राम रचि राखा - 1 - 9 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

राम रचि राखा - 1 - 9

राम रचि राखा

अपराजिता

(9)

उस दिन मेरा जन्मदिन था। अनुराग ऑफिस के काम से कहीं बाहर गया था। जन्मदिन की बधाई देने के लिए सुबह से मेरे मित्रों के फोन आने लगे थे। हर बार जब फोन की घंटी बजती तो मैं सोचती कि अनुराग का फोन होगा। लेकिन दोपहर तक उसका फोन नहीं आया। मैं जानती थी कि वह जब बाहर जाता था तो बहुत व्यस्त होता था।

दोपहर के बाद उसका फोन आया। मैं सोच रही थी कि व्ह मुझे जन्मदिन की बधाई देंगा, लेकिन दस मिनट तक बात करने के बाद उन्होंने फोन रख दिया। जन्मदिन के बारे में कुछ नहीं बोला। मन थोड़ा उदास हो गया। वह भूल गया था। फिर मैंने सोचा कि हो सकता है शाम तक उसे याद आ जाए। हल पल यही सोच रही थी कि कब वह मुझे फोन करके कहे- हैप्पी बर्थ डे स्वीटहार्ट।

रात में उसने फोन किया और हम देर तक बातें करते रहे। कई बार मन में आया कि उसे याद दिला दूँ। लेकिन मन में क्षोभ था कि मेरा जन्मदिन कैसे भूल सकता है! मेरे जन्म दिन का उसके लिए कोई महत्त्व ही नहीं है!

दूसरे दिन वह वापस लौट आया। शाम को मुझसे मिलने आफिस आया। कल जन्मदिन पर पूर्वी ने जो ड्रेस दिया था, वह मैंने आज पहना था। बातों के दौरान वह पूछ बैठा, " नयी ड्रेस है?"

“हाँ, बर्थ डे गिफ्ट है... कल पूर्वी ने दिया।”

उसका चेहरा एकदम फक्क हो गया। "ओह, मैं तुम्हारा जन्मदिन कैसे भूल गया!" उसके चेहरे पर बहुर ग्लानि थी। फिर धीरे से बोला, "आई ऍम सो सोरी।"

"इट्स ओके। मुझे पता था कि तुम भूल गये थे।" मैने बिल्कुल शान्त स्वर में कहा।

वह कुछ सोचते हुए बोला, “लेकिन, यह बताओ कि तुमने मुझे याद क्यों नहीं दिलाया?”

"मैं क्यों याद दिलाती। वैसे भी मेरा जन्मदिन कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।"

"मेरे लिए महत्वपूर्ण है। तुम मुझे उस सुख से कैसे वंचित रख सकती थी। अगर मैं भूल भी गया था तो तुम मुझे बता सकती थी।"

मेरे मन में पहले से ही क्षोभ था और ऊपर से उसका मुझे ही दोषी ठहराना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। मैं तिलमिला उठी, "तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण रहता तो तुम इस तरह से भूल न जाते। गलती तुमने की और दोषी मुझे ठहरा रहे हो। दिस इस लिमिट...।हमेशा डिफेंड क्यों करने लगते हो...अपनी गलतियों को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते।" कहते हुए मेरी आँखों मे बरबस ही आँसू छलक आए। वह चुप हो गया।

रात में उसने फोन किया। जब मैं किसी बात से दुखी हो जाती थी तब वह बार-बार फोन करके प्यार जताता। जब उसने कहा, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।", मैं बोल पड़ी, “यह कैसा तुम्हारा प्यार है अनुराग, जो मुझे बार-बार इतना कष्ट देते हो।“

कई दिनो तक मैं अन्मनयस्क रही। पार्टी वाली घटना के बाद भी कुछ एक बार ऐसा हुआ कि हमारे बीच किसी बात को लेकर तकरार हुई थी।

धीरे-धीरे उसके कुछ दोष उभर कर आने लगे थे। जैसे उसका पोसेसिवनेस, जिद्दीपना इत्यादि। वह अपनी आलोचना कभी स्वीकार नहीं कर पाता था। किसी भी बात में अपनी गलती कभी भी नहीं मानता था। उसका यह स्वभाव मुझे कष्ट देने लगा। जब वह अपने विचार मुझ पर थोपता तो मेरा आत्मसम्मान बुरी तरह आहत हो जाता और मैं सोचने पर विवश हो जाती कि यह सब किसलिए? लगता कि मेरा व्यक्तित्व कहीं गुम सा होता जा रहा है। यह सोच मेरे लिये बहुत कष्टकारी हो जाती। घन्टों यूँ ही बैठकर सोचती रहती।

अभी कुछ दिन पहले वह घर आया। हम बातें कर रहे थे। इस बीच मेरे एक मित्र सुबोध का फोन आ गया। सुबोध इधर कई दिनों से परेशान था। उसका ब्रेकअप हो गया था। बहुत व्यथित था। जब मैंने फोन रखा तो अनुराग के होठों पर एक उपेक्षा पूर्ण मुस्कराहट थी और वह बोल पड़ा - "बेवकूफ आदमी!"

