आखा तीज का ब्याह - 3 Ankita Bhargava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखा तीज का ब्याह - 3

आखा तीज का ब्याह

(3)

प्रतीक के हॉस्पिटल जाने के बाद वासंती ने अपनी सासुमां को फोन लगाया, "हैलो! प्रणाम मम्मा!"

"खुश रहो बेटा! कैसे हो! हमारी परी वनू कैसी है?"

"बहुत बदमाश हो गई है मम्मा। पूरा दिन शरारतें करती रहती है। आपको और पापा को याद भी बहुत करती है।"

"हां तो कभी लेकर आओ न उसे। जोधपुर कौनसा दूर है।"

"जी मम्मा! जल्दी ही आते हैं। अभी तो प्रतीक ने एक नयी मुश्किल खड़ी कर ली है। उन्होंने मेरे गांव के पास ही किसी एनजीओ का नया खुल रहा हॉस्पिटल ज्वॉइन करने का मन बनाया है। नेक्स्ट वीक निकलना है। पैकिंग भी करनी है।"

"सच! फिर तो यह हमारे लिए खुशी की बात है। तुम लोग हमारे और भी पास आ जाओगे। अब हमें अपनी वनू से मिलने के लिए लंबी छुट्टी का इंतज़ार नहीं करना होगा।" वासंती ने बड़ी उम्मीद से अपनी सासुमां को बताया कि शायद वे प्रतीक को गांव जाने से रोक लें, मगर वह तो उल्टा खुश हो गई। वासंती अपने विचारों में खोई हुई थी कि वन्या ने उसे झंझोड़ दिया।

“मम्मा! मम्मा| पापा, पापा|” वन्या फोन उठाये खुशी से चहक रही थी| डेढ़ साल की छोटी सी वन्या, अभी बस बोलना सीख ही रही थी और छोटे छोटे शब्द ही बोल पाती थी| जब भी फोन बजता वह पापा का ही कॉल समझती और ऐसे ही उत्साहित हो जाती| इस बार सच में प्रतीक का ही कॉल था|

“हेलो|”

“ठीक हो ना?” प्रतीक पूछ रहा था

“हाँ ठीक हूँ|”

“वन्या क्या कर रही है? आज उसे कहीं बहार घूमाने ले कर चलते हैं, उसे अच्छा लगेगा| मैं शाम को जल्दी घर आने की कोशिश करता हूँ, तुम तैयार रहना|”

“ठीक है|” वासंती ने कहा और फोन कट कर दिया| वह समझ रही थी प्रतीक उसे तनाव मुक्त करने के लिए ही घूमने जाने की बात कर रहा था| अचानक उसके मन में अपने गाँव के उस बिज़नेस मैन के बारे में जानने की जिज्ञासा उठी जिसने इतना बड़ा हॉस्पिटल खोला है| वह जानना चाहती थी कि उसके गाँव में इतना बड़ा बिज़नेस टायकून कौन आ गया क्योंकि उसके गाँव की अर्थव्यवस्था पशुपालन और खेती पर आधारित थी और जितने लोगों को वह जानती थी उनमें से तो उसे किसी से भी इतना सफल बिज़नेस मैन होने की उम्मीद नहीं थी|

उसने अपना लेपटोप खोला और गूगल पर अपने गाँव के नाम के साथ ‘जीवन रेखा हॉस्पिटल’ डाल कर सर्च करने लगी| गूगल ने उसके प्रश्न के जवाब में जो बताया उसे देख कर तो वासंती की आँखें फटी की फटी रह गयी| उसने कभी सपने में भी उम्मीद नहीं की थी कि प्रतीक उससे इतना बड़ा झूठ भी बोल सकता है| वह नाम जो उसने अभी लेपटोप के स्क्रीन पर पढ़ा वह उसके दिमाग पर हथौड़े की तरह बज रहा था| उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसके जैसा साधारण से व्यक्तित्व वाला आदमी भी कभी यह मुकाम हासिल कर सकता है| उसने दुबारा चेक किया कि कहीं कोई गलतफ़हमी तो नहीं, एक ही नाम के दो शख्स भी तो हो सकते हैं | नहीं कोई गलतफ़हमी नहीं थी वही नाम, वही चेहरा| इस आदमी को तो वह कभी भूल ही नहीं सकती|

“प्रतीक! ऐसा कौन टायकून बिज़नेस पैदा हो गया मेरे गाँव में जो इतना बड़ा हॉस्पिटल खोल रहा है?" वासंती ने प्रतीक के घर आते ही पूछा वह अब और सब्र नहीं रख पा रही थी|

“इतनी भी क्या जल्दी है सब जानने की, इस बारे में हम बाद में बात करते हैं| अभी घूमने चलते हैं|” प्रतीक ने उससे नज़रें चुराते हुए कहा|

“बताना तो चाहते हो ना? या सब कुछ गुपचुप ही करना है?"

