वाह कितनी अच्छी बिटिया है, हर बात मान लेती है|” तिलक वन्या को गोद में लिए घर के अंदर की ओर मुड़ गया, वासंती वन्या को गोद में लेने आगे बढ़ी तो प्रतीक ने उसे इशारे से रोक दिया|

रानू कई नए चेहरों को एकसाथ देख कर गम्भीर हो गया और एक टक वन्या को देखने लगा, उसे अपने पापा की गोद में दूसरे बच्चे का बैठना पसंद नहीं आ रहा था| प्रतीक ने उसे अपनी गोद में बैठा लिया| अब दोनों हमउम्र बच्चे हैरान से कभी एक दूसरे को तो कभी जिनकी गोद में बैठे थे उन्हें देखने लगे| प्रतीक और तिलक ने दोनों बच्चों की दोस्ती करवा दी तो वो दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खेलने चल दिए|

“बसंती! दूध बणा टाबरां खातर, बादाम घाल गे|” तिलक ने जोर से आवाज़ लगायी, पर तुरंत ही अपनी भूल का अहसास होते ही दांतों तले जीभ दबा ली| “ माफ़ करना डॉक्टर साहब, मैडम की शान में गुस्ताखी नहीं की है, हमारी मेड का नाम भी बसंती है, मैंने उसे ही आवाज़ दी है|” उसके इस प्रकार सफ़ाई देने से प्रतीक मुस्कुरा पड़ा और वासंती के बिगड़े तेवर भी कुछ ढीले पड़ गए|

“दीदी थे मन्ने पिछान्यो कोनी, मैं कान्हारामजी री बेटी| म्हारो नाम भी बसंती है, थाने ठा है म्हारो नाम म्हारी माँ थारे नाम पर ही राख्यो हो|” बसंती इठलाती हुई वासंती से बात करने लगी| वासंती को भी याद आया कान्हाराम काका उनके खेत में मजदूर हुआ करते थे| तो ये उनकी बेटी है, अपनी माँ के साथ अक्सर आया करती थी उनके घर, काफ़ी छोटी थी तब ये, लगभग तीन या चार साल की रही होगी, पर तब यह वासंती को पसंद नहीं थी| गंदे से कपड़े पहने रहती थी और हमेशा ही इसकी नाक बहती रहती थी|

“बसंती! तेरो नाम, तेरी माँ आंगे नाम पर राख्यो, पर तन्ने देख गे आं आपगो नाम बदल लियो|” तिलक ने कुछ इस तरह कहा कि प्रतीक और श्वेता तो ठहाका मार कर हंस पड़े, साथ साथ वासंती भी अपनी मुस्कान न रोक पाई| अब धीरे धीरे उसके दिमाग पर इतने दिनों से छाये तनाव और गलतफहमी के बादल छंटने लगे थे|

“चलो, आप दोस्त लोग बातें करो| मैं चलूँ, कुछ काम देख लूं तब तक|”

“नहीं आप आज कहीं नहीं जायेंगे|” श्वेता ने लपक कर तिलक का हाथ पकड़ लिया|

“अरे! आप लोग इतने दिनों बाद मिले हो| बातें करो! एन्जॉय करो! मैं क्या करूँगा तुम्हारे बीच में, यहाँ बैठ कर बेकार तुम लोगों को डिस्टर्ब ही करूँगा|”

“कोई बात नहीं डिस्टर्ब कीजिये, पर आज आप कहीं नहीं जायेंगे| एक दिन की छुट्टी तो बनती है ना मेरे लिए, प्लीज|”

“अच्छा भई ठीक है, कहीं नहीं जाता अब खुश|” तिलक श्वेता के इसरार को टाल नहीं सका|

“बहुत खुश| ये हुई ना बात, हमारे साथ बैठ कर बातें करो, खाओ-पीओ, जिंदगी का कुछ तो मज़ा भी लिया कीजिये जनाब, क्या सारा दिन काम काम और काम|”

“क्या खाऊँ, और क्या मज़े करूँ? आप लोगों की पसंद का अंग्रेजी खाना मुझे पसंद ना है|”

“अच्छा तो ये समस्या है, लगे हाथ ये भी बता दीजिये क्या पसंद आपको। अरे हाँ! आपको तो दाल बाटी-चूरमा, हलवा, समोसे और कचौरी पसंद हैं, है न?”

