आखा तीज का ब्याह - 1 Ankita Bhargava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखा तीज का ब्याह - 1

आखा तीज का ब्याह

सारांश

सपनों को पूरा करने निकली वासंती अपने रिश्तों को ही खो बैठी। जब फिर से अतीत की गलियों ने उसे पुकारा तो वह अनिष्ट की आशंका से घबरा गई। मगर प्रतीक ने आश्वासन दिया कि कोई है वहां उसकी सुरक्षा के लिए। कौन था वो….

*****

आखा तीज का ब्याह

(1)

श्वेता ने तिलक राज के केबिन में प्रवेश किया| तिलक राज उस वक्त कुर्सी पर बैठा अपनी कनपटियाँ मसल रहा था| वह समझ गयी कि तिलक बहुत परेशान है| “आप परेशान लग रहे हैं?”

“नहीं! बस थोड़ा सर दर्द हो रहा था|” तिलक ने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा मगर उसकी लाल आंखें देख श्वेता सहम सी गई। उसे तिलक की लाल आंखों से बहुत डर लगता था, जब भी वह उसकी लाल आंखें देखती उसे ऐसा लगता था जैसे तिलक सब कुछ जला कर राख कर देना चाहता है।

“ओह! दवा ली आपने?” श्वेता ने बेचैनी से पूछा

“हां! ले ली! कुछ काम था?”

“हाँ आपको हॉस्पिटल प्रोजेक्ट की प्रोग्रेस रिपोर्ट दिखानी थी|”

“आप ज्यादा अच्छे से ये सब समझती हैं, आप देखलो|”

“मैं बस पूछना चाहती थी कि आप निश्चय कर चुके हैं आपने जो डॉक्टर्स की लिस्ट बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को दी है उन्हें ही अपोइंट करना है?”

"हां!" तिलक ने दृढ़ स्वर में संक्षिप्त जवाब दिया।

"एक बार फिर सोच लीजिए प्लीज़।" श्वेता ने विनती सी की।

“नहीं डॉ साहिबा, मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं और क्यों। अब और कुछ सोचने की गुंजाइश नहीं है। अच्छा मैं रजवाड़ा जा रहा हूँ वहां कुछ काम है आने में शायद देर हो जाएगी तो तुम टाइम से खाना खा लेना और ज्यादा फ़िक्र मत करना|”

“ठीक है! मैं तो खाना खा लूंगी पर घर में कोई और भी है जो आपका बेसब्री से इंतज़ार करेगा उसे आपसे बेड टाइम स्टोरी सुनने की आदत है|” श्वेता ने मुस्कुरा कर तिलक की ओर देखा|

“उसके सोने से पहले आ जाऊँगा, चिंता मत करो|” तिलक मुस्कुराया और अपनी जैकेट उठा और कार की चाबी ले कर केबिन से बाहर चला गया| श्वेता भी मुस्कुरा दी और चुपचाप तिलक को जाते देखती रही| वह जानती थी उसे रजवाड़ा में कोई काम नहीं है, ऑफ़ सीज़न में जब पर्यटक ही नहीं आते तो होटल में क्या काम होगा| पर वह यह भी जानती थी आज तिलक व्यथित है और थोड़ी देर अकेले रहना चाहता है इसीलिए उसने कोई सवाल भी नहीं पूछा, बस वहीं कुर्सी पर बैठ कर तिलक के निर्णय के बारे में सोचती रही|

सोचती रही और तिलक के निर्णय के पीछे की मंशा जानने की कोशिश करती रही। 'ओह तिलक! वक्त की नदी को वापस मोड़ने की कोशिश क्यों कर रहे हो? कुछ हमारे बारे में भी तो सोचा होता।' श्वेता खुद को बहुत असहाय महसूस कर रही थी।

आज श्वेता को बसंती की याद आ रही थी, बसंती नहीं वासंती| बहुत साल हो गए थे उससे मिले हुए अब तो काफ़ी बदल गयी होगी| बदल तो तभी गयी थी, उसकी गाँव की सीधी-साधी, डरी-सहमी सी लड़की बसंती से तेज़ आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिका वासंती तक की यात्रा की साक्षी तो खुद श्वेता ही रही है| अब तक इतने वर्षों में तो उसमें और भी परिवर्तन आ गया होगा|

रजवाड़ा पहुँच कर तिलक सीधे अपने सुइट में चला गया जो हमेशा उसके लिए बुक रहता था| उसने होटल के मेनेजर को फोन कर उसे डिस्टर्ब करने से मना कर दिया| मेनेजर जो पहले ही मालिक की उपस्थिति से चोकन्ना था अब फोन के बाद और भी अधिक सावधान हो गया|

