शहादत Abhinav Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शहादत


शाम के 6 बज रहे हैं। श्यामलाल धीरे धीरे कदमों से घर को लौट रहे थे, घर के मोड़ पर पहुँचे तो सामने अपने द्वार पर बैठे ननकू ने टोका,’ का श्यामलाल कछु बात बनी कि नाहीं’। अपने कदमों पर नजर गड़ाये श्यामलाल ने नजर उठाकर ननकू को देखा असहमति में सिर हिलाया और पुनः सिर नीचे कर आगे बढ़ गये।
श्यामलाल उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में स्थित एक गाँव रामपुर के निवासी हैं, पेशे से किसान हैं। कहने को खेतिहर हैं चार बीघा के लेकिन उपज और लागत का अनुपात लगभग बराबर है। इसलिए मुनाफा नाम भर का जैसे तैसे घर चल जाता है। घर में पत्नी मीनादेवी, तीन लड़कियाँ राधा, सुधा और सुषमा हैं। श्यामलाल का एक लड़का भी था राहुल, दो साल पहले फौज में भर्ती हुआ था। बार्डर एरिया में पोस्टिंग थी, भर्ती के छः महीने बाद ही हुये एक आतंकवादी हमले में शहीद हो गया। इस घटना से हँसता खेलता परिवार बिखर गया। कहते हैं कि बाप हर बोझ उठा सकता है लेकिन जवान बेटे की अर्थी का बोझ नहीं। राहुल श्यामलाल की उम्मीद था, उसी की कमाई के बूते बड़ी बेटी राधा का विवाह माना था। एक बार तारीख टल चुकी है, तीन महीने बाद विवाह है। शहीद बेटे के लिये सरकार ने दस लाख मुवाअजा घोषित किया था। पिछले डेढ़ सालों से श्यामलाल इसी मुआवजे के लिये दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। रोज सुबह दस बजे पहुँच जाते हैं शाम तक इंतजार करते हैं शायद आज फाइल पर साहब के दस्तखत हो जायें पर अभी तक वह दिन नहीं आया था।

श्यामलाल घर के आँगन में बैठे फाइल उलट पलट रहे, बल्ब की रोशनी धीमी है तो नजरों पर जोर देना पड़ रहा है। मीना देवी बगल बैठी सब्जी के लिये भिण्डी काट रहीं। भिण्डी के टुकड़े करते हुये बोलीं, ‘ क्या हुआ आज साहब मिले थे कि नहीं।‘
श्यामलाल ने फाइल बंद की और लम्बी गहरी साँस लेते हुये बोले,’ नहीं जी, कहाँ? डेढ़ साल बीत गया ले दे के फाइल उनके पास पहुँची किसी तरह, तब से दो बार साहब बदल चुके हैं लेकिन फाइल जस की तस है। गिरिजा बाबू रोज कहते हैं कल करा देंगे, कल करा देंगे। पता नहीं कब करायेंगे, दस हजार गिने तब तो जा के फाइल बढ़ाये हैं। अब साहब के मन में का है साहब ही जानें। बेटा हमारा शहीद हो गया देश की खातिर और इन चोरों को खाली लूटने की पड़ी है। संवेदना नाम की कोई चीज नहीं है, एक बाप अपने बेटा की मौत का मुवाअजा लेने जाता है उसमें भी कमीशन खाना है इनको। रोज