“हाँ|” तिलक ने होठों पर जीभ फेरी, फिर बुरा सा मुंह हुए कहा, “पर तुम खाने कहाँ देती हो|”

“ओहोहो खाने कहाँ देती हो? वासंती अपने बेचारे से दोस्त से मिलो, इन्हें इनकी पत्नी खाना भी नहीं देती| पेट का घेरा देखा है| एक्सरसाइज़ करने को कहती हूँ वो भी नहीं करते| घर में जिम बेकार ही बनवा रखा है|”

“म्हारे से ना होती कसरत वसरत| मैं भला और म्हारा दफ्तर भला|”

“म्हारे से ना होती कसरत वसरत|” श्वेता ने तिलक की नकल निकाली तो वह उसके सर पर एक हल्की सी चपत लगा कर हंस पड़ा| वासंती उन दोनों को यूँ बेतक्कलुफी से हंसते बोलते देख आश्चर्यचकित रह गयी| उसने तिलक को पहले कभी इस तरह हंसते नहीं देखा था| पहले तो वह अलग ही अकड़ में रहता था| पुराने तिलक को याद कर वासंती मुस्कुरा पड़ी|

“भई हाई कमान का ऑर्डर है घर से बाहर तो नहीं जा सकता पर काम तो करना पड़ेगा, चलो डॉक्टर साहब जब तक श्वेता खाना लगवाती है मैं और आप हॉस्पिटल के बारे में कुछ बातें कर लें|”

तिलक अपना लैपटॉप उठा लाया और प्रतीक को हॉस्पिटल की कार्ययोजना के बारे में समझाने लगा| वासंती तिलक को हैरानी से देख रही थी| लैपटॉप के की-बोर्ड पर उसकी उंगलियाँ बिजली की गति से थिरक रही थीं। कभी हिंदी भी ठीक से ना बोल पाने वाला तिलक आज कितनी सहजता से अंग्रेजी में बातें कर रहा था, इंटरनेट और लैपटॉप का प्रयोग भी आसानी से कर रहा था| हाँ! पहनता आज भी धोती कुरता ही था पर डिज़ाईनर, करीने से कटे बाल और दाढ़ी उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा रहे थे| तिलक का पहनावा, उसका बात करने का ढंग, सब कुछ बदला बदला सा था| और इसके पीछे श्वेता का हाथ था| श्वेता ने तिलक को ठीक वैसे ही बदल कर रख दिया था जैसे प्रतीक ने वासंती को बदला था|

आज तिलक वासंती के सामने एक नए अवतार में था, सफलता का गुरुर और आत्मविश्वास, उसके रोम रोम से फूट रहा था| वासंती उसका यह परिवर्तित रूप देख कर हैरान भी थी और खुश भी| उसे कहीं ना कहीं इस बात की ग्लानी हमेशा रही कि उसने तिलक को उस गुनाह की सज़ा दी जो उसने कभी किया ही नहीं| तिलक से तलाक के बाद वासंती को भय था कि कहीं तिलक कोई गलत कदम उठा कर अपना ही नुकसान ना कर बैठे, तिलक बहुत संवेदनशील था और ऐसे व्यक्ति से कुछ भी उम्मीद की जा सकती थी| यदि तिलक के साथ कुछ गलत हो जाता तो वह कभी खुद को माफ़ नहीं कर पाती| पर अब उसे तसल्ली थी कि तिलक को उससे भी अच्छी जीवन साथी श्वेता के रूप में मिल गयी है| श्वेता ने तिलक को जिस तरह से संवारा था ऐसे तो शायद वासंती भी ना संवार पाती|

रात की छाँव तले

नींद बुनकर कुछ स्वप्न

छोड़ जाती है

आँखों के बंद झरोखों में

वहीँ बैठ कर वो

इस आस में

करते हैं रात भर भोर का इंतज़ार

कि कोई तो होगा जो

भर कर अपनी कल्पना के

इन्द्रधनुषी रंग सजा देगा हमें

और कर देगा साकार

यह पंक्तियाँ उसने अपनी डायरी में तब उकेरी थीं जब खुद उसकी आँखों ने सपने सजाने शुरू किये थे| मगर उन सपनों को पूरा करने का कोई रास्ता कहीं दूर दूर तक उसे दिखाई नहीं दे रहा था| उसे लगता था उसके चारों ओर अँधेरा है, रोशनी की एक भी किरण उसे दिखाई नहीं दे रही थी| फिर वह चिर प्रतीक्षित रोशनी की किरण उसे प्रतीक में दिखी और उसके सपने अपनी मंज़िल पा गए| पर आज वह श्वेता के लिए भी कह सकती थी कि उसने भी प्रतीक की ही भांति तिलक के सपनों साकार कर दिया था| आज वासंती को अपनी सहेली पर गर्व हो रहा था|

प्रतीक और तिलक अपने काम में व्यस्त थे और दोनों बच्चे अपने खेल खिलोनों की दुनिया में| वासंती को वहां उपेक्षित सा बैठे देख श्वेता ने उसे अपने पास रसोई में ही बुला लिया| “श्वेता तुमने तो कमाल कर दिया, तिलक को पूरी तरह से बदल कर रख दिया| एक साधारण से आदमी को बिज़नेस टायकून बना दिया|”

