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वारिस

वारिस

डरावनी, वीरान और काली रात, जैसे आँखों में काजल लगा कर एकटक घूर रही हो और पछवा के सुरों ने हवा में अपना घरौंदा बना लिया हो। ऊपर से आवा-जाही न होने का घोर सन्नाटा। जँगली झीँगुरों की कनफोड़ू आवाज़ दीमाग में सीटीयों बजाती तो पछवा हवा के जोर से खड़खड़ाते सूखे पत्ते, कान के परदों में खरौंच की तरह चुभते। कभी-कभी बंदरों का पेड़ों में दुबका झुँड़ ठंड के कारण कूँ-कूँ कर किकियाता तो कभी टहनियों को झंझोड़ कर अपने क्रोध को दर्शाता और फिर समाधान न मिलने पर स्वयं ही शान्त हो जाता। साँय-साँय करती इतनी बड़ी हवेली में अकेला जगन्नाथ ही था जो हवेली के पिछवाड़े बैठा बीड़ी फूक रहा था।

उस गज भर के मकान की एक-एक ईंट उसके बचपन, जवानी और सुख-दुख की साक्षी थी। बीघों तक फैले आम के बाग की रखवाली के लिये उसका वहाँ रहना जरुरी था।

कहने को तो पूरी हवेली की चाबियाँ का गुच्छा उसी के पलंग के सिरहाने रहता था, पर साग-सफाई और रख-रखाब के अलावा उसने कभी उधर की तरफ रुख भी न किया। बन्द दरवाजों के भीतर जब-जब सीलन गहराती तो दीमक धावा बोल देती। सफाई के बाद दवा का छिड़काव होता और फिर हवेली को तीन-चार दिन खुला छोड़ा जाता। ये सब काम जगन्नाथ के ही जिम्मे था। कभी साँप, बिच्छू और जहरीले जीव अपना अधिकार जमा लेते तो कभी बड़ी-बड़ी मकड़ियाँ चतुराई से ताना-वाना बुन कर राज करतीं। यह देख जगन्नाथ की जान निकलती वह ऐड़ी चोटी का जोर लगा देता पर उसकी सूरत बिगड़ने न देता। बिल्कुल वही रुप जो बड़े ठाकुर के सामने था। रंग रोगन न हुआ तो क्या? सफाई-सुथराई बराबर हो रही थी। दीवारों ने कभी शिकायत न की, वो भी ठाकुर साहब की अहसान मन्द थी। मगर उम्र के साथ तो आदमी भी बुढ़ाने लगता है सो वो भी कुछ हद तक जरजराने लगी थीं।

हवेली से उसे लगाव मरने-मारने की हद तक था पर पाने की चाहत कभी न रही। एक बार कबड़ बिज्जू ने उसकी दालान वाली खपड़ैल में घुस कर जब अन्दर-ही-अन्दर अपना बिल बना लिया था तब भी वह डरा नही और कलुआ कबाड़ी के साथ मिल कर दोनों ने लाठी से पीट-पीट कर उसे मार डाला। मगर हवेली में रात गुजारने की न सोची। इस बात का भय जरुर सता रहा था कि कहीँ वह जोड़े से हुआ तो दूसरा भी यहीँ छुपा होगा। मगर आधी रात तक ढ़ूँढने पर जब वह नही मिला तो उस रात कलुआ उसी के साथ जमीन पर सो गया और वह अपने निवाड़ के पलंग पर। रात में लालटेन लेकर सन्तुष्टी के लिये बाहर के एक-दो चक्कर भी लगाये थे।

उम्र के चालीस बरस जगन्नाथ ने हवेली के हवाले कर दिये थे। शादी -ब्याह की कौन सोचता? फुलिया अम्मा तो हवेली की अदनी सी मालिन ठहरी अपना धरम निभाते-निभाते परलोक सिधार गयी। और बाबू, उसका तो मुँह तक देखना नसीब न हुआ। एक रोज बड़े ठाकुर आलोक नाथ ने उसे भूसे की कोठरी में बोरा भरने को भेजा था वहीँ दुबका दो मुँहा साँप उसे ठस गया और फुलिया की सिंदूर, बिन्दियाँ उजड़ गयी। बड़े ठाकुर अपराध बोध से गड़ गये और उन्होनें फुलिया को हवेली में ही रख लिया। हवेली से मतलब हवेली के आहते में बने इसी मकान से है जिसे आज तक न तो वीर भय्या और न ही प्रताप भय्या बाहर निकाल पाये। छोटी सुधा जीजी तो इतना अपनापन देती जैसे जगन्नाथ उनका सगा भाई हो। और क्या चाहिये था जगन्नाथ को?

