आखा तीज का ब्याह
(9)
“ओहो, अब तो हमारी डॉ. वासंती होटल की मालकिन बन गयी है| अगर कभी हम तुम्हारे यहां घूमने आये तो तिलकजी को कह कर डिस्काउंट तो दिला दोगी ना|” श्वेता ने कुछ शरारत भरे अंदाज़ में वासंती से पूछा| आज वह पूरी तरह से मस्ती के मूड में थी, होती भी क्यों नहीं आज उसकी मेहनत जो रंग लायी थी| वह अपने दोनों दोस्तों वासंती और तिलक को एक साथ खुश देखना चाहती थी और इसीलिए उसने तिलक को होटल खोलने का जो सुझाव दिया था वह तिलक के लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा था| उसकी तिलक से बात हुई थी, वह बता रहा था कि पर्यटकों को रजवाड़ा इतना पसंद आया था कि इस बार वो लोग शहर के होटल में ठहरने की बजाय रजवाड़ा में ही ठहरना पसंद कर रहे थे| तिलक काफी उत्साहित था कह रहा था कि इस बार अन्य सालों के मुकाबले ज्यादा कमाई हुई है और अब वह रजवाड़ा का विस्तार करने की सोच रहा था|
“तुम खुद ही डिस्काउंट मांग लेना अपने तिलकजी से, हर बात तो सुनता है तुम्हारी ये भी सुन ही लेगा|” वासंती ने रूखे ढंग से कहा, आजकल वह श्वेता से भी कुछ नाराज़ सी ही रहती थी|
“क्या बात है वासंती नाराज़ क्यों हो? तिलकजी बता रहे थे कई दिनों से तुमने उनसे भी बात नहीं की|”
“तुम्हें बड़ी फ़िक्र है तिलकजी की| अगर इतना ही प्यार है तो तुम्ही कर लो ना उससे शादी, वैसे भी रजत तो अब तुमसे शादी करने से रहा|” श्वेता वासंती की बात सुन कर सन्न रह गयी और चुपचाप अपनी आँखों में आंसू लिए कमरे से बाहर चली गयी|
वासंती उस समय तो गुस्से में कह गयी, पर बाद में उसे बहुत पछतावा हुआ| उसे श्वेता के दर्द का यूँ मज़ाक नहीं उड़ना चाहिए था| वह खुद भी तो इसी दर्द से गुज़र रही है, जब से गाँव से आई है एक बार भी प्रतीक से बात नहीं हुई| अब वह उसके आसपास रहना ही नहीं चाहता| जब भी दोनों का सामना होता है वह आग्नेय नेत्रों से उसे घूरते हुए वहां से चला जाता है| माना बहुत परेशान थी वह पर अपनी इस परेशानी में श्वेता पर क्यों उबल पड़ी, उसका क्या कसूर है वह भी तो उतनी ही परेशान है, दुखी है| रजत के साथ अपने भावी जीवन को लेकर श्वेता ने भी जाने कितने ही सपने संजोये थे पर रजत ने अपने माता-पिता की इच्छा का मान रखने के लिए एक झटके में सब खत्म कर दिया| श्वेता रजत से रिश्ता टूटने के बाद किसी तरह खुदको संभालने की कोशिश कर रही थी पर आज वासंती के तानों ने उसके घाव फिर छील कर रख दिए|
क्यों चिड़ने लगी है वह श्वेता से, तिलक के साथ उसकी दोस्ती से वासंती को कोई जलन नहीं थी, होती भी कैसे तिलक कभी उसके दिल के इतना नज़दीक रहा ही नहीं कि उसे किसी और लड़की के साथ बातें करता देख वह ईर्ष्या से जल मरे| पर जब से श्वेता वासंती के साथ उसके घर होकर आई है वासंती के घरवाले श्वेता से बहुत प्रभावित हुए हैं| वो लोग दिन रात बस श्वेता की ही प्रशंसा करते रहते हैं, जैसे की वासंती नहीं श्वेता उनकी बेटी हो| और तो और वे श्वेता को उससे श्रेष्ठ ठहराते हुए जब वासंती को उसके जैसा ही बनने की सलाह देते हैं तो उसे श्वेता से एक अजीब सी खुन्नस होने लगती है| और शायद आज की घटना उसी खुन्नस का नतीजा थी|