घर से निकलते हैं तो राहुल का बचपन से लेकर अभी तक का सब याद तैरने लगती है आँख में, कलेजा फटता है सोच के कि जिगर का टुकड़ा हमारा अब नहीं है इस दुनिया में और उसका पैसा के लिये चक्कर लगा रहे। करें भी तो का मजबूर हैं, अब वही सहारा है सोचा था उसी के भरोसे शादी निपट जायेगी। अपने जीते जी जो राहुल सोचा था सब बढ़िया से करेंगे, लेकिन...!’ श्यामलाल की आँखे भर आयी थीं। ये गुस्सा सब रखा हुआ था कहीं दबाकर जो आज निकल रहा था। मुवाअजा चोट पर मरहम है लेकिन चोट नासूर बन जाये तो मरहम किस काम का।
मीनादेवी उन्हें सभ्भालते हुये बोलीं,’ क्यों परेशान होते हो जी, भगवान दुःख देता है तो निकलने का रास्ता भी दिखाता है। हमें पूरा भरोसा है राधा के शादी से पहले मिल जायेगा पैसा सब, देखना सब ठीक हो जायेगा।
‘ठीक हो जाये तो अच्छा है नहीं तो अबकि तारीख न टालेगें वो लोग मना ही कर देंगे।‘ श्यामलाल धोती के कोने से आँसू पोछते हुये बोले।

दो महीने और गुजर गये अभी तक पैसा नहीं मिल पाया था। श्यामलाल रोज के तरह दफ्तर के बाहर बेंच पर बैठे अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। आज साहब से मिलने का समय मिला था। घंटी बजी चपरासी ने नाम पुकारा, श्यामलाल अंदर गये। साहब सामने बैठे थे, मेज पर फाइलों का ढेर लगा है। उनमें से ही किसी फाइल में नजरें गड़ाये थे। श्यामलाल को देख कर बोले,’ हाँ, भाई बोलो, क्या है तुम्हारा?
साहब वही लड़का हमारा शहीद हुआ था, उसी का मुवाअजा है दस लाख साहब डेढ़ साल से चक्कर लगा रहे अभी तक मिल नहीं पाया है।
‘अच्छा देख तो रहे हो, एक तुम्हारा ही काम नहीं है। ढेर लगा है, सबको जल्दी है हमें भी सबका ख्याल रखना पड़ता है। एक काम करो अगले हफ्ते आओ देखेंगे।‘ साहब तनिक अकड़ कर बोले।
‘नहीं साहब, आप जो कहिये सब मंजूर है लेकिन कर दो साहब अगले महीने बिटिया का ब्याह है। पैसा नहीं मिला तो टूट जायेगा मालिक। जवान बेटा चला गया, अब यही सहारा है। देख लो साहब कुछ कर दो।‘श्यामलाल ने याचना करते हुये कहा।
देखो श्यामलाल, हम तुम्हारी बात समझ रहे, शहीदों का सम्मान करते हैं हम। ये वीर जवान सरहदों पर डटे हैं तभी तो हम यहाँ आराम से बैठे हैं। लेकिन मेरी भी अपनी मजबूरियाँ हैं, मैं सरकार तो हूँ नहीं, नेता लोग घोषणा कर दिये, बड़े अफसरों ने आदेश दे दिया, करना हमें है वो भी सबका धर्म निभाते हुये। सबको हिस्सा भी चाहिये और अच्छा भी बनना है यहाँ लोगों को जवाब हमें देना पड़ता है। बात को समझ रहे हो ना, क्या कह रहे हैं हम?