कितनी रौनक हुआ करती थी उन दिनों हवेली में? जब ठाकुर साहब बाहरी आहते में शीशम के सोफे पर बैठ कर पंचायत लगाया करते और गाँव के सभी नामधारी बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते। चार नौकर जो दिन-रात उनकी जी-हुजूरी में लगे रहते, समय और ईनाम मिलने पर खूब मौज करते।

वीर, प्रताप, सुधा ये तीनों बच्चे ठाकुर साहब के लड़ैते थे। उनके साथ जगन्नाथ भी उसी तरह उधम-कूद मचाता जैसे वह भी हवेली का ही हिस्सा हो। ठाकुर साहब ने जगन्नाथ को भी भरपूर लाड- दुलार दिया था। वीर, प्रताप, सुधा और जगन्नाथ सब साथ ही में पले बड़े थे। बड़े ठाकुर ने बल पूर्वक जगन्नाथ का दाखिला भी गाँव के सरकारी स्कूल में करवा दिया था। पर जगन्नाथ का मन किताबों- कागजों में नही लगा। पाचँवी के बाद ही वह स्कूल से नाम कटा कर आम, कटहल, लोई और नीबू के पेड़ों को संभालने लगा। अनपढ़ होने का गम उसे अन्दरूनी तौर पर कभी नही सताया। वह अपने काम से खुश था। बाग में बाँस लेकर दौड़ना स्कूल में बँधे रहने से कहीँ बेहतर था।

फुलिया अनपढ़ जरुर थी मगर दिमाग की बहुत तेज। हमेशा चाहती कि उसका बेटा पढ़ लिख कर शहर जाये और बाबू बने। उसकी तरह नौकर बन किसी की गुलामी न करे, मगर जगन्नाथ को जाने कौन से भँवरे की छाया पड़ी थी कि वह रात-दिन बागों में दौड़ता और फूलों के इर्द-गिर्द मँडराता। यही दुनिया उसके सपनों को पँख लगाती।

हवेली की रौनक और बढ़ जाती जब जगन्नाथ चिड़ियों की तरह-तरह की आवाजे निकालता।

बात उन दिनों की है जब जगन्नाथ फुलिया की गोद में था और ठाकुर साहब के तीनों बच्चे भी छोटे ही थे। एक दिन बड़े ठाकुर ने, ठकुराइन से जाने क्या कह दिया कि वह गश खाके गिर गयीं और फिर जीते जी बिस्तर से न उठीं। उन्हें किस बात का सदमा लगा है किसी को पता नही था। ठाकुर साहब उनसे प्रेम करते थे सो उन्हें मरने से बचाते रहे। उनके पैरों में छटाक-छटाक भर देशी घी पिला देते। अपने हाथ से बाल सँवारते और जब भी शहर जाते सिल्क की चार-चार साड़ियाँ लाते। तब भी ठकुराइन के होठों पर कभी मुस्कान न आई। दिन-पे-दिन उनका चेहरा पीला पड़ने लगा।

फुलिया मालिन ने उनकी खूब सेवा की तब जगन्नाथ गोद में ही था, इसलिये छातियों में दूध भरा था। ठाकुर के बच्चे जब माँ के दूध को तरसते तो फुलिया उन्हें कलेजे से लगा लेती। प्रताप जगन्नाथ के संग का ही था सो आँचल में छुप कर अम्मा का दूध टटोलता और पी कर गहरी नींद सो जाता। ठाकुर साहब भरी आँखों से देखते और अनदेखा कर देते।

किसी रिश्तेदार ने बच्चों की सुध न ली, ऊपर से अपनी-अपनी लड़की का रिश्ता बड़े ठाकुर से कराने में जोर लगाने लगे। सबकी नजरें हवेली और उनके रुतवे पर गड़ी थीं। किसी को बच्चों से या हालात से कोई सरोकार नही था। ठकुराइन बिस्तर पर पड़े-पड़े सब देखतीं, कुढ़तीं पर मुँह से कुछ न बोल पातीं। ठाकुर साहब के आते ही उन्हे देख कर मुँह फेर लेती। उन्हें ठाकुर और फुलिया के संबधों की अच्छी तरह भनक थी। यही कडवाहट लिये अपना विरोध मुँह फेर कर प्रकट किया करतीं। फुलिया बच्चों को लेकर उनके पलंग के पास बैठ जाती तब उनकी आँख से आँसू निकल कर मसेरी को भिगो देता।

