राम रचि राखा - 5 - 3 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 5 - 3

राम रचि राखा

मुझे याद करोगे ?

(3)

देखते-देखते एक सप्ताह बीत गया। अब आनंद के एक विषय की परीक्षा और बाकी है। कल उसकी परीक्षा खत्म हो जायेगी। दो-तीन दिन बाद उसके पिता जी उसे गाँव लिवा ले जाएँगे।

इतने दिनो में आनंद कभी भी अपने घर वालों को याद करके उदास नहीं हुआ था। लेकिन आज जब रुचि ने पूछा कि "मम्मी की याद आ रही है?" तो अनायस ही उसकी आँखें भर आई थीं।

रात में सोते समय रुचि सोचने लगी कि तीन दिन बाद आनंद चला जायेगा। सब कुछ खाली-खाली सा हो जाएगा। बहुत देर तक उसे नींद नहीं आई।

अगले दिन जब आनंद स्कूल से लौटा तो रुचि अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी थी। उसके सिर में दर्द हो रहा था। डाक्टर साहब की डिस्पेंसरी थोड़ी दूर थी। बाहर बहुत धूप थी। इतनी धूप में रिक्शे से रूचि को डिस्पेंसरी ले जाना आंटी जी को ठीक नहीं लगा। इसलिए घर पर पड़ी सिर दर्द की गोली दे दी थी। सोचा कि डाक्टर साहब दोपहर में खाना खाने के लिए दो बजे घर आएँगे ही तब देख लेंगे। अभी कुछ आराम था।

आनंद आज लौटते समय बहुत खुश था। आज अन्तिम परीक्षा थी। रुचि ने उससे कहा था, "जब तुम्हारे एग्जाम्स खत्म हो जाएँगे तब हम खूब मस्ती करेंगे।" उसे सिनेमा दिखाने का वादा भी किया था। और सबसे बड़ी बात यह कि अब उसे पढ़ने लिए कोई नहीं कहेगा। खेलने से कोई नहीं मना करेगा।

जब घर पहुँचा तो आन्टी जी ने दरवाजा खोला। उसे थोड़ा असामान्य लगा। रोज जब वह लौटता था तो रुचि उसे बाल्कनी में खड़ी मिलती। जब ऊपर आता तो वही दरवाजा खोलती। फिर उसके कपड़े बदलवाती, उसकी परीक्षा के बारे में पूछती, उसे खाना खिलाती। लेकिन आज वह बाल्कनी पर नहीं थी। दरवाजा भी आंटी जी ने खोला।

आन्टी जी उसे कमरे में आयीं और बोलीं, "बेटा! कपड़े चेंज करके चलो खाना खा लो।" फिर उन्होने रुचि से पूछा, "कैसा लग रहा है अभी ?" रुचि ने कहा कि अभी ठीक है।

"क्या हो गया?" आनंद ने पूछा

"सिर में दर्द हो रहा है।" आन्टी जी ने जवाब दिया। फिर बोलीं, "मैं खाना लगाती हूँ, तुम दोनों जाओ।" वह चली गईं।

आनंद रुचि के पास आ गया और बोला, "बहुत तेज दर्द कर रहा है?"

"नहीं, अब तो ठीक लग रहा है..." रुचि ने उठकर बैठते हुए कहा, "तुम्हारा पेपर कैसा हुआ?"

"अच्छा हुआ...आप डिस्पेंसरी गईं थीं? दवाई लीं" उसने पूछा।

"डिस्पेंसरी कैसे जाती, बाहर इतनी धूप है। सिर-दर्द और अधिक होने लगता...।घर पर ही दवा ले ली थी।" फिर मुस्कराते हुए आगे बोली, "अगर तुम बड़े होते तो मुझे बाइक पर बिठाकर डिस्पेंसरी ले जाते न?”