तुम एक काम करो बाहर गिरिजा बाबू से मिल लो वो साफ साफ बता देंगे।‘ यह कहकर साहब फिर से फाइल में डूब गये।
श्यामलाल बाहर निकले कुछ सूझ नहीं रहा था। भूत की विडम्बनायें और भविष्य की सम्भावनायें सहसा से मन में उथल पुथल मचाने लगीं। बाहर निकलकर गिरिजा बाबू के टेबल पर आये और बोले,’ साहब भेजें हैं आपके पास’
गिरिजा बाबू दफ्तर के बड़े बाबू हैं, उम्र में, काम में और भ्रष्टाचार में भी। साथ अन्य लेन देन के मसले भी यही सुलझाते हैं। साल भर में रिटायरमेंट है तो भ्रष्टाचार के नो लिमिट जोन में चल रहे हैं।
‘श्यामलाल को लेकर गिरिजा बाबू बाहर आये, थोड़ा दूर ले जाते हुये बोले देखो भैया श्यामलाल डेढ़ साल से चक्कर लगा रहे ऐसे ही लगाते रहोगे। अगर चाहते हो पैसा जल्दी मिल जाये तो लाख रूपये लगेंगे। हमारा कुछ भी नहीं इसमें साहब का है और कुछ ऊपर जायेगा, लेकिन हमारी गारण्टी है कि हफ्ते भर में चेक घर पहुँच जायेगा।‘ गिरिजा बाबू ने पूरे विश्वास के साथ कलयुगीन नीति श्यामलाल को सुना दी।
लेकिन गिरिजा बाबू एक लाख कहाँ से लायेगें हम, किसी तरह तो रोजी रोटी चलती है। जहाँ उधार की उम्मीद थी वहाँ से पहले ही ले रखा है। सोचा था मुवाअजा मिलेगा तो सब चुका देंगे और अब ये लाख कहाँ से लायें।‘ श्यामलाल ने अपनी व्यथा सुना डाली।
जो भी हो भैया देना तो पड़ेगा, उसके बिना कब आयेगा पैसा कुछ नहीं पता।‘ गिरिजा बाबू ने भी बात स्पष्ट कर दी।
‘जवान बेटा मरा है गिरिजा बाबू आप भी बाल बच्चे वाले हैं आप तो हमारा दर्द समझो। शहीद बेटे के पैसे के लिये भी घूस देना पड़ेगा। ये कैसा न्याय है साहब।‘ श्यामलाल ने थोड़ा आवेश में कहा।
भाई, यही सिस्टम है। पैसे ले आओ सब काम हो जायेगा और हम कुछ नहीं कह सकते।‘ गिरिजा बाबू ने रही सही कसर भी पूरी कर दी।
निराश श्यामलाल घर को चल दिये, आँखो के सामने अँधेरा छा रहा था। पत्नी, बेटी, शहीद बेटे रह रह कर सभी की छवियां नजर आ रही थी। आजतक भरोसा था कि आज नहीं तो कल पैसा मिल ही जायेगा पर आज तो वो भरोसा भी टूटता दिख रहा था। लाख रूपये, कैसे जुगाड़ होगी इतनी बड़ी रकम, कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। चलते चलते कब घर के मोड़ पर पहुँच गये पता न चला। सामने से ननकू की आवाज कानों में गूँजी,’ का श्यामलाल कछु बात बनी’। कानों ने संदेश इन्द्रियों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचायी, मस्तिष्क ने प्रतिक्रिया मुख तक पर जिह्वा ने उस पर अमल न किया। श्यामलाल अनसुना कर आगे बढ़ गये, ननकू देखते रहे इतने दिनों में शायद यह पहला मौका था जब श्यामलाल ने उसकी बात का उत्तर न दिया हो।
घर के ओसारे में पहुँच कर श्यामलाल सामने पड़ी खटिया पर बैठ गये। सुधा ने पिता जी को देखा तो दौड़ कर माँ से बता आयी। मीनादेवी एक गिलास पानी और गुड़ लेकर बाहर आयी। आगे बढ़ाया, श्यामलाल ने सिर्फ पानी पिया और लेट गये।
गिलास पकड़ते वक्त मीनादेवी ने पूछा,’ का बात है जी आपका चेहरा काहें उतरा है।‘
श्यामलाल आँखे बंद किये लेटे रहे।
मीनादेवी ने जोर देकर पूछा,’ बोलेगें का हुआ। दफ्तर में कुछ हुआ का आज?’