उन्होनें फुलिया को कभी भी हेय दृष्टि से नही देखा। वह औरत की लाचारी से अनभिज्ञ नही थीं। भाग्य को कोसती शायद इस औरत में कुछ ऐसा है जो मुझमें नही, फिर पुरुष को शारीरिक तौर पर बाँधा जा सकता है मानसिक तौर पर नही। पति, पत्नी के साथ होकर भी ह्रदय से कहीँ और विचर रहा है पत्नी उसके लिये मात्र साधन है तो ऐसे रिश्तें का क्या प्रायोजन? अन्दरूनी तौर पर वह अपने भाग्य से घुटती रहीं।

ठाकुर साहब ने बम्बई से बड़े डाक्टर को इलाज के लिये बुलवाया था। कोई कमी न छोड़ी, पर नाड़ी डूब रही थी। कोई रोग पकड़ में न आया। कुछ दिन मेहमान खाने में रहे, हार कर बस इतना ही कह कर चले गये कि अगर मरीज की जीने की इच्छा ही खत्म हो जाये तो मैं क्या भगवान भी कुछ नही कर सकता।

ठाकुर साहब की आखरी उम्मीद भी टूट गयी। ठकुराइन को बचाने के लिये उन्होनें सब कुछ किया। झाड़-फूँक, जादू-टोने, पूजा-पाठ से लेकर मँहगा इलाज तक सब किया। सब -का-सब जैसे हवा हो रहा था।

निराशा से हारे-थके उन्हे फुलिया ही टूटने से बचाती। आज भी अनायास ठाकुर आलोक सिँह आम के बाग की तरफ बढ़ रहे थे जहाँ फुलिया का छोटा सा मकान था। दरवाजा खुला था विना किसी औपचारिकता के ठाकुर साहब अन्दर चले गये।

फुलिया ने उन्हें देखते ही कुर्सी घिसका दी- " लौट जाओ ठाकुर साहब, अब ये पाप मुझसे और न होगा।"

"आज क्या हो गया तुझे? और ये पाप पुण्य की बात कहाँ से ले आई तू?"

"जगन्नाथ आपका बेटा होकर भी बेटा न कहलायेगा, मैं जानती हूँ। ठकुराइन को कौन सा रोग लगा है? ये भी जानती हूँ। अब और न होगा हमसे.. हमें माफ कर दो ठाकुर साहब।"

"क्या तेरा मन नही करता फुलिया?"

"मन गरीबों का कहाँ होता है? गरीबों की तो मजबूरी होती है।"

"तू भरी जवानी विधवा हो गयी कैसे जियेगी?"

"जी लूँगी ठाकुर साहब, आप हमारी फिक्र छोड़ दें।"

"कैसे छोड़ दूँ फुलिया? तुझे चाहता हूँ मैं।"

"चाहते तो ब्याह न कर लेते?"

"अगर तू मालिन न होती तो कर लेता, विरादरी को क्या मुँह दिखाऊँगा?"

"जाओ ठाकुर अपनी हवेली में लौट जाओ, यहाँ आपका मुँह काला ही होवेगा।"

"बड़ी निष्ठुर है रे तू?"

"अब आप निष्ठुर कहो या निर्बल ठकुराइन महीनों से बिस्तर पर पड़ी हैं हमसे देखा नही जाता।

"फुलिया मैं तेरा कर्ज कभी न उतार पाऊँगा। अगर तू न होती तो बच्चों का न जाने क्या होता? बच्चों की छोड़ मैं भी न जी पाता।"

"अगर मैं न होती तो ठकुराइन की ये हालत भी न होती?"

"फुलिया.....ये क्या कह रही है तू?"