तिलक ने अपनी जैकेट एक और फेंकी, फोन टेबल पर रखा और बिस्तर पर लेट गया| श्वेता को तो कह आया था कि वह ठीक है पर असल में वह ठीक नहीं था| आज अखबार में छपी राज्यपाल से गोल्ड मेडल लेती बसंती नहीं… बसंती नहीं डॉक्टर वासंती की तस्वीर ने उसके बरसों पुराने ज़ख़्म फिर छील कर रख दिए थे। उसके भीतर एक झंझावत सा चल रहा था| कुछ पुरानी यादें थीं जो उसे उद्वेलित किये दे रहीं थीं|

अतीत के भंवर में डूबते उतरते उसके ज़हन में कब छोटे बच्चों की एक टोली आ बैठी उसे पता ही नहीं चला| बच्चों की वह टोली गाँव के सबसे ऊँचे टीबे पर चढने की कोशिश कर रही थी| ठीक उसी अंदाज़ में जिस अंदाज़ में पर्वतारोही हिमालय की सबसे ऊँची छोटी एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए जी जान लगा देती है| रेतीले धोरे पर चढ़ना कोई पर्वतारोहण से कम मुश्किल थोड़े ही है| वहाँ बर्फ हाड़ जमा देती है तो यहाँ गर्म रेत में पांव झुलस जाते हैं फिर वहाँ थे भी तो छोटे छोटे बच्चे|

कई बच्चों की हिम्मत तो बीच में ही उनका साथ छोड़ गयी पर उनमें से तीन बच्चों ने गिरते पड़ते टीबे की चोटी चूम ही ली| वो तीन थे तिलक राज, बसंती और उसका भाई गोपाल| उस पल उन तीनों के चेहरे पर कुछ वैसा ही गर्व था जैसा कि एवरेस्ट विजेताओं के चेहरे पर होता है| उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनके इस साहसिक कारनामें के लिए उन्हें घर वालों से जरुर शाबासी मिलेगी, पर उनकी उम्मीदों के विपरीत ऐसा कुछ नहीं हुआ| जब यह विजेता टोली घर पहुंची तो इनका स्वागत फूल मालाओं के स्थान पर बसंती-गोपाल की दादी की डांट फटकार से हुआ|

“अरे राम मारो! कठे हांडता फिरो हो| सारे घर में माटी ही माटी कर दी| अबार बीनणी झाड़ू लगार गयी है| आग लागे थारे खेल नै, काम बढ़ा दियो|” दादी से डांट खाकर तीनों बच्चे बसंती के दादाजी की गोद में चढ़ गए और दादाजी के कपड़े और बिस्तर गंदे होते देख दादी फिर चिल्लाने लगी, “बिस्तरां पर ना चढो, कपड़ा मैं भी माटी माटी हो जासी, फेर कपड़ा धोण नै पाणी लेण कुण थारो मामो जासी|”

पर दादाजी ने हंस कर सबको अपनी गोद में समेट लिया और दादी को भी हिदायत देने लगे, “टाबरां नै लड़या ना कर, खेलण दे, ऐ ही दिन है आंगा खेलण गा|”

“ऐ तो आगे ही बात पर कान कोनी धरे, थे सार लेर सगळा नै और बिगाड़ ल्यो|” गुस्से में दादी देर तक बड़बड़ाती रही फिर गुस्सा ठंडा होने पर खुद ही सबके लिए मक्खन रोटी ले आई और सबको अपने हाथ से खिलाने लगी|

अधिकतर ये ही होता तिलक बसंती के दादा-दादी का लाड़-प्यार तिलक पर बरसता तो तिलक के घर में बसंती और गोपाल का राज चलता| कहने को तो बसंती-गोपाल के दादा हरखारामजी और तिलक के दादा मनफूलजी दोनों दोस्त थे पर दोनों की एक दांत का रोटी थी| दोनों के ही घरों के बीच में पूरा गाँव था पर ये दूरी थी ही कितनी, छोटा सा तो गाँव है उनका| धमाचौकड़ी तो सारे बच्चे एक साथ ही मचाते|

