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प्रकाशकान्त: मकतल

समीक्षा- मकतल: प्रकाशकान्त

साजिशन सजा की दर्दगाथा

अपनी सोच साफगोई और सकारात्मक दृष्टि के लिए मशहूर कथाकार प्रकाश कान्त का उपन्यास ‘ मकतल’ मेधा बुक्स ने प्रकाशित किया है। अपनी कथा को लगभग एक सौ पैंतीस पृष्ठ मे समेटे यह उपन्यास इस महादेश गांवों-कस्बों में जीने वाले लाखों उन अल्पसंख्यकों की दास्तान है, जो देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए मजबूर बना दिये गये है, अर्थात केवल अल्पसंख्यक मजहब में जन्म लेने की वजह से उन्हे पांकिस्तान परस्त होने का दंश झेलना पड़ता हैं। देश में सर्वधर्म समभाव का अश्वासन देने वाले हमारे संविधान की व्यवस्था की सबल कर्मक पुलिस के अपने कर्मी भी अपने मजहबी ख्यालात और तंग नजरी से मुक्त नही है , यह तथ्य भी इस उपन्यास में प्रामाणिक रूप् से उभरता है।

एक मुसल्सल संघर्ष और राजनैतिक सक्रियता में मुब्तिला सत्तार नामक युवक तमाम मजहबी तंग नजरियों से आजाद है , जिस कि अपने दोस्त सूरज,हीरा,वंशी वगैरह के साथ बचपन से ही प्रगाड़ कौमी भाईचारे और सर्वधर्म उत्सवों में सक्रिय रहने के लिए सम्मानित किया जात चुका है। बिना लोभ और स्वार्थ के अपनी पार्टी के लिए स्वयंसेवक की तरह काम करने वाले यह सब युवक जिस राजनैतिक पार्टी के लिए काम करते हैं उसे समाज के अंतिम आदमी तक जोड़ने में लगातार सक्रिय रहते हैं और नगरपरिषद चुनाव में बहुत अच्छी स्थिति में पार्टी का ेपहुंचा देते हैं। इस बीच पार्टी मे महाजनी सभ्यता के चरित्रहीन व्यक्ति को उम्मीदवार बना दिया जाता है तो भी मन मार के सत्तार और उसके साथियों ने पार्टी के लिए प्रचार किया था। लेकिन उम्मीदवार की बदनामी की वजह से पार्टी बुरी तरह हारती है तो पार्टी की समीक्षा बैठक में सत्तार और उसके साथी गलत उम्मीदवार तय करनके पार्टी निर्णय को जिम्मेदार ठहराते हैं उम्मीदवार उस सभा में सत्तार वगैरह पर पार्टी विरोधी गतिविधियो का आरोप लगता है । इस बीच उनके गांव में कहीं बाहर से आया एक दड़ियल बुद्धिजीवी प्रकट होता है, जो इस उपन्यास का टर्निंग प्वांइट साबित होता है। गांव के लोग उसकी बातों से , उसकी हरकतों से एक कौतूहल के साथ उस पर निगारानी शुरू करते हैं। यह व्यक्ति ऊंचे दर्जे के लोकतांत्रिक विचार रखता है, उसे राजनैतिक दलों की चालों का ज्ञान है, संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा तुष्टिकरण की नीति के तहत बारी बारी से सब धर्मो के उघ्तसवों में सम्मिलित होने की गतिविधि को यह दाड़ीधारी वयक्त्ति उचित नही समझता। प्रगतिशील विचारों और लोकतांत्रिक प्रणाली को गहराई से समझाने के सदा उत्सुक रहने वाला सत्तार इस अज्ञात बुद्धिजीवी के सम्पर्क में आता है तो उसकी साथ लगातार उठने बैठने व बहस मुबाहिसा में मुब्तिला रहने लगता है।