"प्लीज, जज़मेंटल मत होवो।" अनुराग की प्रतिक्रया पर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और मैं खीझ उठी, "तुम उसके बारे में बिना कुछ जाने ही कैसे इस तरह का कमेन्ट कर सकते हो"

"इसमें जजमेंटल होने जैसा कुछ नहीं है...जितनी तुम्हारी बात फोन पर सुना उतना ही समझने के लिए पर्याप्त था।" उसने दृढ़ता से कहा, "…और इसमें जानने जैसा भी क्या है। एक लडकी, एक लड़के को छोड़ रही है और वह लड़का सहानुभूति के लिए अपने आँसुओं का विज्ञापन करता फिर रहा है...दैट्स इट।"

"प्लीज स्टॉप ईट, अगर तुम दूसरों की भावनाओं को समझ नहीं सकते तो कम से कम उनके बारे में इतने रूड कमेन्ट न पास करो। और वो भी मेरे किसी दोस्त के बारे में।"

"हुंह, भावनाओं को नहीं समझ सकते" उसने व्यंगात्मक लहजे में कहा। "आई हेट चीप इमोशंस"

"प्लीज, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है इस बारे में।"

अनुराग चुप हो गया। हमारे बीच एक ख़ामोशी फैल गई। उसकी बातों से मन बहुत खिन्न हो गया था। ऐसा लग रहा था कि उनके मन में मेरे और मेरे आसपास के लोगों के विचारों का कोई सम्मान नहीं था। मैं आहत थी। कुछ देर बाद वह चला गया। मैं वहीं बैठी सोचती रही।

मैं जानती थी कि वह मेरे पुरुष मित्रों के प्रति सहृदय नहीं था। उसकी बातों से जब मन आहत होता तो संयत होने में एक-दो दिन लग जाते। वैसे तो वह एक छोटी सी घटना थी किन्तु जो बात खल रही थी वह यह कि दूसरे की बात कभी भी वह न तो सुनना चाहता था और न ही समझना। किसी भी विषय में उनका अपना एक दृढ मत होता था। जिसे सिद्ध करने में वह दूसरे की भावनाओं को भी आहत कर देता था। यहाँ तक कि मेरी भावनाओं कि भी परवाह न करता। एक अजीब सी जिद थी उसके अन्दर।

ऐसा भी नहीं था कि वह संवेदनशील नहीं था। उसकी संवेदनाओं ने मेरे हृदय को छुआ था। उसने मुझे वे पल दिए थे जिनकी मैंने कल्पना की थी। शुरूआती दिनों में जब हम निकट आ रहे थे तब हर बात पर उसकी प्रतिक्रया वैसी ही होती थी जैसा मैं अपने मन में सोचती थी। किन्तु कुछ विषयों में, या बहुत से विषयों में हमारी सोच बहुत भिन्न होने लगी थी, जो एक टकराव की स्थिति उत्पन्न कर देती थी।

अनुराग को मेरी चुप्पी खलती थी। इस बात से मैं अनभिज्ञ नहीं थी। लेकिन जब भी कोई इस तरह की बात होती तो मन में अजीब सी खामोशी घिर आती। एक अजीब सा अन्धकार छा जाता अन्तह में। अनुराग कोशिश करता कि मैं जल्दी से सामान्य हो जाऊँ।

एक दिन उसने कहा, “चलो कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चलते हैं। कुछ समय अकेले में सबसे दूर रहकर बिताते हैं।“

मुझे उसका प्रस्ताव अच्छा लगा। इधर कई बार हमारे बीच अनबन होने से एक दूरी सी हो गई थी। एकांत उस दूरी को मिटाने में सहायक होगा।

"कहाँ चलेंगे?"