तिलक की दादी तो तिलक और बसंती को राधाकृष्ण की जोड़ी कहा करती थी| तभी से तिलक के बाल मन ने खुदको सच का कृष्ण और बसंती को राधा मान लिया| दादी के प्यार की पिनक में तो एक बार उसने पानी ले कर आ रही महिलाओं की मटकी भी फोड़ डाली थी, पर फिर जो हुआ उसकी तो उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी| वे महिलाएं उसकी दादी के पास शकायत लेकर पहुँच गयी| और फिर बापू ने उसकी जो सुताई की उसे याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं| तब तो वह कई दिनों तक उन औरतों से नाराज़ रहा था और बापू से भी उसने कई दिनों तक बात नहीं की थी| यह तो उसे बहुत बाद में समझ आया कि उस दिन ना तो गलती बापू की थी और ना ही उन महिलाओं की| पानी इस मरुधरा में अमृत से कम अनमोल नहीं होता, एक घड़ा पानी लाने के लिए गाँव की औरतों को कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है| और उस दिन उसने खेल खेल में इसी अमृत को बेकार ही जमीन पर बहा दिया था|

उसके बाद तिलक ने कभी कन्हैया बनने की कोशिश तो नहीं की पर उसे अपनी राधा का साथ बहुत प्यारा था| सिर्फ़ खेल के समय ही नहीं अपितु हर पल, तभी तो जब कन्या शिक्षा के प्रति सजग उनके मास्टरजी ने हरखारामजी को बसंती को भी स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए तैयार कर लिया तो उसकी ख़ुशी का पारावार ही नहीं रहा| उनके गाँव से बहुत कम लड़कियाँ शिक्षा प्राप्ति के लिए स्कूल जा रही थी, बसंती उनमें से एक थी| इस बात के लिए जाने क्यों वह खुद को गौरवान्वित महसूस करता और बसंती की पढाई में हर सम्भव मदद की कोशिश करता यह बात अलग है कि बसंती को ज्यादातर मदद की जरुरत ही नहीं पड़ती थी क्योंकि वह पढ़ने में तिलक से कहीं ज्यादा तेज़ थी| मास्टरजी का सिखाया सबक बहुत जल्दी समझ जाती| तिलक बसंती की पढ़ाई में मदद के मकसद से जब पूछता, "तन्नै दो गो पहाड़ो आवै है के?" तो बसंती का जवाब होता, "हां! आवै है। मन्नै तो तीन गो भी आवै है।" उस समय तिलक अपना सा मुंह लेकर रह जाता। बाद में तो तिलक और गोपाल को उससे मदद लेने की आवश्यकता पड़ने लगी थी|

एक दिन तिलक को अपने घर में उत्सव का सा माहौल देख थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके हिसाब से तो आज कोई त्यौहार भी नहीं था| पर कुछ तो खास था तभी तो घर में मेहमान भी कितने आये हुए थे| बुआ, मामा मोसी और भी ना जाने कितने ही दूर-पास के रिश्तेदारों से घर भरा पड़ा था| बुआ और मोसी-मामी गाँव की दूसरी औरतों के साथ मिलकर आँगन में बैठी गीत गा रही थी, तिलक ने ध्यान से उन गीतों के बोल सुने तो उसे याद आया ऐसे ही गीत उसके दोस्त बनवारी के ब्याह में उसके घर की औरतों ने भी गए थे| उसे समझ नहीं आया उसके घर में किसका ब्याह है?

“दादी आज के है? आपणे घर में रोणक लाग री है|”

“आज थारो ब्याह है|” उसके सवाल का जवाब दादी के बजाय बुआ ने दिया|

“मेरो ब्याह! कुण के सागे?”

“एक छोरी के सागे|” तिलक की ठुड़ी पर हाथ रख कर बुआ फिर उसीकी तरह भोला सा मुंह बना कर बोली पर इस बार ज्यादा देर तक अपनी हंसी नहीं रोक पाई|

“हट! छोरी म्हारे लाडेसर ने तंग ना कर|” दादी ने बुआ को डांट दिया फिर उसकी बलैया लेते हुए बोली, “छोरा कान्हाजी गो ब्याह तो राधा के सागे ही होवे ना, तू तो जाणे, तू म्हारो कान्हा है और बसंती म्हारी राधा, तो थारो ब्याह बसंती के सागे ही होसी, है ना| जा नहा धो ले चोखा कपड़ा पहर ले फेर हरखारामजी रे घरे जाई|”

“थे और माँ भी जास्यो बसंती रे घरे?”