"आप भी जानते हैं मैं सच बोल रही हूँ। ये कैसा प्रेम है आपका? एक साथ दो स्त्रियों से प्रेम? नही ये प्रेम नही है.....मैं आपकी जरुरत भर हूँ और ठकुराइन.........वो आपका प्रेम होतीं तो आप मेरे करीब न आते।"

"ठाकुरों के खानदान में ये नयी बात नही है फुलिया, शुक्र मना मैंने दूसरा ब्याह नही किया।"

"कर लेते तो अच्छा होता, कम-से-कम ठकुराइन को ये धक्का तो न लगता।"

"जो भगवान को मंजूर था हो गया अब इसमें तेरा दोष न मेरा।"

"हमारी भी आपके पाप कर्म में बराबर की भागीदारी है ठाकुर साहब, मगर कभी भी ठकुराइन ने हमें देख कर घृणा नही दिखाई। जाने कौन सी मिट्टी की बनी हैं वो।"

"वह देवी की तरह महान है फुलिया, इतनी महान की कभी प्रेमिका न बन पाई। औरत की तरह कभी झगड़ती नही, किसी बात का विरोध नही करती और फिर तेरी तरह नखरा भी कहाँ करती है? वैसे एक बात बताऊँ तुझे? मर्द को मरखन्नी गाय ही पसंद होती है, जिससे पहले वह उलझता है फिर दुह पाता है। ऐसे में कीमत और बढ़ जाती है उसकी, फिर वह औरत हो या गाय।

"मुझमें इतना कुछ दिख गया आपको? साँवली देह, न श्रंगार, न इत्र और न ही सौन्दर्य पूरक जेवर?"

"काली-गोरी चमड़ी से क्या फर्क पड़ता है? मायने तो आकर्षण रखता है, जो बाँध लेता है रिक्त पुरुष को। कितना खिचाव है तेरी काया में और तुझमें? ये तू नही जानती। तू सम्पूर्ण औरत है फुलिया, जैसी औरत एक मर्द चाहता है। जिसका साथ छोड़ने को दिल ही न करे। बिसरा दे सारी दुनिया को। तू तो नदिया है रे फुलिया जब बहती है तो कल-कल करती है और ठहरती है तो खींच लेती है अपनी ओर।"

सुनते ही फुलिया का चेहरा शर्म से लाल हो गया और गर्वानुभूति से तपने लगा। अभी जो बड़ी-बड़ी बातें कर रही थी अप्रत्यक्ष प्रेम आग्रह और प्रसन्शा के समक्ष धाराशाई हो गयीं। ये स्त्री की सूक्ष्म देह है जो पौरुषता के समक्ष नेत्रहीन हो गयी थी।

"फुलिया, तेरे देह आकर्षण में ही नही बँधा हूँ मैं, तू भीतर तक रस से भरी है। सुकून की सीमायें लाँघने को तूने ही मजबूर किया है।"

"बस करो ठाकुर साहब, अब और न सुन पाऊँगीं" फुलिया ने खुशी की लहरों को साँसों में बहा दिया। तेज धड़कनें बर्दाश्त से बाहर थीं।

अब न रहा गया उससे, लाज से गढ़ गयी और दौड़ कर दीवार की ओट में छुप गयी। फुलिया की साँसें जोर-जोर से चल रही थीं। देह ने दिमाग का साथ छोड़ दिया था। प्रेम की पकड़ से बँधी फुलिया फूटने लगी। जर्रा भर प्रेम लाचार स्त्री को मर्यादा से इतर ले गया था। ये कैसी बिडम्बना थी?

उसने भीतर वालें पलंग पर सो रहे जगिया को देखा जो गहरी नींद में था। कभी-कभी कुनमुना कर अम्मा को टटोलता और फिर सो जाता। फुलिया ने एक तकिया उसकी बगल में लगा दिया ताकि उसे अम्मा के होने का अहसास बना रहे और हौले से दरवाजा उड़का दिया।

फुलिया की देह भाषा प्रेम निवेदन को स्वीकार कर चुकी थी। समर्पण के लिये तत्पर वह खुद में सिमटने लगी। चोली का कसाव बढ़ गया था जिससे धोती का पल्लू नीचे सरक गया और छातियों के उभार तन गये। सारा-का-सारा ऐतराज औंधा पड़ा था।

ठाकुर ने छड़ी उठा कर खूँटी पर टाँग दी और काला कोट कुर्सी पर। कुर्ते की जेब से शीशी निकाल कर इत्र कान के पीछे लगाया, दीवार पर टँगें आइने में चेहरा देखा जो बहाव में डूबने के लिये आनन्द से भरा था। बालों को संवार कर फुलिया की तरफ देखा। अधीरता ने चेहरे की रंगत को तपा दिया था।

