दह--शत - 34 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 34

दह--शत

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

एपीसोड --34

"रोली !ऐसा क्यों कह रही है पढ़ी लिखी औरत को भी पैर की जूती समझा जाता है ?"

"मैंने यूनीवर्सिटी के ‘वीमेन रिसर्च सेंटर’ के नोटिस बोर्ड पर ‘पैम्फ्लेट्स’ लगे देखे थे, ‘वूमन ! यू ब्रेक द साइलेंस’, ‘अत्याचार के विरुद्ध अपनी चुप्पी तोड़िये’, ‘आगे बढ़कर आवाज़ उठाए’ तो इस सबका कोई अर्थ नहीं है?”

“तू ऐसा क्यों पूछ रही है?”

“मैं इसलिए पूछ रही हूँ कि आप जैसी लेडी ‘एडमिनिस्ट्रेशन’ को लिखकर दे रही है। तब भी लोग आप पर विश्वास नहीं कर रहे? वे यही समझ रहे हैं कि आज पापा के अफ़ेयर को बढ़ा-चढ़ाकर बता रही है।”

“बेटी ! हमारी पौराणिक कथायें ज़िन्दगी का प्रतीक हैं। स्त्री दुर्दशा का वर्णन युगों पूर्व से होता रहा है। वह कहानी तो तुमने भी सुनी होगी।”

“कौन सी?”

“वही एक राजकुमारी राक्षस की कैद में थी। उसे एक राजकुमार आकर कैद से छुड़ा ले जाता है लेकिन ये कलियुग है। राजकुमारी जिसकी सहायता के लिए हाथ बढ़ाती है वह राक्षस निकलता है या कोई भला राजकुमार हुआ तो नियमों से बंधा हुआ होता है।”

“तो बिचारी राजकुमारी अपने आपको कैसे बचायेगी?”

“अपने अटूट आत्मविश्वास से। तूने सुना है न। राक्षस की जान तोते में बसती थी। उसकी टाँग तोड़ो तो राक्षस की टाँग टूट जाती थी। तोते की गर्दन मरोड़ने से राक्षस भी मर जाता था।”

रोली बच्ची की तरह हँस पड़ती है, “लेकिन आजकल किसी राक्षस की जान तोते में थोड़े ही होती है।”

“कहीं तो होती है। इनकी जान इनकी नौकरी में होती है, अपने व्यवसाय, अपने पैसे में होती है, बाहर कोई राजकुमार नहीं मिलता तो इन्हीं के मद को झिंझोड़कर राजकुमारी अपने को बचाये।”

“ऐसा ऽ ऽ ऽ....।”

“इससे ही ये राक्षस राजकुमार की तरह व्यवहार करने लगेंगे। इसलिए तो आज ही (की) राजकुमारी ने अपने लिए जुटा लिया है डी.वी.ए.।”

“क्या आप ‘डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट-2006’ की बात कर रही हैं?”

“हाँ।”

“हो...हो....हो....।” रोली देर तक खिल-खिलाती रही, “तो आप क्यों नहीं इसका प्रयोग कर रही हैं?”

“बेटी ! घरेलू हिंसा अलग चीज़ है। हमारे घर में जो हो रहा है वह तीन गुंडों का षडयंत्र है।”

“ओ ऽ ऽ....।” कितनी प्यारी लग रही है रोली लाल रंग के टॉप व काली जीन्स में। बिखरे हुए बालों के बीच, उसके लम्बे चमकीले ईयररिंग्स, बिना मेकअप का चेहरा लेकिन सपनों से सजा हुआ। समिधा हर माँ की तरह दुआ करने लगती है, रोली को कोई भला लड़का मिले।

दीवाली पास आती जा रही है। अभय तीसरे-चौथे दिन कुछ ऐसी हरकतें करते हैं कि समिधा चोट खाये। अब अक्सर “चल मेरे साथ कहीं रात गुज़ार” गाना सुना जाता है। बीच-बीच में नागिन की धुन सुनी जाती है लेकिन समिधा ने अपना सिर धुनना छोड़ दिया है। चाहे गाना ये क्यों न हो, “संसार से भागे फिरते हो भगवान् को तुम क्या पाओगे?”

