हलवा Abhinav Singh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हलवा


“तुम्हारे पास तो मेरे के लिये वक्त ही नहीं होता। घर पर होकर भी घर पर नहीं होते तुम। यहाँ आकर भी लैपटाप में खोये रहते हो। तुम्हें तो इसी से शादी करनी चाहिये थी।“ सुप्रिया ने सुबह सुबह मनोज को लैपटाप पर देखा तो एकदम से भड़क उठी।
सुप्रिया और मनोज की दो साल पहले शादी हुयी थी। मनोज एक आईटी कम्पनी में प्रोजेक्ट मैनेजर है। सुप्रिया एक इंटीरियर डिजाईनर। दोनों की लव मैरेज हुयी थी। शादी के पहले भी दोनों नोयडा में रहते थे। रोज मुलाकात होती थी, ढेर सारी बातें होती थी वही बातें जो प्यार में होती हैं। एक दुसरे के लिये वक़्त ही वक़्त होता था। शादी के बाद मनोज ने नोयडा में एक फ्लैट लिया था। दोनों साथ रहते थे पर वक़्त कम हो गया था। सुप्रिया तो वक़्त निकाल भी लेती थी पर मनोज इन दिनों काफ़ी व्यस्त रहने लगा था। सुप्रिया के मन में इसी बात की खीझ थी।
पिछली रात दोनों ने मूवी का प्लान किया था लेकिन मनोज को एक अर्जेन्ट मीटिंग की वज़ह से लेट हो गया। घर पहुँचा तो सुप्रिया सो चुकी थी। खाना डाइनिग टेबल पर था पर उसमें खाने जैसा कुछ भी नहीं था ना ही खुशबू ना स्वाद और ना ही वो प्यार जो खाने को खाना बनाता है।
आज फिर मनोज को एक जरूरी प्रजेंटेशन देना था। सुबह ही लैपटाप खोल कर बैठ गया। सुप्रिया रात से ही गुस्से में थी सुबह तो जैसे ज्वालामुखी फूट पड़ी। कल रात के किस्से से शुरू होकर बात पिछले दो सालों की मनोज की हर गलती पर पहुँची। ये औरतों की खासियत होती है पतियों की गलतियाँ उन्हें कभी नहीं भूलती। जब आप अपनी बीबी से बहस के किसी मुद्दे पर जीत रहे होते हैं तभी आपकी सालों पुरानी कोई गलती उनके तरकस से निकलती है और आपको घुटने टेकने पड़ते हैं।
मनोज ने सब कुछ सुना। एक दो बार बोला भी, “यार सुप्रिया! Try to understand यार।“ जब बात और बिगड़ती हुयी लगी तो झट से तैयार होकर आफिस को निकल गया।


मनोज ने आज अपनी केबिन का दरवाज़ा थोड़ा बेरूखी से खोला। सारा आफिस उसके ख़राब मूड को महसूस कर चुका था। माहौल में गर्मी थी। विजय और श्वेता अपने अपने प्रोजेक्ट वर्क में देरी के लिये मनोज की डाँट सुन चुके थे। ये बात और है काम इतना भी लेट नहीं था जितना डाँटा गया थी। हर आफिस के कुछ दिन ऐसे होते हैं जहाँ किसी विजय किसी श्वेता को बेवजह किसी मनोज की उस खीझ का शिकार होना पड़ता है जो वो घर पर नहीं निकाल पाया है। इन दिनों काम सामान्य दिनों से थोड़ा ज्यादा होता है उतना वाला ज्यादा जो काग़ज पर नहीं दिखता केवल लगता है।
