खेमेबाज़ी से किसी लेखक का कभी भला नही हुआ - जयंती रंगनाथन का साक्षात्कार नीलिमा शर्मा Neelima Sharrma Nivia द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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खेमेबाज़ी से किसी लेखक का कभी भला नही हुआ - जयंती रंगनाथन का साक्षात्कार नीलिमा शर्मा

साक्षात्कार
जयंती रंगनाथन
ख़ेमेबाज़ी से किसी लेखक का भला नहीं हुआ – जयंती रंगनाथन
जयंती रंगनाथन
जयंती रंगनाथन हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता एवं मीडिया के लिये एक जाना-पहचाना नाम है। लगभग 3 दशकों से मीडिया में सक्रिय जयंती रंगनाथन के 5 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह और 3 बच्चों के उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। प्रिंट के अलावा, टीवी, फिल्म, वेब और ऑडियो माध्यम के लिए रचनात्मक लेखन। संप्रति – हिंदुस्तान अखबार में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर। – जयंती रंगनाथन के साथ पुरवाई टीम ने बातचीत की। प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश।

नीलिमा: जयंती, आप अपने बारे में अगर किसी को कुछ बताना चाहेंगी, तो क्या बताएंगी? जयंती कौन है, क्या करती है, उसकी क्या पसंद है, क्या नापसंद है?

जयंती रंगनाथनः छोटे शहर, भिलाई की बड़े सपने देखने वाली एक उत्साही बच्ची है। अपने को बच्ची कह रही हूं। लगता है, आज भी मेरे अंदर, खुली सड़क पर साइकिल चलाती, उत्साह में जल्दी-जल्दी बात करती, एक वक्त में बहुत कुछ करने को उत्सुक रहने वाली एक बच्ची गुपचुप रहती है। मुझे खुश रहना, पॉजिटिव रहना और हमेशा कुछ ना कुछ करते रहना बहुत पसंद है। नापसंद जैसा कुछ नहीं। हां, जिन्हें मैं प्यार करती हूं, चाहें परिवार वाले हों या दोस्त, उनके साथ कुछ ग़लत हो, वे दुखी हों, तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता।

नीलिमा: एक पत्रकार की नेचर बन जाती है कि जल्दी से स्टोरी लिखी और पोस्ट कर दी या टीवी पर बोल दी। ऐसा व्यक्ति जब साहित्यकार बन जाता है तो वह अपनी तुरत-फुरत नेचर में ठहराव कैसे लाता है जो कि साहित्य के लिए बहुत जरूरी है।

जयंती रंगनाथनः पत्रकार बनने के बाद आपमें गजब का अनुशासन आ जाता है। आपको डेड लाइन का ध्यान रखना पड़ता है। काम में तेजी आ जाती है। अखबार की दुनिया में हम आज का काम कल पर टाल नहीं सकते। इसलिए मेरा मानना है, चूंकि मैं पत्रकार हूं, मेरे काम में ठहराव आया है। मैं समय पर काम कर पाती हूं। इसके अलावा कहानी या उपन्यास रचना लेख या खबर लिखने के एकदम विपरीत है। वहां मुद्दे, डेटा, जानकारी आपके सामने होती है। आपको कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा जानकारी देनी होती है। कहानी या उपन्यास का मैदान आपका अपना होता है। जितना चाहे खेलो। इसलिए टी 20 के बाद टेस्ट मैच खेलने में मजा आता है। सुकून के साथ, ठहर कर, सोचते हुए अपनी दुनिया को रचना आपको रिफ्रेश कर देता है।

नीलिमा : आप तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भी जुड़ी रही हैं और प्रिंट मीडिया से भी। किस मीडिया में आप स्वयं को सहज पाती हैं?