अचानक गांव में सन्नाटे में रह जाता है क्योंकि उस अज्ञात एक्टिविस्ट तथा सत्तार को एक दिन अचानक ही पुलिस पाकिस्तानी जासूस होने के संदेह में पकड़ ले जाती है। गांव के लोग हैरान है कि सत्तार भी पाकिस्तानी जासूस निकला, बहस यह भी होती है कि अगर सत्तार जासूस है तो बदले में मिलने वाले अकूत धन को उसने कहां छिपाया है जो अपने वालिद और अम्मी के साथ निहायत गरीबी , फटेहाली और अभावों में जीवन व्यतीत करता रहा है। सततार के साथी सोचते हैं कि जासूस के लिए इस छोटे कस्बे में से क्या खबरें उलबध होगी जो ये दोनों जासूस यहां सक्रिय रहे होगे । फिर एक दिन पुलिस सत्तार के तीनो चारों दोस्तों को बुलाकर कई दिनों तक मारती पीटती है, और उनसे कुछ भी उगलवाने मे निराश होने पर अंततः उन्हे छोड़ देती है, उनके घर वाले राहत की सांस लेते है। कि भले ही असहीनय पीड़ा आकथनीय जुल्म सहन बाद आखिरशः वे लौट तो आये, जबकि सात महीने बाद भी सत्तार को कोई अतापता नही चल पाया हे। भुखमरी की कगार पर पहुंचते उसके पिता पुलिस थाने से लेकर पार्टी के बड़े बड़े पदाधिकारियेां तक सत्तार को छुड़ाने की गुहार लगाते हैं लेकिन हर जगह निराश हातेहै। दुश्मन का जासूस जैसा आरोप लगने की वजह से सब लोग उनसे एक दूरी बना ले ते हैं। बेटे का इंतजार करती अम्मी का इनतकाल होता है औरएक दिन उसे बूढ़े लाचार पिता भी सत्तार की तलाश में एक बस से दूसरी बसमे ंचढ़ते हुए गिर जाते हे तो उठ ही नही पाते फिर उनका कफन दफन दूर के किसी कस्बे में एक लावारिस की तरह किया जाता है। मुस्लिम बस्ती के लोग सत्तार और उसके परिवार से बहुत दूरी बना चुके थे कहीं उसके प्रति सदाशयत ाप्रकट करने पर वे भी जासूस न मान लिये जायें, हालांकि कुद लोग सत्तार के पिता को दिलासा दे चुक ेहोते हैं कि उनका बेटा किसी बुरे काम मं नही फंसा अच्छे काम में अंदर गया है। सत्तार के मा बापके जाने का किसी को कोई फर्क नही पड़ता कि एक दिन अचानक सत्तार वापस लौट आता है। सब अचम्भे में हैं। बहुत से लोग गुस्से में है । काई नही पूछता कि फटे पुरान कपड़े और एक टूटे हाथ व दीनपदुर्बल कार्या का सत्तार अब तक कहां रहा, बल्कि कुछ अतिउत्साही लोग उसके साथ मारपीट करते हैं तो बेहोश होते सत्तार को पुलिस बचाकर खैराती अस्पताल भेज देती है। सत्तार को कतई विश्वास नही है कि सारी बस्ती उसे पाकिस्तानी जासूस मानती है, उसे अस्पताल में बार बार अपने बचपन से अभी तक की वे गतिविधियों याद आत जो वह अपने हिन्दू मित्रों के साथ मिल कर रामलीला,गणेश यादुर्गा उत्सव के के दौरान उत्साह से कियाकरता था। ठीक होकर गांव लौटने पर सत्तार मुहल्ले की नफरत और गुस्स ेकी परवाह किए बिना अपने पुराने दोस्तों से मिलने उनके ंघर जाता है तो अनुभव करता है तक उसके जिगरी दोस्त अब उससे हर दर्जे की नफरत करन है। बहुत हताश सत्तार एककी जवीन जीने की शुरूआत करता हैऔर किराने की छोटी से दुकान खोल के जिंदगी शुरू करता है जिसमे उसकी काइ महत्वाकांक्षा नही हे। एक दिनर वह सोचता हे जिस तरह पुलिस के एक सिरफिर दारोगा की सनक ने सततार जैसे बेगुनाह युवक को पाकिस्तानी जासूस बनाकर यातना, बदनामी और नफरत के ऐसे जहर मे फंक दिया जिसका कोर्ठ इलाज नही, उस तरह इस देश का कोठ ळभी सत्तार सुरक्षित हनी रहेगा। ऐसे सत्तारो ंका सुरक्षित रहने के लिए एक राजनैतिक दल की जरूरत है जिसकी मांग बहुत से लोग उससे मिल कर काफी पहल करते रहे है और प्रदेश की राजधानी में ऐसे दल बनने की हलचल आरंभ हुई है। सत्तार क दल का मसौदा तेयार करता है और एक जल्से की आम सभा की योजना बना कर मंच, माईक और फर्श बिछा कर श्रोताओं का इंतजार करता हे लेकिन इस सभा मे ंकाइ नही आता। अपनी बातें और विचार पर्चो पर लिख कर सतताार पूरे मुस्लिम मोहल्ले और बस्ती में बांटता है कि फिर से उसे साम्प्रदायिकता भढ़काने के जुर्म में पुलिस द्वारा पकड़ लियाजाता हे और उस कृशकार्य व्यक्ति पर फिर से पुलिसिया मारपीट तथा यातनाओं का ऐसा भीषण दौर शुरू होता है कि अंततः एक लाश की शक्ल में सत्तार की देह गांव वापस आती हे ओर पुलिस के दबाब में मुस्लिम बस्ती के लोगों द्वारा उसकी देह खाक ए सुपुर्द की जाती है। इसी के साथ समापत हाती हे साम्प्रदायिक सौहार्द और प्रजातंत्रिक धर्मनिर्पेक्ष गतिविधि में सक्रिय रहने वाले विचारशील युवक की दुखद दास्तान जिसे साजिशन दर्द की भटटी में झोंक दिया गयाथा।