बच्चे दीपावली के एक दिन पहले शोर मचाते आ गये हैं। रोली अपना बैग खोलकर सबको कपड़े उपहार में दे रही है। समिधा अपने लिए लाया महँगा सूट देखकर कह उठती है, “वाह रे ! तुम्हारी ‘ब्रेन्डेड जनरेशन’। तुम्हें इतन महँगे कपड़े खरीदने में हिचक नहीं लगती?”

“आप और पापा ने ही हमें ‘ब्रेन्डेड’ बनाया है।”

अक्षत कहता है, “मॉम ! मैं दीवाली पर घर के लिए कोई बड़ी चीज़ ख़रीदना चाहता हूँ।”

“अच्छा, सोचकर बताऊँगी।”

दीवाली की सफ़ाई या रसोई में मिठाई नमकीन बनाने के बीच समिधा भूल नहीं पा रही है वह बीन की धुन, ज़हरीली नागिन की फुफ़कार, उन दो महीनों की चोटों को। पिछली दीवाली वर्मा के पिता की मृत्यु के कारण काली थी। आज भी

कुछ करना चाहिये क्योंकि वह दो महीने से सरसराते कालेपन से तिलमिलाती रही है। वह एक स्लिप पर लिखती है-‘तुम दोनों व विकेश यानि तीन गुंडों की शिकायत मैंने एम.डी. को लिखित रूप में दे दी है- हैप्पी दीवाली।’ इस स्लिप को एक लिफ़ाफे में रखकर उसे एक बच्चे के हाथों उस घर में भिज़वा देती है। मन ही मन उस घर में आये तूफ़ान का अनुमान लगाती रहती है। लंच के लिए आये अभय शांत व प्रसन्न हैं तो तूफ़ान ने उन्हें अभी तक छुआ नहीं है।

रात को एक होटल में अक्षत ने अपनी वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में डिनर दिया है। ये समय की माँग है जिस भी सदस्य की वर्षगाँठ के महीने में जिस दिन भी परिवार इकट्ठा हो, वही वर्षगाँठ का दिन बन जाता है। अभय बीच-बीच में खूँखार नज़रों से उसे देख रहे हैं लेकिन वह बेहद परितृप्त है, खिलखिला रही है, रोली के साथ चहचहा रही है। अक्षत भी अपने चुटकुलों से सबको हँसा रहा है। गुमसुम व परेशान सिर्फ़ अभय है।

रात में साढ़े ग्यारह बज़े करीब लौटकर बच्चे अपने कमरे में चले गये हैं। वो दोनों टी.वी. देखते बैठे रहते हैं। ठीक बारह बज़े विभागीय फ़ोन की घंटी बजती है, दो बार। बबलू जी के घर तो ये फ़ोन नहीं है तो कहाँ से आई होगी ये रिंग व अभय के चेहरे पर इस तरह की शुभकामनाओं को पाकर एक सुकुमार मुस्कान आ गई है। वाह री हिम्मत ! अभय को दीवाना बनाने के लिए ये रिंग काफ़ी है। ये जताने के लिए मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ, एम.डी. से भी नहीं डरती। समिधा भी दिल से मुस्करा उठती है, टेलीफ़ोन विभाग में इसे रिकॉर्ड कर लिया होगा।

काली चौदस के दिन वह कमरे में कुछ कपड़े लेने आती है। अभय उसे देखकर गुर्राते हैं, “तो तुम अपनी हरकतें नहीं छोड़ोगी?”

“कौन सी?” वह भोलेपन से पूछती है।

“बनो मत, तुमने कल क्या हरकत की है, मुझे सब मालूम हो गया है।”

“तो तुम अपनी हरकतें बंद नहीं करोगी?”

“उस दो कौड़ी की औरत की इतनी हिम्मत? मुझे पता लगने पर भी रुक नहीं रही है ?”

“तू मानेगी नहीं....।” अभय ने चीखने से दोनों बच्चे कमरे में आ गये हैं।

रोली थरथराते हुए उसका हाथ पक़ड़कर खींचने की कोशिश करती है, “मॉम ! आप यहाँ से हटिए।”

अभय अक्षत की तरफ देखकर कहते हैं, “मालूम है तुम्हारी माँ ने बबलू जी के यहाँ स्लिप भिजवा दी है इन्होंने एम.डी. से लिखित शिकायत कर दी है। इन्होंने उन लोगों की व मेरी दीवाली ख़राब कर दी है।”

“अक्षत ! इनसे पूछ ये दो महीने से इस घर में क्या-क्या रहे हैं?”