जयंती रंगनाथनः मैंने धर्मयुग में दस साल काम किया और इसके बाद तीन साल तक सोनी एंटरटैनमेंट चैनल से जुड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया युवाओं के सेंट्रिक है, वहां की भाषा, जार्गन सब अलग है, सब बहुत तेज होता है। उस दुनिया में बने रहने के लिए आपको चलना नहीं, दौड़ना पड़ता है। पर इसका भी अपना मजा है। प्रिंट मीडिया में अलग सीन है। यहां अब भी वरिष्ठों को सम्मान मिलता है। आपका लिखा कई दिनों तक हवाओं में सरसराता रहता है। मुझे दोनों मीडिया में काम करके मजा आया, सेटिस्फेक्शन मिला। अब तो ऑन लाइन भी है, वहां भी अलग तरह से काम होता है। सारे मीडियम सही हैं, बस आपको उनके रंग में रंगना होता है। आगे मौका मिला तो फिर से इलेक्ट्रॉनिक या ऑन लाइन या न्यू मीडिया में जरूर कुछ करना चाहूंगी।

नीलिमा : जयंती, आपने मुंबई में भी काम किया है और दिल्ली में भी, दोनों शहरों की सोच और जीवनशैली में कुछ अंतर पाया?

जयंती रंगनाथनः मुंबई और दिल्ली की सोच में गजब का अंतर है। मुंबई इंतहाई प्रोफेशनल शहर है। अगर किसी ने कहा कि सुबह नौ बजे आपका काम हो जाएगा, तो गनीमत कि नौ बज कर पांच मिनट हो जाए। वहां की रफ्तार इतनी तेज है कि आप खुद भी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। बिना प्रोफेशनल हुए वहां आप नहीं रह सकते। दिल्ली आराम पसंदों और टालुओं की राजधानी है। किसी को परवाह नहीं कि समय पर काम हो। समय पर कोई कहीं नहीं पहुंचता। यह बात बहुत खलती है। हालांकि मुझे दिल्ली में रहते हुए मुंबई से ज्यादा समय हो गया है। दिल्ली की ठंड, दोस्ती और रिश्तों की गर्माहट, सूफियाना कल्चर, खुले-खुले हवादार घर, हरियाली, पुरानी दिल्ली, खान-पान ये सब मुझे बेतहाशा पसंद है। और बाकि सब कुछ नापसंद।

नीलिमा : आपने हॉरर स्टोरी लिखी है, किताब भी आई है और सोशल मीडिया पर भी आपने लगातार हॉरर कहानियां लिखी हैं। इसके पीछे क्या वजह रही?

जयंती रंगनाथनः रूह की प्यास 6 लस्टी हॉरर कहानियों का संकलन है। दरअसल हॉरर मेरे लिए बिलकुल नया मैदान था। मेरी एक मित्र ने कुछ साल पहले मुझे अपनी एक दोस्त की आपबीती सुनाई थी। उसी पर आधारित एक कहानी लिखी। फिर उस तरह के विषय पर मैंने कई कहानियां लिख दीं और एक संकलन बन गया। हॉरर लिखने का अपना अलग थ्रिल है। यह आपको ऐसी दुनिया में ले जाता है, जिसके बारे में आप कुछ नहीं जानते। उत्सुकता वश मैंने हॉरर कहानियां लिखनी शुरू की, फिर मजा आने लगा। इन दिनों एक हॉरर उपन्यास पर काम कर रही हूं। हॉरर शॉर्ट कहानियों पर पॉडकास्ट भी कर रही हूं एचटी स्मार्टकास्ट के लिए। सच मानिए, लिखते समय तो नहीं, पर इसके बाद डर लगता है।

नीलिमा: आपने लेखन का वो रास्ता चुना, जो दूसरों से अलग है। आपने बीस साल पहले हंस में काफी बोल्ड कहानियां लिखीं। इसके बाद आपने अपना रास्ता बदल लिया। ऐसा क्यों?

