"मैं जिंदा हूँ.."
कस्बे का शहरीकरण हो रहा था और आसपास के सभी गाँवों को जोड़ा जा रहा था। उस चुनावी क्षेत्र के सांसद, रंजीत राय जी एक दबंग इंसान थे और केंद्र में उन्हीं की पार्टी की सरकार भी थी। चुनावी वादों को पूरा करने के ख्याल से कस्बे और आसपास के गाँवों को मिलाकर शहरीकरण करने का प्रस्ताव उन्होंने येन केन प्रकारेण तरीके से पास करवा लिया था और अब पक्की सड़क का निर्माण कार्य किया जा रहा था। जाहिर है, सड़कों के निर्माण के रास्ते में जितने पेड़-पौधे व्यवधान उत्पन्न कर रहे थे, वे सभी सरकारी हुक्म से कानून का सहारा लेते हुए बड़ी निर्ममता से हटाए जा रहे थे।पकड़ी गाँव के पास का बूढ़ा बरगद बहुत सहमा हुआ और उदास था। उसके आसपास के छोटे बड़े पेड़ काटे जा रहे थे और आज न कल उसकी बारी भी आने ही वाली थी। वह बरगद शतायु था और करीब सौ-डेढ़ सौ वर्षो से इस गाँव के पास खड़ा था- किसी प्रहरी की तरह,एकदम तना और सजग...मजाल है कि उसकी शाखाओं के नीचे से गुजरे बगैर कोई गाँव की राह पकड़ ले।एक पूरा युग उसने मानवता और समाज को गिरते और गिर कर उठते देखा था।आजकल वह दिन भर डरा- सहमा सा रहता क्योंकि सारा-सारा दिन सरकारी ठेकेदार मजदूरों की टोली के साथ सड़कों का नक्शा खींचते रहते थे और कुल्हाड़ी,बुलडोजर,क्रेन आदि के साथ वृक्षों के काटने का कार्यक्रम चलता रहता था। कितने संगी साथी.. जिन्हें उसने पैदा होते देखा था,जिनसे रोज बातें किया करता था.. इस शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके थे। शाम ढलते अंधेरा घिरने पर जब सभी वहाँ से चले जाते तब जाकर कहीं वह थोड़ी देर चैन की सांस ले पाता था।वह भी सिर्फ रात भर ही क्योंकि अगले दिन सूरज निकलते ही पुनः काम आरंभ होता और फिर से वही दहशत उसे घेर लेती।रात भर वह बूढ़ा बरगद चिंता में डूबा रहता, नींद नहीं आती थी उसे... जाने क्या-क्या सोचता रहता था। अगल-बगल के काटे गए वृक्षों के विषय में सोच कर मन भर आता था उसका-"आखिर उम्र ही क्या थी उनकी? वो बेर का पेड़.. अभी अभी तो बड़ा हुआ था, आम के पेड़ पर अगले साल से मँजरियाँ आ जातीं.. सखुआ, शहतूत, नीम, पीपल- ऐसे ही जाने कितने ही साथी और युवा तथा बच्चे-वृक्ष शहरीकरण की बलि चढ़ाए गए थे। खुद वह... कितना खुश था यहाँ.. न जाने कब से इस नदी के साथ हँसता- खेलता बरसों से वहाँ खड़ा था, परन्तु,अब देखो, कैसा डरा सहमा सा है…"न जाने मानव को क्या होता जा रहा है कि अपने विकास के रास्ते में हमें दुश्मन समझ रहा है.. अरे,हम पेड़ -पौधे तो जीवन हैं उनके,हम ही न होंगे तो वह जियेगा कैसे?ऐसे में कैसा विकास?विधाता ने भी हमें कितना असहाय बनाकर भेजा है,कैसे कहें मानव से मन की बात?हम देना तो जानते हैं पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। कोई काटे तो कटना ही पड़ता है,मना भी नहीं कर पाते,किसी मनुष्य को अपने मन का दर्द कह भी तो नहीं सकते,हमारी इच्छा की परवाह भी किसे है?..ओहहह..।"बरगद सोच-सोचकर दुखी हो रहा था।उसे वह साल भी याद है, जब गांव के सारे मेहनतकश लोगों ने चंदा इकट्ठा करके उसे सीमेंट से घेरा था और उसके चारों तरफ गोल सा चबूतरा बना दिया गया था... बिल्कुल किसी नन्हीं गुड़िया की फैली हुई फ्रॉक की फ्रिल की तरह..कितना खुश था वह उस दिन...झूम-झूमकर हवाओं के संग नाचा था।