“क्या कहना चाहती हो? मैंने क्या छुपाया है तुमसे बोलो?”

“ क्या सोचा था तुमने, तुम नहीं बताओगे तो मुझे पता भी नहीं चलेगा?” वासंती गुस्से से फट पड़ी|

“क्या बोल रही हो? क्यों परेशान हो बताओ तो सही?” प्रतीक ने उससे पुछा, हालाँकि वह समझ रहा था उसके गुस्से का कारण|

“तुम जिसके यहाँ नौकरी करने जा रहे हो, उस आदमी को जानते नहीं हो क्या? कितने खतरनाक हैं वो लोग, उन लोगों ने क्या किया था हमारे साथ सब भूल गए?” अपनी बात कहते कहते रो पड़ी वासंती|

“नहीं कुछ नहीं भूला हूँ मैं| ये भी कि गलत वो नहीं हम थे, भूल हमारी ज्यादा थी|” प्रतीक ने शांत स्वर में कहा|

“तुम समझते क्यों नहीं सब तुम्हारी तरह सीधे और सरल नहीं होते, मौका मिलते ही वार करते हैं| बल्कि मौका बना कर वार करते हैं| मुझे लगता है हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, जाल बिछाया जा रहा है हमारे ख़िलाफ़, ताकि एक बार हम फंस जायें तो निकल भी नहीं पाएं| अगर उन लोगों ने भी हमारे साथ कुछ गलत कर दिया तो हम क्या करेंगे| अख़बार में टी. वी. पर आने वाली ऑनर किलिंग की ख़बरों से तुम अनजान हो क्या? क्यों हम सब की जान जानबूझ कर खतरे में डाल रहे हो?” कहते कहते हांफने लगी वासंती|

“इधर आओ! यहाँ बैठो मेरे पास|” प्रतीक ने वासंती को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया और प्यार से उसे समझाने लगा| “अगर उन्हें ऑनर किलिंग जैसा ही कुछ करना होता तो हम उनसे कहीं भी सुरक्षित नहीं थे, वो लोग हमें कभी भी मार सकते थे, पर हम ज़िन्दा हैं| इसका मतलब साफ़ है वासंती कि वो लोग इतने बुरे भी नहीं हैं जितना तुम उन्हें समझ रही हो| तुम्हारे घर वालों ने भी तुमसे रिश्ता भले ही तोड़ दिया हो पर इसके आलावा तुम्हारे या मेरे साथ कभी कुछ गलत नहीं किया| और फिर तुम यह भी मत भूलो कि गलती हमारी थी| हम अपनी बात, अपना नज़रिया सबको सही तरीके से नहीं समझा पाए| बस वो करते गए जो हमें सही लगा| अब वक्त है अपनी गलतीयां सुधारने का| मैं वही करने की कोशिश कर रहा हूँ और हाँ हमें वहां कोई खतरा नहीं है क्योंकि वहाँ कोई पहले से ही मौजूद है हमारी मदद करने के लिए|”

“अच्छा कौन है? ज़रा मुझे भी तो पता चले|”

“ऊँहूँ! अभी नहीं| यह तुम्हें वहीँ जा कर पता चलेगा| सरप्राइज़ है वो भी प्लीजेंट वाला|” प्रतीक ने मुस्कुराते हुए रहस्यमयी आवाज़ में कहा|

प्रतीक को समझाने की वासंती की हर कोशिश नाकाम रही तो उसके पास खुद को समझाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। उसने खुदको समय के बहाव में छोड़ दिया।

उसने सामान बांधना शुरू किया। मगर क्या क्या बांधे और क्या छोड़े समझ नहीं पा रही थी। सामान तो बंध जाएगा मगर इस घर से जुड़ी यादें! वो पल जो इस घर मेंं बिताए हैं उन्हें समेट कर किस तरह सूटकेस में रखे वासंती को समझ नहीं आ रहा था।

