राम रचि राखा - 1 - 11 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 1 - 11

राम रचि राखा

अपराजिता

(11)

समय तो अपनी गति से चलता रहता है। अनुराग के गये हुये तीन साल बीत गये। अब ध्रुव लगभग ढ़ाई साल का हो गया है। एलबम में अनुराग की फोटो देखकर उसे पहचानने लगा है।

वैसे तो तीन साल बहुत लम्बा समय नहीं होता है, किन्तु मेरे लिये पिछले तीन साल तीन युग के बराबर थे। अनुराग के प्रति मन मे क्रोध तो था। लेकिन शायद मेरा प्रेम इतना सबल था कि इतने कष्टों के बाद भी मैं कभीं उससे घृणा नहीं कर पाई। अचेतन मन में एक प्रतीक्षा सी बनी रहती थी। लगता था कि वह कभी लौट आएगा। उसका एक बार लौट कर आना ही मेरे आहत आत्माभिमान का एक मात्र उपचार हो सकता था।

आज तीन साल बाद अचानक अनुराग को देखकर समझ मे नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह व्यवहार करूँ। काफी देर तक हम खामोश बैठे रहे। इस बीच शान्ति पानी और चाय ले आयी।

"पूर्वी अब यहाँ नहीं रहती...?" उसने पूछा। उसकी निगाह घर की दीवारों और पर्दों पर घूम रही थी। शायद कुछ जानने की कोशिश कर रहा था। यह जगह अनुराग के लिए नई नहीं थी। बहुत से सुखद पल हमने यहाँ साथ मे बिताए थे। हाँ पूर्वी के जाने के बाद कमरे का विन्यास बदल गया था। बहुत से अनाश्यक फर्नीचर मैने हटा दिए थे। ध्रुव को खेलने के लिए अधिक से अधिक खाली जगह बनाना चाहती थी। सिर्फ़ एक सोफ़ा और सेन्ट्रल टेबल पड़ा हुआ था।

"नहीं, उसकी शादी हो गयी है।"

कभी हमारी बात खत्म होने का नाम नहीं लेती थी। लेकिन आज हर एक दो वाक्य के बाद एक रिक्तता हो जा रही थी। इतने दिनों से खंडित संवाद को जोड़ने के लिए हम उसके सिरे तलाश रहे थे। बार-बार उसकी नज़रें मुझसे टकराकर शून्य मे विलीन हो जा रहीं थीं। वह पहले से कुछ दुबला लग रहा था। चेहरे के भाव अस्थिर थे। एक उद्विग्नता सी दिखाई दे रही थी।

"तुम्हारी पेन्टिंग कैसी चल रही है?" उसने खामोशी को तोड़ा।

"अब मैं पेन्टिंग नहीं करती"

"क्यों...?"

"समय नहीं मिल पाता है...और फिर ऐसा कुछ है भी नहीं जिसे मैं कागज पर सहेज कर रखूँ।" मेरे स्वर मे उदासीनता था। जो उसके चेहरे पर फैल गयी।

"बाल छोटे करा ली...?" एक फीकी सी मुस्कराहट के साथ उसने कहा, "वैसे यह लुक भी अच्छा लग रहा है"

मैने मुस्करा भर दिया। मेरे घने लम्बे बाल उसे बहुत पसन्द थे। जब कभी मेरी गोद में सिर रखकर लेटता तो मेरे जूड़े को खोल देता। मेरे बाल उनके चेहरे पर बिखर जाते। वह उनमें अपनी उँगलियाँ फिराता, उससे खेलता। पहली बार जब पार्क की बेंच पर बैठकर उसने शरारतवश मेरा जूड़ा खोल दिया था और मेरे बाल खुलकर बिखर गये थे, मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा था, "कितनी सुन्दर लगती हो तुम खुले बालों में। इन्हे कैद न किया करो।"

ध्रुव के पैदा होने के बाद मैने बाल कन्धे तक कटवा लिए थे। लम्बे बालों को धोने और सहेजने मे बहुत समय लगता था और परेशानी भी होती थी।

तभी अन्दर कमरे में ध्रुव जाग कर रोने लगा। शान्ति उसे उठाकर मेरे पास ले आई। मैंने शान्ति को दूध लाने को कहा। जब भी सोकर उठता है, सबसे पहले उसे दूध पीना होता है। शान्ति दूध का बोतल ले आई। मेरी गोद में लेटकर वह दूध पीने लगा। बीच-बीच में अनुराग की ओर देख लेता।

"तुम्हारा...बेटा है...?" अनुराग के स्वर में कुछ अविश्वास था। आशंका से उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई थी।

"हाँ...।" मैंने एक गहरी साँस लेते हुए कहा।

आँखों के सामने वह शाम उभर आयी जब फ्लैट में उसने कहा था- “यह कमरा हमारे बच्चों का होगा।“

कैसी विडम्बना है कि पिता को पुत्र का परिचय देना पड़ रहा है। जी चाहा कि उसके कन्धों को पकड़कर झकझोरते हुए जोर-जोर से चीखूँ कि ये क्या हो गया...तुमने ऐसा क्यों किया अनुराग...क्यों ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी। क्यों इस तरह से चले गये। लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा। अन्दर के उबाल को थामे रखा।

