नीलिमा :- सुषमा जी अधिकतर महिलायें अध्यापिका बनना चाहती हैं लेकिन आपने लेखक बनना कब कैसे चुना ?
सुषमा मुनीन्द्र– मेरी पारिवारिक पृष्ठ?भूमि साहित्यिक – सांस्कृतिक नहीं है। मैं विज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ। विचार तो क्याि मुझे आभास तक नहीं था रचनाकार बनूँगी। मुझे लगता है नियति निर्धारित करती है व्युक्ति को समाज में किस तरह स्थामपित होना है। मेरे सख्ती मिजाज न्याियाधीश बाबूजी अदालत की तरह घर में भी कठोर न्यापयाधीश होते थे। शैक्षणिक संस्थानन के अलावा अन्यरत्र आना-जाना दुर्लभ किये रहते। यह जरूर रहा पराग, नंदन, धर्मयुग, साप्ता हिक हिन्दु-स्ताभन, कल्यााण, अखण्डा ज्योंति आदि पत्रिकायें मँगाते थे। अध्यतयन में मेरी गहरी रूचि थी। कोर्स की किताबों की तरह पत्रिकायें भी दत्तत चित्ति होकर पढ़ती। कदाचित उन्हींा दिनों निहायत गुप्तत तरीके से मेरे भीतर का रचनाकार तैयार हो रहा था। लेखक बनना बिना किसी तैयारी के अनायास हो गया। अब याद नहीं कौन सी तिथि थी, कैसा जज्बा , कैसी स्फूमर्ति कि माह, दो माह के श्रम से कहानी ‘घर’ लिखी जो 1982 में ‘सरिता’ में प्रकाशित हुई। तब से सिलसिला जारी है।
नीलिमा – सुषमा जी आप साहित्यिक रूचि वाली रही हैं आप अपने शुरूआती जीवन और लेखन के विषय में बतायें।
सुषमा मुनीन्द्र – शुरूआती जीवन एकदम साधारण था। आज भी साधारण है। उन्नी स साल कडे़ अनुशासन में बीते। हम बहनों को गर्ल्सथ स्कूणल, गर्ल्सि कॉंलेज में पढ़ाया गया कि को एड में फुसलाने वाले लड़के मिलेंगे। कड़ा निर्देश था वक्तय पर कॉंलेज जाकर वक्तल पर घर लौटना है। शाम को जब सिविल लाइन्सक के बच्चेॉ बाहर खेलते ठीक उसी वक्तट के लिये ट्यूटर लगा दिया गया कि हम खेलने न जा सकें। ट्यूटर हम सभी भाई-बहनों को एक साथ हिन्दी्, अँग्रेजी, संस्कृवत पढ़ाते। उन्नीूसवें साल में एम0 एस-सी0 (रसायन शास्त्र्) पूर्वार्द्ध की परीक्षा देती हूँ कि विवाह कर दिया गया कि मांगलिक लड़की के लिये फिर अच्छाल मैच मिले, न मिले। फाइनल आज तक नहीं हुआ। नये दायित्वों के बीच मैं भूलने लगी थी कभी कितना पढ़ती थी।
आरंभिक लेखन किसी उद्देश्ये को लेकर नहीं हुआ। छपने का आकर्षण जबर्दस्ते था। धीरे-धीरे लेखन में परिष्काकर आने लगा। हम जैसे-जैसे आयु और अनुभव में वयस्की होते हैं व्यरष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होते जाते हैं। परिपक्वेता के साथ मुझे समझ में आने लगा लेखन गम्भीिर काम है। यहॉं आनंद और संतोष कम बेचैनी और छटपटाहट अधिक है। मैं सराउण्डिंग्स को सर्जक की तरह देखने लगी। चीजें कैसी हैं इससे अधिक जरूरी है हम चीजों को कैसे देखते हैं। 2000 के आसपास मेरी कहानियॉं साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने लगीं। सिलसिला जारी है।
पुरवाई टीम – आपके अनुसार किसी अच्छीी रचना के मापदण्डि क्या हो सकते हैं ? कहानियों में भाषा, कथ्यअ और कलात्म क संतुलन की सीमा क्या होनी चाहिये ?