बगल में थोड़ी ही दूरी पर बहती हुई नदी से अक्सर वह बात कर लिया करता था।दोनों अपना सुख- दुख बरसों से आपस में बाँटते आ रहे थे।गांव के लोग भी उसे बहुत प्यार करते थे और प्यार से उसे दादा कह कर पुकारते थे। दादा ही तो था वह आसपास के सभी गाँवों का। लोग आते, उससे आशीर्वाद लेते, फूल प्रसाद चढ़ाते, सुहागिनें गीत गाती हुई लाल पीला धागा बांधकर चारों ओर घूमकर फेरी लगातीं, सुहाग के लिए दुआएँ मांगतीं, थके हारे ग्रामीण लोग उसकी घनी छाया में घंटों बैठकर बतियाते,हंसी ठिठोली करते, चांदनी रात में ढोल मंजीरे के साथ गाते बजाते...गांव की, शहर की, देश की राजनीति और बड़ी-बड़ी नीतियों पर चर्चा होती,बच्चे लुकाछिपी खेलते,थक जाते तो वहीं ठंडी छाया में पैर पसार कर सो लेते, सत्तू की रोटी और सब्जी लेकर गाँव की नवविवाहितायें उसके बड़े से घेरे वाले तने की ओट में सास ननद से छुपकर अपने पति को भोजन खिलातीं, प्रेमी प्रेमिका के जोड़े उसकी ओट में छिप कर एक दूसरे से मिलते और जन्मों- जन्म साथ रहने की कसमें खाते.. गांव के हर व्यक्ति का राज वह बूढ़ा बरगद जानता था। वह बूढ़ा बरगद ही तो था जिसे पता था कि रतन चौधरी की बेटी रमिया अपने विवाह से पहले उसी गांव के गरीब दलित फेकू माँझी के बेटे, रमेश से प्रेम करती थी।जाति-पाँति के डर से प्रेमाग्नि के फेरों के साथ जन्मों का बंधन तो नहीं बन सका लेकिन विवाह के बाद आज भी जब वह मायके वापस आती है तो रमेश से मिलने भरी दोपहरी में, जब सब सो रहे होते हैं,यहीं आती है और इसी बरगद की ओट में दोनों छुप कर एक दूसरे का हालचाल लेते हैं,एक दूसरे का दुख सुख सुनते हैं और अगले जन्म में साथ रहने की कसमें खाते हैं।गांव का मुखिया, रतन चौधरी अपनी चौपाल भी यहीं लगाता है। किसी भी तरह के झगड़े-झंझट का पंचों द्वारा न्याय यहीं चबूतरे पर बैठ कर होता है। गाँव के लोगों का भरोसा है कि यह बूढ़ा बरगद इतना प्रतापी है कि उसके नीचे आते ही पंचों में एक अनोखी ईश्वरीय शक्ति आ जाती है और न्याय अपने आप पंचों की जुबान पर आ जाता है। सिर्फ इंसान ही नहीं,अन्य जीव जंतु भी उस बूढ़े बरगद से बहुत प्यार करते थे।धूप और बारिश के समय गायें,बकरियाँ, कुत्ते, पक्षी- सभी उसी की छत्रछाया में तो आकर खुद को बचाते थे,खुद को महफूज पाते थे। सब को विश्वास था कि जब तक दादा बरगद गाँव के पास खड़े हैं,गांव को उनका आशीर्वाद मिलता रहेगा और गाँव में किसी का कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकेगा। लोगों की इन भावनाओं और प्यार के विषय में सोचकर वह बूढ़ा बरगद भावुक हो उठा-" सब मेरे बच्चे कितना चाहते हैं मुझे। परन्तु, अब मेरा अंतिम समय आ गया है... किसी भी समय काट दिया जाऊँगा... फिर आसपास के गाँव के मेरे बच्चे न जाने किसकी छाया में बैठकर खेलेंगे?किसकी छाया में बैठ कर बतियायेंगे,समय बिताएंगे?...क्या मुझे याद करेंगे? पर,मुझे तो जाना ही होगा। अतीत की बुनियाद पर ही तो भविष्य की नींव रखी जाएगी।मुझे हटाकर जो सड़क बनेगी उसी से तो गाँव बाकी शहरों से जुड़कर शहर बनेगा।स्कूल कॉलेज आयेंगे,बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे,बड़ा बाजार, सिनेमाघर, कारखाने- सब सुख सुविधाएँ मेरे बच्चों तक पहुँचेंगी।उनके विकास में रोड़ा बनना ठीक नहीं है... इसीलिए मुझे रास्ते से हट जाना ही चाहिए..मेरे अपनों के लिए.."