मनोज अपनी केबिन में बैठा मेल्स चेक कर रहा था। तभी दरवाजे पर किसी ने नाटक किया। दरवाजे पर प्रभा थी, आफिस रिसेप्सनिस्ट।
“कम इन!” मनोज ने स्क्रीन को देखते हुये ही कहा।
“Hello sir!” प्रभा ने अंदर आते ही मनोज को Greet किया, उसके होठों पर प्यारी सी मुस्कान थी।
मनोज ने स्क्रीन से नज़र उठायी। नज़रे प्रभा से मिलीं और उसके होठों के ऊपर एक तिल पर ठिठक गयीं। एक सेकेण्ड के लिये सब कुछ थम गया। जैसे किसी और दुनिया ने मनोज को अपने अंदर समाहित कर लिया। यहाँ आफिस वाला वर्कलोड नहीं था। यहाँ सुबह आफिस और शाम को घर पहुँचने की जल्दी नहीं थी। यहाँ फ्यूचर की कोई टेंशन न थी ना ही आज का गुस्सा था। हर तरफ बस फूलों की वादियाँ, ठण्डी हवायें और ढेर सारा सुकून।
मनोज समय के उस हिस्से में था जिसे जिन्दगी कहते हैं बाकी तो बस जिन्दगी है सो है।
“Sir! ये आपकी कल की मीटिंग्स की लिस्ट है” प्रभा ने एक पेपर आगे बढ़ाते हुये कहा।
मनोज का वो जिन्द़गी वाला सेकेण्ड बीत गया था। सब नजारे आँखो से ओझल हो गये। पल भर के लिये वो झेंप गया। फिर पेपर को हाथ में लेकर बोला, “Oh! Ok! I’ll see it. Thanks"
प्रभा ने बदले में एक प्यारी मुस्कान दी। मनोज की आँखे फिर उसके तिल पर गयीं पर इस बार उसने खुद को सम्भाल लिया।
प्रभा मुड़कर जाने लगी। दरवाजे पर पहुँच कर रूक गयी और मनोज से पूछा, “ Is everything alright Sir!” आप आज कुछ अपसेट लग रहें हैं।
मनोज को इस सवाल की जरा भी उम्मीद नहीं थी।
“Yes!” उसने आँखे छुपाकर जवाब दिया। जाने क्यों जब हम झूठ बोलते हैं तो हमारी आँखे हम से हाँ में हाँ मिलाने से इंकार कर ही देती हैं।
“sure सर!” प्रभा ने इस बार आँखो से सवाल कर के कहा।
“कुछ भी नहीं है। everything fine" मनोज ने दुनिया का वही झूठ दोहराया जो दुनिया के हर हिस्से में हर दिन हजारों बार बोला जाता है।
ये “कुछ भी नहीं” का जो “कुछ” है ना असल में इसमें बहुत कुछ छुपा होता है।
“ओके सर! लंच होने वाला है। आप आ रहे हैं लंच करने?” प्रभा ने पूछा
नहीं आज लंच नहीं लाया। सुबह जल्दी में निकला था। रामबाबू से कुछ मंगवाता हूँ अभी। तुम आज के प्रजेंटेशन वाली फाइल विजय से भिजवा दो।
आके सर! भिजवा देती हूँ। और सर If u don’t mind गाजर का हलवा ले आऊँ, मैंने अपने हाथों से बनाया है। आपको पसन्द भी है।