नहीं कुछ नहीं। चलो खाना लगाओ बड़ी भूख लगी है।‘ श्यामलाल नजरें छुपाते हुये बोले।
अपने अंदर अंधक रही व्यथा की असीम ज्वाला के ताप से वो पत्नी और बच्चों को दूर ही रखना चाहते थे।
मीनादेवी ने भी दुबारा कुछ पूछना उचित नहीं समझा, उठ कर रसोईघर की ओर चल पड़ी।
खाना लग गया। सभी ने खाना खाया। श्यामलाल ने भी बेमन से रोटी तोड़ी और फिर चुपचाप सोने को चले गये।
घर के बाहर खाट पर लेटे श्यामलाल, अन्नत नील गगन को निहार रहे थे। नींद का दूर दूर तक कोई पता न था। स्वच्छ आकाश, रात को रजनी की संज्ञा देती चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणें श्यामलाल को और अँधेरे में धकेल रहीं थी। ये चमकते हुये सितारे, ‘ मेरा राहुल भी इनमें कहीं होगा’, नहीं वह तो माँ भारती पर न्यौछावर हुआ है उसे तो देवताओं के साथ स्थान मिला होगा।‘ तरह तरह के विचार मन में चल रहे थे। शादी का ख्याल आते ही मन सिहर जाता अभी तो कुछ भी तैयारियाँ नहीं हुयी हैं। कुछ गहने बनवाये हैं वो भी उधार सूद बढ़ रहा है, पैसे नहीं मिलेंगे तो कैसे चुकाउँगा। हलवाई, टेन्ट सब वायदे पर ही हैं कुछ बयाना न दिया तो मना न कर दे सारी इज्जत चली जायेगी। तैयारियाँ सही न हुयीं तो बाराती अलग मुँह फुलायेगें मेरी गलती के बदले राधा को ससुराल में ताने सुनने होंगे। इतना सब कैसे होगा सब खेत गिरवी पड़े हैं, कहाँ से प्रबन्ध होगा।‘ श्यामलाल चिताओं के सागर में डूबता जा रहा था। हृदय की धडकनें बढ़ती जा रहीं थी उससे भी तेज बढ़ रही थी चिंता। अचानक हृदय में दर्द उठने लगा। आँखो के सामने राहुल, राधा सभी की यादें तैर रहीं थी। बीच बीच में साहब और गिरिजा बाबू का चेहरा नजर आता था। दर्द बढ़ रहा था, श्यामलाल कराहने लगे। आवाज मीनादेवी को सुनायी दी वो दौड़ती हुयी बाहर आयीं। श्यामलाल पेट के बल लेटे जोर जोर से सांसे ले रहे थे। जोर लगाकर उन्हें सीधा किया, उनका एक हाथ सीने पर था जिससे पूरी ताकत से उन्होंने अपने सीने को दबा रखा था। पूरा शरीर पसीने से लथपथ था।
मीनादेवी घबरा कर चिल्लाने लगीं, बगल से सुरेश दौड़ आये।तीनों लड़कियाँ भी निकल कर आ गयीं। दो चार गाँव वाले और भी इकट्ठा हो गये।
सुरेश भैया देखो का हुआ है। ऐसे काहें कराह रहे, अभी तो खा पी के लेटे ठीक थे।‘ मीनादेवी बिलखते हुये बोलीं।
काकी हार्ट अटेक है।हाँ पक्का वही है। सुन मन्नू जा दौड़ के दीनानाथ को बुला और कह देना गाड़ी लेकर आयें। श्यामलाल काका को अटेक आया है अस्पताल जाना है।‘ सुरेश ने स्थिति को परखते हुये कहा।
मन्नू, जो पड़ोस के रामदीन का नाती था तुरंत जा कर दीनानाथ को बुला लाया। दीनानाथ शहर के एक अधिकारी की प्राइवेट गाड़ी चलाते थे। आना जाना रहता तो गाड़ी घर ही ले आते। सुख दुख में मालिक से चुपके साथी संगी के काम आ जाती थी।
मन्नू की गुहार सुनते ही दीनानाथ चाभी ढूँढे और फौरन गाड़ी लेकर श्यामलाल के घर पहुँच गये। सभी श्यामलाल को घेरे खड़े थे। दीनानाथ को देखते ही सुरेश ने सबको हटने को कहा। तीन चार लोगों ने मिलकर श्यामलाल को उठाया और गाड़ी की बीच वाली सीट पर लिटा दिया। सुरेश, मीनादेवी और राधा भी बैठे, दीनानाथ ने गाड़ी भगायी।