ऊपर से वासंती के घरवाले उस पर गौने के लिए दबाव बना रहे थे| वे तो अब उसके एम.बी.बी.एस. पूरी होने का इंतज़ार करने को भी तैयार नहीं थे| उनका कहना था कि अब जब तिलक अच्छे से काम करने लगा है तो फिर किस बात की देरी है, वासंती की पढाई की उन्हें फ़िक्र नहीं थी, उनका मानना था कि पढ़ तो वह गौने के बाद भी सकती थी क्योंकि तिलक और उसका परिवार को उसकी पढाई से कोई एतराज़ ना था| उनके लिए तिलक की कमाई ज्यादा मायने रखती थी बजाय वासंती की मर्जी या उसके सपनों के| शादीशुदा बेटी को माता- पिता कब तक अपने घर रख सकते हैं आखिर एक दिन तो उसे अपने घर जाना ही है तो फिर शुभ काम में देरी किस बात की|
इस तरह से दबाव बनाने का एक कारण और भी था कि तिलक के सोहन भाईजी ने आई.ए.एस. बनने के बाद अपने बाल विवाह को मानने से इनकार कर दिया था| हर तरह के पारिवारिक, सामाजिक और जाति पंचायत के दबाव के बावजूद वे टस से मस नहीं हुए और कानूनी रूप से तलाक ले कर उन्होंने अपनी पसंद की लड़की से विवाह कर लिया था जो की उनके दोस्त की बहन थी और उनके बराबर पढ़ी लिखी व आधुनिक थी| सोहन भाईजी तो अपने मन की करके खुशहाल ज़िन्दगी में प्रवेश कर गए पर वासंती के लिए मुसीबत हो गयी| उनके इस कृत्य से तिलक के परिवार की जो बदनामी हुई उसकी क्षतिपूर्ति वो लोग जल्द से जल्द तिलक और वासंती के गौना करवा कर करना चाहते थे|
कभी कभी तो वासंती को लगता था की घरवालों की इस ज़ोर-ज़बरदस्ती के पीछे तिलक का ही हाथ है, शायद उसे भी यह भय हो की कहीं वासंती भी सोहन भाईजी के ही नक्शे-कदमों पर ना चल दे| उसे प्रतीक और वासंती की दोस्ती बिलकुल पसंद नहीं थी, वह कई बार इशारों इशारों में उसे जता भी चुका था पर वह नहीं समझ रही थी या शायद समझना चाहती ही नहीं थी इसलिए अब तिलक ने उसे अच्छे से समझाने का यह तरीका निकाला था|
अपनी इस समस्या का समाधान वासंती निकाले भी तो कैसे, किससे मदद मांगे, दो ही तो ऐसे दोस्त थे उसके जिन पर वह आँख मूँद कर भरोसा कर सकती थी और जो उसकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे| एक प्रतीक और एक श्वेता| और आज दोनों ही उससे नाराज़ थे| प्रतीक को तो शायद वह ना मना पाए पर श्वेता से तो अपनी भूल की माफ़ी उसे मंगनी ही होगी|
“प्रतीक सर आपने कहीं श्वेता को देखा है? मैं काफ़ी देर से उसे ढूंढ रही हूँ कहीं दिखाई ही नहीं दे रही|” वासंती को कैंटीन में श्वेता नहीं दिखी तो उसने प्रतीक से पूछा|
“सॉरी मिसेज़ तिलक राज मुझे नहीं पता आप किसी और से पूछ लें|”
प्रतीक के कटाक्ष वासंती का हृदय अन्दर तक भेद गया श्वेता को भूल वह प्रतीक से दो दो हाथ कर बैठी, “क्या कहा आपने, मिसेज़ तिलक राज? क्या मतलब है इसका?”