जयंती रंगनाथनः मैंने हमेशा वही लिखा, जो लिखने का मन किया। जब मैं मुंबई से दिल्ली आई थी तो मेरा माइंड सेट काफी अलग था। पच्चीस साल पहले मेरे साथ काम करने वालों में कई गे और लेस्बियन थे। मैंने ट्रांस जेंडर पर काफी काम किया था। डाक्यूमेंट्री बनाई थी। मैं मुंबई में, फिर दिल्ली में सालों तक अकेली रही। तो उस जिंदगी पर मैंने कहानियां लिखनी शुरू की। मेरे हिसाब से वे कहानियों बोल्ड ना होकर जिंदगी का तजुर्बा थीं। मुंबई में मेरे कई दोस्त लिव-इन रहते थे, अफेयर या सेक्स कोई बड़ी बात नहीं थी। खैर अब तो ऐसे विषय बोल्ड रह ही नहीं गए।

नीलिमा: आजकल देखा गया है कि साहित्यिक गुटबाज़ी ने सोशल मीडिया पर भी हावी हो रही है। क्या साहित्यकार या लेखक के लिये किसी ना किसी साहित्यिक ग्रुप में शामिल होना आवश्यक है? गुटबाज़ी क्या वास्तव में किसी को लेखक बना सकती है?

जयंती रंगनाथनः लेखक या साहित्यकार का किसी भी ग्रुप से क्या लेना देना हो सकता है? ख़ेमेबाज़ी से किसी लेखक का भला न हुआ है ना होगा। लेखक का रिश्ता पाठकों से होता है। साहित्यिक ग्रुप के अपने खतरे भी हैं। वहां जो मठाधीश होता है वो तय करता है कि क्या लिखा जाना चाहिए, क्या सही है क्या गलत। वहां फतवे जारी होते हैं। इन दिनों मैंने ये भी देखा है कि औसत लेखक ग्रुप के चक्कर में हजारों की संख्या में फालोवर्स इकट्ठा कर लेते हैं। पर मेरा मानना है कि यह ग्रुप सोशल मीडिया के कुछ हजारों के बीच ही होता है, जबकि अगर आप इसके बाहर देखें तो पाठक लाखों में होते हैं। दरअसल पाठकों को ग्रुपबाजी, खेमेबाजी से कुछ लेनादेना नहीं होता। उन्हें जो अच्छा लगता है वो पढ़ते हैं। एक बात और, लेखक को कभी अपने सारे पत्ते नहीं खोलने चाहिए। एक रहस्य बनाए रखना चाहिए।

नीलिमा : आपने बच्चों की पत्रिका नंदन का संपादन किया। बच्चों के लिए भी काफ़ी लिखा। हॉरर, बोल्ड कहानियों के बीच बच्चों के लिए कैसे रच पाईं?
जयंती रंगनाथनः मैं आसानी से अपने आपको स्विच ऑन और स्विच ऑफ कर लेती हूं। बच्चों की कहानियां लिखते समय बिलकुल उन्हीं की तरह सोचती हूं। एक वक्त पर एक ही किरदार के साथ जीती हूं। इसलिए मुझे अजीब नहीं लगता। मुझे लिखते समय वेरायटी पसंद है।

नीलिमा: आपने टीवी सीरियल, ऑडियो बुक्स और पॉडकास्ट में काम किया है। क्या ये माध्यम एक-दूसरे से अलग हैं?
जयंती रंगनाथनः टीवी या वेब सीरीज और ऑडियो बुक्स के लिए सीरियल का लेखन कमोबेश एक जैसा है। आपको वो लिखना पड़ता है, जो आपसे कहा जाता है। कहानी आपकी होती है, पर प्रस्तुति चैनल तय करता है। यह एक अलग तरह का चैलेंज है। इसमें बहुत सतर्क रहना पड़ता है और लेंग्वेज से ले कर प्रेजेंटेशन पर काफी काम करना पड़ता है। पॉडकास्ट का लेखन बहुत क्रिस्प और फास्ट होता है। ये सारे मीडियम नए दौर के हैं। जब आप किसी पत्रिका के लिए कहानी लिखते हैं या उपन्यास लिखते हैं तो आपका लेखन अलग होता है। आप अपने हिसाब से लिखते हैं। मैं अपने लिए कहूं तो मुझे ऐसा लेखन पसंद है जो आसानी से समझ में आए, जिसमें लय हो, कुछ नया हो और भाषा को ले कर भयंकर आग्रह ना हो। नई वाली हिंदी मेरी भाषा है। मैं जैसा बोलती हूं, वैसा ही लिखती हूं।