ढिबरी की धीमी लौ में फुलिया का धोती से अध ढ़का चेहरा अनार के फूलों की तरह दमक रहा था। उसने पैर के अँगूठें को जमीन पर बेवजह ही खुरच डाला। हाथों की ऊँगलियों को मोड़-मोड़ के कचूमर बनाती उससे पहले ही ठाकुर के हाथों ने उसे अपनी शिकस्त में ले लिया। हाथ पर हाथ का दवाब इतना सख्त था कि वह खिचती चली गयी। धम्म से पलंग पर गिरती इससे पहले ही भारी-भरकम बाहों ने उसे संभाल लिया। काफी देर यूँ शिकंजे में फँसी निकलने को झूठा मचलती रही और ठाकुर छाती से सटाये उसकी श्याम वर्णिय आभा का रस पान करते रहे।

बाहर तेज बारिश थी तो भीतर प्रणय तूफान, जिसके वेग को थामना मुश्किल था। पत्ते-पत्ते को छूती हुई बूँदें फिसल रही थीं। उन पर चढ़ा धूल का आवरण हट चुका था और पत्तों का सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। तेज साँसों ने एक होकर हवा की नमी को गर्माहट से भर दिया। स्पर्श का उन्माद हिलोरे ले रहा था। ठाकुर का आलिंगन कसने लगा जिसमें फुलिया की हडडियाँ चरमरा गयीं। सहज समर्पण का ये सबसे तीव्र क्षण था, जो न तो किसी परम्परा का मोहताज था न ही बंधन का। फुलिया की बन्द पलकों पर होठों का प्रहार समूचे शरीर को पिघला रहा था। वह समर्पित पड़ी थी। ऊँगलिया क्रीड़ा में संलग्न किसी करतब के अंजाम में व्यस्त थीं। उतार कर फेके गये मिलन अवरोधक वस्त्र पलंग के पाँवताने उपेक्षित अवस्था में लटके थे। अब वहाँ दोनों शरीरों के बीच पत्तर की भी जगह न थी। साँसों का ज्वार-भाटा सीमायें तोड़ कर हाँफ रहा था। आवेग की चरम सीमा से फुलिया कराह उठी, जिससे ठाकुर की क्रिया शीलता का बल और बढ़ गया। बल जिस आवेग से बढ़ता है उसी आवेग से घट भी जाता है। अन्तत: मंजिल पाकर जैसे पथिक अपनी समस्त ऊर्जा को गँवा कर बैठ जाता है वही दृश्य था उस पलंग का। एकान्त में बने उपेक्षित मकान के उस कमरे का, जहाँ उन्माद की तपिश ठंडक पा रही थी।

तूफान थम चुका था। बारिश भी शान्त हो चुकी थी। बाहर पत्तों से टपकती बूँदों की टप-टप की आवाज़ आ रही थी। मिट्टी तृप्त हो सुंधिया रही थी। फुलिया पलंग पर निढ़ाल पड़ी थी।

पसीना-पसीना हुये ठाकुर आलोक नाथ उठे। धोती बाँध कर उसकी ठूठ को कमर में खोंसा और कोट उठा कर पहन लिया। खूँटी से छड़ी उतारी और पलंग के करीब जाकर फुलिया को पुकारा- "फुलिया उठ दरवाजा लगा ले, कह कर उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित किया। मगर फुलिया बेसुध पड़ी रही।

ठाकुर हवेली हवेली की तरफ चल दिये। हवेली में पाँव धरते ही ठकुराइन ने ठाकुर के जूतों की आवाज़ को पहचान लिया। घड़ी ने रात के तीन बजाये थे। वीर, प्रताप और सुधा गहरी नींद सो चुके थे। ठाकुर का आधी रात को हवेली में आना पहली बार नही था। सामना होने से पहले ही उन्होनें मुँह फेर लिया। ठाकुर आलोक नाथ ने ठकुराइन के पलंग के पास आकर उसकी चादर को ठीक किया। अपराध बोध के तहत जगा कर पूछ बैठे- "मालती, पानी तो नही पीना? कहो तो दे दूँ?"