अक्षत रुआँसा हो गया है, “मॉम ! हम लोग आपके पास दीवाली मनाने आये हैं और आप हंगामा करके सबका मूड ख़राब कर रही हैं।”

“शट अप ! अक्षत!” रोली उस पर चिल्ला पड़ती है, “मॉम ! क्या पागल हैं जो ऐसा करेगी?”

“बात ये है ये साइकिक हो रही है। वर्मा वह स्लिप लेकर मेरे ऑफ़िस आ गया था।”

अक्षत कहता है, “कल मैंने भी वर्मा अंकल को, आपके व चव्हाण अंकल व विकेश चाचा के साथ ऑफ़िस के बाहर खड़े देखा था। मैं शॉपिंग करके लौट रहा था।”

समिधा कहती है, “इनसे पूछ मैं साइकिक हो रही हूँ या ये साइकिक कर दिये गये हैं। जिस औरत का पति फ़िल्म ‘ज़हर’ देखकर अस्पताल पहुँच गया, एक महीना छुट्टी पर रहा। वह वहशी दरिन्दे सी औरत रुक नहीं रही है जिसे पति की परवाह नहीं है वह क्या तुम्हारी सगी होगी?”

“बीमार तो सभी पड़ते हैं।”

“वह ‘ज़हर’ फ़िल्म देखकर बीमार पड़ा था। मुझे अपनी बालकनी में से देख एकदम घर के अंदर भाग क्यों गया था?”

“ज़हर तो तुम अपने घर में फैला रही है।”

रोली उसे खींचकर दूसरे कमरे में ले जाकर कमरे का दरवाज़ा बंद कर लेती है। समिधा बिलख-बिलख कर रोती जा रही है पिछले महींनो की घटनायें रोली को बताती जा रही है, वह बात भी जो माँ अपने बच्चों को बता भी न पाये। न जाने कैसे उसके मुँह से निकल जाता है, “उस हैवान रंडी ने अभय के सोचने-समझने की ताकत छीन ली है।”

रोली स्वयं स्तब्ध है इस बार इस शब्द के प्रयोग का विरोध नहीं करती, “मॉम! अब हमें पुलिस रिपोर्ट कर देनी चाहिए।”

“नहीं बेटे ! वे तो यही चाहते हैं इस घर का तमाशा बने। तेरी शादी तक हमें धीरज रखना होगा। कविता इनसे रुपये तो खींच नहीं पा रही। अब एम.डी. को शिकायत करने के बावजूद इन्हें अपने प्यार में पागल कर रही है। मैंने बस एक आखिरी शॉट मारा है। उसकी टेलीफ़ोन रिंग मिस्टर भल्ला रिकॉर्ड कर लेंगे।”

“मॉम ! यो तो बहुत भयानक चक्कर है । मिस्टर भल्ला के लगाये सिस्टम से ही उम्मीद है।”

दीवाली के बाद भी तीन चार रिंग बजाकर अभय को पागल बनाया जा रहा है। बच्चे मिठाई व उपहारों के साथ विदा हो गये हैं। उनके कमरे के खालीपन के कारण उस कमरे में जाने का मन ही नहीं करता ।

अभय के ऑफ़िस जाते ही वह श्री भल्ला को फ़ोन करती है। पी.ए. उत्तर देता है, “साब छुट्टी पर घर गये हैं। चार दिन बाद वापिस आयेंगे।”

चार दिन बाद भल्ला कहते है, “अभी मैं लम्बी छुट्टी से लौटा हूँ। आपका मैटर कल देखता हूँ।”

दूसरे दिन उनका उत्तर मिलता है, “जिस आदमी ने ये ‘सिस्टम’ लगाया था वह मुम्बई टूर पर है।”

दो दिन बाद उनका उत्तर होता है, “हमारे आदमी ने आपकी बताई तारीख पर कॉल ट्रेस करने की कोशिश की तो पता लगा वह सिस्टम फैल हो गया । सॉरी मैडम।”