बीस मिनट में अस्पताल पहुँच गये। कुछ लोगों से मदद लेकर सुरेश ने दीनानाथ को उतारा, स्ट्रेचर आ गया था, उसपे लिटाया।श्यामलाल को अस्पताल के अंदर इमर्जेंसी वार्ड में ले आये। यहाँ जिस डाक्टर की ड्यूटी थी वो नदारद थे। आनन फानन में फोन हुआ डाक्टर आये। डाक्टर साहब को देखकर लग रहा था नींद से उठकर आये हैं। खैर पहुँचते ही उन्होंने अपना आला निकाला और श्यामलाल के सीने पर लगा दिया। मीनादेवी की धडकनें बढ़ी हुयीं थी, आँखो से निरंतर अश्रु धारा प्रवाहमान थी। मन सशंकित हो रहा था, अनहोनी का डर सता रहा था। मन ही मन भगवान की प्रार्थना में लगी थीं। हे! प्रभु, अब और कष्ट ना सह पाऊँगी। बेटे को पहले ही छीन कर माँ की गोद सूनी कर चुके अब सुहाग मत छीनो वरना मैं जीवित ना रह पाऊँगी। किन्तु नियंता के समक्ष प्रार्थना विफल हो जाती है। डाक्टर साहब ने दो-तीन मिनट धडकनें सुनी, नब्ज टटोली आँखो की पुतली देखी और अंततः एक गहरी साँस लेते हुये बोले,’अब कोई फायदा नहीं। ये अब नहीं रहे।‘
ये शब्द एक तीखी धार वाली तलवार की भांति मीनादेवी के हृदय को भेद गये। सिसकियाँ अब चित्कार में बदल गयीं थी। भय, आशंका हकीकत में। राधा स्तब्ध थी चेहरा सूखा हुआ भरोसा नहीं हो पा रहा था कि उसका पिता उसके जीवन का वह वट-वृक्ष जिसने हर धूप में उसे अपनी छाँव दी आज गिर पड़ा है। दो और बच्चियाँ घर पर इस बात से अंजान थी कि उनके जीवन में अंधकार छा गया है।
कभी कभी नियति की क्रूरता पाषाण हृदय को भी विचलित कर देती है। आज यहाँ कुछ ऐसे ही दृश्य थे। सुहाग के लिये प्रार्थना करती एक पत्नी, पिता की हालत पर बिलखती एक जवान बेटी चन्द घंटों पहले तक जिसकी आँखो में विवाह के सुंदर स्वप्न थे। एक पिता जो अचेत पड़ा है, हारा हुआ है, लेकिन किससे बेटे की शहादत जिसे विचलित नहीं कर सकी वह इतना कमजोर कैसे हो सकता है। श्यामलाल परिस्थितियों से नहीं हारा सिस्टम से हार गया। अपने बेटे जिसके नाम के आगे शहीद शब्द सुनकर वह गर्व से फूल उठता था उसकी शहादत पर हो रहे व्यापार से हार गया। मुआवजों से शहीद वापस नहीं आते बस परिवार को एक सहारा मिल जाता है एक बैसाखी जिसके सहारे आगे का जीवन रोते गाते कट सकता है। भ्रष्टाचार ने श्यामलाल की उस बैसाखी को भी तोड़ दिया था।

इस घटना को साल भर बीत गये। समय सर्वश्रेष्ठ दवा है गहरे से गहरे घाव भर देता है, हाँ कुछ घावों की छाप कभी नहीं मिटती। थोड़ा सा कुरेदने पर फिर से हरे हो जाते हैं। मीनादेवी भी ऐसे ही घाव के साथ जीना सीख चुकी थीं। श्यामलाल के बाद खेती बाड़ी उधार चुकाने में चली गयी। गाँव वालों ने बड़ी मदद की चन्दा लगाकर एक सिलाई मशीन दिला दी। सिलाई कढ़ाई कर के घर चलाने लगीं। रिश्तेदारों ने संवेदना दिखायी तो राधा का विवाह मंदिर में सम्पन्न हो गया। दो बच्चियाँ अभी पढ़ रही हैं।
दोपहर का समय चिलचिलाती धूप एक आदमी साईकिल पर झोला टाँगे खाकी कपड़े में ननकू के घर के सामने रूका। ननकू बाहर ही थे तो उनसे ही पूछा,’ दादा ये श्यामलाल जी का घर कौन सा है।‘ ननकू ने खानी रगड़ते हुये बड़ी ध्यान से उसे देखा और पूछा, ‘ डाकिया हो?’
