आधा आदमी - 34 - अतिम भाग Rajesh Malik द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आधा आदमी - 34 - अतिम भाग

आधा आदमी

अध्‍याय-34

‘‘मैं तुम लोगों से बड़ा नंगा हूँ.‘‘

जब मुझसे बर्दास्त नहीं हुआ तो मैंने उसका ढोगल ख्पोता, हाथ में लपेट लिया।

‘‘बहन जी छोड़ दीजिए.‘’ सज्जन ने आकर विनती की।

मैंने कहा छोडूँगी तब जब 5100सौ लूँगी। दीपिकामाई ने ताली बजाई। लग रहा था जैसे वह एक्ंिटग नहीं नेचुरल में बधाई ले रही हैं।

इसी बीच ज्ञानदीप का सेलफोन बजा। उसने उठकर हैलो कहा और सारी बात सुनने के बाद उसने आँधे घँटें में पहुँचने को कहा। सेलफोन रखते ही ज्ञानदीप ने डायरी के पन्ने निकालकर दीपिकामाई को दिए।

‘‘बस यही तक थी हमारे जीवन की कहानी जो तुम्हें मैंने दे दी। आगे अब अल्ला मालिक हैं.”

ज्ञानदीप चरण-स्पर्श करके चला आया था।

ज्ञानदीप उसी रात लिखने बैठ गया। लगभग छः महीने की कड़ी मेहनत के बाद उसने आधा आदमी उपन्यास मुकम्मल किया। और उसे प्रकाशिन होने के लिए प्रकाशक के पास भेज दिया।

एक महीने में दीपिकामाई की जैसे काया ही बदल गई थी। दिन पर दिन उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। डाॅक्टर के अनुसार उनका शुगर लेबल बढ़ा हुआ था। एक-एक करके सारे चेले उन्हें छोड़कर चली गई थी। ड्राइवर और इसराइल का भी कुछ अता-पता नहीं था। दीपिकामाई को उठने-बैठने में काफी दिक्कत हो रही थी।

कहते हैं वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। कभी यहाँ महफिल सजती थी आज यहाँ वीरान हैं। जितने भी उनके संगी-साथी थे सभी ने, यहाँ तक आस-पड़ोस के लोगों ने भी उनसे मिलना-जुलना बंद कर दिया था।

समाज की इस बेरूखी ने उनके अंदर जीने की ललक ही खत्म कर दी थी। हद तो तब हो गई जब उनका एक-एक सामान उनके चेले और संगी-साथी उठा ले गई। यहाँ तक उनका सेलफोन तक नहीं बख़्शा। भगवान इतने बुरे दिन किसी को न दिखाये। दूसरों का पेट भरने वाली दीपिकामाई आज स्वयं एक-एक दाने को तरस रही थी।

हिजड़ाऽऽऽऽऽऽ हिजड़ाऽऽऽऽऽऽ हिजड़ाऽऽऽऽऽऽ

ज्ञानदीप ट्यूशन पढ़ाकर जब रात को घर लौटा तभी उसे पड़ोसी से एक लिफाफा मिला। उसने खोलकर देखा तो उसमे एक किताब थी। आधा आदमी को देखकर वह खुशी से फूला नहीं समाया। पहले उसने किताब को माथे से लगाकर ईश्वर का शुक्रिया अदा किया। फिर उसने सेलफोन उठाकर दीपिकामाई को काँल किया। पर जवाब न मिलने के कारण उसने झल्लाकर सेलफोन रख दिया।

अब वह सुबह के इंतज़ार में था कि कितनी जल्दी सुबह हो और वह दीपिकामाई के घर जा पहुँचे। मगर उसका बावलापन यह जरा भी मनाने तैयार नहीं था। रह-रहकर उसका मन दीपिकामाई की तरफ उचट जाता।

अंतत थकहार वह लेट गया। रात काफी हो चुकी थी। मगर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। वह बार-बार किताब को देखे जा रहा था। उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

दीपिकामाई के घर के अंदर और बाहर भीड़ लगी थी। भीड़ को चीरता हुआ ज्ञानदीप जब अंदर पहुँचा तो दीपिकामाई की लाश को देखकर वह हक्का-बक्का रह गया। उसके हाथ से किताब छुटकर नीचे गिर गई। उसे लगा जैसे वह अभी चक्कर खा के गिर पड़ेगा। मगर उसने किसी तरह अपने आप को संभाला और भारी कदमों से लाश की तरफ बढ़ गया। दीपिकामाई के मुँह और नाक में मक्खियाँ भरी थी। यह सब देखकर ज्ञानदीप की आँखें छलक आई। उसने पास पड़ी चादर से दीपिकामाई को ढक दिया और उनके पैर पकड़कर फफक पड़ा।