“अंग्रेज़ी नहीं जानती, हमारे यहाँ महिलाओं को उनके पति के नाम से जाना जाता है, तिलक राज आपके पति हैं इसलिए मिसेज़ तिलक राज|” प्रतीक ने तल्ख स्वर में कहा| वह वासंती से नाराज़ था, बहुत नाराज़ क्योंकि उसके वो सपने जो उसने वासंती को लेकर अब तक देखे थे टूट कर बिखर गए थे| और उसके स्वर की तल्खी इसी नाराज़गी का सूचक थी।
“हाँ जानती हूँ तिलक राज मेरा पति है, घर वालों ने उसे मेरा पति बना दिया और आप ने मुझे नाम दे दिया मिसेज़ तिलक राज, पर वो मेरा पति क्यों है? इस शादी में मेरी मर्जी शामिल थी भी या नहीं? एक सात साल की बच्ची की कोई मर्ज़ी होती भी है या नहीं? ये तो नहीं पूछा आपने| मेरी मर्जी तो मेरे घर वालों ने नहीं पूछी आप क्या पूछेंगे|” वासंती के दिल में दबी सालों की घुटन आज आँखों का बांध तोड़ कर बह गयी|
वह रोये जा रही थी और प्रतीक हक्काबक्का सा उसे देखे जा रहा था, यह तो उसने सोचा ही नहीं था, वह तो बस वासंती से नाराज़ था की उसने अपनी शादी की बात उससे छुपाई, इसके पीछे का कारण उसने जानने की कोशिश ही नहीं की| वह तो बस अपने टूटे दिल का शोक मनाता रहा, वासंती भी तकलीफ़ में हो सकती है इसका तो उसे अंदाज़ा भी नहीं था| उसने आगे बढ़ कर वासंती को कस कर गले से लगा लिया| जब वासंती कुछ सामान्य हुई तो उन्हें अहसास हुआ कि वहां मौजूद सभी लोग उन्हें ही घूर रहे हैं| प्रतीक वासंती का हाथ पकड़ कर कैंटीन से बाहर हो लिया|
प्रतीक वासंती को लेकर कॉलेज के पास ही एक पार्क में चला गया| उस पार्क की एक बेंच पर बैठ कर उसने वासंती से पहली बार खुल कर बात की उसके बारे में, तिलक के बारे में और अपने बारे में भी| वासंती ने भी आज उसे सब खुल कर बताया बचपन से लेकर आज तक सब कुछ, कुछ भी छुपा कर नहीं रखा|
“मुझे सिर्फ़ इतना बता दो वासंती कि तुम तिलक के साथ अपनी शादी को निभाना चाहती हो या फिर इस अनचाहे रिश्ते से मुक्ति पाना चाहती हो?” वासंती के दिल का हाल सुनने के बाद प्रतीक ने उससे प्रश्न किया| प्रतीक का प्रश्न सुन कर वासंती बौखला गयी और प्रतीक की ओर अवाक सी देखती रह गयी| यह क्या कह गया प्रतीक, वह शादी कैसे तोड़ सकती है? “वासंती मेरी बात ध्यान से सुनो अगर तुम्हें लगता है तुम तिलक के साथ खुश रह सकती हो तो ही इस रिश्ते को आगे बढाओ वरना यहीं खत्म कर दो इसे| मुझे गलत मत समझना पर यह तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी का सवाल है बल्कि मैं तो यह कहूँगा की तुम्हारे साथ साथ तिलक की भी ज़िन्दगी तुम्हारे इस फैसले से जुड़ी है | ज़बरदस्ती के रिश्ते में बंध कर तुम दोनों खुश नहीं रहोगे|”