“नहीं वासंती, मैंने कुछ भी नहीं किया| यह सब तो खुद तिलक की मेहनत का नतीजा है| रजवाड़ा तो तुम्हारे सामने ही शुरू हुआ था| उसे स्थापित करने में इन्होंने दिन रात एक कर दिया, फिर सीमेंट की फेक्ट्री और फिर एक एक कर मौके भी मिलते गए और साथ ही सफलता भी| हाँ मैं यह जरुर कहूँगी कि इतनी ऊंचाई पर पहुँचने के बाद भी तुम्हारे दोस्त के पांव जमीन पर ही रहे| समाज और अपने गाँव के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को यह कभी नहीं भूले, इसीलिए किसी बड़े शहर में जा कर रहने के बजाय इन्होंने यहीं अपने गाँव में रह कर गाँव के विकास में यथा सम्भव योगदान करने का फैसला किया| पहले शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की गुंजाईश देखते हुए स्कूल और कॉलेज शुरू किये और अब यह हॉस्पिटल बना रहे हैं| यह हॉस्पिटल तो इनका सपना था तुम जानती हो|”

“नज़रें ना झुकाओ वासंती!” वासंती को असहज होते देख श्वेता ने जल्दी से कहा| “मैं यह तुम्हें शर्मिंदा करने के लिए नहीं कह रही हूँ| बल्कि याद दिला रही हूँ कि यह सपना तुम दोनों ने मिलकर देखा था कभी| इसलिए इसकी सफलता में भी तुम्हारा योगदान अपरिहार्य है|” श्वेता ने वासंती के हाथ थाम लिए| वासंती को उसके स्पर्श में तिरस्कार के स्थान पर अपनेपन की अनुभूति हुई और वह आगे बढ़ कर श्वेता के गले लग गयी|

"दादी-दादी! दादा-दादा!” रानू फुदकता हुए अपने दादाजी की गोद में चढ़ गया| वो लोग कहीं बाहर से आ रहे थे, शायद मन्दिर से| उन्होंने सब को प्रसाद दिया, वन्या को भी| उनसे नज़र मिलते ही वासंती सहम गयी| एक बार तो उसे लगा जैसे अभी तिलक की माँ जाने उसे क्या क्या सुना डालेगी पर उन्होंने कुछ नहीं कहा| बस पांव छूते प्रतीक और वासंती के सर पर हाथ फेर दिया|

“छोरी! माँ बापूजी ऊँ मिल आई के|” वासंती ने सर झुका कर ना कह दिया तिलक की माँ के सवाल का उसके पास यही जवाब था|

“माँ बाप रे गुस्से रो बुरो कोनी माने करे छोरी| माँ बाप रो जी नारियल जिसो हुए, ऊपर सूं सख्त पर अंदर सूं नर्म| तेरी माँ तन्ने याद करगे कित्ती रोवे तन्ने के बेरो| आज बां सूं मिल फेर तन्ने पतो चालसी| तिलक रा बापूजी थे मनीरामजी ने और सारे परिवार ने अठे ही बुला ल्यो| आज माँ बेटी गो मिलन करा दयां|”

“मैं मनीराम नै फोन कर दियो, आता ही होसी|” तिलक के बापूजी की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि बाहर जीप रुकने की आवाज़ सुनाई दी| रानू ने बाहर की ओर दौड़ लगा दी उसके पीछे पीछे वन्या भी लपकी| वासंती का दिल बहुत जोर से धड़कने लगा| आज वह अपने माता पिता को बरसों बाद इतने पास से देखेगी| जाने कैसा व्यवहार करेंगे माँ बापूजी उसकी बेटी के साथ| कहीं उसके हिस्से की नाराज़गी उसकी बच्ची पर ही ना निकाल दें| वह वन्या के पीछे जाना चाहती थी पर उसके पांव उठे ही नहीं, जैसे धरती से चिपक कर रह गए|

वन्या जितनी तेजी से बाहर गयी थी उतनी ही तेजी से वापस भी आ गयी और वासंती के पांवों से लिपट गयी, पीछे पीछे वासंती के बापूजी अपने पूरे परिवार के साथ आ रहे थे| रानू वासंती के बापूजी मनीरामजी की गोद में राजकुमार की तरह चढ़ा इतरा रहा था और इधर वन्या अब भी घबराई सी अपनी मम्मा से चिपक कर खड़ी थी शायद एक साथ इतने सारे अनजान चेहरों को देख कर डर गयी थी|