‘‘का हुवा?‘‘ भीड़ में से एक ने पूछा।

‘‘अरे उ हिजड़वा मर गवा.‘‘ महिला ने ऐसे कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो।

‘‘चलव इही बहाने मुहल्ले से गंदगी तो साफ हुई.‘‘

‘‘सही कहत हव भइया.‘‘ महिला के एक-एक लफ़्ज़ ज्ञानदीप के कान में भाले की भाँति जा चुभे।

ज्ञानदीप ने पलट कर देखा तो कोई और नहीं, वह वही महिला थी जो दीपिकामाई से अपने बच्चे की दवा के लिए पैंसे माँगने आई थी। आज उसका यह रूप देखकर ज्ञानदीप हतप्रभ था।

एक-एक करके भीड़ में से कई आवाज उठ रही थी, ‘‘अब जादा सोचव न, चलव उठाव इकी ल्हाश अउर उठाई के पटरी के उ पार फेक देव.‘‘

‘‘जब तक जिन्दा रही तब तक पूरा मुहल्ला गंधवाये रही.‘‘

‘‘चच्चा सही कहत हय.‘‘ तहमत वाले लड़के ने मसाले की पुड़िया मुँह में फाकते हुए कहा।

एक-एक करके कई लोग लाश की तरफ बढ़े। तभी ज्ञानदीप ने उन्हें रोका, ‘‘रूक जाइये आप लोग, यह क्या कर रहे हैं?‘‘

‘‘के हव तुम? नाटे कद वाले ने आँखे तरेर कर पूछा।

ज्ञानदीप इससे पूर्व कुछ कहता कि चेचक दाग वाला वहशी मुस्कान लेकर बोला, ‘‘अउर के होइय्हे, होइय्हे इहीं का कोई चाहे वाला, अउर वइसे भी हिजड़े के एक भतार तो होत नायी.‘‘

वक्त की नजाकत को देखते हुए ज्ञानदीप क्रोध के घूँट को पी गया था। यह वही लोग थे जो कभी दीपिकामाई के आप-पास मंडराते थे। जिनकी छत्र-छाया से इनके घर चलते थे। इनमें से कितने लोग तो ऐसे थे जिनके घर की बेटियों की दीपिकामाई ने शादी करवायी थी। किसी की मज़ाल थी जो बगैर इजाजत उनके कमरे में चला जाए।

वहाँ खड़े लोग तरह-तरह की टिप्पणी कर रहे थे, ‘‘अईसा हय जादा बकचैदी करेय से कउनौ फाइदा नाय हय, हिजड़ेन का तो अल्ला भी माफ नाय करत हय। जित्ती जल्दी होय सके उठाये के इहाँ से फेकव.‘‘

‘‘आप तो मौलवी हैं, अगर आप ही इस तरह की बात करेंगे तो इन पर क्या असर पड़ेगा?‘‘

ज्ञानदीप ने समझाया।

‘‘अबे मादरचोद, तेरी हिम्मत कैसे हुई मौलवी साब से जवाब-तलब करने की.‘‘ चपटी नाक वाले ने ज्ञानदीप का गिरहेबान पकड़ा।

अगर ज्ञानदीप चाहता तों वह भी गाली-गलोच कर सकता था मगर नहीं, क्योंकि इस वक्त गाली से कही ज्यादा जरूरी थी दीपिकामाई की लाश।

मौलवी के कहते ही चपटी नाक वाले ने ज्ञानदीप को वर्निग देकर छोड़ दिया।

मगर ज्ञानदीप कहा मानने वाला था। उसने हाथ जोड़कर विनती की, ‘‘भगवान के लिए रूक जाइये आप लोग, आख़िर इनका दोष क्या हैं? जो आप सब इनके साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हैं, अरे ऐसा बर्ताव तो कोई अपने दुश्मन के साथ भी नहीं करता। इन्होंने तो हमेशा आप लोगों की मदद ही की.‘‘