वासंती ने प्रतीक से सोचने के लिए थोड़ा सा समय माँगा| उसके बाद दोनों के बीच मौन पसर गया और अपने अपने मन छिड़े अंतरद्वंद्व के कुहासे से घिरे दोनों कब हॉस्टल पहुंचे उन्हें पता ही नहीं चला| वासंती को होस्टल के गेट तक छोड़ कर प्रतीक अपने घर चला गया| वासंती बहुत बैचेन थी, उसे सारी रात नींद भी नहीं आई, बस बिस्तर पर लेटे लेटे वह करवटें ही बदलती रही| उसके कानों में प्रतीक के शब्द गूंज रहे थे और दिमाग हालात का जायज़ा ले रहा था| यह कदम बहुत बड़ा था, सच में बहुत बड़ा। यह फैसला उसे उसके घर वालों से हमेशा के लिए दूर कर सकता था, इसलिए वह कुछ भी करने से पहले हर तरह के परिणाम के बारे में अच्छे से सोच लेना चाहती थी|
“प्रतीक सर आप जो कहेंगे मैं करने को तैयार हूँ|” वासंती ने अगले दिन प्रतीक से मिलते ही कहा|
“ठीक है, मैं किसी वकील से बात करता हूँ फिर तुम्हें बताता हूँ|”
श्वेता शायद समझ रही थी प्रतीक और वासंती किस बारे में बात कर रहे हैं, पर वह कुछ नहीं बोली। इसलिए नहीं कि वह वासंती के साथ एक दिन पहले ही हुई बहस से डर गयी थी बल्कि इसलिए कि उसे भी वासंती और तिलक का अलग होना ठीक लग रहा था| यह सिर्फ़ वासंती के लिए ही नहीं तिलक के लिए भी अच्छा था|
श्वेता की सोच भी इस मामले में कुछ कुछ प्रतीक से मिलती जुलती सी थी, उसका भी मानना था कि एक अनचाहा रिश्ता कभी किसी को ख़ुशी नहीं दे पाता| अपने घर वालों के दबाव में आकर शायद आज वासंती उनकी बात मान भी ले पर क्या गारंटी है कि तिलक के साथ निभा भी लेगी| अगर वह तिलक के साथ ना निभा पाई तो इसके साथ साथ तिलक का जीवन भी नरक हो जायेगा| हाँ! आज हो सकता है वासंती के फ़ैसले से तिलक को थोड़ा दुःख हो पर यह कुछ दिनों की तकलीफ़ ज़िन्दगी भर के क्लेश से कहीं अच्छी है| कुछ दिनों में वह संभल जायेगा और फिर किसी और लड़की के साथ अपना जीवन नए सिरे से शुरू तो कर सकेगा| हो सकता है तब उसकी जीवनसाथी वासंती के बजाय उसे ज्यादा अच्छे से समझ सके|
प्रतीक वासंती को वकील के पास लेकर गया| वकील ने हर पहलू पर गौर करते हुए बताया कि, “वासंती तिलक के साथ आपकी शादी को काफ़ी साल हो गए हैं अत: अब आपकी शादी निरस्त नहीं हो सकती|”
“तो क्या अब कोई रास्ता नहीं है|” वासंती की आवाज़ में घबराहट थी|
“मैंने ऐसा कब कहा, मैंने कहा आपकी शादी निरस्त नहीं हो सकती पर तलाक हो सकता है| मैं तलाक के पेपर्स तैयार कर देता हूँ, आप तिलक के साइन करवा लो, हम कोर्ट में पेपर्स फ़ाइल कर देंगे, तलाक हो जायेगा|”
“अगर तिलक ने पेपर्स पर साइन ना किए तो?”