वासंती को अपने इस घर से बड़ा लगाव था| होता भी क्यों नहीं, आखिर इसी घर में ही तो उसकी दुनिया शुरू हुई थी, सारे रिश्ते भी इसी घर से मिले| प्रतीक के साथ शादी करके वह इसी घर में आई थी और उसकी परी वन्या का जन्म भी इसी घर में हुआ था| उसने ये घर अपने हाथों से सजाया था| इसका हर एक कोना, हर एक दीवार अपने हाथों से संवारी थी उसने| यह घर बहुत खास था वासंती के लिए, होता भी क्यों नहीं? आखिर इसी घर ने ही तो उसे अपने घर के सुख का अहसास दिलाया था| बहुत शौक था उसे घर सजाने का, जब भी थोड़ी फुर्सत मिलती वह चल देती अपने आशियाने के लिए कुछ नया खरीदने| वासंती के लिए यह श्वेता की यादों के साथ कुछ वक्त बिताने का तरीका भी था, जो कभी उसकी सबसे प्यारी सहेली थी, आखिर घर सजाने का यह हुनर वासंती ने उसी से ही तो सीखा था|

प्रतीक उसका मज़ाक उड़ाते हुए अक्सर कहता, ‘जाने क्या क्या उठा लाती हो बाज़ार से, पूरे घर को म्यूजियम बना रखा है, कभी अपने लिए भी कुछ खरीद लिया करो| कोई ड्रेस, कोई ज्वेलरी या कुछ और|’ मुंह से चाहे कुछ भी कह ले पर प्रतीक भी उसके इस हुनर का कायल था, तभी तो, जब उसके दोस्त घर सजाने के लिए वासंती की तारीफ़ करते थे तो वह भी गर्व से फूल जाता था| आज अपने इस आशियाने को छोड़ कर जाते हुए वासंती का दिल टुकड़े टुकड़े हो रहा था|

“मेरे ख्याल से तुम दुनिया की पहली लड़की हो जो मायके जाते हुए रो रही है वरना ज्यादातर लडकियाँ तो ससुराल जाते हुए रोती हैं|” एक रोज़ वासंती की आंखों में आंसू देख प्रतीक ने मज़ाकिया लहजे में कहा| वासंती ने उसकी आँखों में देखा| थोड़ा बैचेन तो वह भी था पर वासंती जितना उद्विग्न नहीं| ‘इन पुरुषों को क्या सच में किसी बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता?’ वह हैरान सी सोचती रही|

आखिर वह दिन भी आ गया जब उन्हें निकलना था। “चलो जल्दी करो, जितनी देर होगी हाई वे पर उतना ही ट्रेफ़िक बढ़ता जायेगा और हमारे लिए मुश्किल भी|” प्रतीक कह रहा था मगर वासंती के पांव ही नहीं उठ रहे थे। घर को ताला लगाते हुए तो उसकी आँखें बरस ही पड़ी| उसने एक बार और उस घर को नज़र भर देखा और कार में आँखें मूंद कर बैठ गयी, उसकी आँखों से अश्रुधारा लगातार बह रही थी|

कुछ देर बाद उसने आँखें खोलीं, वो लोग अब शहर के बाहर हाई वे पर थे, सड़क के दोनों तरफ़ हरे पेड़ों की कतार बहुत खूबसूरत लग रही थी| उसने वन्या को देखा वह हर बात से बेखबर आशा की गोद में सो गयी थी, आशा भी झपकियाँ ले रही थी| प्रतीक ड्राइवर की बगल में बैठा हमेशा की तरह किताब में खोया था| सब सामान्य थे बस केवल वही थी जिसका मन सही ठिकाने पर नहीं था| ठीक ही कह रहा था प्रतीक वह शायद दुनिया की पहली लड़की थी जो मायके जाने के नाम से घबरा रही थी, रो रही थी| हिसाब से तो उसे खुश होना चाहिए| वह अपने माता-पिता के पास जा रही है, कल से वह उनसे बस पन्द्रह किलोमीटर दूर होगी| उनके इतनी पास कि चाहे तो उनसे हर रोज़ मिल सकती है| कोई और लड़की होती तो शायद ख़ुशी से फूली ना समाती पर वह खुश नहीं थी| नाखुश भी नहीं थी, बस डरी हुई थी, कुशंकाओं से घिरी हुई थी कि जाने उनके साथ वहां कैसा व्यवहार हो| कार चाहे उन्हें आगे उनकी मंज़िल की ओर ले जा रही थी पर वासंती का मन तो उसे यादों की डगर पर पीछे की ओर ले जा रहा था|