नीलिमा: आप लेखक भी हैं संपादक भी, पॉडकास्ट पर कहानियां भी पढ़ती हैं। इन सबके बाद जब घर लौटती हैं तो कितनी जयंती बाकी रहती हैं, कितनी लेखक, कितनी संपादक?
जयंती रंगनाथनः घर पर तो मैं सिर्फ जे हूं, और कुछ नहीं। मैं संपादक हूं, लेखिका हूं, पॉडकास्टर हूं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे पति तेलुगू भाषी हैं, उनका हिंदी पत्रकारिता या लेखन से कुछ लेनादेना नहीं है। इस बात का मुझे अफसोस नहीं है। बल्कि ये ब्लेसिंग इन डिसगाइज है। जैसे, मैं चाहे जितना बोल्ड लिखूं, अलग लिखूं उनको इससे मतलब नहीं। वे हिंदी नहीं पढ़ पाते। इसके अलावा साउथ से होने की वजह से हमारे यहां मातृसत्तात्मक परिवार है। घर के काम स्त्री-पुरुष दोनों मिल कर करते हैं। मैंने अपने अप्पा और भाई को घर के सारे काम करते देखा है। मेरे अप्पा लाजवाब दोशा आपकी भाषा में डोसा बनाते थे, एकदम क्रिस्पी और क्रंची। मैंने उनसे बनाना सीखा। मैं और छोटा भाई रवि अम्मा के साथ घर के हर काम में हाथ बंटाते। अब मेरे पति प्रसाद और मैं मिल कर सब करते हैं। मेरे पति शानदार खाना बनाते हैं। तो घर में मैं ना पॉडकास्टर हूं ना संपादक, अपने पति की अच्छी दोस्त हूं। अपना काम उनसे बहुत कम डिस्कस करती हूं। मुझे अपना काम करते हुए कोई समझौता नहीं करना पड़ता। छोटे शहर की लड़की ने सालों पहले जो सपना देखा था, वो सपना मैं जी रही हूं…

नीलिमा : जयंती आपने अबतक कितनी किताबें लिखी है हैं और इसी से जुड़ा सवाब कि आज 10 साल बाद जयंती को कहां देखना चाहेंगी… या यूं कहें कि अगर जयंती का ज़िक्र हो तो किस रूप में?
जयंती रंगनाथनः मैंने अब तक चार उपन्यास ‘आसपास से गुजरते हुए’, ‘खानाबदोश ख्वाहिशें’, ‘औरतें रोती नहीं’, ‘एफ ओ जिंदगी’ लिखे हैं। मुंबई पर संस्मरणात्मक नॉवेल बॉम्बे मेरी जान, तीन कहानी संकलन एक लड़की दस मुखौटे, गीली छतरी, रूह की प्यास प्रकाशित हुई है। बच्चों के लिए ज्ञानपीठ और नेशनल बुक ट्रस्ट से केलकुलेटर बना कंप्यूटर, भाग सनी भाग प्रकाशित हुए हैं। बच्चों के उपन्यास पर एक फिल्म बनी है सोने की ऐनक। टीवी धारावाहिक स्टार यार कलाकार, लव स्टोरीज आदि लिखे हैं। इरोटिका कहानियों के संकलन कां संपादन किया है। जल्द ही वाणी प्रकाशन से आ रहा है।
दस साल बाद जो होगा, वो बहुत अलग होना चाहिए। आज की तरह बिलकुल नहीं। कुछ नया काम करती हुई। मेरे बारे में लोग बात करें, जिक्र करें, यह आग्रह कभी रहा नहीं। कभी किसी तरह के रैट-रेस का हिस्सा नहीं रही। पर हां, यह जरूर चाहती हूं कि आज जिनके साथ भी काम कर रही हूं, जिनसे भी रिश्ता है वह दूर तक जाए।
नीलिमा : हमसे बातचीत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जयंती रंगनाथन: धन्यवाद