यह जानकर कि मेरा एक पुत्र है, अनुराग का चेहरा एकदम सफेद हो गया। उसकी आँखों में गहरी निराशा और पीड़ा उतर आयी। उस पीड़ा को मैं पहचानती थी। मैंने उसे सहा था। मैंने उसे जिया था। खो देने का अहसास उसके मन को कचोट रहा था। छोड़ दिये जाने का दुख बहुत बड़ा होता है। लग रहा था जैसे उसका सब कुछ लुट चुका हो।

थोड़ी देर मे स्वयं को संयत करते हुए पूछा, "क्या नाम है?" उसकी आवाज़ में और चेहरे पर एक बेचारगी थी। वह और भी बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन शब्द उसके होठों तक आकर रुक जा रहे थे। वास्तव में वह पूछना चाहता था कि मैंने शादी कब की, किससे की। शायद इसकी कल्पना नहीं की थी उसने। शायद मुझे किसी और के साथ देखना उसे अब भी स्वीकार न था।

"ध्रुव..." मैने कहा।

तभी ध्रुव अपने मुँह से दूध का बाटल निकाल कर मेरी गोद में बैठ गया और उसकी तरफ़ देखकर मुस्करा दिया।

"आओ...आ जाओ मेरे पास।" अनुराग ने उसे मुस्कराते देखकर अपना हाथ फैलाते हुये बुलाया। ध्रुव मेरी गोद से उतरकर उसके पास चला गया। उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। अनुराग ने उसकी नन्ही उँगलियाँ अपनी उँगलियों में थाम ली। ध्रुव मेरी ओर देखकर एक बार मुस्कराया और फिर अनुराग की ओर देखकर बोल पड़ा, "पा...पा..." उसने पहचान लिया था। अनुराग के साथ के फोटो से कई एल्बम भरे पड़े थे। कभी-कभी उसके साथ विगत सुखद क्षणों में विचरण करना अच्छा लगता था। उसके अलावा अनुराग का जो पोर्ट्रेट बनाया था, वह बैडरूम में ही पड़ा था। मैंने उसे हटाया नहीं।

अनुराग की आँखें विस्मय से खुली रह गयी थीं। उसने मेरी ओर देखा। मैं चुप थी। ध्रुव को उसने गोद में उठा लिया और उससे पूछा," क्या बोला आपने...?"

"पापा..." ध्रुव ने दुहरा दिया। फिर मेरी ओर देखकर बोला, "मम्मा, पापा..." शायद मेरी सहमति चाहता था।

अनुराग ने ध्रुव को सीने से लगा लिया। मेरी ओर उलाहना भरी नज़रों से देखने लगा। थोड़ी देर ध्रुव उसकी गोद में रहा, फिर उतर कर अपने खिलौने उठा लाया। अनुराग की आँखों में राहत और खुशी उभर आई। ऐसा लगा कि जैसे डूबते-डूबते बचा हो। ध्रुव खिलौनों से खेलने लगा था।

अनुराग काफी देर तक मुझे चुपचाप देखते रहा। उनका मन शान्त हो चुका था। उसके चेहरे से उद्विग्नता की रेखाएँ मिट चुकी थीं। उनकी आँखों मे मेरे प्रति प्रेम और गर्व उमड़ आया था। भींगे हुए स्वर मे उसने कहा, "तुमने मुझे बताया नहीं...?"

"क्या बताती...तुम तो जाने का फैसला कर चुके थे...क्या कहती कि मुझे छोड़कर मत जाओ, मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ… गिड़गिड़ाती तुम्हारे सामने? " मेरी आवाज़ ऊँची होने लगी थी। इतने दिनों की पीड़ा और क्षोभ शब्द बनकर मेरी जिह्वा से झरने लगे थे, "तुमने एक पल में सब कुछ खत्म करने का निर्णय ले लिया था। एक बार भी मुझसे पूछा कि मैं क्या चाहती थी? तुम्हारे लिए मेरी चाह का कोई अर्थ ही नहीं था।" मैं बोले जा रही थी। इतने दिनों से मन मे रुका हुआ बाँध टूट कर बहने को उद्यत था, " बस अपने आप निर्णय कर लिया...एक बार भी मुड़कर नहीं देखा...कभी भी नहीं जानना चाहा कि मैं कैसी हूँ।" मेरी आँखों मे आँसू उतर आए।, " आज तीन साल बाद लौटकर आये हो और पूछ रहे हो कि मैंने तुम्हे बताया क्यों नहीं...इन तीन सालों में मैंने क्या-क्या सहा है इसका अन्दाजा है तुम्हें...?" मेरा गला रुँधने लगा था।

अनुराग चुपचाप सुन रहा था। वह मेरे पास आकर बैठ गया। मुझे अपलक देखता रहा। मुझे जोर-जोर से बोलते देखकर ध्रुव सहम गया। खेलना बन्द करके मेरे पास आ गया। मैने उसे गोद में उठा लिया। आँसुओं को पोछ लिया।

कुछ देर खामोश रही। फिर स्वयं को संयत करते हुए बोली, "तुम तो चले गये थे, अब इतने सालों बाद लौटकर क्यों आये हो?"

"मैं तुम्हारे पास वापस आना चाहता हूँ।" उसने काँपती हुई आवाज़ मे कहा। उसकी पलकों के कोरों से आँसू ढ़लक आए थे।

"किसलिए वापस आना चाहते हो...ताकि तुम मुझे फिर से छोड़कर जा सको...?" मेरा स्वर बिल्कुल सपाट था।

उनके चेहरे पर पश्चाताप की लकीरें उभर आई थीं।

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