“बहुत संभव है| बल्कि सच कहूं तो इसकी संभावना ज्यादा है| पर आप चिंता ना करें तब हम आपकी और से तलाक फ़ाइल करेंगे, बस इसमें वक्त थोड़ा ज्यादा लगेगा| देखते हैं क्या होता है| हम ऐसा करते हैं पहले पेपर्स तैयार करके तिलक के पास भेजते हैं फिर उसका रिएक्शन देख कर तय करेंगे आगे क्या करना है|”
जैसे ही तिलक के घर तलाक के कागज़, पहुंचे हंगामा हो गया| वासंती और प्रतीक इसके लिए मानसिक रूप से पहले ही तैयार थे| वासंती को उसके बापूजी ने तुरंत घर आने की हिदायत दी| प्रतीक जानता था गांव में क्या होने वाला है इसलिए वह भी वासंती के साथ जाना चाहता था पर वासंती ने मना कर दिया। उसे डर था कि प्रतीक को देख कर उसके बापूजी, गोपाल भाईजी उसका अपमान करेंगे और तिलक तो भरा ही बैठा होगा वह जाने प्रतीक के साथ क्या कर जाए। प्रतीक को किसी तरह समझा बुझाकर वासंती अकेले ही गांव चली गई। वासंती को देखते ही उसकी माँ भड़क गयी, “छोरी! के कमी है तिलक में, किसो सूणों छोरो है, सुभाव गो भी आच्छो है और के चाहिए है तने|” वासंती की मां उसे पकड़ कर लगभग झकझोरते हुए बोली, “च्यार आखर के पढ़ जावे आजकाल गी छोरियां, मुंह ऊँचो कर ले| आपे गे आलावा और कींगी कोनी सोचे| ना परिवार गी परवाह, ना समाज गी| सारा जाओ भाड़ में|”
वासंती के पिता और भाई भी काफ़ी क्रोध में थे| जबकि तिलक आश्चर्यजनक रूप से शांत था| “के चावे है तू? आं कागजां गो के मतलब है?” वासंती के पिता ने उससे पूछा| गुस्से से उनकी आवाज़ कांप रही थी|
“बापूजी मैं अब तिलक गे सागे कोनी रहूँ| मने तलाक चाहिए|”
“क्यों के कमी है तिलक में?”
“बो पढ़ेड़ो कोनी, बिंगी सोच छोटी है| लुगायां ने घरे रहणो चाहिए| मर्द घर गो काम कोनी करे, ओ लुगायां गो काम है| मैं डॉक्टर हूँ इसे आदमी सागे मेरी जिंदगी बर्बाद हो जासी|”
“तेरो भाई भी कोनी पढ़ेड़ो| अब के करां|” वासंती का भाई गोपाल भी कम गुस्से में नहीं था|
“हाँ! थे कम पढ़ेड़ा हो, तो भाभी भी तो डॉक्टर कोनी| थे कीं कह ल्यो भाईजी पर मैंने गायां भैंसा कोनी चराणी, मन्ने भोत आगे जाणो है और ईं वास्ते मन्ने तिलक ऊं छुटकारो चाहिए बस|”
वासंती की बात सुन कर गोपाल का धैर्य जवाब दे गया, उसने वासंती को खींच कर एक झापड़ लगा दिया| वह शायद और भी मार देता पर तिलक ने उसका हाथ बीच में रोक लिया| “थे छोड़ो तिलकजी मैंने, मैं काढूं आज ईं डॉक्टर गी हेकड़ी|”
“ना शांत रह गोपाल, बात ने और ना बिगाड़|”
“बात बिगड़न में कसर के बची है जमाइजी, ईं छोरी तो म्हारो सिर झुका दियो| मन्ने तो शर्म आवे एने आपगी बेटी कहण में| चोखो होतो आ जामता ही मर जाती|”