बूढ़े बरगद का मन भर आया।वह अपना अतीत याद करने लगा।अपने जन्म से लेकर अब तक के बिताये मधुर क्षणों को याद करने लगा ,मानो अंत समय को निकट पाकर किसी फिल्म की तरह अपनी जिंदगी रिव्यू कर रहा हो।
(2)
देश गुलाम था जब वह पैदा हुआ था।उसे अच्छी तरह याद है कि नदी के उस पार उसकी माँ का वृक्ष था। वहीं से बीज लेकर कोई पक्षी यहाँ गिरा गया था और फिर उसका जन्म हुआ था। उसके जन्म की कहानी उसी नदी ने सुनाई थी, जिसकी तरंगों को देख देखकर और उससे बातें कर करके वह बड़ा हुआ था। पहली बार जब उसने होश संभाला था, तब आसपास इतने गाँव नहीं थे।बस, हरा-भरा जंगल था और वह नदी थी- कलकल करती,इठलाती, किसी कमसिन नृत्यांगना की तरह अदाएँ बिखेरती ।उसी के मीठे पानी और प्यार की नमी से पल कर वह बड़ा होता रहा था। सांसद रंजीत राय जी के परदादा ही वह पहले शख्स थे, जो उसके जवान होने के दिनों में उसके पास आकर अपने दोस्तों के साथ बैठा करते थे और देश की स्वतंत्रता संग्राम की बातें किया करते थे। वह दौर था- आक्रोश का,अंग्रेजों की जुल्म की आँच पर उबलते भारतीयों के जज्बातों का और स्वच्छंद आकाश में उड़ते पंछियों की तरह पंख फैलाकर उड़ने की चाह का। सांसद महोदय के परदादा, गणपत राय अपने साथियों के साथ शायद अँग्रेजी हुकूमत को चुनौती देते हुए जेल की सलाखों को तोड़कर भागे थे और यहाँ आकर छुपने की जगह तलाश रहे थे। तब आसपास आठ-दस झोपड़ियाँ ही थीं, जिनमें मछली पकड़ने वाले लोगों का एक कुनबा रहता था।कहते हैं, पास की नदी में कई किलोमीटर पहले से गंगा का पानी साथ मिलकर बहता है और इसीलिए उसकी मछलियाँ बड़ी स्वादिष्ट होती हैं। बाजार में उन मछलियों की माँग देखकर कुछ मछुआरे जाति के लोग वहाँ आकर बस गए थे। गणपत राय जी ने दोस्तों के साथ वहाँ डेरा जमा लिया था और धीरे-धीरे वहीं के होकर रह गए थे।पास में ही नदी थी,इसलिए खाने-पीने और फसल उगाने की कोई परेशानी नहीं थी... फिर अंग्रेजी हुकूमत से बचने का इससे अच्छा कोई स्थान भी नहीं था।दो-चार मछुआरों को छोड़कर वहाँ का पूरा इलाका वीरान था।वह जगह शहर से बहुत ज्यादा दूर भी नहीं थी, इसीलिए स्वतंत्रता आंदोलन का सारा हाल-चाल भी मिलता रहता था।उसी बरगद के नीचे गणपत राय अपने दोस्तों के साथ बैठकर आजादी के संघर्ष के किस्से सुनाते थे,और आगे का प्लान बनाया करते थे। कैसे व्यापार के लिए आए अंग्रेज भारतीयों में आपसी फूट डालकर राज करने लगे, कैसे मंगल पांडे ने चर्बी युक्त कारतूस के खिलाफ आवाज उठाई, हडसन को गोली मारी और फिर क्रांति की आग पूरे भारत में फैली...जनरल डायर द्वारा जालियांवाला बाग में मासूमों की हत्या...लोगों का आक्रोश... गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन.. भारत छोड़ो का आवाहन... 1947 में देश की स्वतंत्रता और देश का विभाजन-- सभी कुछ पता था उस दादा बरगद को। सुख और दुख दोनों एक साथ आए थे उन दिनों। स्वतंत्रता तो मिली थी पर कितने लोग बेघर भी हो गए थे। किसी तरह सब ने अपनी पीड़ा को संभाल कर स्वयं को फिर से बसाया था। धीरे-धीरे वहाँ आसपास भी लोग आकर रहने लगे थे और गाँव बस गया था।