सुषमा मुनींद्र – रचना कर्म सरल होते हुये भी जटिल होता है अत: मापदण्डक तय कर रचना नहीं बनती। जब तक कहानी पूरी नहीं हो जाती ज्ञात नहीं होता कि वह उत्कृ ष्टी होगी, औसत या निम्ना औसत। यह भी ज्ञात नहीं होता कैसा रूप और आकार ग्रहण कर किस अंत पर पहुँचेगी। मेरा मानना है तथ्यस–कथ्य में विश्वकसनीयता, सकारात्म क भाव और कथा रस होना चाहिये। इधर भाषा, कथ्यश, कलात्म कता को लेकर बहुत प्रयोग हो रहे हैं। कई बार प्रयोग ऐसा व्या,पक होता है कि कथानक दब जाता है। स्थितियॉं वास्तबविक और व्य वहारिक नहीं लगतीं। वैसे भाषा का संस्का्र हमें अपने परिवेश और अध्यवयन से मिलता है। इसीलिये प्रत्येाक रचनाकार की अपनी एक स्वा भाविఀक भाषा होती है जो थोड़े-बहुत बदलाव के साथ प्रत्येिक रचना में दिखाई देती है। मैं सहज, सुबोध, प्रवहमान भाषा को पसंद करती हूँ।
नीलिमा – लेखन के कारण क्या आपको व्यदक्तिगत जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ा ?यदि हॉं, तो किस तरह के संघर्ष थे ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?
सुषमा मुनीन्द्र – लेखन संघर्ष का दूसरा नाम है। प्रमुखत: स्त्री रचनाकार के लिये। हमारे समाज में स्त्री और पुरूष में फर्क है। पुरूषों को काम करने के लिये परिवार में अनुकूल वातावरण दिया जाता है। स्त्रियों के काम को परिवार में मान और मान्य ता तब मिलती है जब वह खुद को साबित कर दिखाती है। आज जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो पाती हूँ राह आसान नहीं थी। दो बच्चों की देख-रेख और पारिवारिक झबार के बीच चुराये गये समय में कागज-कलम थामने का अर्थ परिजनों को कुपित करना था। ‘सम्पामदक के खेद सहित’लौटती रचनाओं के दौर से गुजर रही थी। यह मेरे लिये सदमे की तरह था। मुझे मानसिक सम्बनल की जरूरत थी। कुछ हो नहीं रहा है तो कागज काले न कर गृहस्थीम में पूरा समय दूँ कह कर परिजन हौसला खत्मक कर रहे थे। जब साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियॉं छपने लगीं, परिजनों ने माना मैं कागज काले नहीं कर रही थी। वह जो था, अभ्यागस था। कुछ बार कुटुम्ब , समूह, समाज के लोगों ने आरोप लगाया कहानी उन पर लिखी गई है। क्याब कहा जाये ? यदि आप मानते हो कहानी में चित्रित खलपात्र आप हो तो खुद को सुधारने का प्रयास करो। मुझे लगता है प्रत्येतक रचनाकार को ऐसे आरोप और विवाद से कभी न कभी गुजरना पड़ता है।
नीलिमा – आपकी कहानियों में राजनीति, साम्प्र दायिक वैमनस्य, सामाजिक विఀद्रोह व सामाजिक विभेद का चित्रण न के बराबर है। ऐसा क्यों ?
सुषमा मुनीन्द्र– रचनाकार अपने परिवार, परिवेश, पर्यावरण, परिपाटी, प्रचलन, पृष्ठ भूमि से कथ्यप ग्रहण करते हैं। कहानी फैक्ट और फिक्शरन का संयोजन होती है। कल्पठना वास्तपविఀकता से खाद-पानी लेती है। बिना अनुभव के प्रामाणिक कहानी नहीं बनती। मुझे राजनीति और साम्प्र दायिकता (साम्प्रकदायिकता भी एक किस्मन की राजनीति ही है।) की मात्र उतनी ही जानकारी है जो पत्र-पत्रि काओं, खबर चैनलों के माध्यखम से मुझ तक पहुँचती है। वैसे मेरी गणित, सरपंचिन, बड़े धोखे हैं इस राह में, मेरो विधायक हेरानो है आदि कहानियॉं राजनीतिक स्वपरूप को स्पीष्ट करती हैं।
‘गणित’ कहानी का नेशनल स्कूपल ऑंफ ड्रामा, दिल्ली में डॉं0 देवेन्द्रर राज अंकुर ने मंचन किया। इसी तरह कहानी ‘पत्थऑरों का शहर’में हिन्दू -मुस्लिम वैमनस्ये, ‘परिणय’में सवर्ण-दलित घृणा, ‘दर्द ही जिसकी दास्तांं रही’ में आदिवासी संघर्ष, ‘योग क्षेम’ में धार्मिक संस्था नों के ढकोसलों का चित्रण हुआ है।
नीलिमा – रचनाकार के लिये सामाजिक और वैचारिक प्रतिबध्दता को कितना जरूरी मानती हैं ?