“ईंया ना बोलो काकाजी| शांत रहो| थे एक बार बात तो सुणो ईंगी, जद सारा सोहन भाईजी गी बात सुणी तो बसंती गी भी सुणो|” तिलक ने वासंती के बापूजी को कुर्सी पर बिठा दिया, “कहे तो बसंती ठीक ही है, ईं गाँव में है के| अठे तो कोई दवाखानों भी कोनी| आ अठे के करेगी| अर अत्तो पढ़ लिख गे काकाजी गायां तो कोनी चराईजे| बसंती गी बात मान लेण में ही सबगी भलाई है| आ थारी बेटी है काकाजी थाने तो ईंगो साथ देणो ही चाहिए|” उसने मनीरामजी का हाथ पकड़ कर कहा| तिलक ने सबको शांत करवा कर तलाक के कागज़ भी साइन कर के वकील को दे दिए|
इसके बाद वो लोग वापस जयपुर के लिए निकल गए क्योंकि अब वहां रुकने की कोई वजह ही नहीं बची थी| वासंती का तो पता नहीं पर उस दिन प्रतीक और श्वेता तिलक से बहुत प्रभावित हुए| उन्होंने सोचा ही नहीं था कि वह अक्खड़ सा दिखने वाला ग्रामीण युवक इतना संवेदनशील भी हो सकता है|
वकील में तलाक के कागज़ कोर्ट में लगा दिए| तिलक के बिना हील-हुज्जत के तलाक के कागज़ साइन करने के बाद बात कुछ अलग हो गयी थी, इसलिए अब वकील ने आपसी सहमती से तलाक का केस बनाया था| बिना किसी विशेष परेशानी के वासंती को तलाक मिल गया| उस दिन जब केस की आखिरी सुनवाई थी अदालत परिसर में वासंती के पिता और तिलक एक साथ ही खड़े थे| वासंती अपने पिता से मिलने गयी तो उन्होंने उससे मिलने से यह कह कर मना कर दिया कि अब उनके बीच बात करने के लिए कुछ नहीं बचा| तिलक उस वक्त कुछ नहीं बोला, वह शांत पर उदास था|
उस दिन वासंती तलाक के बाद बहुत खुश थी| कोर्ट में मौजूद सभी लोगों ने उसे ताली बजा कर बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के खिलाफ लड़ाई में उसकी इस जीत उसे बधाई दी तो वह गर्व से भर उठी| जब जज साहब ने अपना फ़ैसला सुनाया वासंती के चेहरे पर अपनी जीत का तेज था जबकि तिलक के चेहरे पर अपमान के साये| श्वेता ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह धीरे से उसका हाथ झटक कर कोर्ट रूम से बाहर चला गया| श्वेता उसकी मानसिक स्थिति समझ सकती थी आज उसका विवाह नहीं उसका सपना टूट गया था|
वासंती कहती है उसके साथ अन्याय हुआ, उसका विवाह करने से पूर्व किसी ने उसकी मर्ज़ी नहीं पूछी, हाँ! यह सच है, पर उसने यह नहीं देखा कि तिलक के साथ भी उसके घरवालों ने यही अन्याय किया था| तिलक भी तो तब छोटा बच्चा था और बच्चों से चाहे से फिर वह लड़का ही क्यों ना हो विवाह जैसे महत्वपूर्ण मामलों में उनकी मर्जी कहाँ पूछी जाती है| तिलक से भी कहाँ किसी ने पूछा होगा, बस उसके मन में यह बात बिठा दी गयी थी कि वासंती उसकी पत्नी है जो ताउम्र उसके साथ रहेगी, हर दुःख में, सुख में उसका साथ देगी| पर वासंती ने अपनी जो राह चुनी, उस राह पर हमसफ़र के रूप में वासंती को तिलक की जरूरत नहीं थी, और उसने तिलक का हाथ झटक दिया| तिलक को अस्वीकार करके वासंती ने भी तो उसके साथ अन्याय ही किया था| श्वेता को तिलक की फ़िक्र हो रही थी, वह इस अपमान का बोझ संभाल भी पायेगा या नहीं, कहीं कुछ गलत कदम ही ना उठा बैठे|