ठकुराइन ने पहले ही सोने का अभिनय कर लिया था सो मौन पड़ी रहीं। छड़ी फिर खूँटी पर टाँगी और कोट काठ की अल्मारी में, जूते और जुराबे पहले ही कमरें के बाहर उतार दिये थे। ठकुराइन के बराबर वाले पलंग पर लेट गये। थकान से चूर थे लेटते ही सो गये।

इत्र की गंध ने ठकुराइन के शरीर में जहर घोल दिया। वह लेटे-लेटे ठाकुर की पीठ को देखती रही, जहाँ उसे फुलिया के हाथों के निशान दिखाई दे रहे थे जो अपने आकार को फैलाते जा रहे थे, जिसमें वीर, प्रताप और सुधा भी समाने लगे थे। बच्चों की हूक से तड़पन गहराने लगी।

करीब चार बजे पौ भी न फटी थी ठकुराइन ने बेचैनी से करवट बदली, दिल बैठा जा रहा था। अंधकार की दलदल में धँसता हुआ शरीर अभी जिन्दा था कि अचानक उन्होंने एक जोर की हिचकी ली, उन्होनें आखरी बार ठाकुर को देखा और साँस छोड़ दी। तृप्त ठाकुर गहरी नींद सोते रहे।

हवेली में सन्नाटा छा गया। कौन रोता? बच्चे तो मौत से अनभिज्ञ थे और ठाकुर अपराध बोध से ग्रस्त। बच्चों को फुलिया मालिन के सुपुर्द कर दिया गया। वही बैठी सुबुक रही थी वाकि रिश्तेदार तो दिखावे में ही लगे थे।

क्रिया-कर्म की तैयारी पूरी शानोशौकत से हुई थी आखिर ठाकुराइन थीं हवेली की, ये अन्तिम सम्मान ठकुराइन के भाग्य में था सो मिला।

दाह संस्कार निबटने के बाद अब फुलिया ही उन बच्चों की माँ थी। रिश्तेदारों को ये बात बहुत खटकी। मुँह दबा के तमाम बातें भी उठीं पर कोई भी ठाकुर के रुतवे के आगे मुँह न खोल सका।

वक्त बीता, ठाकुर का प्रेम रत्ती कम न हुआ। मगर उन्हें अफसोस था कि वह न तो फुलिया को हवेली में रख सकते थे और न ही उस मकान में रहता देख पाते। सोच के बुलबुले पानी होते गये।

ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ रही थी उन्हें फुलिया और जगन्नाथ की चिन्ता सता रही थी। समाज के डर से जगन्नाथ को तो उन्होनें कभी गोद में उठाया ही नही, और न कभी उसके रगों में दौड़ते अपने खून को महसूस ही किया।

पिता का साया जगन्नाथ के नसीब में नही था। लाड-दुलार जो कुछ भी था सबका जिम्मा अम्मा का ही था। वही उसे कन्धें पर झुला कर पिता बन जाती और सीने से लगा कर माँ। जबकि फुलिया ने ठाकुर के बच्चों के साथ कभी कोई भेद-भाव नही किया। बल्कि जब जगन्नाथ और प्रताप दोनों मचलते तो वह पहले प्रताप को ही दूध पिलाती।

वीर जब बड़ा हो गया तो इस असमाजिक रिश्ते की गाँठ ढ़ीली पड़ने लगी। जगन्नाथ को वह नौकर की तरह समझने लगा। वह भूल गया कि फुलिया अम्मा ने ही अपनी छातियाँ निचोड़ कर उसे बड़ा किया है। प्रताप और सुधा का लगाव अम्मा से जरुर रहा। धीरे-धीरे वीर के भीतर दौड़ रहा ठाकुराना खून और अम्मा के दूध की ममता टकराने लगी थी। उसे डर था कि बड़े ठाकुर जायजाद या रुपये-पैसे का कौड़ी हिस्सा भी जगन्नाथ को न दे दें, दूसरी तरफ उसका दिल अम्मा के लिये तड़पता भी था। इन सब में काँटा था तो जगन्नाथ। अत: वीर और प्रताप दोनों ने ही ऊपरी तौर पर दूरी बनाना शुरू कर दी थी। जगन्नाथ की रगों में भी ठाकुराना खून ही दौड़ रहा था सो उसे भी भीख में कुछ भी लेना मंजूर नही था।