मनोज को भूख तो थी ही और ऊपर से हलवा वो भी गाजर का। मनोज ने हाँ कर दी साथ में ये भी जोड़ा कि विजय से बोलो फाइल जल्दी दे जाये। खाने के बाद मुझे निकलना होगा।
ओके सर! प्रभा बाहर चली गयी। दो मिनट बाद फिर वो मनोज के केबिन में थी हलवे के डिब्बे और भीनी भीनी मीठी खुशबू के साथ।
प्रभा ने एक प्लेट में हलवा निकाल कर मनोज को दिया और खुद भी वहीं खाने बैठ गयी।
मनोज ने चम्मच से हलवा उठाया मुँह में डाला। “बेहद स्वादिष्ट” उसके मुँह से अपने आप ही निकल पड़ा।
प्रभा के चेहरे पर लम्बी वाली मुस्कुराहट खिल गयीं। लड़कियाँ जितना अपनी तारीफ सुनना पसन्द करती हैं उतना ही अपने पाक कला की भी। दोनों रास्ते उनके दिल को पहुँचते हैं।
अगला चम्मच हलवा खाते ही मनोज फिर कहीं खो सा गया।
मनोज एक पार्क में बैठा है। चारों तरफ हरियाली है। पेड़ो के नीचे, आसपास की बेंचो पर प्रेम की नयी नयी कहानियाँ आकार ले रहीं हैं। एक लड़की गुलाबी सूट में आती है और मनोज के बगल बैठ जाती है। दोनों एक दूसरे को देख के मुस्कुराते हैं। दोनों थोड़ा थोड़ा सरककर और करीब आ जाते हैं इतना करीब जितने करीब आने से दो दिलों में एकरूपता आ जाती है। दुख और सुख एक हो जाते हैं। जहाँ किसी और चीज के लिये जगह नहीं बचती।
वो लड़की सुप्रिया थी। ये दोनों की दूसरी मुलाकात थी। मोहब्बत का वो शुरूआती दौर जब हम एक दुसरे को आत्मसात कर रहे होते हैं। जब बातें थोड़ा हिचकिचाया करती हैं। जब आँखे इशारों में बात करती है। जब अक्सर किसी सवाल का जवाब एक प्यारी मुस्कान से दिया जाता है।
सुप्रिया के हाथ में एक डिब्बा था। उस डिब्बे में था हलवा गाजर का जो सुप्रिया बड़े प्यार से मनोज के लिये लायी थी। उस दिन से मनोज को हलवा बहुत पसन्द हो गया था। हर इश्क़ करने वाले के मन में ऐसी किसी चीज से बहुत प्यार होता है। सुप्रिया ने अपने हाथों से उसे हलवा खिलाया। दोनों ने बहुत देर तक मीठी मीठी बातें की हलवे की तरह।
मनोज को इसके बाद सुप्रिया के साथ बिताया हर लम्हा याद आया। हर वादा, हर कसम याद आयी। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो हमें अपने अतीत में ले जाती हैं। जो हमें अपने से जुड़ी कहानियाँ सुनाती हैं और जो हमें अपनी गलतियों का एहसास भी कराती हैं।
“कहाँ खो गये सर!” प्रभा ने मनोज के हाथ पर हाथ रख कर कहा।
खोया हुआ मनोज फिर इसी दुनिया में लौट आया। वो अपने इस तरीके से खोने पे थोड़ा शर्माया भी।
प्रभा ने फिर पूछा,” क्या हो गया था सर?”