बहुत छोटे विवरणें से बचनपे के लिए लेखक ने लगभग हर घटना फलेशबैक पद्धति से लिखी है लकिन यह फलेश बैक किसी चरित्र नायक का नही समय का हे , इतहास का है। भले ही नायक या केन्द्रीय पात्र सत्तार हो लेकिन उपन्यास के दीगर चरित्र गनेशी, काजीसाहब, सत्तार के अब्बा, सेालंकी, दारोगा चोबे और अज्ञात एक्टिविस्ट ने कथा को विश्वसनीयता प्रदान की है। सत्तार के दोस्तों की बड़ी भूमिका नही होने से उनके चरित्र और संवाद कम से कम हैं।

संवाद बहुत कम है लेकिन यह कमी अखरती नही, बल्कि स्वाभाविक सी लगती है। जितने संवाद हैं वह पात्रोचित है। क्षिप्र भी है। राजनैतिक कार्यकर्ता पार्टीभाषा में बतियाता है तो मुस्लिम पात्र उर्दॅू मिश्रित हिन्दी और दारोगा पुलिसिया भाषा में बात करता है।

उपन्यास को पढ़ने के बात ब्लर्व पर लिखे यह शब्द बहुत सही प्रतीत होते है- ‘ यह आकस्मिक नहीं कि हमारे निकट अतीत की बदचलनी ने जिन नृशंस और नाजायज सन्देहों को जन्म दिया उनकी बदनीयती का पिछले पचास सालों से लगातार शिकार होती आ रही है -‘इस महाजन तंत्र की वह नागरिकता‘- जिसे घेर कर बार बार किसी मकतल में बहुत चतुराई से चढ़ाया जा रहा है ; और कहने की जरूरत नही कि उस धार पर चढ़ाने वाले हाथ दरअसल और किसी के नहीं , आपके और हमारे ही हैं।’

उनपन्यास पूरा करते-करते एक जबर्दस्त बैचेनी और छटपटाहट के साथ एक नामालूम से भय मे घिरा पाठक अवसाद की हद तक जा पहुंचता है। दरअसल भीड़तंत्र में बदलते समाज में जरूरी नही कि काई सत्तार यानिक एक मजहब विशेष का आदमी ही ऐसी साजिश का शिकार होगा, बल्कि काइ भी व्यक्त् िजाति, गांव,रंग , रूप और विचार धारा को लेकर मकतल पर चढ़ा यजा सकता है।

यह उपन्यास इस विषय पर इतनी गंभीरता से लिखा गया एक संपूर्ण और सशक्त उपन्यास है जिसे इस देश के तमाम हुक्मरानों और छुटभैये नेताओं को जबरन पढ़ाया जाना चाहिए जिससे उनकी आंखें के जाले साफ हो सकें।

अपनी विश्लेषणात्मक शैली और साफ उजली भाषा के कारण प्रकाश कांत का यह उपन्यास अपना संपूर्ण प्रभाव छोड़ता है।

अपने कथ्य ,तथ्य और प्रस्तुतिकरण के नजरिए से बहुत ताकतवर यह उपन्यास एक दशक के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास में से एक साबित होगा।

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