अपने माँ-बापूजी, गोपाल भाईजी-रेणु भाभी और उनके दोनों बेटों अंशुमन और विक्रांत को सालों बाद देख वासंती की आँखें सावन भादो की तरह बरसने लगी| अंशुमन और विक्रांत, उसके दोनों भतीजे कितने बड़े हो गए थे, वे दोनों हूबहू भाईजी की तरह निकल रहे थे| दोनों कभी वासंती से कितना प्यार किया करते थे| कभी सारा-सारा दिन बुआ-बुआ करते उसके आगे पीछे घूमते रहते थे पर आज कैसे देख रहे थे उसे जैसे जानते ही ना हों| माँ-बापूजी भी अजनबियों की तरह ही व्यवहार कर रहे थे| क्यों आये हैं वे लोग यहाँ? कैसे रह पाएंगे अपनों की बेरुखी के बीच? प्रतीक एक नयी शुरूआत करना चाहता था पर क्या यह संभव है? वासंती को कुछ नहीं सूझ रहा था बस वह सबके बीच एक अपराधिन की भांति सर झुकाए खड़ी थी|

प्रतीक ने माँ-बापूजी के पांव छुए| बापूजी और गोपाल भाईजी उससे बातें करने लगे, पर इस बीच उन्होंने वासंती की ओर एक बार भी नहीं देखा| प्रतीक के साथ उनका परिचय एक दामाद ही नहीं डॉक्टर के रूप में भी था| जब बापूजी को दिल का दौरा पड़ा था तब उन्हें जयपुर ही लाया गया था और उनका पूरा ट्रीटमेंट प्रतीक ने ही किया था| वासंती तो तब भी अपने बापूजी को दूर से ही देख पाई थी| उस समय उनकी हालत काफ़ी ख़राब थी और किसी तरह का भी तनाव उनके लिए जानलेवा साबित हो सकता था| ऐसी स्थिति में खुद प्रतीक ने ही उसे उनसे मिलने से रोक दिया था| तब वासंती ने खुद पर कैसे काबू रखा यह वासंती ही जानती है| कितना रोई थी वह घर आकर, पर उसके आंसूओं का मोल ना उस दिन किसी ने समझा और ना ही आज कोई उसके आंसुओं की परवाह कर रहा था|

“काकीजी आज तो मेरे घर में बाढ़ आण हाली है|” तिलक माहौल को हल्का बनाने का प्रयास कर रहा था|

“ना छोरा बाढ़ कोनी आण दयां| मनीराम पोता तो घणाई खिला लिया, ले अब दोहेती खिला|” तिलक के बापूजी ने रानु को मनीरामजी की गोद से उतार कर वन्या को बैठा दिया|

कुछ देर तो मनीरामजी अकड़ दिखाते रहे पर अधिक देर तक खुदको वन्या को प्यार करने से नहीं रोक सके| ‘मूल से ब्याज प्यारा होता है’, यह कहावत यहाँ अक्षरस्य सत्य सिद्ध हुई| यह देख कर वासंती के लिए भी खुद पर नियंत्रण रखना मुश्किल था वह दौड़ कर माँ के गले से जा लगी| अब दोनों माँ-बेटी की आँखें बरस पड़ीं|

“श्वेता सामान बांध ले अब तो बाढ़ आगे रहेगी|”

“कोनी आवे| ओ तो माँ-बेटी गो मेल है, चोखो सुगन होयो है, देखी अबके सावणी चोखी होसी|” तिलक की माँ ने दोनों माँ-बेटी की पीठ थपथपा दी| वासंती अपनी माँ से और भी कस कर चिपक गयी जैसे की बीते सालों की कसर आज ही पूरी कर लेना चाहती हो| माँ बेटी को आपस में मिलते देख रेणू भाभी और गोपाल भाईजी के गिले शिकवे भी वासंती से दूर हो गए और पूरे परिवार ने वासंती को दिल से स्वीकार कर लिया|

श्वेता की आँखों में भी आंसू थे उसे लग रहा था आज बरसों से चले आ रहे कई संघर्षों को उनकी मंज़िल मिल गयी| संघर्ष ही तो कर रहे थे सब| वासंती-प्रतीक, तिलक और...और वह खुद भी| वासंती अपने लिए सपने देखने और अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी पाने का संघर्ष कर रही थी| प्रतीक वासंती की वो खुशियाँ वापस दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा था जो उसे लगता था उसके कारण छीन गईं हैं| तिलक जो कभी एक नाकारा पति और निकम्मा युवक साबित कर दिया गया था उसके सामने खुदको साबित करने का संघर्ष था। और श्वेता...श्वेता! श्वेता...श्वेता! उसके सामने तो खुद अपने रिश्ते सहेजने का संघर्ष था। वह सोच रही थी बाकी सबके संघर्षों को तो उनकी मंजिल मिल गई जाने उसके संघर्ष को मंजिल कब मिले? जाने मिले भी या नहीं?

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