मनोज ने फिर से कुछ नहीं कहकर बहुत कुछ छुपा लिया। जो वो समय के छोटे से हिस्से में जी आया था।
मनोज ने जल्दी से हलवा ख़त्म किया और प्रजेंटेशन के लिये निकल गया। प्रजेंटेशन अच्छा रहा उसके बास काफ़ी इम्प्रेश हुये पर अभी मनोज पर इन बातों का कोई असर नहीं था। वो अपने अतीत से एक दिन चुरा कर लाया था अपना आज बनाने के लिये। मनोज ने बास को कल की छुट्टी के लिये मेल कर दिया।
आफिस से निकलकर वो सीधे एक दुकान पर गया जहाँ उसने सुप्रिया के लिये एक प्यारा सा ड्रेस खरीदा। एक गुलाब लिया और घर पहुँच गया।
मनोज ने बेल बजायी। सुप्रिया ने आकर दरवाजा खोला उसका मूड अभी भी कुछ खास ठीक नहीं था। दरवाजा खोलते ही उसके आँखो में एक चमक फैल गयी। होंठ खिलखिला उठे,। जैसे एक हवा के ठण्डे झोंके ने सारे गुस्से को समेट लिया हो। मनोज गेट पर घुटनों के बल बैठा था उसके हाथ में गुलाब था और गुलाब की सारी लाली सुप्रिया के गालों पर।
सुप्रिया ने गुलाब लिया साथ में एक काग़ज था। जिस पर कुछ लिखा हुआ था। सुप्रिया ने पढ़ना शुरू किया,

मेरी प्यारी सुप्रिया,

कभी-कभी हम वक़्त के जाल में खुद को इस तरह उलझा लेते हैं कि हमें अपनों के लिये ही समय नहीं मिलता। हम भूल जाते हैं हमारी प्राथमिकताओं को। मैंने भी ये भूल की है मानता हूँ, मुझे एहसास है। मैं तुम्हारे साथ ज़िन्दगी के हसीन पल जीना चाहता हूँ, खुशनुमाँ यादें बनाना चाहता हूँ। वो यादें जो किसी एलबम किसी पन्ने पर कैद नहीं होती, जो हर पल हमारे साथ होती हैं, जो सिर्फ हमारी होती हैं। मैं एक बार फिर तुम्हारे साथ उसी ओर लौटना चाहता हूँ जहाँ प्यार है, वक़्त है, अल्हड़पन है, लापरवाहियाँ हैं। जहाँ हम घड़ियों के हिसाब से नहीं चलते घड़ी हमारे हिसाब से चलती है।

तुम्हारा मनोज

सुप्रिया की आँखो में थोड़े आँसू थे जिनमें घुलकर उसका गुस्सा बह चुका था। वो मनोज के गले से लिपट गयी। वक़्त कुछ देर के लिये रूक गया। कुछ पल के लिये जिन्दगी जिन्दगी बन गयी वो जिन्द़गी जिसे जीने के लिये हम जी रहे हैं।
उस रात कई दिनों के बाद दोनों साथ मूवी देखने गये। एक रैस्टोरेंट में खाना खाया। मनोज ने सुप्रिया की पसन्द का खाना आर्डर किया था। दोनों घर लौटे तो थक चुके थे पर ये थकान परेशान करने वाली नहीं थी सुकुन वाली थी। दोनों सो गये। नींद आज नींद जैसी थी।
मनोज सुबह जल्दी उठ गया था। बाहर बालकनी में आकर खड़ा हुआ। हवाओं में नमीं थी। आसमान अभी पूरा नीला नहीं हुआ था हल्की लाली बिखरी हुयी थी। परिंदे अपने घोसलों से उड़ चुके थे। आसमान में भी और जमीन पर भी। कुछ कदमों को कहीं पहुँचने की जल्दी थी। कुछ आँखो में नींद थी। कुछ चेहरों पर रोज रोज की भागदौड़ वाली थकान। सब कुछ रोज जैसा था सबके लिये लेकिन मनोज के लिये सुबह नयी थी, वैसी जैसी सुबह होनी चाहिये। जिसमें भागने की जल्दी नहीं है एक ठहराव है। मनोज को एक सेकेण्ड के लिये आफिस याद आ गया पर उसने तुरंत आफिस की फाइल दिमाग से डिलीट की और चाय बनाने किचन में चला गया।
मनोज चाय लेकर सुप्रिया को जगाने गया। उसने सुप्रिया के माथे को प्यार से चूमा।
आज दोनों ने घूमने के कई प्लान बनाये थे खासकर उन जगहों पर जहाँ वो शादी के पहले जाया करते थे।
मनोज और सुप्रिया ने इस दुनिया से चुराकर एक दिन के लिये ही सही पर एक अलग दुनिया बनायी थी। दोनों खुश थे। बहुत खुश। बाहर दुनिया वैसी ही थी जैसी रोज होती है। हर कोई अपने हिस्से के हलवे की तलाश में था।
अभिनव सिंह “सौरभ”