उस रात अचानक ठाकुर आलोक नाथ की हालत बिगड़ने लगी। गाँव के बड़े बैध को बुलाया गया मगर उन्होने हाथ खड़े कर दिये, कहा दिल का दौरा पड़ा है फौरन शहर ले जाना होगा। समय पूरा हो चला था सो वह नौबत ही नही आई और ठाकुर साहब ने हवेली में ही प्राण त्याग दिये। मरते-मरते वह सबसे कह गये कि हवेली तो वीर और प्रताप की है सुधा के ब्याह का पूरा इन्तजाम बैंक में है। मगर आम का बाग जगन्नाथ का है बस उसके पच्छिमी भाग के आम ब्याह के बाद सुधा को हर गर्मियों भेज दिये जायें इसकी जिम्मेदारी जगन्नाथ की है।

फुलिया तो जैसे जड़ हो गयी। उसने आँख से एक आँसू न गिराया। वह तो फिर से विधवा हो गयी थी। बस उस दिन के बाद जो उसने बिस्तर पकड़ा फिर न उठी।

सुधा के ब्याह के बाद वीर सिँह ने अपना व्यापार बढ़ा लिया और मुम्बई जाकर बस गया। छोटे ठाकुर प्रताप सिहँ बरसों फुलिया अम्मा मे ही अपनी माँ को ढ़ूढँते रहे फिर डाक्टरी की आगे की पढ़ाई के लिये लंदन चले गये। हवेली सुनसान हो गयी। इतनी बड़ी हवेली की देखभाल जगन्नाथ अकेले कैसे करता इसलिये ताले पड़ गये।

फुलिया भी कब तक जीती एक दिन वह भी जगन्नाथ को अकेला छोड़ कर चल बसी।

आखरी बीढ़ी बची थी। जगन्नाथ ने उसे भी सुलगा लिया। काँच की ऐशट्रे में बीढ़ी के अधजले टुकड़ो का ढ़ेर लगा था। ये वही ट्रे थी जिसे प्रताप सिँह लंदन से उसके लिये लेकर आये थे। कल हवेली और आम के बाग की नीलामी थी। कलेजा काँप रहा था। जगन्नाथ के लिये पीड़ा भरी रात थी। इसी गम में वह जाग रहा था। जिस हवेली में वह पल कर बड़ा हुआ वो कल पराई हो जायेगी? कोई और आकर उस पर अपना अधिकार जमा लेगा? या फिर हो सकता है तुड़वा ही दे। जगन्नाथ के लिये उससे रिश्ता तोड़ना आसान नही था।

वीर सिँह और प्रताप सिँह ने साफ-साफ कह दिया था कि 'अब उनका गाँव में लौट के आना संभव नही है। फिर खाली पड़े-पड़े हवेली खंडहर ही हो रही है। जगिया तू भी कोई काम धंधा जमा कर ब्याह कर ले अब अम्मा तो रही नही अकेला कब तक पड़ा रहेगा?'

जगन्नाथ कैसे कहता? कि पूरी उम्र हवेली को दे दी अब कौन सा का धन्धा जमाऊँगा? आम के बाग तो ठाकुर मेरे हिस्से दे गये हैं, वह तो नीलाम न करवाओ भय्या। जब ठाकुर साहब ने अन्तिम इच्छा जताई थी तो सभी तो खड़े थे वहाँ? अब ये बात कैसे और किस मुँह से कहता? कौन सा ठाकुर साहब लिख कर गये थे उसके नाम? न कोई कागज न पत्तर? फिर अम्मा के दूध का हिसाब माँगता भी तो कैसे? कोई मोल चुका पाया है आज तक दूध का? अब तो बस रहा बचा रिश्ता न टूटे, कभी-कभार पोस्ट ऑफिस के फोन पर बात हो जाया करती है वो भी न रहेगी। कौन सा कुटुम्ब धरा है मेरा, जो है सो ठाकुर यही लोग हैं। न..न....मैं काट लूँगा जैसे-तैसे पर रिश्ता न टूटने दूँगा....कभी नही.....अम्मा तो कर गयी अपना फर्ज पूरा अब मेरी बारी है ..वीर सिँह, प्रताप सिँह और सुधा, औलाद तो तीन ही हैं उनकी, चौथा जगन्नाथ जो सिर्फ फुलवा मालिन का बेटा है, उनका वारिस नही.....

छाया अग्रवाल

बरेली8899793319

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