“ना छोरा! आज म्हे कोनी जावां| आज तो थारे सागे दादोजी जासी, और बताऊँ थारे सागे कूंण जासी, थारे सागे जासी थारा बापू, ताऊजी और सोहन भाईजी, ठीक है| अब मैं तन्ने सारी बात बता दी, अब जा खेल मन्ने काम काम करण दे, आज भोत काम है घर में, शाम नै थारे सोहन भाईजी रो भी तो ब्याह है|”

तिलक उछलता हुआ अपने दोस्तों के पास खेलने चल दिया| वह बहुत खुश था, ब्याह क्या होता है यह तो उसे नहीं पता था पर वह यह जरुर जानता था की अब उसकी ‘राधा’ बसंती उसके साथ उसके घर ही रहने आ जाएगी| आज हरखाराम दादाजी के घर अच्छे अच्छे पकवान भी खाने को मिलेंगे और हाँ उसकी प्यारी काकी, बसंती की माँ बहुत सुन्दर सा गीत भी सुनाएंगी, जैसे उन्होंने कुछ दिन पहले सुनाया था बनवारी की बहन के ब्याह में| वे बहुत अच्छा गाती हैं| क्या गीत था वो तिलक को याद नहीं आ रहा था, उसने दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डाला तो याद आया, हाँ,

‘छोटी सी उम्र परणाई ओ बाबासा,

कांई थारो करयो म्हे कसूर,’

इसके आगे बहुत कोशिश करने पर भी तिलक को याद नहीं आया| चलो कोई बात नहीं आज तो काकी खुद ही गीत सुना देंगी|

पूरी सज धज के साथ तिलक राज अपने दादाजी का हाथ थाम हरखाराम दादाजी के घर गया| बाकी तो सब हुआ पर उसे बाकी दुल्हों की तरह घोड़ी पर नहीं चढ़ाया गया| उसने दादाजी की बात सुनी थी, वो कह रहे थे, ‘तिलक अर सोहन ने घोड़ी नहीं चढ़ाणो, ध्यान राखो, पुलिस ने ठा नहीं लागणो चाहिए| पारिवारिक समारोह लागणो चाहिए, ब्याह नहीं|’

गुपचुप तरीके से बसंती के घर शादी की सभी रस्में हुई| आज बसंती ने भी बहुत सुन्दर कपड़े पहने हुऐ थे और आज पहली बार उसने कोई शरारत नहीं की, बस घुंघट ओढ़े उसके पास चुपचाप बैठी रही| तिलक को बड़ा आश्चर्य हुआ बसंती को ऐसे देख कर| वह इतना शांत कभी रहती ही नहीं, हमेशा उसे चिढ़ाती रहती थी| बाकी सब तो ठीक पर तिलक की अपनी कोकिलकंठी काकी की मधुर आवाज़ में गीत सुनने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई| काकी की बड़ी बड़ी आँखों में तो आज पूरा समय सावन भादो की बदलियाँ ही घिरी रही, जो रह रह कर बरस भी रही थी|

ब्याह की रस्में पूरी होने के बाद विदाई के समय तिलक बसंती को बोला, “चाल घरां चालां|” उसकी इस बाल सुलभ हरकत पर सभी ठठा कर हंस दिए|

“छोरा अभी बसंती ने अठे ही रहण दे| ऐने आपां आपणे घरे फेर लेगे जास्यां| अभी तो आपां सोहन भाईजी गी बारात में चालांगा| चल जल्दी कर देर हुए|” दादाजी के समझाते ही तिलक ने बसंती का हाथ छोड़ दादाजी का हाथ थाम लिया|

मनफूल जी इस आखा तीज पर दो दो पोतों का ब्याह कर के दादा ससुर बन कर खुश थे| वे अपने आपको बहुत भग्यशाली समझ रहे थे कि उनकी बात का मान रखते हुए उनके दोनों बेटों ने अपने अपने बेटों का ब्याह उनकी चुनी हुई लड़कियों से कर दिया| बाल विवाह एक कुरीति है और आगे चल कर इसके दुष्परिणाम भी सामने आ सकते हैं| इन बच्चों का जीवन भी बर्बाद हो सकता है| इस बात की उन्हें कोई फ़िक्र ही नहीं थी|

विवाह के बाद ज्यादा कुछ नहीं बदला था| बच्चों की धमा-चौकड़ी पहले की तरह ही चालू थी बस बसंती थोड़ी सी उदास रहने लगी थी| चूंकि उसे अपनी माँ की हिदायतों का पालन करना होता था इसलिए वह अब तिलक से ज्यादा बात नहीं करती थी| वह जब भी थोड़ी बहुत शरारतें करने लगती दादी उसे जोर से डांट देती| पर अधिकतर तिलक उसे दादी और माँ की डांट से बचा लेता| अब उन दोनों की पहले से अच्छी पटने लगी थी|