अधिकतर लोग क्रांतिकारी थे और अपने वतन के लिए खुद को न्योछावर कर देने का हौसला रखते थे।उन्हें देखकर तब बरगद फूला नहीं समाता था,स्वयं पर रश्क करता था कि इतनी ऊँचे विचार रखने वाले लोग उसे इतना चाहते हैं और मान देते हैं। लेकिन, समय गुजरते वही लोग आपस में लड़ने लगे थे,जातिवाद, अमीर-गरीब करने लगे थे।मानवता कैसे लोगों में क्षीण होती गई और लोग दौलत की दौड़ में अपनों से दूर होकर मशीन बनते गए..दादा बरगद उन सभी बातों का साक्षी है।वह बरगद मन ही मन पुराने दिनों की आज से तुलना करने लगा.."हाँ,ये तो है कि पहले की अपेक्षा संसार और समाज बहुत बदल गए हैं।भारत में ही आजादी के बाद से लेकर अब तक कितना विकास हो गया है।पहले परिस्थिति ऐसी थी कि खाने की, रहने की समस्याएँ थीं।विदेशों से अनाज मँगाए जाते थे परन्तु, धीरे -धीरे हमारे दूरदर्शी नेताओं ने सारी समस्याओं पर एक-एक करके विजय प्राप्त की और अब देखो, झोपड़ियाँ पक्के मकानों में बदल रही हैं, घर में बिजली,पानी की सुविधाएँ आ रहीं हैं,विज्ञान हमें चाँद तक पहुँचा चुका है,लोगों के रहन-सहन बेहतर हो गए हैं, छोटी-बड़ी बीमारियों का इलाज संभव होने लगा है,समाज में शिक्षा बढ़ी है,सुख-सुविधाओं के नये-नये तकनीक विकसित हो गए हैं, पर क्या लोग खुश हैं..?" बरगद एक पल ठिठक कर सोचने लगा.. "पहले लोग कम में भी मिलजुलकर आनंद से रह लेते थे,आज कईयों के पास कितना कुछ है लेकिन आपस का प्रेम,नैतिक मूल्य, परिवार, रिश्ते क्या वही हैं..?" बरगद कुछ सोच में पड़ गया-"इंसान के लिए विकास के मायने क्या हैं आखिर..?क्या चाहता है इंसान..?मन की शांति या भौतिक सुख-सुविधाएँ..?कहीं वह सुख की चाह में भटक तो नहीं गया है..?क्यों वह इतनी भाग-दौड़ में लगा रहता है..?खुद को रोक कर अपनेआप से पूछता क्यों नहीं कि वह जिस राह चल रहा है, वह उसे उसकी मंजिल तक पहुँचायेगी या नहीं..?बूढ़ा बरगद कुछ अशांत सा होने लगा।
(3)
गाँव बसा कर जब सब लोग रहने लगे थे,तभी से वह बरगद घर के अभिभावक जैसी भूमिका में आ गया था। बच्चे पैदा होने से लेकर लोगों के मृत होने तक लोगों ने उसे अपने परिवार का सदस्य बनाया था।बच्चे के जन्म होने पर फूल प्रसाद चढ़ाते थे..बच्चे को गोद में ले जाकर उसे दादा बरगद का आशीर्वाद दिलाते थे..किसी की तबीयत खराब होती तो उसे लेकर बरगद से मनौती करते थे और मजे की बात यह थी कि बच्चा ठीक भी हो जाता था और इसीलिए हर डॉक्टर से बढ़कर बरगद दादा का आदर और महत्व था। दो पीढ़ियों के लोग बरगद दादा के साथ अपना सुख-दुख साझा करते आ रहे थे। बच्चे भी उनकी लंबी जटाओं को पकड़कर झूला झूलते और हंसते- खेलते रहते थे। पक्षियों ने भी सुकून पाने के लिए अपने घोंसले दादा बरगद के घने पत्तों की ओट में बना रखे थे। छोटे नन्हें पक्षी जब दिनभर फुदक-फुदककर कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर बैठते, ऊँची शाखाओं से बये अपने घोसले में झूला झूलते तो बरगद दादा फूले नहीं समाते थे। अपना भरा पूरा संसार उन्हें बहुत प्रिय था लेकिन विकास के साथ-साथ अब लोगों की सोच भी बदल रही थी और बूढ़ा बरगद इस बात को भली-भाँति महसूस कर रहा था। नई पीढ़ी थोड़ी पढ़ लिख गई थी और बरगद दादा के पास आकर बैठना, उनकी फेरी लेना,पूजा करना या प्रसाद चढ़ाना जैसी बातों में उनका इतना विश्वास नहीं रहा था। नए बच्चे ज्यादातर शहर की तरफ रुख कर रहे थे और अपने गाँव में भी विकास चाहने लगे थे। पुरानी पीढ़ी अभी भी आया करती थी, रोज न सही,कभी-कभार ही सही, लेकिन आ कर बैठती थी।