सुषमा - समाज के प्रति आम आदमी की अपेक्षा रचनाकार की जिम्मेमदारी अधिक होती है। रचनाकार समाज को दिशा देते हैं। वे जो लिखते हैं उससे पाठकों को दृष्टि, विवेक, संज्ञान मिलता है। साहित्यै अपने समय और सरोकारों को उन अगली पीढि़यों तक ले जाता है जो वर्तमान समय में मौजूद नहीं हैं। इसलिये रचनाकार को फंतासी, भ्रम, अनावश्यरक नैरेशन में न पड़ यथार्थ को वास्तसविकता और प्रामाणिकता के साथ लिखना चाहिये। परिवार टूट रहे हैं, हिंसक समाज की रचना हो रही है, पाश्चाात्ये संस्कृंति के प्रभाव से युवा भ्रमित हो रहे हैं, सरकारी, गैर सरकारी संस्था नों में अनियतिता व्यााप्तर है, आतंकवाद और प्रदूषण बढ़ रहा है। ऐसे संक्रमण काल में रचनाकार का दायित्वय बढ़ जाता है। वे ऐसा लिखें कि पारिवारिक – सामाजिक संरचना मजबूत हो, मनुष्य का मनुष्य पर भरोसा बढ़े, आमजन के तनाव और दबाव कम हो, समाज में सकारात्मक भाव विकसित हो, अच्छेा नागरिक तैयार हों, लोग नागरिक अधिकारों के साथ नागरिक दायित्वोंि को याद रखें।
नीलिमा – कहानी लेखन के अलावा आपने समीक्षा भी की है। समीक्षा आलोचना को आप कैसे देखती हैं ? किसी भी लेखक के लिये कितना आवश्यईक है कि उसे समीक्षकों की सराहना मिले ?
सुषमा मुनीन्द्र – इधर मैंने लगभग 50 पुस्तककों की समीक्षा की है। आलोचना कठिन काम है। रचना को नीर-क्षीर विवेक से पढ़ना होता है। समीक्षा लेखक और पाठक दोनों को दृष्टि देती है। पाठक पुस्त्क पढ़ने के लिये प्रेरित होते हैं, लेखक को उन जरूरी बिंदुओं की जानकारी मिलती है जिस पर वे ध्यालन नहीं दे पाये थे। इधर कहा जा रहा है आलोचना निष्प क्ष और गम्भीिर भाव से नहीं की जा रही है। इस वृत्ति के चलते अक्सिर अच्छी कहानियॉं अलोकप्रिय रह जाती हैं, जेनुइन रचनाकार अल्पतज्ञात। जबकि अच्छा् साहित्यो अधिक लोगों तक पहुँचे तभी साहित्यक की उपयोगिता है। लेखकों को समीक्षकों की सराहना मिलनी चाहिये पर उन्हें यह समझ भी विकसित करना होगी सराहना उचित है या कृत्रिम।
नीलिमा – वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर आप कितना निगाह रखती हैं ? इसे लेकर कितना आशान्वित हैं ?