जिंदगी हंसते खेलते यूँही बीत रही थी| बचपन पीछे छूट रहा था और किशोरावस्था की आड़ से जवानी की उमंग दस्तक देने लगी थी| एक तरफ़ तिलक का दिल हर दिन बसंती के साथ नित नए सपनों की सतरंगी दुनिया सजा रहा था, तो दूसरी तरफ़ बसंती के सपने कुछ अलग ही आयाम रचने लगे थे| वह उन दायरों में कैद होकर नहीं रहना चाहती थी जो उसके परिवार ने उसके लिए खींचे थे| बल्कि वह तो खुले आसमान में उन्मुक्त पंछी की तरह उड़ना चाहती थी| यूँ तो एक टुकड़ा आसमान तिलक के पास भी था पर छोटा सा था और उस छोटे से आसमान से बसंती संतुष्ट नहीं थी|

जब तक तिलक को इस बात का अहसास हुआ तब तक थोड़ी देर हो गयी थी| उसने अपने प्रेम के हक से या कहें कि पति होने के हक से बसंती को बांधने की एक कोशिश भी की पर जब कामयाबी नहीं मिली तो उसने बसंती को यह सोच कर मुक्त कर दिया कि बचपन से जो डोर उन दोनों के दिलों को बांधे हुए है वह बसंती को उससे दूर जाने ही नहीं देगी| उसे पूरा विश्वास था बसंती वापस लौट कर यहीं आएगी तभी तो उसने बसंती के बापूजी को कहा था, “जाण दो काकाजी, एने भी आपगे मन गी कर लेण दो|”

“ना तिलक ओ अनर्थ करण ने ना कहो, आ नासमझ छोरी आपगो ही नुकसान कर लेगी|”

“ ना काकाजी ऐसा ना कहो| हम लोग हैं ना, सब संभाल लेंगे, इसके साथ कुछ गलत होने ही नहीं देंगे| फिर अपनों से कोई कितने दिन दूर रह पाया है, बसंती भी नहीं रह पायेगी ज्यादा दिन, देख लेना जल्दी ही लौट आएगी| पर आप इसे जितना रोकोगे ये उतना ही विद्रोही बनती जाएगी|”

काकाजी ने आखिर तिलक के कहने पर उस दिन बसंती को उसकी मनचाही दुनिया चुनने की इजाज़त दे दी| बसंती को तो तिलक ने मुक्त कर दिया पर वह खुद इस आस में वहीँ खड़ा रह गया कि शायद कभी बसंती को उसके साथ की जरुरत पड़े| पर बसंती को कभी उसकी जरूरत पड़ी ही नहीं, वह उस अनचाहे रिश्ते से छूटी तो फिर उसने पलट कर एक बार भी नहीं देखा, बस आगे ही आगे बढती रही बिल्कुल किसी उन्मुक्त नदी की तरह जो केवल आगे ही बढ़ती जाती है, मुड़कर देखना जिसके लिए संभव ही नहीं होता|

गुजरते वक्त के साथ तिलक ने इस सच को स्वीकार कर लिया अब बसंती उसके जीवन का हिस्सा नहीं बन सकती| घर बसा लिया, शादी भी कर ली, आज वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ एक सुखी पारिवारिक जीवन भी व्यतीत कर रहा है, पर आज भी अपने अपमान से उपजे आक्रोश को नियंत्रित करना उसके लिए किसी परीक्षा से कम नहीं होता| उस दिन कोर्ट रूम में बजी तालियों की आवाज़ उसके कानों में आज भी गूंजती रहती है| उसे लगता है वह आवाज़ तालियों की नहीं बल्कि उसके स्वाभिमान पर पड़े तमाचों की अनुगूँज है जो रह रह कर उसे सुनाई देती रहती है| शुरू में तो मन करता था कि बसंती को ऐसा सबक सिखाये कि वह ताउम्र याद रखे| पर गुज़रते वक्त के साथ उसे समझ आ गया कि यह रास्ता खुद उसकी बरबादी का है मगर अपने मन की शांति के लिए भी तो उसे कुछ करना ही था इसी शांति के लिए उसने यह हॉस्पिटल बनवाया है। उसके पास श्वेता के हर सवाल का जवाब है मगर अभी सही समय नहीं आया था अभी तो वक्त था हॉस्पिटल के उद्घाटन का। पुराने हिसाब चुकाने की बारी उसके बाद आएगी।