***

ये क्या सच ही हंगामे भरा वर्ष है? जाते-जाते एक और हंगामा करके जा रहा है। कॉलोनी में आग की तरह ख़बर फैलती जा रही है। समिधा को देर से पता लगता है। एकाउन्ट्स के एक अफ़सर ने अपनी पत्नी को इतना पीटा है कि उनके पैर का माँस फट गया है। वह अस्पताल में पड़ी हुई हैं। समिधा के सामने वाले फ्लैट की पड़ोसिन रक्षाबेन का गोरा चेहरा ज़र्द पड़ा रहता है। समिधा पूछ ही लेती है, “आप क्यों दुबली हुई जा रही हैं, सहमी-सहमी रहती हैं।”

“मैं तो अपने घर का मकान छोड़कर कॉलोनी में इसलिए रहने आई थी कि बच्चों का स्कूल पास है। मुझे क्या पता था कि कॉलोनी में आकर मुश्किल में पड़ जाऊँगी।”

“क्या हो गया?”

“वो सिंह इनका बॉस है। महीने भर पहले से ही मिसिज सिंह मेरे मिस्टर को फ़ोन करती थी कि मेरा आदमी मुझे पीटता है, मुझे इससे बचाने आओ।”

“तो उन्हें जाना पड़ता होगा?”

“हाँ, जाना तो पड़ता था। ऑफ़िस में इनके बॉस इन्हें डाँटते थे कि क्यों मेरी बीवी के फ़ोन करने पर मेरे घर दौड़े आते हो? अब उनकी बीवी हॉस्पिटल में कभी दिन में, कभी रात में मुझे फ़ोन करती रहती है कि तुम पुलिस में रिपोर्ट करके आओ। हॉस्पिटल में बैड पर पड़े-पड़े सिंह को गंदी गालियाँ देती है। मेरे मिस्टर उसे देखने जाते हैं तो डाँटती है कि तुमने पुलिस में अब तक रिपोर्ट क्यों नहीं की?”

“ऐसी क्या बात हो गई जो उन्हें इतनी बेरहमी से पीटा है?”

“क्या पता? कहते हैं सिंह घर चलाने के लिए पैसा नहीं देता था। राजस्थान के इनकी जाति वाले कह रहे हैं ये पिटाई तो कुछ भी नहीं है गाँवों में तो औरत को पेड़ से बाँधकर पिटाई की जाती है।”

“क्या?”

“सिंह कहते हैं बीवी साइकिक हो रही है इसलिए पीटना पड़ता है । ये गाँव की पागल औरत है।”

ओह ! वह तो गाँव की कम पढ़ी-लिखी स्त्री है और समिधा? वह सोचना नहीं चाहतीं।

रक्षा बेन कही जा रही है, “हम कहते हैं कि तुम क्यों नहीं स्वयं पुलिस में रिपोर्ट करवातीं?”

एक घायल औरत पति से पिटकर अस्पताल में पड़ी है समिधा अपने पुलिस के अनुभव से कैसे उसे राय दे दे कि वह पुलिस के पास जाये?

श्रीमती सिंह इलाज़ के बाद घर लौट आई हैं। कभी जब घर में बहुत पिटाई हो जाती है तो भाग कर एम.डी. के ऑफ़िस पहुँच जाती है, कभी रात में घायल उनके बंगले पर पहुँच जाती हैं।

समिधा ने भी समिति की अध्यक्ष से कह दिया था, “मैडम ! मुझे न्याय चाहिए। तीन गुँडे मेरा घर बर्बाद करने पर तुले हैं। मैंने राजा का घंटा बजा दिया है, मुझे न्याय चाहिए।”

समिधा अस्पताल में डॉक्टर पटेल के पास बैठी है। वे बताने लगतीं हैं, “कल श्रीमती सिंह रात में सिर्फ़ अकेली मैक्सी पहने खुले बालों से मेरे पास आ गई। उनके होठों से खून निकल रहा था। वह रोनें लगीं, मुझे बचा लो।”

पास बैठा अस्पताल का सुपरवाइजर कहता है, “वह पिटकर सब जगह पहुँच जाती हैं। आपने उसे घर में घुसने क्यों दिया?”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com