"हाँ...।" आनंद ने आँखें बड़ी बड़ी करते हुए कहा," मैं अभी भी आपको ले जा सकता था, अगर मेरी साइकिल होती तो।"

"तो तुम मुझे साईकिल पर बिठा कर ले जाते!...सो स्वीट !" रुचि हँसने लगी।

"अच्छा चलो, अब खाना खाते हैं।"

अगले तीन दिनो में रुचि और आनंद ने खूब मस्ती की। रुचि उसे सिनेमा भी ले गई। बाजार में जादू का खेल लगा था। एक दिन उसे वह दिखाने ले गई। उसके लिए कई कामिक्स खरीदा। दोपहर भर लूडो और कैरम खेलते, टेलीविजन देखते। उसने रुचि को लट्टू नचाना सिखाया। रोज शाम को दोनों चाट खाने जाते।

तीन दिन पलक झपकते ही निकल गए। आनंद के पापा आज उसे ले जाने के लिए आ गए। डिनर करते समय आंटी जी ने कहा –“भाईसाहब आज आनंद को यहीं रहने दीजिये, घर पर भाभी जी तो हैं नहीं। सुबह यहीं से लिवाकर गाँव चले जाईयेगा।“ आंटी जी की बात उन्हें ठीक लगी। वे अकेले ही अपने घर चले गए।

रात के ग्यारह बज रहे होंगे। रूचि की आँखों में नीद नहीं थी।

"कल वह चला जाएगा।" रूचि बिस्तर पर लेती हुई सोच रही थी। पता नहीं क्यों एक व्यग्रता उसके मन को घेरे हुए थी। ऐसा लग रहा था कि कुछ छूट रहा हो।

वह अपने बिस्तर से उठी और लाईट जलाई। देखा आनंद गहरी नींद में सो रहा था। वह उसके बिस्तर के पास गई। कुछ देर तक खड़ी होकर उसके मासूम चेहरे को एकटक निहारती रही, फिर झुक कर उसके माथे को चूमा और उसके सिरहाने बैठ गई। अपनी उँगलियों को उसके माथे, बालों और चेहरे पर फिराने लगी, जैसे कि वह उन्हें अपने अन्दर समेट लेना चाहती हो। फिर उसके हाथ को अपने हाथों में लेकर उँगलियों पर न जाने क्या गिनने लगी। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। कितनी देर तक यूँ ही बैठी रोती रही। कब नींद आ गई पता नहीं चला। बैठे-बैठे ही दीवार से पीठ टिकाकर सो गई।

जब आँख खुली तो करीब चार बज चुके थे। आनंद का हाथ उसकी गोद में था। वह उसके पैरों से लिपटकर सो रहा था। रूचि ने उसका हाथ हटाकर उसे दूसरी करवट सुलाया और अपने बिस्तर पर आकर लेट गई।

सुबह जाते समय रुचि ने उसे ढ़ेर सारी चाकलेट दी। उसके माथे को चूमा और पूछा, "मुझे याद करोगे?" कहते हुए उसकी आँखें डबडबा गईं और गला रूँध गया। आनंद को समझ में नहीं आया कि क्या कहे। ऐसा प्रश्न उसके सामने पहली बार आया था। उसने हाँ में सिर हिला दिया।

आनंद की लगभग डेढ़ महीने की गर्मी की छुट्टियाँ थी। गाँव जाकर वह अपने दोस्तों के साथ खेल-कूद और मौज-मस्ती में लीन हो गया। उसे शायद ही कभी रुचि की याद आई होगी।

छुट्टियाँ बिताकर जब वह लौटा तो एक दिन अपनी माँ के साथ आन्टी जी के घर गया। तब तक रुचि जा चुकी थी। जब आनंद की परीक्षा के समय बातें होने लगी तो आन्टी जी ने हँसते हुए कहा, "आनंद! जब तुम चले गए तो रुचि एकदम पागल हो गई थी। वह शाम को बाल्कनी में खड़ी होकर तुम्हें आवाज लगाती थी कि आनंद आओ दूध पी लो।"

बारह साल के आनंद के लिए यह समझना कठिन था कि वह ऐसा क्यों करती थी।

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