हाँ, श्यामलाल की कोई चिट्ठी है वही पहुँचानी है।‘ डाकिया गमछे से पसीना पोछते हुये बोला।
भैया श्यामलाल को गुजरे तो साल भर हो गया। पत्नी है अब तो यही से सीधे जाओ वो आखिरी घर है, नीम के पेड़ के पास।‘ ननकू ने उत्तर दिया।
अच्छा, धन्यवाद दादा।‘ डाकिया ने इतना कहकर साइकिल बढ़ा दी।
साईकिल अबकी श्यामलाल के घर के सामने रूकी। मीनादेवी सिलाई मशीन पर बैठी कुछ सिल रहीं थी। डाकिये को देखा तो खड़ी हो गयीं।
ये श्यामलाल जी का घर है।‘ डाकिये ने उन्हें देखते हुये पूछा।
हाँ, क्या हुआ।‘ मीनादेवी थोड़ा हिचकते हुये बोलीं।
एक चिट्ठी है। लीजिये यहाँ साइन कर दीजिये।‘ डाकिये ने चिट्ठी निकाली और मीनादेवी की ओर बढ़ा दी।
मीनादेवी ने चिट्ठी पकड़ी और डाकिये से कलम लेकर काँपत हुये अक्षरों में अपना नाम लिख दिया।
क्या है इसमें? मीनादेवी ने कलम वापस करते हुये पूछा।
देख लीजिए। हमारा काम तो बस पहुँचाना है।‘ डाकिये ने इतना कहकर साइकिल घुमाती और निकल गया।
मीनादेवी ने चिट्ठी को ध्यान से देखा। ऊपर से सभ्भालते हुये फाड़ा। अन्दर दो कागज थे। दोनों निकाल कर देखा।
उनके हाथ अचानक काँपने लगे। होंठ सूखने लगे। बगल रखी काठ की कुर्सी पर बैठ गयीं।
आँखो से आँसूओं की धार निकलने लगी। एक बूँद ऊपर वाले मोटे कागज पर पड़ी। यह उसी मुवाअजे का चेक था। दस लाख रूपये मात्र। साथ में एक और कागज था जिसपर ऊपर बीच में एक निशान बना था। नीचे लिखा था,’महोदय,” आपका बेटा देश का गौरव है। उसकी शहादत यह देश हमेशा याद रखेगा।.........आगे पढ़ना मुश्किल था आँखो में आँसू थे शब्द धुँधले हो गये थे लेकिन यादें स्पष्ट, घाव फिर हरा हो गया था।
मीनादेवी ने चेक को बगल अलमारी में रख दिया, दूसरे कागज को मरोड़ कर दूर खेतों की तरफ फेंक दिया और फिर सिलाई करने बैठ गयीं।