सुषमा मुनीन्द्र– जबसे अक्षर, शब्दक, वाक्ये, भाषा बनी साहित्यम प्रगजति ही करता गया। भाषा और व्यारकरण को बनाने में साहित्यह का बहुत बड़ा योगदान है। आज तीन या बल्कि चार पीढि़यों के रचनाकार सक्रिय हैं। स्त्री रचनाकारों की संतोषजनक संख्याव है। पत्रिकाओं, पुस्त कों का प्रकाशन बढ़ रहा है। इंटरनेट के जरिये साहित्य। सरलता से पाठकों तक पहुँच रहा है। इक्कीासवीं सदी का जबर्दस्ते बदलाव हमारे समय के साहित्यं में सम्पूइर्णता से दर्ज हो रहा है, आगे की पीढि़यॉं साहित्ये के माध्यमम से इस बदलाव से परिचित होंगी यह मुझे रोमांचित करता है। अफसोस बस यह है अँग्रेजी साहित्यस को जो महत्वझ मिलता है, हिंदी साहित्य को नहीं मिल रहा है।
नीलिमा – क्या, आपने कभी मॉंग पर लेखन किया है जैसा कि आजकल चलन है ? ऑंनलाइन पोर्टल पर आ रही सीरिज और प्रकाशकों द्वारा बताये गये विषय पर बहुत से लोग लिख रहे हैं। क्या आपने कभी इस तरह का लेखन किया है ?
सुषमा मुनीन्द्र– नहीं। अवसर नहीं मिला। मॉंग पर लिखना मेरी क्षमता में भी नहीं है। कुछ पत्रिकायें तय विषय में विशेषांक निकालती हैं। तय विषय में कहानी संकलन निकाले जाते हैं। यदि मेरे पास विषय से संबंधित कहानियॉं हैं तो मैं उन्हेंि जरूर देती हूँ।
नीलिमा – आपने लगभग 350 से ऊपर कहानियॉं लिखी हैं। ढेरों समीक्षायें, दो उपन्यामस भी। आपकी लगभग सभी रचनायें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार छपती हैं। आजकल एक किताब आने पर ही लेखक स्वयं का महिमा मंडन करने /करवाने लगते हैं | इस प्रवृत्ति पर आपका क्याल विचार है ?
सुषमा मुनीन्द्र – इधर यह चलन दिखाई दे रहा है सिर्फ एक पुस्तक प्रकाशन के आधार पर हरेक रचनाकार का महिमा मंडन करना रचनाकार के लिये प्रोत्साआहन कम घातक अधिक है। जो भी रचनाकार मूर्धन्या माने गये उन्होंलने सुदीर्ध साहित्य साधना की है। रचनाकार महिमा मंडन से उत्सालहित हों लेकिन आत्मरमुग्धह न होने लगें। क्योंकि इस तरह उनकी प्रतिस्पिर्धा स्वकयं से हो गई है। हरदम बेहतर कहानी की उनसे उम्मीगद की जायेगी। उम्मीरद पूरी नहीं करेंगे तो स्क्रू टनी होगी। किसी भी रचनाकार की प्रत्येलक रचना बेहतर नहीं हो सकती। औसत और निम्नन औसत होती है। मैं तो आज भी खुद को प्रोबेशन पीरियड में पाती हूँ। यह एक यात्रा है जो अंतिम सॉंस तक अधूरी ही रहेगी। नये रचनाकारों को कालजयी भाव के भ्रम से बचना होगा। फेलियर को मैं जरूरी मानती हूँ। वहीं से चुनौती मिलती है, चिंतन के रास्ते प्रशस्तं होते हैं।
नीलिमा – सुषमा जी आप आजकल क्या लिख रही हैं ?
सुषमा मुनीन्द्र। – सिर्फ और सिर्फ कहानी। मैं इसी विधा में सहज महसूस करती हूँ। चाहती हूँ स्वासस्य्र् ठीक रहे, स्मृ ति सुचारू रहे ताकि निर्बाध लिख सकूँ। मेरा मानना है रचनाकार को अपनी सेहत की देखभाल एसेट की तरह करनी चाहिये कि अपनी सृजन क्षमता का उपयोग अधिक से अधिक करें और साहित्यह जगत को बहुत कुछ दें।
नीलिमा – सुषमा जी पुरवाई टीम से बातचीत करने के लिये आपका बहुत आभार।
सुषमा मुनीन्द्रअ– पुरवाई टीम और पुरवाई पत्रिका को मेरा भी आभार और शुभकामनायें।
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सुषमा मुनीन्द्र
द्वारा श्री एम. के. मिश्व
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