सीमेंट का चबूतरा भी कहीं-कहीं से टूट गया था परंतु उसकी मरम्मत की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया था।"अब अधिकांशतः सब शहर की तरफ निकल जाते हैं,पैसे कमाने और रोजगार ढूंढने के लिए...कई घरों में टीवी आ गया है तो सब उसी में लगे रहते हैं.. जब गाँव की बिजली जाती है, तभी कभी कभार आकर लोग मेरे पास बैठते हैं,उसपर से आ गया है ये मुआ मोबाईल.. आकर कोई थोड़ी देर बैठता भी है तो बस उसी में उलझा रहता है,हवा में झूमते,धुन बजाते मेरे पत्तों की तरफ देखता भी नहीं"- बरगद दादा स्वयं को बहुत 'उपेक्षित बुजुर्ग' सा महसूस करने लगे थे...मानो लोगों को अब उनकी जरूरत नहीं रही थी। वैसे भी जैसे जैसे शहर नजदीक आ रहा था,लोग डॉक्टर के पास ही ज्यादा जाने लगे थे। बरगद दादा की पूजा या मनौतियाँ अब अंधविश्वास मानी जाने लगी थीं। कई लोगों ने यह भी हल्ला कर रखा था कि बरगद के वृक्ष पर भूत रहते हैं, जिसकी वजह से संध्या के बाद उधर कोई भी आने से डरने लगा था। बूढ़ा बरगद दुखी तो बहुत होता पर क्या कर सकता था... "आज समाज में यही चलन हो गया है, बूढ़ों की कद्र करना जैसे भूल ही गए हैं सब...लोगों के लिए जैसे वे बोझ से हो गए हैं"- मन ही मन दुखी हो रहा था वह बरगद,"और अब तो शहरीकरण का प्रस्ताव पास भी हो चुका है, तो आज या कल में काट ही दिया जाऊँगा... चलो कोई बात नहीं, यहाँ से जाने का अफसोस तो बहुत होगा पर लोग अपने विकास के लिए जरूरी समझते हैं, तो ठीक है हटा ही दें..अपने विकास के लिए मनुष्य सीमेंट, गिट्टी, बालू को ही महत्व देता है,या फिर बगीचे की शान बढ़ाने वाले कीमती पौधों को ही अपनाता है,अब तो पढ़ी लिखी औरतें व्रत,फेरी,पूजा भी कम ही करती हैं, या गमलों में कर लेती हैं, ऐसे में भला मैं उन्हें कहाँ उपयोगी लगूँगा, हालांकि मैं 10घंटे प्रतिदिन ऑक्सीजन देता हूँ, पर जिसे वे मशीनों से बना लेते हैं, उसके लिए भला मुझे क्यों महत्व देंगे?..शायद अब मेरे दिन पूरे हो चले..अच्छा, चलो सब खुश रहें, आगे बढ़ें,मैं भी इसी म़े खुश रहूँगा।गीता में भगवान ने पुनर्जन्म की बात कही है, तो मैं हर युग में आता रहूँगा.. मेरी विरासत मेरी अगली पीढ़ी सँभालेगी। मैं उनमें ही जिंदा हूँ और हमेशा रहूँगा।आज न कल मानव को समझ आ ही जायेगा कि उनका विकास हम पेड़-पौ़धों के जीवित रहने से ही है,बड़े, ऊँचे महलों के निर्माण से नहीं...तब तक मैं जिंदा धड़कता रहूँगा उनके दिलों में, उनकी यादों में,उनकी संस्कृति में...चलो, चलता हूँ.. अलविदा.."
सूरज निकल चुका था, लोग काम पर आने लगे थे और एक मजदूर को काटने का औजार लेकर अपनी तरफ आते बूढ़े बरगद ने देख लिया था।आज उनके ही बच्चों के विकास की वेदी पर उनकी बलि चढ़ने वाली थी परंतु वह,सबका दादा बरगद, शांत और संतुष्ट था।
अर्चना अनुप्रिया