‘‘तो तुहार कहे का मतलब का हय, हम लोग ई हिजड़े की ल्हाश का पूजी.‘‘

‘‘आप लोग समझते क्यों नहीं, जैसे हम लोग अपने-अपने धर्म अनुसार जलाते और दफनाते हैं......।‘‘ इससे पहले ज्ञानदीप अपनी बात पूरी करता कि मौलवी ने बीच में टोका, ‘‘हिजरे-मेहरेन के लिये क्राबिस्तान म कउनौ जगह नाय हय.‘‘

‘‘श्मशान घाट में तो है.‘‘ ज्ञानदीप का इतना कहना क्या था कि चैधरी के तन-बदन में आग लग गई। उसने आँखें तरेर कर ज्ञानदीप को घूरा,

‘‘तुहार हिम्मत कईसे हुई श्मशान घाट कहने की.‘‘

धीरे-धीरे भीड़ उग्र होती जा रही थी। भीड़ को संभालना ज्ञानदीप के बस में नहीं था। उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो गई थी। मगर भीड़ थी जो लाश की तरफ बढ़ती जा रही थी।

‘‘मैं। आप के आगे हाथ जोड़ता हूँ छोड़ दीजिए इन्हें........।‘‘ ज्ञानदीप गिड़गिड़ाया।

तभी टोपी वाले ने ज्ञानदीप को धकेल दिया। वह गिरते-गिरते बचा। भीड़ ने चारों तरफ से लाश को घेर लिया। जैसे ही लोग लाश को उठाने वाले थे वैसे ही आँधी का तेज झोंका आया। जो जहाँ था वही थम गया। न जाने कहाँ से उड़कर अनगिनत पत्ते आए और दीपिकामाई की छाती से लिपट गए।

तभी लाश के पास पड़ी किताब के पन्ने ऐसे फड़फड़ाने लगे जैसे दीपिकामाई पढ़ रही हो। वैसे ही टप से बूँदें किताब के अंतिम पेज पर गिरी। ऐसा लगा जैसे वह बूँदें नहीं, दीपिकामाई के आँसू हैं।

थोड़ी देर बाद आँधी थम गई।

वहाँ खड़े लोग लाश को उठाने लगे। कोई लाश के हाथ पकड़े था, कोई पैर। वे लोग लाश को झुलाते हुए ले जाने लगे। बच्चे इस तरह से हा-हू कर रहे थे जैसे कोई तमाशा हो रहा हो।

ज्ञानदीप ने तेजी से आगे बढ़कर मौलवी के पैर पकड़ लिये, ‘‘चच्चा ऐसा बर्ताव तो कोई जानवर की लाश के साथ भी नहीं करता.‘‘

किसी ने पीछे से ज्ञानदीप को लात मारी वह मुँह के बल जा गिरा। उसका होंठ फट गया था। पर उसने अपने खून की प्रवाह न करके तेजी से लाश की तरफ भागा।

तमाशाई भीड़ अपने-अपने छतों, दरवाजों और खिड़कियों पर ऐसे जुटी थी जैसे कोई जुलूस निकल रहा हो।

बच्चो का हुजूम चिल्लाता जा रहा था, ‘‘हिजड़ा-हिजड़ा-हिजड़ाऽऽऽऽऽऽऽ’’

कुत्ते भीड़ पर भौंक रहे थे। जैसे कह रहे हो छोड़ दो मेरी माई को.....।

गायें-बकरियाँ चिल्ला रही थी, वे सब रस्सीयों को तोड़ देना चाहती थी। अगर उनका बस चलता तो वे भीड़ को दिखा देती कि उनके होते हुए उनकी माई को कोई नहीं ले जा सकता। मगर वे सब बेबस-लाचार थी।

ज्ञानदीप एक-एक आदमी के आगे हाथ-पैर जोड़ रहा था। मगर लोग बजाय उसकी सुनने के, उल्टे उस पर ही टूट पड़े।

फिर क्या था। एक नहीं, दो नहीं, तीन नही अनगिनत हाथ-पैर ज्ञानदीप पर बरसने लगे। वह चीख़ता-चिल्लाता रहा। पर भीड़ के शोर-शराबे के आगे उसकी आवाज दब गई। ज्ञानदीप गली के बीचोबीच मूच्र्छित पड़ा था। पास खड़ा एक कुत्ता ज्ञानदीप को भौंक-भौंक कर जैसे उठा रहा हो।

राजेश मलिक

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