"शिमला जा सकते हैं।"

“ठीक है।“

अगले साप्ताहांत पर हम शिमला चले गये। वे तीन दिन जीवन के सबसे खूबसूरत दिन थे। अनुराग हर पल मुझे खुश रखने का प्रयास कर रहा था। उसके सानिध्य, उसके स्पर्श और उसके प्यार से मन पर पड़ी काली छाया पूरी तरह मिट गई।

जब बर्फ की बारिश में उससे आलिंगन-बद्ध होकर खड़ी थी, मेरा चेहरा उसके ओवरकोट में छुपा हुआ था, उसकी बाहों ने मुझे ढँक लिया था, उस समय रूई के फाहों से झरते बर्फ की श्वेत आभा ने मेरे मन को बिल्कुल उजला कर दिया था। कितनी देर तक हम यूँ ही खड़े रहे।

पहाड़ी की चोटी पर बने मंदिर के पार्क में खड़े होकर दूर तक फैले पहाड़ियों और उनपर उगे घने पेड़ों के सौन्दर्य को देखते हुए अनुराग ने कहा, “वाणी, जी चाहता है यहीं पर रह जाएँ। वापस लौट कर न जाएँ।“

"सच्ची...यहाँ से वापस जाने का मन नहीं करेगा"

"चलो उस पहाड़ी की चोटी पर अपना एक घर बना लेते हैं और वहीं रहते हैं। सिर्फ मैं और तुम। हमारे बीच में कोई न होगा। न काम, न ऑफिस, न ही और कुछ। हम सारी उम्र एक दूसरे में खोये हुए प्यार करते रहेंगे।“

"ओह, कितना सुखद होगा, सच में ।" मैं उससे लिपट गई थी।

उसने मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में भरते हुए कहा- सुनो! मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ... तुम ही मेरा सर्व सुख हो।“

"और तुम मेरे सर्वस्व हो" मैंने कहा, "मेरी समस्त कामनाओं का साकार तुम्हीं हो।"

असीम सुख था उन पलों में।

रात में होटल के कमरे में मेरे चेहरे पर झुकते हुए उसने कहा था, “न जाने क्या बिखरा हुआ है तुम्हारे चेहरे पर, जिसे मैं हर पल अपने होठों से चुनते रहना चाहता हूँ।“

"सिर्फ चेहरे पर...?" मैंने मुस्कराते हुए कहा। एक शरारत सी मन में उभर आई थी।

उस दिन फ्लैट पर हमारा मिलन आवेग जनित था। लेकिन आज हम एक दूसरे को जी रहे थे। उस दिन हम पहाड़ी नदी की तरह अति वेग से प्रवाहित हुए थे। आज हम मैदानी नदी की तरह धीरे-धीरे बह रहे थे। एक दूसरे में डूबते उतराते, एक अनिर्वचनीय सुखद यात्रा पर अग्रसर थे।

उन तीन दिनों की सुबह, शाम, हर पल मेरी कल्पनाओं के जैसा था। मैं पूरी तरह भर गई थी। वहाँ से वापस लौटकर आने का मन नहीं कर रहा था।

लौटने के कई दिनो बाद तक हमारे बीच सब कुछ बहुत अच्छा चलता रहा। हम प्राय: रोज ही मिलते। अपने भविष्य के सपने बुनते। शनिवार और रविवार को पूरा दिन हम साथ ही बिताते। दस-ग्यारह बजे घर से निकल जाते। कभी किसी चित्र प्रदर्शनी में चले जाते, कभी प्ले देखते। कभी दिल्ली हाट जाकर कुछ खरीददारी करते। कभी प्रगति मैदान की सीढ़ियों पर यूँ ही हाथ में हाथ डालकर देर तक बैठे रहते। शाम को क्लब चले जाते और देर तक डांस करते।

इस बार मेरी डेट्स नहीं हुई। मैंने डॉक्टर को दिखाया। जब उसने बताया कि मैं प्रेग्नेन्ट थी, मेरी आँखें खुशी से चमक उठीं। मातृत्व की अनुभूति से रोम-रोम रोमांचित हो उठा। मैं तुरन्त अनुराग को फोन करके बताना चाहती थी। वह बहुत खुश होगा। अब हमें जल्दी ही शादी करनी पड़ेगी।

मैं अनुराग को फोन करने जा रही थी कि तभी याद आया कि अगले महीने उसका जन्मदिन है। मैंने सोचा कि इससे अच्छा जन्मदिन का तोहफा उसके लिये कुछ और न होगा। मैं रुक गयी।

रात में सोते समय कितने ही सपनों ने आकर घेर लिया। हमारा घर, हमारी शादी, हर पल अनुराग का साथ और सबसे अधिक सुखद माँ बनने का अहसास। हमारा प्यार अंकुरित हो रहा था मेरे गर्भ में। रह-रह कर मन पुलकित हो उठता था।

क्रमश..